तानाबाना - 18 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

तानाबाना - 18

18

पाकिस्तान से पलायन के माहौल से उपजी निराशा ने इस नवदम्पति को अभी तक अपनी गिरफ्त में कस कर जकङ रखा था । रवि एकदम वितरागी हो गया था, जङभरत । कोई उठा देता तो उठ जाता, खिला देता तो खा लेता, कपङे निकाल कर हाथ में पकङा देता तो नहाने चल देता और बाजार के सौदे की परची थमा दी जाती तो ताश खेलते लोगों के सिरहाने जा खङा होकर खेल देख रहा होता । अक्सर उससे परची खो जाती । रात को सोता तो डरकर चीखता हुआ उठ बैठता । हाथ में खून सनी नंगी तलवारें थामे जुनूनियों की मारो मारो, भागने न देना की आवाजें उसे पसीना पसीना कर देती । उसने लोगों को लाखों का सामान फैंक कर जान बचाने के लिए भागते देखा था । भले घर के लोगों को लाशें लूटते भी देखा था और लोगों को अपनी जान बचाने के लिए दूसरों की जान लेते भी । खून की नदियों के बीच घायलों को पङे भी देखा था और किसी की जान बचाते भी । इस सबने उसे सुन्न कर दिया था । वह जहाँ बैठता, सोचता ही रह जाता । घोर नास्तिक हो गया था वह । ईश्वर औऱ उसका अस्तित्व उसके लिए बेमानी हो गया था ।

उधर उसकी पत्नि ने विधर्मियों से बचने के लिए सहेलियों के जहर खा कर मरने की खबरें सुनी थी । घर बार का छूटना देखा था । चाचा जिसे वह बहुत प्यार करती थी, उसका पीछे पाकिस्तान में छूट जाना भी देखा था । रस्ते में ताऊ की बेटी और अपने नवजात भाई का मरना भी देखा । माँ और मौसी के शारीरिक और मानसिक रोग भी देखे और परिवार का बिखर बिखर के संभलना भी । गरीबी तथा भूख भरपूर देखी । मंगेतर के बिछुङ जाने के बाद मिल जाने और शादी हो जाने की अविश्वसनीय घटना को घटते भी देखा । इस सबने उसे कट्टर आस्तिक बना दिया । वह छोटी से छोटी बात के लिए ठाकुर जी पर आश्रित हो गयी । आटा गूंधती तो हाथ जोङ कहती – हे राम जी, ये अच्छे से गुंध जाए । रोटी परोसती तो कहती – हे भगवान, सब आराम से खा लें । भगवानजी, आज कोई गुस्सा न हो जाएँ । बाल सँवारने से पहले कहती –हे मातारानी, मेरा कंघा मिल जाए और सामने आले में रखा कंघा उठा कहती – शुक्र है, माता रानी मिल गया । घर में सब ठीक रहते तो भगवान को हाथ जोङ लेती और कोई नाराज हो जाता तो हाथ जोङ लेती । इस तरह हर छोटी बङी बात पर उसका ईश्वर से संवाद चलता रहता । जितना उससे सध पाता, उतना काम में हाथ बँटाती । बाकी समय में नानी के दिए गए गुटकों में से पाठ करती या कोई कढाई, सिलाई लेकर बैठ जाती और सुंदर सुंदर बेल बूटे बनाती । उसके व्रत – उपवास का क्रम उसी तरह से चलता रहता । हफ्ते में दो तीन व्रत तो आम ही थे,किसी किसी हफ्ते चार भी हो जाते । सब्जी के साथ रोटी खानी उसे आती ही न थी । वहाँ सतघरे में घर की भैंसें – गाय थी तो रोटी पर नानी मक्खन का पेङा रख देती । या चूरी की पिन्नी बना देती, घी से तरबतर । अब वे सुहाने दिन सिर्फ यादों में जिंदा थे । पति पत्नि में संकोच की ऊँची दीवार अभी ज्यों की त्यों थी, हाँ दीवार के कोनों के ऊपर से ताका – झाँकी होने लगी थी और कुछ कुछ मोह भी । इसी में धीरे धीरे दो साल बीत गये । दुरगी चौका सँवार के सब्जी बनाती । बरतन साफ करती और भी कई छोटे बङे काम रहते जो सारा दिन उसे करने होते । कमर सीधी करना वह जानती ही न थी । सुबह चार बजे उठती तो रात को नौ बजे ही चारपाई पर लेटती । तब भी देवर की बेटी को कहानी सुनाकर सुलाने की जिम्मेदारी उस पर ही होती ।

उधर सहारनपुर में प्रीतम के जाने के बाद परिवार धीरे धीरे संभलने लगा था । चंदर ने हरिद्वार से बीस किलोमीटर पहले अपना डेरा बना लिया था और अपने श्रद्धालुऔं की खोज में लगा था । उसके बच्चे बङे थे तो सब धीरे धीरे काम धंधे पर लग गये थे । वह मंगला को लेने आया, गंगा स्नान का लालच भी दिया पर मंगला ने छोटी बेटी के दुख सुख में साथ देने का फैसला कर लिया था इसलिए वह हर अमावस और संक्रांति को बेशक हरिद्वार नहान को आते जाते बेशक एक दो दिन के लिए उनके पास रुक जाती पर रहती वह छोटी के साथ ही रही । इस परिवार के चारों बेटे दिन में पाठशाला जाते, दोपहर से रात तक फेरी लगाते । कभी मलाई कुलफी, कभी मूँगफली या टमाटर की । जो भी मिल जाए,उसकी । जो पैसा आता, परिवार अपना गुजर बसर करता । सुरसती की बीमारी भी इस भाग दौङ में खुद ही डर कर भाग गयी । वह गुरद्वारे की सेवा करती । पाठ करती । कोई व्रत त्योहार होता तो कथा कहानी सुनाती । दिन बीत रहे थे ।

एक दिन धर्मशीला जिसे सब धम्मो कहने लगे थे, बाल सँवार रही थी । बाहर बरतनों का ढेर चौके से आँगन तक बिखरा पङा था । दुरगी बरसात से पहले गोबर और चिकनी मिट्टी से छतें लीप रही थी कि चाची का गुस्सा फट पङा – ये सिंगार पटार तो सारा दिन करना खूब याद रहता है, ये भंडोर बाहरले दरवाजे तक खिलरी पङी है, ये नहीं दिखाई देती । और चाची एक बार शुरु हुई तो ले राम का नाम, पूरे तीन साल का ज्वालामुखी एक दिन ही फट गया । धरमशीला सिर झुकाए अपराधिनी की तरह सुने जा रही थी । दुरगी ने शोर सुना तो मिट्टी से सने हाथ लिए दौङी चली आई – बहु को क्यों कोस रही है, बस थोङी सी छत रह गयी है, मैं माँज लूँगी । जेठानी की बात ने जलती आग में घी का काम किया - तू चुप कर भाभी, तेरे लाड ने इसे सिर पर चढा दिया है । आज तो बरतन यही माँजेगी । तब तक रवि भी आ गया । देखा – धरमशीला एक कोने में खङी रो रही है । माँ अलग सिर झुकाए है और चाची गरम हुई जा रही है । उससे रहा न गया – चाची,ये मीट को हाथ नहीं लगाती न, बरतन मैं माँजू ।

चाची का गुस्सा और भङक गया – लो एक और आ गया,जोरु का गुलाम ताश खेल के । दिन भर काम न काज । दोनों टाईम रोटी के टाईम ही घर याद आता है । तू इतना बङा हो गया कि मुझसे जबान लङाएगा । निकलो अभी की अभी घर से, दो दिन खुद कमाके खाओगे न तो सारी अक्ल ठिकाने आ जाएगी । रवि बाहर जाने के लिए मुङा । अब तक चुपचाप खङी धरमशीला ने दो जोङे अपने उठाए और एक कमीज रवि की और दौङ के रवि के पीछे पीछे चल दी । मोङ मुङकर जब रवि मेन सङक पर आया तो उसे पीछे पीछे आती पत्नि दीखी – तू कहाँ चल दी जनकदुलारी बन के ।

जहाँ तुम जाओगे ।

मैं तो ताश देखने जा रहा था, थोङी देर में चाची का गुस्सा शांत हो जाता तो घर वापस चला जाता । अब तू लटक गयी साथ, तो बता, कहाँ चलें । अब तो घर भी नहीं जा सकते ।

दोनों पैदल चलते चलते स्टेशन पहुँच गये । दोनों ने अपनी अपनी जेब टटोली । रवि के पास घी लाने के लिए चाचा के दिए तीन रुपए थे और धरमशीला के पास चार रुपए, कुल मिलाकर सात रुपए । सहारनपुर के लगते थे पाँच रुपए तो बारह रुपए जेब में होने चाहिए थे । तब तक गाङी के आने की घोषणा शुरु हो गयी और भाप छोङते इंजन का धुँआ दिखाई देना शुरु हो गया । पता लगा – ये गाङी फिरोजपुर जा रही है तो रवि दौङ कर दो टिकट ले आया । दो रुपए की दो टिकट, अभी भी जेब में पाँच रुपए पङे थे । गाङी आई तो दोनों गाङी में सवार हो गये ।

हम कहाँ जा रहे है ?

फिरोजपुर,वहाँ मेरी बुआ रहती है ।

दो घंटे बाद गाङी फिरोजपुर पहुँची तो दोनों संकोच से भर उठे । खैर जैसे तैसे बुआ के घर गए, पहली बार दोनों अकेले घर से निकले थे । बुआ के पास रात रहे । सुबह सारी कहानी सुन के उसने पाँच रुपए और सवा मुट्ठी पतासे शगुण दे घर से विदा कर दिया ।

अब वे दोनों जालंधर जा पहुँचे । मामा कई साल बाद मिले अपने भानजे को देख कर बङा खुश हुआ, पर मामी कैसे खुश होती,उसके अपने नौ बच्चे थे । एक कमरे का घर । कभी बच्चों को भरपेट खाने को नहीं मिला, ऊपर से ये दो प्राणी आ गये । एक समय तो उसने इधर उधर से जुगाङ करके रोटी खिला दी और साथ ही पति को हिदायत भी दे डाली कि जितनी जल्दी हो सके . उतनी जल्दी इन्हें विदा करो । प्रत्यक्ष में वह इन लोगों से अपनापन जताती रही – बेटा,मैने तो तेरी माँ को बथेरा समझाया,भई इससे अच्छा तो कोई खसम कर ले, पर नहीं उसे तो सारी जिंदगी कलंक का टिक्का लगवा के बदनामी लेनी थी । सारी उम्र जूठन मांजी और ये सिला दिया उस दुष्ट ने । सोने जैसा बेटा और चाँद जैसी बहु दूध की मक्खी की तरह घर से बाहर फेंक दिय़े ।

रवि ने बात काटी –चाचा तो घर पर ही नहीं थे मामी । चाची का गुस्सा थोङी देर में शांत हो जाता,पर ये निकल आई मेरे पीछे पीछे ।

न जी न बेटे । तेरे चाचे की मरजी के बिना चाची इतनी बङी बात न कह सके थी । शरीक तो शरीका निभाएगा ही । अब क्या करोगे ।

ये तो इन दोनों ने अब तक सोचा ही नहीं था । क्या बताते । और वापिस जाते तो किस मुँह से । दोपहर में मामा ने सहारनपुर की टिकटों का जुगाङ कर दिया तो दोनों सहारनपुर चल पङे ।

रेट व् टिपण्णी करें

sneh goswami

sneh goswami 2 साल पहले

Good narrated

Kinnari

Kinnari 2 साल पहले

Jarnail Singh

Jarnail Singh 2 साल पहले

good story. very interesting. effects of partition described beautifully.

Sneh Goswami

Sneh Goswami मातृभारती सत्यापित 2 साल पहले

रोचक और आनन्द दायक

Ranjan Rathod

Ranjan Rathod 2 साल पहले