बागी आत्मा 14 रामगोपाल तिवारी (भावुक) द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बागी आत्मा 14

बागी आत्मा 14

चौदह

सीमायें सुख देती हैं। सुख देने के लिए निर्धारित की जाती हैं। गरीबी और अमीरी की भी सीमा होती है। गरीबी सीमा से नीचे सोचनीय विशय बन जाती है। इसी प्रकार अमीरी सीमा से ऊपर अमीरी भी सोचने का विशय है। कहीं अमृत लुट रहा है, कहीं जहर दिया जा रहा है। एक ओर आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आदमी का प्रयत्न दूसरी ओर ऐशो आराम के लिए तड़फन। दोनों की संवेदनाओं में फर्क है।

यही सब सोचते हुए माधव और उदय बीहड़ों में बढ़ते चले जा रहे थे। दोनों खुश थे। मजे-मजे की बातें चल रही थीं जिससे समय काटा जा सके।

‘उदय !‘ माधव ने कहा।

‘क्या दादा ?‘

‘मैंने तुमसे एक बार रूपये उधार लिये थे।‘

‘कब ? मुझे तो याद नहीं।‘

‘जब तुम मेरे कस्बे में डकैती डालने आये थे।‘

‘तो क्या हुआ तुमने तो शायद पिताजी के इलाज के लिये मांगे थे ?‘

‘उधार के नाम पर लिया गया धन वापिस करना ही चाहिये।‘ यह कहते हुए माधव ने रूपयों की एक मुट्ठी उसकी ओर बढ़ा दी और बोला -‘काश ! उस रात तुमने वो पैसे न दिये होते तो पिताजी उस रात ही संसार से विदा हो गये होते।‘

‘आप भावावेश में हैं भईया, उधार दूसरों का चुकाया जाता है।‘

माधव ने फिर कुछ न कहा रूपयों की गड्डी जेब में रख ली। पर कुछ याद आया तो उसने वह गड्डी पुनः जेब से निकाली और पुनः उसे देते हुए बोला -‘उदय जब तू घर जाये तो बच्चों के लिये मेरी ओर से कुछ लेते जाना।‘

‘दादा जब चलेंगे साथ ही चलेंगे।‘

‘पहले इसे रख तो ले।‘ यह सुनकर उसने रूपयों का बन्डल माधव से लेकर अपनी जेब में रख लिया और बोला -‘आज ये आपको क्या हो गया है ?‘

‘आज जाने मेरा मन कैसा हो रहा है इस संसार में जीने की इच्छा भी नहीं रही है।‘

भईया आप ज्यों-ज्यों आगे बढ़ रहे हैं जाने कैसी बातें करने लग गये हो आपकी बातों से तो मुझे भी डर लगने लगा है।‘

‘मुझे क्या हो गया है यह मैं स्वयं नहीं समझ पा रहा हूँ। जब से देवी के दर्शन करके आया हूँ मन में ऐसी ही बातें हिलोरें ले रही हैं। अब तो मेरी इच्छा होने लगी है कि इस बन्दूक को ही फेंक दूं।‘

‘भईया यह आपको क्या हो गया है ? बागी के जीवन का सहारा बन्दूक होती है। बन्दूक को बागी संरक्षक की तरह प्यार करते हैं। जिसने बन्दूक त्याग दी। समझ लो वह जीवन की अन्तिम सांसें जी रहा है। क्योंकि उसके अभाव में वह अपने जीवन की रक्षा भी नहीं कर सकेगा।‘

‘रे पगले अब जीना कौन चाहता है ? सारी दुनिया जिसके मर जाने का इन्तजार करती हो वह जिये तो किसके लिए ? हां आशा के लिये जीता था पर अब तो आशा को भी ऐसा सहारा मिल गया है, जिसके सहारे उसकी जीवन नैया पार लग जायेगी।‘

‘लेकिन भैया इन बीहड़ों में एक कदम भी बिना बन्दूक के नहीं रखा जाता है।‘

‘इस बन्दूक को तुम नहीं सम्हालते तो मैं इसे फेंक देता हूँ अब मेरे से बन्दूक नहीं चलायी जायेगी।‘

‘क्यों नहीं चलायी जायेगी ?‘

‘पता नहीं मेरी आत्मा को क्या हो गया है ? ये सारी बातें मेरे अन्तः से निकली हैं। इस बन्दूक से जाने कितने पाप हुये हैं। मुझे यह इतनी भारी लग रही है कि एक-एक कदम चलना मुश्किल हो रहा है।‘ यह कहकर वह बन्दूक फेंकने को तैयार हो गया।

उदय बोला -‘इसे फेंकें नहीं, लाइये आपको इसका बोझ लग रहा है तो मैं लिए लेता हूँ।‘ कहते हुए उदय बन्दूक ले लेता है।

बन्दूक उसे देकर माधव कहता है- ‘उदय तुमने मेरा बहुत बड़ा बोझ हल्का कर दिया।‘

‘हां-हां बहुत बोझ लादे थे आप। अब आप सुखी हो गए। लेकिन यह तो बतलाइये कितना और चलना है ?‘

बस आ गये यहीं कहीं होंगे सभी लोग। सभी को पता चल जायेगा।‘ कहते हुए चुपचाप चलने लगे। कुछ चलने के बाद राम खोह में पहुंच गये। जंगल में छोटा सा मन्दिर बना है। शाम की आरती हो रही थी। ये दोनों भी उसमंे सम्मलित हो गए। माधव सोचने लगा ‘एक हाथ में माला एक में बन्दूक। यह कौन सा पन्थ है ?‘ जब कार्यक्रम समाप्त हो गया तब माधव बोला -

‘आप लोग अच्छे रास्ते पर चल पड़े हैं।‘

‘यही सोचकर हमने यह शुरू कर दिया है पर सरदार यह तो बताओ आपके साथ यह कौन आये हैं ?‘

‘तुम लोग इसे नहीं जानते ?‘

‘नहीं तो ! हमने इन्हें कहां देख है ?‘

‘आप लोग जानना चाहते हैं ?‘

बहादुर बोला -‘हां ।‘

‘ये मेरा भाई है उदयभान।‘

बात सुनकर बहादुर ने कहा -‘तो क्या ये वही उदयभान हैं ? जो दुश्मनी निभा रहे थे।‘

‘हां बहादुर ये मेरा दुश्मन था पर अब सगा भाई निकल बैठा।‘

बहादुर झट से बोला -‘सरदार तुम तो कहते थे तुम्हारे कोई नहीं है।‘

‘जीवन में कई रहस्य छिपे रहते हैं जब रहस्य उजागर होते हैं तब ं ं ं ।‘

‘अरे सरदार ये सब बातें हैं। आप जो कहते हैं हम मान लेते हैं। पर आप धोखा तो नहीं खा रहे हैं ?‘

‘नहीं बहादुर मैं बात की गहराई तक पहुंच गया हूँ धोखे की बात नहीं है।‘

‘ठीक है सरदार। आप सन्तुश्ट हैं तो हमें क्या ?‘

किशन माधव के पास आकर बोला -‘बहूरानी तो ठीक है न ?‘

‘हां दादा ठीक तो है।‘ अब तक एक साथी भोजन ले आया तो माधव और उदय एक ही बर्तन में भोजन करने लगे। भोजन के बाद सभी मन्दिर में पहुंच गए।

माधव ने घोशणा की -‘आज से हम सब का सरदार उदय रहेगा।‘

‘सरदार हमने बात मान ली कि वह तुम्हारा भाई होगा पर हम उसके दल में मिलना नहीं चाहते।‘

‘बागी अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं करते। बहादुर मैंने बन्दूक छोड़ दी है इसका मतलब यह नहीं कि ं ं ं तुम ं ं ं!

सरदार भाई बनाकर यह झांसा दे रहा है। कल तक जो दुश्मन था। आज एकदम भाई कैसे निकल बैठा।‘

‘इसका मतलब है बहादुर तुम मेरे ऊपर भी विश्वास नहीं कर रहे हो।‘

‘किशन ने बढ़ती लड़ाई को शान्त करना चाहा बोला -‘सरदार बनने का हक तो बहादुर को है।‘

‘लेकिन मैं घोशणा कर चुका हूँ अब चाहे जो हो।‘

बात सुनकर बहादुर का साहस बढ़ गया। इन दिनों दल पर माधव का उतना प्रभाव न रह गया था। माधव तो नाम-मात्र का सरदार रह गया था। बहादुर दल की बागडोर सम्हाले हुए था। सभी को यह परिवर्तन अच्छा न लग रहा था। सारा दल माधव से विपरीत हो गया।

बहादुर ने अवसर को न खोना चाहा। पर संकोच कर गया। सभी महसूस कर गये। माधव उदय का साथ दे रहा है। यहां अधिकारों की लड़ाई है। अधिकारों के लिए तो लोग जान तक दे देते हैं। सभी चुप रह गये। सभी के मन में अधिकार, मान अपमान का जहर घुल रहा था।

किशन समन्वय करता हुआ बोला -‘आज से हम उदयभान को सरदार मान लेते हैं लेकिन उदय के दल की सलाह तो ले लेना चाहिए।‘

माधव बोला -‘हां किशन दादा की बात ठीक लगी।‘ तत्काल सारा दल उदयभान के दल से मिलने निकल पड़ा।

उदयभान का दल जंगल के एक बीहड़ मंे आराम कर रहा था। उदयभान ने रास्ता दिखाया सभी आराम से वहां पहंुच गये। उदय का दल यह तो मेले से ही जान गया था कि माधव और उदय भाई-भाई हैं। अब दल बल को देखकर उदय के दल के साधूसिंह ने व्यंग्य किया -

‘सरदार क्या दुश्मन से मिलकर मरवाना चाहते हो।‘

बात का जवाब उदय ने दिया -‘साधूसिंह तुम्हारा इस तरह बोलना मुझे अच्छा नहीं लगा।‘

‘अब अच्छा क्यों लगेगा अब तो दूसरे दल का बल मिल गया है।‘

‘यह सब तुम्हारे मन की गलत फहमी है।‘

‘गलत फहमी है या सब बातें सच-सच हैं।‘

‘तुम्हारा इतना साहस बढ़ गया है।‘

‘जब साथी दुश्मन का दोस्त बन जाये तो वह भी दुश्मन ही हो जाता है।‘

‘यह उपदेश मुझे अच्छी तरह याद है।‘

‘कहीं इस उपदेश को तुम भूल तो नहीं गये उदय !‘ अपना नाम सुनकर उदय ने उसे ललकारा -‘तुझे बोलने की तमीज नहीं है साधूसिंह।‘

‘क्यों क्या बात है ? यही न कि मैंने तुझे सरदार नहीं कहा।‘

‘अब हम सब को तुमसे विश्वास उठ गया है। हमारा दल अब तुम्हारा मुंह नहीं देखना चाहता।‘ यह कहते हुए उसने गोली चलानी चाही। माधव समझ गया। फायर मिस हो गया। अब तो साधूसिंह के प्राणों पर आ बनी थी। माधव ने उदय की बन्दूक पकड़ ली।

साधूसिंह ने अवसर का लाभ उठाया। दूसरी गोली चला दी। माधव उदय के सामने आ गया। गोली माधव के पेट में समा गई। माधव चीखा -‘साधूसिंह यदि मैं उदय को न रोकता तो ं ं ं।‘

लेकिन साधूसिंह अपने दल के साथ जा चुका था। माधव के बल ने उसका पीछा करना चाहा। माधव ने रोक दिया।

‘नहीं ! उसे जाने दो वह तो मूर्ख है। आपस की लड़ाई-झगड़े अच्छे नहीं लगते। तुम्हें शीतला की कसम है जो आपस में लड़ो।‘ कहते हुये वह बेहोश हो गया।

सारा दल माधव के पास आ गया। बहादुर उसके चरणों में गिर पड़ा, ‘सरदार हम उदयभान को सरदार मान लेते हैं। पर आप हमें छोड़कर न जाओ।‘ सभी की आंखों में आंसू थे। बहादुर बार-बार कह रहा था मेरे सरदार बनने के चक्कर में उसके गोली लगी है। और उदय आंसू बहाते हुए बिना कुछ बोले यह सब सुन रहा था। उसे याद आ रहा था पिछली घटनायें जब उन्होंने अपनी बन्दूक त्यागी और उसे फेंकना चाही।

बागी का जीवन भी क्या जीवन है ? वह मारा जाता है तो बन्दूक की गोली से ही, चाहे वह पुलिस की हो, चाहे साथी की। सभी हतप्रभ से खड़े थे। माधव को चेतना आई आंखें खोलीं बोला -

‘खड़े-खड़े क्या देखते हो ? मुझे मेरी उसी झोंपड़ी में पहुंचाओ जहां, मेरे पिता ने अन्तिम सांसें लीं हैं। मैं अपने कस्बे में जाकर मरना चाहता हूँ।‘ सभी ने सोचा वहां ले जाने में फायदा है डॉक्टर घरू है इलाज की व्यवस्था हो सकती है।

दो आदमी दौड़ते हुए कहीं गये, लगभग एक घण्टे में एक घोड़ा ले आये। माधव को उस पर पकड़कर बिठा लिया गया। सारे लोगों की यात्रा माधव के कस्बे के लिए प्रारम्भ हो गयी। रास्ते चलते में माधव बेहोश हो जाता। कभी-कभी चेतना आ जाती अब की बार उसे काफी देर बाद चेतना आयी बोला -

‘देखो ऐसे जीवन निकालना बन्द कर दो। अरे कोई रास्ता खोजो -। मेरी आशा से बात हुई है। वह प्रयास कर रही है। उसने जिला कलेक्टर ं ं ं के ं ं ं द्वारा ं ं ं सरकार ं ं ं से ं ं ं बात ं ं ं की ं ं ं है। शायद ं ं ं सफलता मिले। बस मेरी यही अन्तिम इच्छा है।‘

बहादुर बोला -‘सरदार आप चिन्ता न करें। अपने अस्पताल का डॉक्टर ं ं ं।‘ इतना ही कह पाया कि वह फिर बेहोश हो गया।

सारा दल गांव के बाहर रह गया। उदयभान व बहादुर उसे छोड़ने गये। आशा को बुला लिया गया। माधव को उन्हें सम्हलाकर दोनों कस्बे से बाहर निकल गये। आशा डॉक्टर को बुलाना चाहती थी। माधव को चेत आया बोला -‘मैं कहां हूँ‘

आशा झट से बोली -‘आप अपने घर में हैं। मैं डॉक्टर को बुलाने भेज रही हूँ।‘

‘नहीं आशा डॉक्टर अब क्या करेगा ?‘

‘यह कैसे हो गया ?‘

‘आशा एक बागी की मौत बन्दूक की गोली से ही होती है। अब तो तुम्हारे लिए सहारा उदय है । उदय के बच्चे हैं। बच्चे नहीं दीखे।‘

‘मैंने किसी को कुछ नहीं बताया है।‘

‘यह तुमने अच्छा किया आशा। बच्चों ं ं ं को सम्हालकर रखनां।‘ और ं ं ं और उदय को आत्म-समर्पण करा ं ं ं देना।

आशा चुप रही वह कुछ क्षण बाद पुनः बोला -

‘आशा !‘

‘हूँ ।‘

‘अपने अस्पताल का ध्यान रखना। वह गरीबों के लिए है।‘

‘हां।‘ कहते हुए वह सिसक-सिसक कर रो पड़ी।‘

उसका रोना सुनकर वह बोला -‘अरे आशा तुम रो रही हो इसलिए कि मैं मर रहा हूँ। पगली रोते हैं ?‘

‘आप हमें रोना तो देकर ही जा रहे हैं।‘

‘भाग्य के लिखे को कौन मेंट सकता है ? वैसे सभी सुख हैं उस जमाने में जब पिता जी मर रहे थे पास में पैसे नहीं थे। आज सब कुछ है बस एक बात ऊ उदय को आत्म-समर्पण ं ं ं ं करा ं ं ं देना।‘ कहते-कहते शान्त हो गया।

आशा समझ गई तो चिल्लाई ‘माधव ऽऽऽ‘ किशन माधव की खबर लेने आया था। उसे रोता देख बोला -

‘बेटी, शान्त रहो। हम सब को जरा दूर निकल जाने दो, नही ंतो पुलिस आ गई तो परेशानी होगी। इनका संस्कार उदय के बड़े बच्चे से करा देना। अच्छा मैं चलता हूँ।‘ जाते वक्त उसने माधव के पैर छुये और चला गया।

सारे कस्बे में खबर पहुंच गई। चौकीदार आ गया। वह थाने को खबर देने चला गया। सुबह तक पुलिस आ गई। लाश को शहर ले गई। आशा साथ गई। पुलिस ने केश बनाया। माधव बागी पुलिस से मुठभेड़ में मारा गया। आशा चुपचाप देखती रही। रात्री के ग्यारह बजे तक पोस्टमार्टम के बाद लाश मिली। पुलिस ने लाश उसके घर तक पहुंचा दी।

सभी परिजनों व गांव वालों के साथ रात्री व्यतीत हुई। रात भर माधव के बारे में चर्चा होती रही और सुबह की किरणों के साथ तो उसकी अर्थी उठी। गांव के अधिकांश लोग दाह संस्कार में इकट्ठे हुए। लोगों में कानाफूसी सुन पड़ती थी। कोई पुलिस वाला न दीखता था। पुलिस ने तो उसके मृत शरीर को ले जाकर पोस्टमार्टम करवाया खाना पूर्ति की। पुलिस के द्वारा मारा हुआ फाइलों में दिखाया और लाश वापस कर दी।

पुलिस इस आदमी की जिन्दगी भर तलाश करती रही उसे मारने की योजनाएं बनाती रही। उसे जीवित पकड़ने पर इनामें घोशित करती रही। जब उसका मृत शरीर पुलिस को मिल गया। तो फाइलें रंगी गयी। पुलिस पदक प्राप्त करने के लिए, अपना शौर्य फाइलों में भर डाला।

सच तो यह है कि कानून है गरीबों के लिये। जो उससे डरते हैं उसकी चालों में फंस जाते हैं। अमीर तो पैसों के बल पर कानून को खरीद लेते हैं। जो कानून के सिकंजे मंे फंस गया। उसे कानून दण्ड देता है सजा अपराध की नहीं, कानून के सामने आने की है।

लोग अलग तरह से सोचने में लगे थे। दाह संस्कार के बाद सभी लोग मरघट से लौट पड़े। गांव वालों ने खूब भावुकता दिखाई। आपस में कई प्रकार की चर्चाएं बहस का कारण बन गईं।