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बागी आत्मा 2

बागी आत्मा 2

दो

दस वर्ष पूर्व......

वही मकान वही जगह, जहाँ माधव ने अन्तिम साँस ली थी। माधव का पिता विस्तर पर पड़ा पड़ा कराह रहा है। उसके कराहने बातावरण दर्दभरा हो गया हैं। रात का सन्नाटा छाया हुआ है। उसे दम दिलासा देने वाला कोई नहीं है। माधव सोच में है कि वह अपने पिताजी की जान कैसे बचाये? पास में एक पैसा भी नहीं है जो कुछ था वह भी पिताजी की लम्बी बीमारी में स्वाह हो गया। चार माह से तो कोई दिन ऐसा नहीं गया जिस दिन बिना दवा के काम चले। उनका जीवन दवाओं पर निर्भर हो गया है।

जमीदार साहब के घन्टों की आवाज सुनाई दी-‘टन.., टन.... टन.।’रात के ग्यारह बज चुके थे। देश को स्वतंत्र हुए कितना समय व्यतीत हो गया। जमींदारी चलीं गई लेकिन उनकी षन षौकत की बजह से जमींदार के यहाँ घन्टे बजने वाला नियम अभी भी समाप्त नहीं हुआ है। वे भले ही कितने ही निर्दयी हो लेकिन आज भी जनता के लिये यह काम उन्होंने बन्द नहीं किया है।

घन्टों की आवाज सुनकर, माधव बड़बडाया ग्यारह बज गये। यकायक उसके मस्तिष्क में एक विचार आया। अपने पिता की जान की खातिर पैसे वालों के यहाँ एक वार और उधार माँगने जाये। किसी न किसी को उस पर दया आ ही जायेगी। वह उठा और एक नजर अपने पिता के जर्जर शरीर पर डाली और दरवाजे से बाहर निकल गया।

दरबाजे से बाहर निकल कर वह सीधा गली के रास्त से चल दिया। जल्दी बापस आने की इच्छा से तेज चाल में चलने लगा। थोड़ा ही आगे बढ़ा होगा कि रास्ते में पड़े पत्थर से टकरा गया। अगर हाथ जमीन पर न टिकता तो निश्चय ही भय्रंकर चोट लगती। वह षीध्रता से सँभलकर उठा और पुनः आगे बढ़ने लगा। थोड़ा ही आगे बढ़ा होगा कि उसके कानों में खुसुर पुसुर की आवाज सुनाई पड़ी। उसने अपने पैरों की पदचाप को रोक लिया। सँभल सँभलकर बिना आवाज किये आगे बढ़ा , वह उस दीवार से जा टिका जिधर से आवाजें आ रहीं थीं।

उसका मस्तिष्क जल्दी जल्दी काम करने लगा। इस सूनसान मकान में रात्री के इतने बक्त ये लोग यहाँ क्यों? ये मकान तो जमींदार साहब की खण्डहर गोशाला है। इसमें किसी के अन्दर जाने का साहस कहाँ से आ गया? क्या ये लोग राव वीरेन्द्र सिंह की मर्जी के बिना यहाँ होंगे?

जमींदार राव वीरेन्द्र सिंह का नाम जुबान पर आते ही उसके चेहरे पर घ्रणा के भाव उभर आये। वह म नही मन बड़ बड़ाया-‘ ये वही राव वीरेन्द्र सिंह है जिसने मेरी माँ को कहीं लेजाकर....। रोंगटे खड़े हो गये। बुरी तरह काँप् गया। तभी उसके कानों में राववीरेन्द्रसिंह की आवाज कानों में सुनाई पड़ी। वह सोचने लगा - यह मीटिंग क्यों चल रही है? क्या रहस्य है इसके पीछे? मैं भी कैसा हूँ ! जिस कार्य से घर से निकला था क्यों इस व्यर्थ के कार्य में अटक गया। उसे इन बातों से क्या मतलब है? पिताजी बीमार पड़े हैं और मैं इधर जासूसी करने में लग गया।़ यह सोचकर वह आगे बढ़ गया।

सेठ रामकृष्ण दास का मकान आ गया। माधव ने रात के कारण डरते डरते आवाज लगाई’- सेठजी.....ई.......ई। सेठजी ऊपर पलंग पर पड़े पड़े छत से ही बोले-‘क्या है रे माधव, रात को तो नींद लगने दी होती!’

माधव गिड़ गिड़ाया- सेठ काका, आज पिताजी कीहालत ज्यादा खराब है। कुछ पैसे देदें तो रात में ही किसी डाक्टर को दिखा दूं।’

सेठजी, गुस्सा बगराते हुए बोले-‘ तुम्हारा क्या भरोसा? आखिर रात के समय मैं पैसे किस भरोसे पर दूं तुम्हें? भैया कहीं और देख लो। मेरी समझ में तुम्हें तो कोई छदाम नहीं देगा।’

माधव और अधिक गिड़ गिड़ाया, पर उसे रहम कहाँ आने वाला था। जब उसने एक न सुंनी तो वह अपना सा मुँह लिये वहाँ स ेचल दिया और आगे बढ़ गया। सोचा- पण्डित इन्द्रप्रकाश जी ही शायद कृपा करदें। सोचते सोचते कदम आगे बढ़ते रहे, अब वह पण्डित जी के घर के सामने खड़ा था। रात का समय संकोच में घीरे से आवाज लगाई, अन्दर से काई जबाब नहीं मिला। सोचा- बारह बज गये होंगे। वे सो गये होंगे। यह सोचते हुए वह निराश होकर घर के लिये लौट पड़ा। अब वह उसी रास्ते से नहीं लौटा। उसने सोचा आशाके पिताजी से कुछ ले आऊंगा। वे तो घर में होंगे तो दे ही देंगे। सोचते हुए वह उनके घर के सामने पहुँच गया पर उन्हें संकोचवश आवाज न लगा सका। सोचा- न हो तो पिताजी को ही पीठ पर लादकर, डाक्टर के यहाँ लेकर जाता हूँ। वे तो भगवान का रूप होते है। यों वह मन मार कर लौट पड़ा। सोचा- डाक्टर के यहाँ उन्हें ले जाने की जरूरत नहीं है। वे उनकी हालत से पूरी तरह परिचित हैं। न हो तो सीधा उन्हीं के यहाँ चलता हूँ। यह सोचते हुए वह डाक्टर के यहाँ पहुँच गया।

संयोग से उनका दरवाजा खुला था। डाक्टर साहब किसी अन्य मरीज को देख रहे थे। वह उनके सामने पहुँच गया। बोला- ‘डाक्टर साहब पिताजी की हालत बहुत अधिक खराब है।’

वे बोले- हम रात दिन आप लोगों की सेबा करें, तुम हो कि दवाओं के पैसे तक तो दे नहीं पाते।’

माधव गिड़गिड़ाया-‘डाक्टर साहब, पिताजी को तेज बुखार है। सुुबह आपके पैसे दे जाउंगा।’

‘ ठीक है सुबह दे जाना, ये दो गोली लिये जाओ, जाकर अभी एक गोली उन्हें खिला देना। आराम मिल जायेगा। एक गोली सुबह खिलाकर मेरे पास ले आना।’

मधव इतने में ही संतोष कर लौट पड़ा। जब वह घर पहुँचा, उनका शरीरतप रहा था। पिताजी बेहोशी की अवस्था में थे। उसने कैसे भी उनका मुँह फाडकर, उन्हें एक गोली खिलाई। खटिया के पास जमीन पर ही बैठ गया। बुखार कम होने की प्रतिक्षा करने लगा।

गोली खिलाने के वाद भी बुखार कम नहीं हुआ। उन्हें होश नहीं आया। वह घबड़ा गया। डाक्टर के पास पुनः जाने की सोचने लगा। सोचा-‘ बिना फीस लिये इतनी रात में आने वाला नहीं है। मन नहीं माना तो वह डाक्टर के यहाँ जाने के लिये उठ खड़ा हुआ।

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