चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा
अनुवाद एवं प्रस्तुति: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी
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मेरे विवाह, (जनवरी 29, 1839), और अपर गॉवर स्ट्रीट में रहने से लेकर 14 सितम्बर 1842 को लन्दन छोड़कर डॉउन में बसने तक :
[अपने सुखद वैवाहिक जीवन और अपनी संतानों के बारे में लिखने के बाद, वे लिखते हैं।]
लन्दन में तीन साल और आठ महीने रहने के दौरान मैंने वैज्ञानिक कार्य बहुत कम किया, हालांकि जितनी मेहनत मैंने इस दौरान की थी वह अपने जीवन में इतनी ही समयावधि में फिर कभी नहीं की। इसका कारण बार-बार की बीमारी और लम्बी तथा गम्भीर बीमारी का एक झटका लगना रहा। जब मैं थोड़ा खाली होता था तो ज्यादातर समय कोरल रीफ्स' पर लगाता था। इसका लेखन मैंने अपनी शादी से पहले शुरू किया था और इसका आखिरी प्रूफ मैंने 6 मई 1842 को पढ़ा। वैसे तो यह पुस्तक छोटी-सी थी, लेकिन इसमें मेरी बीस माह की मेहनत लगी, क्योंकि मुझे प्रशान्त महासागर के द्वीपों पर सभी लेख पढ़ने और कई चार्ट देखने पड़े। इस पुस्तक को कई वैज्ञानिकों ने उच्च स्तरीय बताया और मैं समझता हूं कि इसमें दिए गए सिद्धान्त अब अपनी जगह बना चुके हैं।
मैंने अपना कोई भी काम इतने तर्कपूर्ण ढंग से शुरू नहीं किया था जितना कि यह, क्योंकि समूचा सिद्धान्त दक्षिण अफ्रीका के पश्चिमी तट पर मूंगे की भित्ति देखने के बाद ही निर्धारित हुआ था। अब जीवित भित्तियों को देखकर इसमें कुछ सत्यापन और संशोधन बाकी थे। पर इसी बीच मैं दक्षिण अमरीका के भू-भाग के सविरामी उठान से वहाँ के समुद्र तट पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन कर रहा था। साथ ही, वनों के नष्ट होने और तलछट के जमाव का अध्ययन भी जारी था। इससे मैं प्रेरित हुआ कि अधोगमन के प्रभाव पर भी कुछ लिखूं, क्योंकि यह अनुमान लगाना आसान था कि मूंगों के ऊपर उठते जाने से तलछट पर मिट्टी जमती चली गयी होगी। इसके लिए मैंने उपरोधी-भित्तियों और प्रवालड़द्वीप (मूंगे के द्वीप) के निरूपण का सिद्धान्त व्यक्त किया था।
लन्दन में रहने के दौरान मैंने मूंगा भित्तियों के अलावा जिओलोजिकल सोसायटी में इरेटिक बाउल्डर्स ऑफ साउथ अमेरिका, भूकम्प और दि फार्मेशन बाय द एजेन्सी ऑफ अर्थवार्म्स ऑप माउल्ड पर भी लेख पढ़े। मैं जूलॉजी ऑफ दि वायज ऑफ दि बीगल के प्रकाशन की देखरेख भी कर रहा था। यही नहीं, द ओरिजिन ऑफ स्पीशिज से जुड़े तथ्यों का संकलन भी मैंने रोका नहीं था। जब मैं बीमारी के कारण कुछ और नहीं कर पाता था तो बस यही करता रहता था।
सन 1842 की ग्रीष्म ऋतु में थोड़े अरसे के लिए शरीर में थोड़ी ताकत महसूस की तो नार्थ वेल्स की यात्रा पर निकल पड़ा ताकि यह जान सकूं कि बड़ी-बड़ी घाटियों को पानी से भर देने वाले पुराने ग्लेशियरों का क्या प्रभाव पड़ा। फिलास्फिकल मैगजीन में जो लेख मैंने पढ़ा उस पर एक संक्षिप्त आलेख भी मैंने प्रस्तुत किया। इस यात्रा में किसी पर्वतमाला पर चढ़ने या घूमने का काम मैंने आखिरी बार किया क्योंकि इसके बाद मेरा शरीर इतना मज़बूत नहीं रह गया था कि भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के लिए ज़रूरी दूरियां तय कर सकूं या पहाड़ों पर चढ़ सकूं।
लन्दन में जितना जीवन मैंने गुज़ारा, उसके शुरुआती दिनों में शरीर में इतना दम-खम था कि मैं जनरल सोसायटी में जा सकूं। मैं कई वैज्ञानिकों तथा अन्य सुप्रसिद्ध या अल्प-प्रसिद्ध लोगों से मिला। यहां मैं उनमें से कुछ का ज़िक्र करूंगा, हालांकि उनके विषय में ज्यदा कुछ नहीं कहना है।
अपनी शादी के पहले और बाद में मेरा लेयेल से सबसे ज्यादा मिलना-जुलना रहा। मुझे ऐसा लगता है कि उसका दिमाग काफी सुलझा हुआ था। उसकी स्पष्टतवादिता, सजगता, विवेकशीलता और उसके लेखों में मौलिकता, इन सबसे तो यही प्रकट होता था। मैं भूविज्ञान के बारे में जब भी उसके लेखों के बारे मे कोई टीका-टिप्पणी कर देता था तो वह तब तक चैन नहीं लेता था जब तक कि सारे मामले को फिर से न देख ले और कई बार मुझे भी पहले के मुकाबले अधिक ध्यान देते हुए देखना पड़ जाता था। वह मेरे सभी सुझावों पर हर सम्भव प्रतिवाद करता और सभी तर्क खत्म हो जाने के बावजूद काफी समय तक संदेह से घिरा रहता था। उसकी दूसरी विशेषता थी अन्य वैज्ञानिकों के काम के साथ उसकी हार्दिक संवेदना।
बीगल की यात्रा से लौटने के बाद मैंने मूँगा-भित्तियों के बारे में अपने विचार उसे बताये। हालांकि मेरे विचार उससे अलग थे, लेकिन जिस मनोयोग से उसने मेरी बातें सुनीं उस पर मैं हैरान था। विज्ञान में उसकी रुचि बड़ी प्रबल थी, और मानव-मात्र की प्रगति के बारे में उसके बड़े नेक विचार थे। वह बड़ा ही दयालु और धार्मिक विश्वासों या कुछेक अविश्वासों को लेकर पूरी तरह से उदार था; लेकिन था वह पक्का आस्तिक और बड़ा ही निष्पक्ष। लैमरिक के विचारों का विरोध करने के कारण उसे बड़ी ख्याति मिली थी। लेकिन बुढ़ापे में उसने डीसेन्ट थ्योरी को अपनाया और अपने चरित्र की इसी विशेषता का परिचय दिया।
एक बार जब मैं उसके साथ इस बात की चर्चा कर रहा था कि भूवैज्ञानिकों का पुराना सम्प्रदाय उसके विचारों से सहमत नहीं है, तो इसी सिलसिले में मैंने कहा था कि, `क्या ही बेहतर हो कि प्रत्येक वैज्ञानिक साठ साल का होते ही चल बसे, क्योंकि इसके बाद वह हर नए सिद्धान्त का विरोध ही करता रहता है।' यही बात याद कराते हुए उसने मुझसे कहा कि अब उसे जीने की अनुमति दी जा सकती है।
भूविज्ञान अब तक हुए सभी वैज्ञानिकों का जितना ऋणी लेयेल का है, उतना शायद किसी और का नहीं, ऐसा मेरा मानना है। जिस समय मैं बीगल की यात्रा पर जाने की तैयारी कर रहा था, तो हेन्सलों उस समय अन्य भूवैज्ञानिकों की ही तरह से सोपानिक जल-प्रलय में विश्वास करते थे। उन्होंने मुझे सलाह दी थी कि मैं दि प्रिन्सिपल्स का पहला खंड पढ़ लूं, यह बस, तभी प्रकाशित ही हुआ था। लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि उस पुस्तक में बताए विचारों को मैं स्वीकार करूं, ये ज़रूरी नहीं है। लेकिन अब देखें तो कोई भी दि प्रिन्सिपल्स के बारे में कितने अलग विचार व्यक्त करेगा। मुझे याद करके गर्व हो रहा है कि वेरदे अन्तरीप के द्वीप-समूहों में सेन्ट जेगो नामक जगह थी जिसका मैंने पहली बार भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण किया था, और इसी स्थान पर लेयेल के विचारों की अद्वितीय श्रेष्ठता सिद्ध हो गयी थी। इस तरह के विचारों का समर्थन किसी और किताब में मुझे नहीं मिला।
लेयेल की कृतियों का जोरदार प्रभाव फ्रांस और इंग्लैन्ड में विज्ञान की अलग-अलग प्रगति पर साफ तौर पर देखा जा सकता है। इस समय एली डी ब्यूमान्ट की मूल कल्पना व्यक्त हुई थी - क्रेटर्स ऑफ एलिवेशन एन्ड लाइन्स ऑफ एलिवेशन (जिसके लिए सेडविक ने जिओलॉजिकल सोसायटी में तारीफों के पुल बांध दिए थे) में - आज इसे लगभग भुला दिया गया है, इसका श्रेय भी लेयेल को ही जाता है।
मेरा परिचय राबर्ट ब्राउन से भी था। होम्बाल्ड उन्हें प्रिन्सेप्स बोटानिकोरम की प्रतिकृति कहते थे। अपने अन्वेषणों की बारीकी और परिशुद्धता के लिए उनका बहुत नाम था। उनका ज्ञान बहुत ही व्यापक था, और सब कुछ उनके साथ ही काल के गर्त में समा गया, क्योंकि इस बात से वे बहुत डरते थे कि कहीं कोई गलती न हो जाए। उन्होंने मुझ पर अपने ज्ञान की वर्षा बिना भेदभाव के की, लेकिन कई बातों में वे मुझसे ईर्ष्या भी करते थे। बीगल की यात्रा से पहले मैं तीन बार उनसे मिलने गया। एक बार उन्होंने मुझे सूक्ष्मदर्शी के नीचे कुछ दिखाया और पूछा कि मैंने क्या देखा। मैंने बता दिया कि क्या देखा और मुझे पूरा विश्वास है कि किसी वनस्पति कोशिका में प्राण द्रव्य की अनोखी धाराएं बह रही थीं। जब मैंने पूछा कि यह क्या था, तो वे बोले, `यह मेरा छोटा-सा रहस्य है।'
उनके क्रियाकलापों में भी उदारता झलकती थी। अपने बुढ़ापे में, जब वे दौड़-भाग के लायक नहीं रह गए थे तो भी (हूकर ने मुझे बताया था) वे काफी दूर रहने वाले अपने नौकर के पास जाकर (जो इन्हीं के सहारे था) उसका हालचाल पूछते और उसे कुछ-न-कुछ पढ़कर सुनाते। यह किसी भी प्रकार के वैज्ञानिक में हार्दिक कंगाली या ईर्ष्या पैदा करने के लिए काफी है।
मैं कुछ ख्याति प्राप्त लोगों का भी जिक्र करूँगा जिनसे मैं यदा-कदा मिलता रहता था, लेकिन उन सबके बारे में ज्यादा कुछ लिख न पाऊंगा। मेरे मन में सर जे हर्शेल के प्रति अगाध श्रद्धा थी। आशा अन्तरीप पर उनके सुन्दर घर और बाद में उनके लन्दन स्थित घर पर भोजन करके मैं अति प्रसन्न होता था। वे ज्यादा नहीं बोलते थे, लेकिन जितना भी बोलते थे वह सब सुनने लायक होता था।
एक बार मैं नाश्ते के समय सर आर मर्चिसन के घर पर मैं मशहूर हम्बोल्ड से भी मिला। उन्होंने भी मुझसे मिलने की इच्छा जाहिर करके मुझे इज्जत बख्शी थे। मैं उन जैसे महान व्यक्ति से मिल कर थोड़ा निराश हुआ। शायद मैं कुछ ज्यादा ही उम्मीदें लगा बैठा था। अपनी इस मुलाकात के बारे में मुझे ज्यादा कुछ याद नहीं, बस इतनी ही बात याद है कि हम्बोल्ड बहुत खुश-मिजाज़ और बातूनी थे।
इससे मुझे याद आती है बंकल की, जिनसे मैं हेन्सलो वेजबुड के घर पर मिला था। बंकल ने तथ्यों के संग्रह का जो तरीका अपनाया हुआ था, उससे मैं काफी प्रभावित हुआ। उन्होंने मुझे बताया कि जो भी किताब वे पढ़ते थे, उसे खरीद लेते थे और हरेक के साथ उन तथ्यों की सूची बना कर लगा देते थे जो उन्हें बाद में उपयोग में आने लायक लगते थे। उन्हें यहाँ तक याद रहता था कि किस किताब में उन्होंने क्या पढ़ा था। मैंने उनसे पूछा कि वे यह पता कैसे लगा लेते हैं कि कोई तथ्य बाद में उपयोगी रहेगा। इस पर उनका जवाब था कि उन्हें पता नहीं, लेकिन कोई नैसर्गिक प्रवृत्ति है जो उन्हें रास्ता दिखाती है। सूची बनाने की इस आदत के कारण वे सभी प्रकार के विषयों पर इतने उदाहरणों का उल्लेख कर देते थे कि हैरानी होती थी। हिस्ट्री ऑफ सिविलाइजेशन में यह देखा जा सकता है। यह किताब मुझे काफी रोचक लगी। मैंने इसे दो बार पढ़ा, लेकिन उन्होंने जो साधारणीकरण किया है, उसकी उपयोगिता पर मुझे संदेह है। बंकल अच्छे वक्ता थे। मैंने उनके व्याख्यान भी सुने थे, और मैं मंत्रमुग्ध-सा सुनता रह गया था, क्योंकि व्याख्यान में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इसी बीच मिसेज फेरेर ने गाना शुरू कर दिया था, और मैं उनका गीत सुनने के लिए चल दिया। जब मैं चला गया तो वहीं बैठे अपने दोस्त से वे बोले (जिसे मेरे भाई ने सुन लिया) कि, `मिस्टर डार्विन की किताबें उनकी बातचीत से कहीं बेहतर हैं।'
अन्य महान साहित्यकारों में से एक बार मैं डीन मिलमैन के घर पर सिडनी स्मिथ से मिला। उनका बोला हुआ हर शब्द अकथनीय रूप से मनोरंजक था। शायद यह आनन्दित होने के कारण था। वे बुजुर्गवार लेडी कोर्क के बारे में बात कर रहे थे। उन्होंने बताया कि वह एक बार धर्मार्थ आयोजन में व्याख्यान दे रहे थे, और उस व्याख्यान से प्रभावित होकर उस महिला ने अपनी दोस्त से एक गिन्नी उधार लेकर कटोरे में डाली। फिर वे बोले, `आमतौर पर यही माना जाता है कि इन बुजुर्गवार लेडी कोर्क पर अभी तक उसकी नज़र नहीं पड़ी।' और यह बात उन्होंने इस ढंग से कही कि वहां मौजूद हरेक को तुरन्त यह पता चल गया कि उस बुजुर्ग औरत पर अभी शैतान की नज़र नहीं पड़ी है। उन्होंने यह किस ढंग से किया मुझे नहीं मालूम।
इसी प्रकार मैं एक बार लार्ड स्टैनहोप (इतिहासकार) के घर पर मैकाले से मिला। वहाँ भोजन पर एक और व्यक्ति भी था। मैंने वहां मैकाले की बातचीत सुनीं और वे बातें मुझे स्वीकार्य लगीं। वह बहुत बात नहीं करते थे। इस प्रकार के व्यक्ति अधिक नहीं बोलते। वे तो दूसरों को बार-बार मौका दे रहे थे कि वे बातचीत का सूत्र अपने हाथ में भी लें, और उनकी अनुमति से दूसरे यही कर भी रहे थे।
लार्ड स्टैनहोप ने एक बार मुझे मैकाले की स्मरणशक्ति की सम्पूर्णता और परिशुद्धता का प्रमाण दिया था। लार्ड स्टैनहोप के ही घर पर मैं उनके इतिहासकार और अन्य साहित्यकार मित्रों से भी मिला। इन्हीं में मॉटले और ग्रोटे भी थे। नाश्ते पानी के बाद मैं ग्रोटे के साथ शेवेनिंग पार्क के पास तकरीबन एक घंटे तक घूमता रहा। मैं ग्रोटे की बातचीत तथा उसकी सरलता से बहुत प्रभावित हुआ। उसके आचरण मैं बनावटीपन तो था ही नहीं।
बहुत पहले मैंने इन्हीं इतिहासकार के पिता बुजुर्ग अर्ल के साथ भी भोजन किया था। वे बड़े अजीब व्यक्ति थे, लेकिन जितना भी मैंने उन्हें जाना था उसके आधार पर मैं उन्हें बहुत पसन्द करता था। वे स्पष्टवादी, म़ज़े लेने वाले और खुशमिजाज़ थे। उनकी शक्ल-सूरत काफी अलग थी। बादामी रंग का शरीर और ऊपर से नीचे तक बादामी रंग के कपड़ों में ढंके थे वे। जो दूसरों को अविश्वसनीय लगता था, उन्हें उस पर भी भरोसा था। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम यह भू-विज्ञान और प्राणि-विज्ञान की खुराफात को छोड़ कर गुह्य-ज्ञान की साधना क्यों नहीं करते? मेरे इतिहासकार मित्र लार्ड मेहोन उनकी यह बात सुनकर हतप्रभ रह गए और उनकी प्रसन्नवदना पत्नी तो और भी परेशान हो गयी।
इन लोगों में आखिरी नाम है कार्लाइल का, जिनसे मैं अपने भाई के घर पर भी आए। उनकी बातें बड़ी सरस और रोचक होती थीं। ठीक ऐसा ही लेखन भी था उनका; लेकिन कई बार वे विषय को काफी लम्बा खींच देते थे। एक बार मेरे भाई के घर पर डिनर में खूब मज़ा आया। वहाँ अन्य लोगों के अलावा बैबेज और लेयेल भी थे। दोनों आपस में बातें कर रहे थे। डिनर के दौरान कार्लाइल ने मौन की महानता पर ज़ोरदार तकरीर करते हुए लगभग सभी को चुप ही रखा। डिनर के बाद बैबेज ने बड़े ही विचित्र रूप से कार्लाइल का धन्यवाद किया कि उन्होंने मौन के बारे में बड़ा ही रोचक व्याख्यान दिया।
कार्लाइल ने लगभग सभी का मज़ाक उड़ाया - एक दिन मेरे घर पर उन्होंने ग्रोटे लिखित हिस्ट्री के लिए कहा,`एक बदबूदार दलदल जिसमें कुछ भी उपयोगी नहीं।' उनकी रेमिनिसेन्सेस प्रकाशित होने तक मैं यही समझता था कि उनके उपहास महज मज़ाक होंगे, लेकिन अब मुझे संदेह होने लगा था। उनकी अभिव्यक्तियाँ किसी निराश और हताश मन को प्रकट करती थीं, लेकिन वे बहुत दयालु भी थे और अपने छतफाड़ ठहाकों के लिए बदनाम थे। मुझे विश्वास है कि उनकी दयालुता वास्तविक थी जिसमें ज़रा भी ईर्ष्या नहीं थी। वस्तुओं और इन्सानों का चित्र बनाने में उनकी महारथ पर कोई शक नहीं कर सकता था। चित्रकारी में वे मैकाले से बहुत आगे थे। इन्सानों की ये तस्वीरें असल थीं या नहीं यह प्रश्न अलग है।
वे इन्सान के ज़ेहन पर बड़े ही ताकतवर तरीके से सच्चाई का असर डालते थे। दूसरी तरफ गुलामी प्रथा के बारे में उनके विचार बड़े ही घृणास्पद थे। उनकी नज़र में तो जिसकी लाठी उसकी भैंस। मुझे लगता है, उनकी विचार धारा बड़ी संकीर्ण थी। यदि उनके द्वारा तिरस्कृत विज्ञान की सभी शाखाओं को अलग कर दिया जाए तो भी। यह मेरे लिए हैरत अंगेज बात थी कि किंग्सले ने उन्हें उच्चस्तरीय विज्ञान के लिए एकदम सही व्यक्ति बताया था। वह इस विचार को हंसी में उड़ा देते थे कि व्हीवेल जैसे गणितज्ञ भी प्रकाश के बारे में गोयथे के दृष्टिकोण पर कुछ विचार कर पाएंगे, जबकि मैं मानता था कि ऐसा हो सकता है। उनके विचार से यह बड़ा ही हास्यास्पद था कि कोई इस बात पर ध्यान दे कि कोई हिमनद तेजी से आगे बढ़ा या धीरे धीरे या फिर हिला भी नहीं। जहां तक मैं विचार करता हूं, तो मुझे वैज्ञानिक शोध को लेकर इतने बीमार दिमाग का कोई आदमी नहीं मिला। लन्दन में रहने के दौरान मैं विभिन्न वैज्ञानिक सोसायटियों की सभाओं में जितना जा सकता था गया, और जिओलॉजिकल सोसायटी के सचिव के रूप में भी काम किया। लेकिन इस दौड़-भाग ने और आर्डिनरी सोसायटी ने मेरी सेहत पर इतना उल्टा असर किया कि हमें शहर छोड़ कर ग्रामीण इलाके में बसना पड़ा। इसे हम दोनों ने स्वीकार किया और इस पर हमें कभी पछतावा भी नहीं हुआ।