विवेक दत्त के दो पुत्र श्याम और राधे थे। विवेक दत्त जी ज्यादा पढे लिखे नही थे लेकिन शिक्षा का महत्व बखूबी समझते थे। इस लिये विवेक दत्त जी ने अपने दोनों ही बेटों को अपनी जी जान लगाकर पढाई करवायी थी। दोनों ही बेटे आज घर से दूर शहर में नौकरी में थे। दोनों ही बेटे घर से दूर जरूर थे लेकिन अपने पिता और माता जी से मिलने वे समय समय पर गाँव जरूर आया करते थे उनके लगभग सभी त्यौहार घर में ही मनता था। शहर में मनाते भी तो किसके साथ कोई अपना था भी तो नही। बड़े बेटे श्याम की शादी का रिश्ता श्याम की ही कम्पनी के मैनेजर के घर से आया घऱ परिवार बढिया देखकर विवेक दत्त जी ने हाँ कर दी। गाँव समाज में कभी कभी ही चार पहिया वाले देखने को मिलते थे फिर यहाँ तो रिश्ता वाले खुद की गाड़ी से आये थे। इस कारण से विवेक दत्त जी की गाँव में आभा और अधिक बढ़ गयी थी। अगले ही लगन में श्याम की शादी मिनल के साथ कर दी गयी। मैनेजर साहब की इकलौती बेटी थी तो दान दहेज भी मैनेजर साहब ने खूब दिया था। विवेक दत्त बहुत खुश थे उनके जीवन भर की मेहनत रंग ला चुकी थी। शादी के दो महीने बाद ही श्याम ने मिनल को अपने साथ ले जाने की जिद पकड़ ली बोला वहाँ मुझे रहने खाने की दिक्कत होती है। विवेक दत्त और उनकी पत्नी सुमित्रा का मन तो नही था लेकिन बेटे की जिद्द के आगे उन्होने हार मान ली। मिनल शुरू से ही शहर में पली बढी थी। उसे गाँव का वातावरण बिल्कुल भी पसन्द नही आता था। वह समय समय पर श्याम के सामने ही इंग्लिश में गाँव और गाँव वालों को जाने क्या क्या गालियां देती रहती थी। पहले तो श्याम को बुरा लगता था लेकिन बाद में वह भी गृह कलह से बचने के लिये चुप रहने लगा।धीरे धीर अब श्याम का गाँव आना कम होने लगा था और जब कभी आता भी तो दहेज में मिली गाड़ी से आता और कम्पनी में काम है यह कह कर उसी दिन वापस चला जाता था। यह बात विवेक दत्त को बहुत बुरी लगती थी लेकिन वो चाहकर भी कुछ कर नही पाते थे क्यों कि सुमित्रा उन्हे रोक लेती थी। उधर राधे को भी शहर में ही अपनी कम्पनी की ही एक पंजाबी लड़की पम्मी से प्यार हो गया और चुपचाप वहीँ शादी भी कर ली। विवेक दत्त को जब इस बात की जानकारी हुई उन्होने राधे से बात करना बन्द कर दिया। नतीजा यह हुआ के राधे भी अब गाँव नही आता था। विवेकदत्त और उनकी पत्नी सुमित्रा अब बूढे हो चले थे। लेकिन बड़े से घर में उन दोनो के सिवाय कोई नही था। श्याम को एक बेटा और एक बेटी हुई । बच्चों के साथ ही श्याम का ट्रान्सफ्रर दूसरे शहर हो गया नतीजा अब ससुराल से दूरी हुई तो जो खाली समय बचता श्याम मिनल के साथ ससुराल चला जाता था। राधे को भी एक बेटा हुआ विवेक दत्त दोनों बच्चों की तरक्की से खुश तो थे लेकिन जब अपने अन्य दोस्तों को नाती पोतों के साथ खेलता देखते तो मन ही मन आँसूओं के घूट पीकर रह जाते थे। राधे से सुमित्रा को ज्यादा लगाव था तो विवेक दत्त से झगड़ा करके वो राधे और पम्मी के पास कुछ दिन के लिये रहने चली गयी। पम्मी स्वभाव से बहुत अच्छी थी लेकिन उसे न तो गाँव की कभी कोई अनुभव था ना ही विवेक दत्त की नाराजगी के चलते राधे उसे गाँव ले जा पाया। राधे और श्याम के बेटे- बेटियों से सुमित्रा समय समय पर मिल आती थी। सुमित्रा अपने ही बेटों के यहाँ पर मेहमानों की तरह खुद को महसूस करती थी इस लिये ज्यादा दिन रूकती नही, तुम्हारे पिता जी अकेले होंगे का बहाना कर के सुमित्रा वापस आ जाती थी। पता नही क्यों जहाँ एक ओर पोते पोतियों के साथ खेलने को विवेक दत्त का मन तरसता था तो वही दूसरी ओर अपने आँगन को जिसे उन्होने बड़े प्यार से अपने पोते पोतियों के खेलने के लिये बनवाया था खाली देख कर बेटो पर गुस्सा बढ़ जाता था जब वे ये घर बनावा रहे थे तब ही कहते थे देखना सुमित्री एक दिन मेरे इस आँगन में मेरे नाती पोते खेलेंगे और मेरे सपना का ये घर पूरा हो जायेगा, लेकिन ऐसा हो नही पाया एक बाप की टीस उन्हे हरदम दर्द देती थी इस लिये वे कभी भी शहर बेटो के पास नही गये।
गांव में ही विवेक दत्त ने एक गाय और दो कुत्ते पाल लिये थे अव ये जानवर ही उनकी दुनिया का हिस्सा थे। सुबह से शाम की दिनचर्या में वे बिजी रहने लगे। पत्नी घऱ की लक्ष्मी होती है इस लिहाज से उन्होने कभी भी सुमित्रा को बेटों के पास जाने से रोका नही लेकिन खुद की सहमति भी नही दी।
पहले विदेश में फिर देश में कोरोना नाम की महामारी फैल चुकी थी। धीरे धीरे सारी सेवायें बन्द हो रही थी। मार्च 2020 में देश में लॉक डाउन लगा दिया गया। कुछ दिन तो सब कुछ नार्मल रहा लेकिन धीरे धीरे स्थितियाँ बिगड़ने लगी शहर में अब कुछ भी सुरक्षित नही था। राधे और श्याम दोनों ही अलग अलग शहर में थे पूँजी लगभग खतम हो रही थी। फ्लैट मालिक ने किराया तो नहीं माँगा था लेकिन और भी समस्याये होने लगी इसके उल्ट गाँव में सब कुछ सामान्य था। विवेक दत्त और सुमित्रा आराम से गाँव में चैन से रह रहे थे। गाँव के लोगो से ही उन्हे पता चला की शहर के हालात बुरे है तो सुमित्रा ने जिद्द कि बच्चो को गाँव बुलाने की । विवेक दत्त जानते थे कि राधे बिना उनके कहे नही आयेगा क्योंकि वह बचपन से ही स्वाभिमानी प्रवृत्ति का था। विवेक दत्त ने दोनों ही बच्चो को हाल चाल लेने के लिये फोन किया बहुत दिन बाद फोन पर बच्चों और पोते पोतियों की आवाज सुनी तो विवेक दत्त बहुत ही भाव विहल हो उठे।
“बेटा अगर पाराया न समझों तो जब तक सब बन्द है गाँव ही आ जाओ यहाँ बिमारी भी नही है और बच्चों के लिये बहुत माया लगती है। जाने कब आँख बन्द हो जाये......................”- विवेक दत्त
( इतना कह कर विवेक दत्त रो पड़े कान्फ्रेन्श कॉल थी दोनों ही बेटों ने शहर के हालात देखकर गाँव जाने का निश्चय किया। दोनों ही बेटे कैसे भी कर के अपनी अपनी गाड़ी से गाँव पहुँच गये।)
श्याम और राधे के बच्चे गाँव के वातावरण से बिल्कुल अऩजान थे उन्हे शहर के स्मार्ट फोन , चाउमीन बर्गर पिज्जा की आदत थी जो उन्हे गांव में कहाँ मिलने वाला था। दोनों बहुये चूल्हे पर खाना बनाना नही जानती थी इसलिये खाना बनाना भी सुमित्रा की जिम्मेदारी थी।
बच्चो को जब गाँव में इन्टरनेट नही मिला तो वे रोने लगे, विवेक दत्त ने उन्हे अपने पास बुला कर पूछा क्या देखते हो फोन में जो रो रहे हो। बच्चो ने बोला कहानी.......... अरे कहानी तो मैं ही तुम्हे सुना सकता हूँ......... और विवेक दत्त ने बच्चो को कहानी सुनाना शुरू किया बच्चों का मन लगने लगा। लेकिन अभी भी मैगी और पिज्जा की याद तो आ ही रही थी। सुमित्रा ने पूछा कि ये कैसा दिखता है बच्चो ने ही मोबाइल पुरानी फोटो दिखा दी। सुमित्रा पाक कला में दक्ष थी उन्होने घरेलू बेसन से बना चिल्ला को पिज्जा के रूप में बच्चों सामने रख दिया । बच्चो को वो बहुत पसन्द आया इसी तरह से मैगी के स्थान पर हाथ से सेवईं बना दी। धीरे धीरे बच्चों का स्वास्थ्य भी सुधर गया था। विवेक दत्त अपने आँगन को हरा भरा देख कर फूले नही समाते थे।
इधर समाचार पत्रों में लॉक डाउन खत्म करने की खबरे आऩे लगी थी। विवेक दत्त समझ चुके थे कि उनकी खुशियों के दिन अब जाने वाले है ये सोचकर कभी कभी आंसू उनकी आँखो से छलक पड़ते थे। आखिर वो समय आ गया था जब बच्चो ने अपने अपने शहर को जाने की तैयारी कर ली भरी आँखों से सुमित्रा और विवेक दत्त ने दोनो को विदाई दी। पम्मी ने जब झुककर विवेक दत्त के चरण छुये तो सर पर हाथ फेंर कर उसे बहु होने की स्वीकृती दे दी। बच्चों के जाने के साथ ही घर का आंगन सुना हो गया। विवेक दत्त ने उस दिन खाना नही खाया । मन उदास था पोते पोतियों की याद में वो अपने कुत्तो को गोद में भर लेते और बिन आंसू रो देते। एक हफ्ता बित गया था दिनचर्या अब पुराने समय में चलने लगी थी।
एक दिन दोपहर में घर के बाहर बरामदे में लेटे सोच रहे थे की पोते पोतियाँ होते तो मेरे ऊपर चढ कर कूदते मुझे तंग करते और कहते दादा जी.......................
की तभी अचानक से कान में आवाज पड़ी दादा जी...... सुनकर विवेक दत्त चौंक गये देखा तो राधे और श्याम का परिवार सामने खड़ा था उन्हे लगा कि वे सपना देख रहे। लेकिन जैसे पोते पोतियों ने उन्हे गले गया वो आँसूओ के साथ रो पड़े...........
बाद में राधे और श्याम ने बताया की बच्चों ने आप से मिलने और दादी का बनाया पिज्जा खाने की जिद्द पकड़ ली थी तो हमने सोचा शनिवार और रविवार की छुट्टी आपके साथ बितायें।
दोनों बेटों ने विवेक दत्त के पैर छुकर कहा पिता जी हमे माफ कर दीजिये हमें शहर की चमक ने अन्धा कर दिया था लेकिन अब हमारी आखे खुल गयी है अब हम अपनी हर छुट्टिया यही आकर आपके साथ मनायेंगे................... विवेक दत्त कुछ कह न सके बस दोनों बेटो को गले से लगा लिया क्योंकि आज उनके सपनो का घर पूरा हो चुका था। वहाँ मौजूद सभी की आँखो में प्यार भरी नमी आ गयी।
दोस्तों ये थी दी लाँक डाउन टेल्स की दूसरी कहानी सपनो का घर.......अगले अंक में मिलेंगे लॉक डाउन की फिर एक कुछ खट्टी कुछ मीठी कहानी के साथ