बागी आत्मा 13 रामगोपाल तिवारी (भावुक) द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बागी आत्मा 13

बागी आत्मा 13

तेरह

माधव अपने दल में पहुंचा गया। सभी ने उसे बहुत दिनों बाद बागी की ड्रेस में देखा तो एकदम माधव की जय का नारा गूंज गया।

माधव बोला -‘जय तो ईश्वर की बोलना चाहिये। जिसने हम सभी से एक ऐसा काम करवा लिया है जिससे किसी के जीवन रक्षा हो सकेगी।‘

बहादुर बोले बिना न रहा -‘आप ठीक कहते हैं सरदार।‘

‘सभी का सहयोग सराहनीय रहा। भाई से अधिक सहयोग आप लोगों का मिला। काश ! भाई होता तो शायद उसका भी इतना सहयोग न मिल पाता।‘ बात सुनकर सभी चुप रहे। माधव ने आगे बोलने का क्रम जारी रखा -

‘आज हम गर्व से जी सकते हैं। हम गर्व से मर भी सकते हैं। हमने गरीबों को नहीं सताया बल्कि गरीबों का माल जो सेठ साहूकारों की तिजोरियों में बन्द था उसे बाहर निकाला है और उन्हीं की सेवा में अर्पित कर दिया है।‘

किशन बोले बिना न रहा -

‘हां सरदार ! सरकार चाहे जो समझती रहे कि हमने कानून तोड़ा है पर हमने तो एक नया कानून बनाया है कि गरीबों का धन तिजोरियों से मुक्त करके गरीबों की सेवा में लगा दिया जायें।‘

बहादुर बोला -‘अरे बातें ही बातें करोगे या कुछ खाओगे-पिओगे भी ?‘

बात सुनकर एक बागी माधव के लिये खाना ले आया। माधव खाना देखकर बोला -‘ये रूखी रोटियां।‘

‘हां सरदार ! अब ऐसी ही रोटियों में मजा आता है। हमने अस्पताल के लिये एक-एक पैसे को बचाकर ं ं ं ।‘

‘अरे वाह !‘ कहते हुए माधव का गला भर आया।

बात का क्रम बदलते हुए बहादुर बोला -‘सरदार एक बात सुनीं ?‘

‘कौन सी बात ? बहादुर !‘

‘सरदार ! बागी उदयभान है न वह तुम्हारे नाम पर आतंक फैला रहा है।‘

‘माधव ने प्रश्न कर दिया -कैसा आतंक ?‘

‘बहादुर ने उत्तर दिया -‘अरे सरदार तुमने यह बात नहीं सुनी ?वह मऊछ गांव से स्कूल के पढ़ने वाले बीस लड़का पकड़ लाया है और ऐलान तुम्हारे नाम का करके आया है कि माधव की गेंग ने पकड़े हैं। सब गरीबन के लड़का हैं हजार-हजार पांच-पांच सौ लेकर छोड़ता जा रहा है।

‘मेरे नाम से इतना घटिया काम ं ं ं? बहादुर मैं उस उदयभान को जिन्दा नहीं छोड़ूंगा।‘

‘यह दुश्मनी तो मेहंगी पड़ेगी सरदार !‘

‘पड़ने दे बहादुर। तू बहादुर होकर दुश्मनी से डरने लगा है। हो सकता है इसमें मारे जायें। तो हमें मरने का अब डर नहीं है। या फिर उसका बागीपन ही भुला देंगे।‘

किशन बोला -‘तुम जानो सरदार ?‘

‘नहीं दादा ! यदि आप सभी को यह बात अच्छी नहीं लगी हो तो मरने देते हैं।‘

माधव सभी की बात सुनकर बोला-‘‘ अरे उसे जो करना है करे। पर हमारे दल का नाम काहे को बदनाम कर रहा है।‘

बहादुर बोला -‘तो हम उसकी खोज शुरू कर देते हैं। पहले उसे समझाने का प्रयास करेंगे। जब न मानेगा तब उसे देख लेंगे।‘

मजबूत सिंह बोला- ‘न माना तो मार-मार कर उसका कचूमर निकाल देंगे।‘ कहते हुए सभी के चेहरे गम्भीर हो गये।

उदयभान के पास सब बातें पहंुच गईं थीं। पर उसने अपना रास्ता नहीं छोड़ा, तो माधव उससे टकराने के लिये अवसर की तलाश में रहने लगा। माधव के दल मंे उससे टकराने के लिए योजनायें बनने लगीं। माधव उसी जंगल में पहुुंच गया जिसमें उदयभान रह रहा था।

दिन रात दोनों दल इसी टोह में रहने लगे। कई बार आमना-सामना होते-होते बचा। माधव टकराने की पूरी तैयारी में था। माधव ने उदयभान की अपेक्षा अधिक आत्मविश्वास अर्जित कर लिया था।

‘सदकर्मों की ओर चलने से आत्मविश्वास अनायास पैदा हो ही जाता है।‘

उदयभान स्थिति देखकर मौका टालने की कोशिश करने लगा। उसने माधव के बारे में सब कुछ सुन रखा था। माधव से टकराने के लिए उसकी हिम्मत टूट रही थी।

शाम का समय था माधव का दल बीहड़ों के संकुचित रास्ते से गुजर रहा था। रास्ता इतना सकरा था कि एक आदमी ही मुश्किल से निकल पा रहा था। मोड़दार चढ़ाव पार करके वे एक चौरस स्थान पर आने वाले थे कि शंका हुई। मजबूत सिंह सबसे आगे था तो उसने संकेत की भाशा से सभी को बता दिया। सबके सब पोजीशन में आ गये। उधर से आवाज आई ‘कौन ?‘

माधव ने उत्तर दिया -‘तुम्हारे बाप।‘

‘मेरा बाप तो कबका मर चुका होगा।‘

‘अबे मरा नहीं है तेरे सामने है।‘

‘तो हो जाये।‘

‘तो बेटा तुम सामने पड़ ही गये। यदि साहस न हो तो अभी भी निकल भागो।‘

व्ह बोला-‘‘तुम मेरे रास्ते से हट जाओ।‘

‘यह नहीं हो सकता, माधव ने पीछे हटना नहीं सीखा है। इच्छा हो रही है तो हो जाये, दो दो हाथ।‘

‘बाजी आज नहीं फिर होगी।‘

‘क्यों ?‘

‘मेरे साथी मेरे साथ नहीं हैं। और तुम पूरे दल-बल के साथ हो।‘

‘तो वापिस चले जाओ। लेकिन मेरे नाम पर गरीबों को अब न सताना।‘

थोड़ी देर बाद एक धमाका हुआ। वह वापिस जा चुका था। सभी समझ गये।

उस दिन की घटना के बाद उदय के दिल में एक कसक पैदा हो गई थी। वह मन ही मन माधव से बदला लेने बेचैन रहने लगा।

इस घटना के बाद माधव की धाक जम गई थी। अब तो माधव अन्य छोटे डाकुओं से जो कुछ वसूल कर लेता, उसी से खर्च चलता था। पुलिस का हिस्सा पहुंचना बन्द हो गया था। पुलिस इन दिनों माधव की गेंग के पीछे पड़ गई थी। खाने-पीने के लाले पड़ने लगे। दल को भूखा प्यासा रहकर समय गुजारना पड़ता था। माधव का स्वास्थ्य गिरने लगा।

शीतला देवी के मेले का समय आ गया। माधव आशा से मेले के समय घर आने को कह आया था। उसे आत्मशुद्धी के लिए देवी के दर्शन भी करने थे। इसलिए उसने सारे दल को जंगलों में ही छोड़ दिया। बोला -

‘आप लोग मेरी तरह चलेंगे तो जल्दी ही मारे जायेंगे, इसलिए अब आप लोगों को जैसा लगे वैसे करो मैं शीतला देवी के दर्शन करने जाना चाहता हूँ।‘

‘सभी बोले -‘हम भी साथ चलें।‘

‘नहीं मैं ही अकेला जाना चाहता हूँ। उधर पुलिस से मुठभेड़ हो गई तो अपने दल के पास उतना अमनेशन भी नहीं है इसलिए ं ं ं। माधव की बात सभी मान गये। माधव देवी दर्शन करने के लिये चलपड़ा।

शीतला देवी का मेला चैत्र की नव दुर्गाओं में सप्तमी के दिन लगता है। मेला तीन दिन तक चलता रहता है। माधव मेले के एक दिन पहले ही अपने गांव पहुंच गया। सीधा अस्पताल ही पहुंचा। चुपचाप अस्पताल में भर्ती मरीजों को देखने लगा। यह देखकर उसे बडा संतोश मिला। अब उसकी नजर एक नर्स पर पड़ गई। मरीजों के बिस्तरों को ठीक कर रही थी। बिस्तर ठीक करते में उसकी सूरत माधव को दिख गई। आशा मरीजों की सेवा में लगी थी।

डसने भी माधव कारे देख लिया। वह डॉक्टर से छुट्टी मांग कर घर चली आई।

घर आकर अपने कमरे में पहुंच गई। माधव आशा के बिस्तरे पर आराम से लेटा, उसके आने की प्रतीक्षा कर रहा था। आशा उसे देखकर बोली -‘अरे आप यहां ! मैं तो सोच रही थी जाने कब तक आयेंगे।

‘ तुमने मुझे देख लिया था।‘

‘आप पुलिस की निगाहों से बचकर भाग सकते हैं, पर मेरी निगाहें धोखा नहीं खा सकतीं। तभी तो मैं अस्पताल से छुट्टी लेकर चली आई हूँ।‘

‘तुम्हें छुट्टी मांगनी पड़ती है।‘

‘ंहां माधव, जब मैं आपना पेट भरने के लिए वेतन लेती हूँ तो डॉक्टर से पूछकर ही अस्पताल छोड़ना पड़ता है।‘

‘तो तुम नौकरी करने लगी हो ?‘

‘सेवा के बदले आपको अस्पताल से जो कुछ मिल जाता है। मैं उससे संन्तुश्ट हूँ।‘

‘ठीक है भई ! अब तो तुम मेरे पैसे पर भी निर्भर नहीं रहीं।‘

‘ लूट- खसोट के धन पर कब तक जिया जा सकता था?‘

‘अरे वाह ! भई मान गया। कितनी ऊंची किस्मत है जो इतने ऊंचे विचारों वाली पत्नी मिली हैं।‘

‘चलो-चलो रहने दो। इतने दिनों में खबर ली है और आपने अपनी ये क्या सूरत बना रखी है ?‘

‘सूरत बना डाली है या बन गई है।‘

‘क्यों ?‘

‘बस एक चिन्ता बनी रहती है।‘

‘मैं भी तो सुनूं।‘

‘बस तुम्हारी गोद भर जाती। शादी के इतने दिन हो गये अभी तक ं ं ं ?‘

‘आपको ऐसा लगता है‘ लेकिन मुझे कुछ भी नहीं लगता। दिन भर तो बच्चों की सेवा में लगी रहती हूँ।‘

‘फिर भी मन तो होता ही है। मैं सोचता हूँ देवी से इस वर्श यही मांग लूं।‘

‘और मैं देवी से क्या मांगूं ?‘

‘जो चाहो ं ं ं। वैसे तुम भी यही मांगना। दोनों की बात देवी जरूर सुन लेगी।‘

‘यह सुनकर बात टालते हुए बोली -‘आप तो यूं ही कुछ भी सोचते रहते हैं। आज उपवास करोगे या कुछ खाओगे-पिओगे भी ?‘

‘जैसी घर मालिक की इच्छा हो उपवास कहेंगे उपवास कर लेते हैं। खाना खिलायें, खाना खालेंगे।‘ यह सुनकर वह चुपचाप रसोई घर में चली गई।

सुबह चार बजे से पहले ही माधव उठ गया। मेले में मिलने का वादा करके घर से चला गया। अब आशा रात की बातों की यादें सजोने में लग गई थी। वह सोचने लगी- ‘ऐसी रातें हमेशा मिलती रहें पर अपने नसीब में कहां रखी हैं । ऐसी रातें तो कुछ ही सुहागिनों को मिल पाती हैं।‘ वह सोचते हुए उठ खड़ी हुई और सुबह से ही मेले में जाने की तैयारी करने लगी।

हर वर्श की तरह मेले में जाने वालों की सुबह से ही भीड़ प्रारम्भ हो गई थी। आशा सुबह का खाना खा-पीकर घर से निकल पड़ी। एक टोले के साथ वह भी चली जा रही थी। औरतें लोकगीत गाती हुई चली जा रहीं थीं।

‘सुन ले, सुन ले, रे लंगुरिया।‘

और आशा थी कि चुपचाप कुछ सोचते हुए उनके पीछे-पीछे चली जा रही थी। ‘मां इन सब झगरों से मुक्ति दिला दे। जिससे मैं चैन का जीवन व्यतीत कर सकूं। और हां माधव की भी इच्छा पूरी हो जाये क्या-क्या मांगूंगी ?‘ निर्णय नहीं कर पा रही थी।

इस मेले में दूर-दूर से लोग आते हैं। बागी लोग भी मन की मुरादें लेकर बेश बदलकर मेले में आते हैं। माधव मेले में पहुंच चुका था। वह सोच रहा था- देवी से दया की भीख मांग ली जाये। नहीं आशा के लिए बच्चा मांग लिया जाये। हम लोगों को मार तो सकते हैं पर एक बच्चा पैदा नहीं कर सकते ?

इसके लिए देवी से भीख मांगनी पड़ रही है। नहीं, मेरे से यह भीख नहीं मांगी जायेगी। आशा मांगे चाहे न मांगे। मैं तो देवी से आत्मशान्ति मांगने आया हुं। नहीं आशा के लिए भी कुछ मांगना ही पड़ेगा। इसके बिना आत्मसन्तोश मिलना भी सम्भव नहीं है। यह सोचते-सोचते वह देवी के सामने पहुंच गया। मन में कहा -

‘मां आशा के जीवन को सहारा दे दे और मुझे आत्म शान्ति।‘ यह सोचने में पीछे से भीड़ का धक्का पड़ा और वह देवी के सामने से हट गया।

माधव की स्थिति से आज उदयभान की स्थिति भिन्न न थी। वह माधव से बदला चुकाने का वरदान मांगने देवी के पास आया था। उस दिन हुए अपमान ने उसे दिन-रात सोने नहीं दिया था।

मन बुरी तरह से तप रहा था। सारे दल को इस आग में झोंकने के लिए व्याकुल हो रहा था। राधू भी क्या बेवकूफ बागी है ? उस दिन जिस दिन राधू का बाप राधू को डाकुओं के गिरोह में भरती करवाने आया था। कितना गिड़गिड़ाया था। जाने वह ससुरे पर क्यों पसीज गया। मूर्ख है पता चलाने भेजा था कि माधव मेले में किस रास्ते से आयेगा? और वह पता चला लाया कि माधव मेले के लिए रवाना हो गया।

आज तो माधव मेले में अवश्य मिल सकता है। न हो तो वहीं गोली मार दूंगा। यह सोच करके अपनी जेब में पिस्तौल लोड करके डाल ली। गले के अन्दर थोड़ी-सी रम भी डाल ली। सारे दल को मेले के बाहर लगा दिया। स्वयं ने बेश बदलकर मेले में प्रवेश किया। आंखें माधव की खोजने में लग गईं। कहीं देखा तो पहचान पाता। सोचते हुए मेले में निर्द्वन्दता से घूमने लगा जैसे शेर जंगल में निर्द्वन्द होकर विचरता है।

मेले में थोड़ा घूम फिरने के बाद उसने सोचा - आज हो ही जाये। पर वह भी बेश बदल कर आया होगा। यह सोचते हुए उदय भान की निगाहें माधव को ढूंढने में लगी हुई थीं।

आशा, देवी मां के दर्शन करने के बाद, माधव द्वारा निश्चित स्थान की ओर चल दी। आशा को भूख लगने लगी थी वह इसलिए कहीं नहीं जा पा रही थी कि इधर यहां माधव आये तो ं ं ं ं। लम्बी प्रतीक्षा के बाद एक फकीर उधर आता हुआ दिखाई दिया। वह अपने हाथों में खाने-पीने का सामान लिये था। वह आशा के पास आकर खड़ा हो गया। आशा उसे पहचान गई धीरे से बोली -

‘कब से प्रतीक्षा कर रही थी। किसी फकीर की। भूख के मारे मरी जा रही हूँ सोच रही हूँ आज किसी फकीर के हाथ का खाना खाऊं।‘

‘मैं किसी सुहागिन को तलाशता आया हूँ। अपने साथ उसे खिलाने के लिये मिठाइयां ले आया हूँ।‘ बातें करते-करते एक झाड़ी की आड़ लेकर छाया में बैठ गये। लोगों की निगाहें भीड़ की तरफ थीं। दोनों ने खाना-खाना शुरू कर दिया।

इसी समय सूटबूट में एक बाबूजी वहां आ खड़े हुए। आशा को शंका हुई। शायद पुलिस वाला है। फंस गये।‘

‘तुम चिन्ता न करो आशा । वे यहां मुझे नहीं पकड़ सकते। ना ही वे यहां गोली चला सकते हैं।‘

‘क्यों नहीं चला सकते गोली ?‘

‘ यहां भीड़ है। एक गुनहगार को मारने में यदि बे-गुनाह मर जाये। बात करते में वह और पास आ गया। पास आकर बोला- ‘आप पर पानी पीने के लिये कोई बर्तन है ?‘

आशा बोली -‘हां है तो ं ं ं।‘

‘तो जरा दीजिये पानी ले आता हूँ प्यास लगी है।‘ कहकर ओठों पर जीभ फेरने लगा।

माधव ने यह हरकत देख ली अपना खप्पर उसकी ओर बढ़ा दिया वह उस खप्पर को लेकर पानी लेने चला गया। लौटा तो पानी लेकर ।‘

‘ये लो।‘

‘आशा ने पानी ले लिया।‘

वह बोला ‘आप महाराज कहां के हैं ?‘

माधव ने समझा दाल में काला है बोला -‘मैं ं ं ं बेटा फकीरों का क्या ठिकाना ?‘

उसने तीर चलाया -‘अरे इस मेले में तो ठिकानेदार फकीर भी मिल जाते हैं।‘

माधव के मुंह से निकला -‘तुम कौन हो ?‘

‘छोड़ो फकीर जी अपना काम देखो। वे मतलब किसी का पता न पूछा करो।‘

‘पता पूछने की अपनी यह पुरानी आदत है तुम कहते हो, पता न पूछा करो।‘

‘मैं सोचता हूँ तुम ं ं ं।‘

‘हां और मैं सोचता हूँ तुम ं ं ं।‘

‘पुलिस वाले हो।‘

उदयभान बोला और तुम ं ं ं?

‘नहीं उदय। हम गलत जगह फिर टकरा रहे हैं।‘

‘इससे अच्छी जगह कौन सी हो सकती है ?‘

‘हां यहां पुलिस भी मौजूद है पकड़े गये तो दोनों पकड़े जायेंगे।‘

दोनों एक दूसरे को पहचान गये तो माधव मैदान में आ गया। बोला- ‘आशा तुमने इसे पहचाना नहीं। ये उदयभान है मेरा पक्का दुश्मन है।‘

‘तो आप माधव की पत्नी है आपको मैंने अस्पताल में देखा था इसी अन्दाज से इधर आ गया। माधव से दो दो बातें करनी थीं।

‘कहिए क्या हुक्म है ? वैसे दुश्मनी दोस्ती में बदली जा सकती है।‘

‘कैसे ? मेरा जो अपमान हो गया ?‘

‘बात तुम्हारी तरफ से बढ़ी है और मैं दोस्ती का हाथ बढ़ा रहा हूँ।‘

‘तो भी मेरी बातें माननी पड़ेंगीं।‘

‘यह तुम्हारा हठ है चलो हम स्वीकार कर लेते हैं।‘ बीच में आशा बोल पड़ी-‘यही तुम्हारी कायरता है।‘

‘इस कायरता में भी बाजी हारी नहीं जा सकती ।‘

आशा चुप रह गई माधव ने पूछा -‘उदय एक बात बतलाओ, वे मतलब तुमने मुझसे दुश्मनी क्यों पाल रखी है ?‘

‘मुझे तुमने नहीं बल्कि तुम्हारे कस्बे के सभी लोगों से सख्त नफरत है।‘

‘क्यों ?‘

‘यह एक लम्बी कहानी है।‘

‘लम्बी कहानी ?‘

‘एक ऐसी कहानी जिसने मुझे बागी बना दिया और मैं तुम्हारे कस्बे के लोगों का दुश्मन बन गया हूँ। ‘

‘ऐसी क्या बात है ?‘ यही पूछने पर उदय ने एक चित्र निकाला और माधव को दिखाते हुए बोला -

‘यह मेरी मां का है।‘ माधव चित्र को देखकर अपनी मां की याद करने लगा लेकिन उसे कुछ भी याद नहीं आया उसकी मां तो जब वह दो वर्श का बच्चा था ं ं ं। आह ! काश ! मां की याद होती।‘

वह इतना ही सोच पाया था कि उदय कहने लगा -‘बहुत दिनों की बात है मेरी मां मर रही थी। मेरी मां को लेकर कस्बे में तरह-तरह की अफवाहें उड़ा करतीं। मैं मां से पूछता तो मां टाल देती थी। लेकिन जिस दिन मां मर रही थी बोली -‘बेटा तू जो पूछा करता था वे सब बातें सच हैं।‘ बात सुनकर मैं रो पड़ा था। मैंने कहा -‘मां कह दे वे सब बातें झूठी हैं।‘

‘बेटा झूठ-झूठ होता है और सच, सच होता है। झूठे के सहारे सच को कब तक गुमराह किया जा सकता है। अन्त में विजय सच की होती है।‘ कुछ देर वह रूकी। उसने पुनः कहना शुरू किया -

‘यही कारण है कि लोग मेरे चरित्र को लेकर तुझसे व्यंग्य करते हैं। मैं तेरे दिल को दुखाना नहीं चाहती थी। इसीलिए झूठ बोल देती। आज अन्त समय में तो सच कहना पड़ रहा है। तू राव वीरेन्द्र सिंह से बदला जरूर ले लेना। जिसने तुझे दूसरे बाप का बना दिया। उसने मेरी सुन्दरता का लाभ उठाकर तेरे पिता को कहीं भेज दिया इधर गुन्डे लगा दिये। मुझे इस कस्बे में लाकर दो हजार रूपये में बेच दिया। आदमी के बस में जब आदमी पड़ जाता है तो निकल भी नहीं पाता। यहां लाकर मेरे साथ जो हुआ। मैं लौटती भी तो कौन सा मुंह लेकर ? अब वह कहने से रूका ं ं ं । तो माधव ने पूछा - ‘फिर ?‘

‘मैं मां के पेट में था मां के साथ मैं भी बिक गया। मेरी मां एक जमींदार की रखैल थी। और मैं लगेटा। वह मेरे साथ कुत्तों की तरह व्यवहार किया जाता था। मुझे उस जमींदार से सख्त घृणा थी।

मां के मरने के बाद मैंने उन सभी से बदला लेने की प्रतिज्ञा कर डाली जिन्होंने मेरी मां को कहां से कहां पहुंचा दिया।‘ मां के मरने के बाद एक दिन उस जमींदार से मेरी कहा सुनी हो गई। उसने मां के बारे में भला-बुरा कहा तो मैंने रात को सोते समय उसी की बन्दूक से उसकी हत्या कर दी और मैं बागी बन गया।‘ आशा और माधव एक चित्त हो उसकी कहानी सुने जा रहे थे। उसे देख आशा बोली -‘फिर ?‘

‘फिर मैंने आपके कस्बे में चक्कर लगाना शुरू कर दिये। लोगों को उजाड़ना मेरा काम हो गया। मैं राव वीरेन्द्र सिंह को मारना चाहता था पर ं ं ं।

‘पर क्यों नहीं मार सके ?‘

‘इसलिये कि उसने मेरे कुछ साथियों को मिला लिया था। मैंने सोचा इसे तो कभी भी उड़ा दूंगा। एक बार मैं उस कस्बे में एक सेठ केे यहां डाका डालने भी गया था। दृश्टि वीरेन्द्र सिंह पर थी। उसकी किस्मत अच्छी निकली मौका नहीं लग पाया।‘

माधव याद करते हुए बोला -‘सेठ के यहां ?‘

‘हां सेठ के यहां। तुम ऐसे क्यों पूंछ रहे हो ?‘

‘उस दिन लौटते वक्त किसी युवक ने तुमसे पैसे तो नहीं मांगे थे।‘

‘लेकिन उस युवक को तो राव वीरेन्द्र सिंह ने फंसवा दिया था।‘

‘तो क्या राव वीरेन्द्र सिंह डाकुओं से मिला हुआ नहीं था ?‘

‘मिला हुआ तो था। हमारे दल का जो पहले सरदार था वह उसका दोस्त था। इसलिये मैं उसका कुछ न बिगाड़ पाया था। उसने मुझे समझा बुझा दिया कि फिर कभी बदला ले लेना।‘

‘और तुम मान गये थे।‘

‘सरदार की सलाह तो माननी ही पड़ती है। आज कोई मेरे दल में मेरी बात न माने तो मैं ं ं ं।‘

बात सुनकर बात माधव ने बढ़ाई -‘ठीक है जो हुआ, सोे हुआ मैंने उसकी हत्या कर दी थी मेरे पास उसी की बन्दूक है।‘

‘वह शिकार मेरा था और तुम खा गये ?‘

‘तुमनें उसे शिकार बनाया होता तो आज मैं एक शरीफ आदमी होता। नहीं नहीं राव वीरेन्द्र सिंह तुम्हारा नहीं मेरा ही शिकार था। उसने मेरी मां को मरवा डाला था नहीं नहीं बेच दिया था। मरने की बात पिताजी कहा करते थे।‘

‘तब तो तुम मेरे भाई हो।‘

‘मुझे यही लगता है कि तुम ं ं ं तुम ं ं ं ।‘

‘हां उदय यह तुम्हारी भाभी है।‘

‘कोई भी यकीन नहीं करेगा हम दोनों ं ं ं भइया।‘ कहते हुये उदय ने माधव के चरण छू लिये। आशा बोले बिना न रही ‘यहां भरत मिलाप हो रहा है कहीं पुलिस तो सेंध तो नहीं लगा रही। उसी समय कुछ लोग भागते हुये वहां से निकले।‘

‘अरे छोड़ो आशा ये मेले-ढेले हैं। फिर भी ं ं ं। तीनों उठ खड़े हुये अब ऐसी जगह पहुंच गये जहां से भाग पाना सरल था। आशा बोली -‘घर चलें‘

‘उदय ने उत्तर दिया -‘भाभी ,आज मुझे छुट्टी नहीं दोगी।‘

‘क्यों ?‘

‘आज तुम्हारी देवरानी प्रतीक्षा कर रही होगी।‘

‘अरे वाह ! तब कोई छोटा ं ं ं।‘

‘हां भाभी दो छोटे बच्चे भी हैं।‘

‘बच्चों की बात सुनकर माधव बोला-‘लो देवी ने तुम्हारी इच्छा तो हाल ही पूरी कर दी।‘

‘अपनी-अपनी किस्मत है ? मैं अभी आई‘ यह कहते हुए आशा मेले में खो गई। दोनों वहीं खड़े रहे। थोड़ी देर बाद आशा लौटी। उसके हाथ में देवी का प्रसाद था।

‘यह क्या भाभी ?‘

‘इच्छा पूरी हो गई तो देवी का कर्ज चुकाना ही था।‘

‘भाभी ं ं ं।‘

‘इसे बच्चों के लिए लेते जाओ।‘

‘आप ही लेती चलो।‘

‘हां यह ठीक है क्यों जी दोनों ही बच्चों के पास चलते हैं।‘ सभी सोचते हुए मेले से चले गये।

उदयभान के बच्चों को देखकर दोनों बेहद खुश थे। आशा पढ़ने लिखने के लिये बच्चों को अपने गांव रखना चाहती थी बोली -‘मैं चाहती हूँ ये बच्चे मेरे साथ रहेंगे।‘

‘उदय बोला -‘कौन, मना करता है भाभी उन्हें एक अच्छा सहारा मिल गया है।‘

‘सच !‘

‘सच भाभी।‘