बंध कमरे का चोरस
विभा रानी
सुपर्णा की नींद खुली और समवेत स्वरों का एक लहराता झोंका खिड़की से होते हुए उसके कानों से टकराया। ढोल, कंसी, झांझ, हारमोनियम के मिले जुले स्वर और हरे कृष्णा-हरे कृष्णा गाते चले जाते हुए।
बहुत ही अजीब प्रांत है यह बंगाल। भक्ति और श्रृंगार का उद्भुत समन्वय। चैतन्य महाप्रभु, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द की धरती पर एक से एक भक्ति-गीत अजस्र धारा में फूटते हैं। रवीन्द्र संगीत तो प्रत्येक बंगवासी की जिह्वा पर ही विराजमान होता है। शिखा साहा-पैतालीस वर्षीया कुंवारी प्रौढ़ा जिसने जीवन में दो को ही अभिप्रेत माना था जिसमें से पहले, उसके प्यार ने उससे पीछा छुड़ा लिया था और दूसरे थे रवीन्द्र... गुरुदेव की सैकड़ों कविताएं उसे कंठस्थ थीं जो किसी वेगवती नदी की धार की तरह बह निकलती –‘कृष्णोकॅली... उसे यह कविता बहुत पसदं थी। बहुत-बहुत पसंद थे रवीन्द्र... ‘सुपर्णा क्या तुम्हारा बंग समाज रवीन्द्र के आगे-पीछे कुछ भी नहीं देखता? या देखना नहीं चाहता? ऐसे मोहांध क्यों हो तुम लोग?’
‘तई बुझबी ना, रोबीन्द्र माने...माने एक पूरी की पूरी संस्कृति, एक भरी-भरी चेतना, एक समूचा का समूचा इतिहास, सम्पूर्ण युग, सारा का सारा विश्व...एक भरे-पूरे अहसास का नाम...तुमने भरे हुए तालाब देखे होंगे ना! उसमें एक ढेला फेंको। ‘दुप्प’ की आवाज और वृत्त में फैलती लहरें...थरथराती गोलाई में नाचती...यही है रवीन्द्र-कला, संस्कृति, भक्ति का अजस्र प्रवाह... रीढ़ है रीढ़...।
सुपर्णा की रीढ़ उसकी पेंसिल है और उस पेंसिल से वह खींचती चली जा रही है एक मानव आकृति...अपनी कल्पना से। परंतु, क्या यह कल्पना हो सकती है? यह तो तभी होता जब उसने पुरुष को कभी न देखा होता। पुरुष...स्वर्ग के किसी देवता की तरह, किसी गंधर्व की तरह आकांक्षाओं से लबालब...रमणीय, सरस, मृदुल, जिसकी बलिष्ठ भुजाएं हों और हृदय में हो प्रेम का बहता मद, जिसकी आंखों में कामना की लौ हो जो हर तिनके को अपनी राह में ले ले...या वह शैतान रूपी पुरुष जिसने भोले-भाले किसान को मत्त मदान्ध बनाकर अपना विजयपर्व मनाया था-वोदका, शराब, दारू, ताड़ी... पुरुष, देव, शैतान...कला, संस्कृति, रीढ़...रीढ़ माने रवीन्द्र.....
मानव आकृति। पुरुष छवि... पर क्या कल्पित है यह? नहीं, उसकी तो सारी दुनिया ही पुरुषमय है। उसी को क्यों, सब की। आखिर यह कोई पछुवा तो है नही कि मियादी बुखार से ग्रस्त मरीज को इससे बचाया जाए। पर हवा तो हवा ही होती है। उसे पहुंचना होता है। पहुंच जाती है-बुखार तेज हो जाए, बढ़ जाए, उसे क्या!
बालिका विद्यालय से लेकर महिला कालेज में पढ़ी सुपर्णा चौधरी आज फाइनल आर्ट की प्रमुख कलाकारों में से एक है। रोज सवेरे स्कूल जाते वक्त मां उसे मां काली के आगे सिर नवाने को कहती जो आज सांस लेने की तरह स्वाभाविक हो गई थी। वही नहीं, प्रत्येक बंगाली कलकत्ते के सुप्रसिद्ध कालीघाट से गुजरते वक्त तीन बार मस्तक से सीने तक हाथ ले जाता है। खुद सुपर्णा को भी हैरत होती है कि मंदिर का कंगूरा तक नहीं दिखता, पर कालीघाट से ट्राम-बस गुजरते वक्त सभी के हाथ यंत्रवत उठते हैं और माथे से सीने तक तीन बार पहुंचते हैं। इतना ही नहीं, मेट्रो रेल में बैठे यात्री भी कालीघाट स्टेशन आते ही नमस्कार की उसी मुद्रा में आ जाते हैं।
इतनी बड़ी शक्ति है वह क्या कि बिना नमस्कार किए गुजर जाने पर दंड दे देगी। नहीं, ऐसा तो कुछ भी नहीं है, यह होता है एक सहज विश्वास। वही विश्वास जो जन्म से हम अपने बाप-भाई पर करते आते हैं या जिंदगी का वह एक अत्यन्त स्वभाविक हिस्सा...पर क्या पिता और भाई से अलग भी पुरुष होता है? हां रे सुपर्णा, होता है, पर उस पर विश्वास न करना कभी...वह तो छलावा होता है...बचपन से यही शिक्षा दी जाती है कि लड़कों से परहेज को...घर के लड़कों से भी...एक खास उम्र हो जाती है परहेज की। फिर बाप-भाई के कंधों चढ़ी लड़की के कंधों की तरफ ताकने से भी कतराते हैं भाई-बाप...पर दूसरे पुरुष तो ताकते हैं। अच्छा लगता है सुपर्णा? ऊं... कभी-कभी तो बहुत ही अच्छा लगता है। इतना कि जी चाहत है कोई यूं ही देखता रहे... जैसे झील में कमल तैरता है, वैसे ही उन आंखों की पुतलियां में अपनी तस्वीर तैरती रहे। जुगनू चमकते रहें।
घर, मां, दादी ही नहीं, मुहल्ले की भी काकी, मासी भी बोलतीं –‘ना रे सुपर्णा... ई जे छेले मानुष हुय ना से खूब खाराव हॅय। शॅवाए तामा के खेये जाबे। एकदम काछे जाबी ना...बुझेचो?’
जुकाम से पीडि़त व्यक्ति को जैसे तुलसी, अदरक, काली मिर्च क काढ़ा पिलाया जाता है वैसे ही सुपर्णा को भी सीख का यह काढ़ा पिलाया गया था। सिर्फ उसे ही क्यों, हिंदुस्तान की लगभग तमाम बेटियों को, पुरुष नाम का जीव बहुत ही खतरनाक, सांप की तरह... पर कौन पुरुष? बाप भाई या उन काकी-मौसी के पति जो काका, मौसा होते हैं, जो पुरुष ही तो... सुपर्णा को करेंट लगता है-‘क्या बोलती है? शरम नहीं आती हमारे मरद पर उंगलियां उठाते? वो और मर्द होते होंगे... कौन होते हैं वे मर्द जिनसे बचने की शिक्षा दी जाती है... कैसेट पुरुष से...
और यह शिक्षा है भी कैसी? कितनी उपयोगी? दादी मां की उम्र तो दाल-रोटी पकाते, चॅच्चरी भाजा तलते, माछ का झोल रांधते बीत गई। किंतु आज के युग में यह उपदेश कितना सार्थक? प्रत्येक लड़की के चौबीस घंटों का यदि हिसाब लिया जाय तो वह कम से कम दस-बारह घंटे बाहर रहती है जहां उसे हर कदम पर ये पुरुष रूपी जीव मिलते हैं। कितना बचा जाय, कैसेट बचा जाय? सिर्फ इसलिए कि ये पुरुष हैं और हम स्त्रियां जिनका संबंध आज भी आग और फूस जैसा ही माना जाता है। कितनी अधूरी और बेतुकी है यह शिक्षा। एक ओर तो पुरुष की सहचरी, उनके कंधे से कंधा मिलाकर चलने की बात और दूसरी और शेर, सांप, बाघ जैसी आकृतियों का फोबिया...
सुपर्णा के पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लगी है ‘कलकत्ता सूचना केन्द्र’, में, सप्ताह भर की। एग्जीबीशन-कम-सेल... जीवन का क्रमिक विकास-शैशव, किशोर, यौवन और फिर बुढ़ापा। हर चित्र में स्वाभाविकता। सभी सुपर्णा के प्रशंसाक। सुपर्णा चौधरी पेंटिंग्स ... मागो, की नेचुराल... की फैंटास्टिक बोझा जाय जे छोबि नेई शोती लोगटाइ दांडि़या आछे...
सुपर्णा कल्पना में जीती है... सारी दुनिया उसके सामने पसरी हुई है। वह सब को अपनी तूलिका से उतारती जाती है। पहाड़, झरने, कंक्रीट वाली सड़कें, पगडंडियां, गांधी, शेक्सपियर, रवीन्द्र...कैनवास के कागज बदलते जाते हैं। रंगों के प्याले ख्त्म हो जाते हैं, फिर भरे जाते हैं, फिर खत्म हो जाते हैं... ‘झड़ एश्छे झॅडे’ सुपर्णा की मां कहती है। सुपर्णा भी इसी अंध्ड़ में बहती है। कैनवास के कागज बदलते जाते हैं।
मगर मन का कैनवास अभी तक रीता ही है। उस पर कोई कागज नहीं चढ़ पाया है। रंगों और ब्रुश की कौन कहे रवीन्द्रनाथ ने कितनी अच्छी पंक्ति कही है। ‘जॅबे केओ ना चले संगे तोमार तॅवे एकला चलो रे......’ जब कोई नहीं चले तब तो अकेले जाने की बात समझ में आती है पर जब चारों तरफ से चलने ही चलने वाले हों तब भी इस अकेलेपन को ढोए जाने की कैसी विडमबना.....।
सुपर्णा चौधरी....सुपर्णा चौधरी....प्रशंसकों की भीड़ बढ़ रही है.... एग्जीबिशन-कम-सेल में से तस्वीरों की संख्या निरंतर घट रही है। सुपर्णा देख रही है, सुपर्णा जी रही है।
छह मास की पेट के बल लेटी, सर ऊपर उठाए किलकारी मारती बच्ची... कमर में कमरधनी, गले में माला, हाथ पांवों में काले धागे, सिर में लाल रिबन....सुपर्णा की पेंटिंग सही में खिलखिला रही है।
दो साल का नन्हा सा नटखट शिशु टेबुल के पाये को पकड़े हुए। बच्ची की तरह वह भी नंगा....कुर्सी पर बैठी मां की आंखों में असीम स्नेह....,
और....और मां की उम्र कम हो रही है एवं बच्चे की बढ़ रही है, और अब एक सम पर आकर ठहर गई है, उम्र के उस बिन्दु पर जहां हर कोई आदम और ईव होता है....सुपर्णा के हाथ थक गए हैं। कैनवास के कागज बदलते जाते हैं, पर मन का कैनवास....
सामने एक मुग्धा की पेंटिंग है....शायद कालिदास की शकुन्तला या बाण की नायिका! आंखें ‘अमिय हलाहल मद भरे’ या नख-शिख वर्णन में विद्यापति –‘देखल एक अपरूप!’ युवती के शरीर पर एक भी वस्त्र नहीं है और वह बड़े ही मोहक अंदाज में आदमकद आईने में अपने को देख रही है। शायद वह भी मुग्ध हो रही है अपने ही रूप पर। कृति सुपर्णा चौधरी। मूल्य पांच हजार। बंगाल के घुटने तक केश वाली और पठानिन सी कसी-कसी गठी देहवाली यह नायिका एग्जीबीशन से उतर कर सेल में चली आई....सुपर्णा चौधुरी की आंखों के नीचे स्याह धब्बे उभर रहे हैं। लोग-प्रशंसा कर रहे हैं। कितना अजीब चित्र...मानो कोई लड़की ही खड़ी हो-प्रशस्त ललाट, खड़ी नासिका। उन्नत वक्षस्थल...त्रिवली, नाभि और फिर सुपुष्ट जंघाएं और उनके मध्य...पब्लिक हैरान है! क्या खुजराहो का भित्तिचित्र चला आया उठकर?
एक नहीं अनेक पेंटिंग्स। सब की सब मुग्धा नायिका। सब की सब विलासिता के प्रतीक...संभोग निवृत्त नायिका, पुरुष चादर कमर तक ओढ़े हुए। नजर नायिका पर... स्नान करती नायिका, सज्जा करती लड़की...कंचुकी पहनती...दर्शक अब उत्तेजित होते हैं। सारी तस्वीरें बिक जाती हैं। छह मास की कन्या किलकारी भरती वहीं टंगी है और माता-पिता सहित वाह दे वर्षीय बालक भी।
सुपर्णा, मर्दों की बात न कर। वे तो भौरे होते हैं। बस फूल-फूल घूमेंगे, उड़ जाएंगे... ना रे सुपी, इनसे दोस्ती कभी न करना। सुपर्णा के दो भाई हैं। अब जवान हो चुके हैं। बाबू जी बूढ़े हो गए हैं। हरदम खांसते रहते हैं। पेंटिंग में एक व्यक्ति ढेर सारा बलगम चिलमची में उगल रहा है। लोगों के उबकाई सी आती है। ऐसी तस्वीर क्यों? जीवन का इतना वीभत्स रूप कोई नहीं देखना चाहता-झुर्रीदार चेहरा, हाथ में नसों का जाल, बुझी-पीली आंखों में कमजोर रोशनी, हाथ में कंपन से टेढ़ी हो आई चिलमची... आधा बलगम मुंह में और गाढ़े लार सा चिलमची के ऊपर बह आया बलगम। सुपर्णा उसके ठीक पीछे खड़ी है। टंगाईल की सफेद साड़ी... पर कोई नहीं कहता कितना रियलिस्टिक, हाऊ फैंटास्टिक... उसकी साड़ी का सादापन उसके मन पर तह लगाकर बैठ गया है।
दोनों भाई जवान हो चुके हैं – लम्बे, बांके, छरहरे....पड़ोस की मीताली कहती है-एई सुपर्णा दी, तोमार भाई आमाके खूब भालो लागे...बाबा रे, की सुंदर, सो हैंडसम एण्ड....आगे वह ब्रेक लगी गाड़ी की तरह रुक गई थी। मगर उसकी आंखों में जो बिजली कौंधी थी, उसे सुपर्णा ने कैनवास के कागज पर उतार लिया था और मीताली उसी बिजली से विक्टोरिया के मैदान को चकाचौंध करती रही। देवेन और नीरेन-सुपर्णा रमणीय...रमणी मीताली, रमण नीरेन, विक्टोरिया के घने पेड़ और बहते तालाब, तालाब के किनारे बेंच और एक-एक बेंच पर दो-दो जोड़े.... प्रेमालाप करते हुए परस्पर आलिंगनबद्ध एक-दूसरे के चूमते हुए, उनके हाथ.....
सुपर्णा रोमांचित हो उठती है। कनपटियां जलने लगती हैं। कैनवास के कागज खिसकते जाते हैं। मीताली आजकल बहुत सुंदर दिखने लगी है।
सुपर्णा के कैनवास का कागज एक जगह स्थिर हो गया है। कूंची बस रुकी ही रह गई। प्रदर्शनी समाप्त हो चुकी थी। प्रसिद्धि और पैसे दोनों ही प्राप्त हुए हैं। सुपर्णा चौधरी अब देश के जाने-माने आर्टिस्टों में से एक है। सुपर्णा के मां-बाप खुश हैं। उनकी बेटी एक योग्य बेटी सिद्ध हुई है। सुपर्णा को अपनी तस्वीरों की प्रदर्शनी के लिए कल ही हॉलैण्ड से ऑफर मिला है। सुपर्णा ने पैसे सब में बांट दिए हैं –मां, देवेन, नीरेन। कल ही उसने देखा कि मीताली के गले में खूबसूरत सी माला पड़ी हुई है। विक्टोरिया में आजकल अंधेरा जल्दी हो जाता है। दरअसल सर्दी का मौसम आ गया है न!
सुपर्णा परेशान है। प्रदर्शनी का एक कमेंट उसकी आंखों की नींद बिसार चुका है। उस दिन वह यूं ही घूम रही थी दर्शकों की प्रतिक्रिया जानने के लिए। छह मास की बच्ची, दो वर्ष का लड़का और उसके बाद युवतियों की तस्वीरें। सभी देख रहे थे। सराह रहे थे। सुपर्णा ने पुरुषों के चित्र भी बनाए थे-अपनी प्रिया को मदभरी आंखों सो निहारता युवक। एक आदिमानव की भी तस्वीर थी-हाथ में बर्छा अपनी बांह पर उभर आई मछली को बहुत ही आश्चर्यपूर्वक देखते हुए और वलगम उगलता बूढ़ा... और भी बहुत सी पेंटिंग्स। एक महिला दर्शक ने दूसरी से धीमे स्वर में कहा –‘सुपर्णा चौधरी ने मर्दों की कोई न्यूड पेंटिंग्स नहीं बनाई हैं। मर्दों में न्यूड होता ही क्या है? एक वही न! उसे भी...’
‘हां जी, ऐसा कुछ अगर रहता तो दस हजार देकर भी मैं तो जरूर खरीद लेती।’
‘मिलती अगर वह तो मैं उससे जरूर पूछती। पुरुष आर्टिस्ट तो लड़कियों की ऐसी तस्वीरें बनाते ही हैं। इसने भी बनाई तो क्या नई बात हुई। तारीफ तो तब थी जब वह मर्दों के न्यूड्स बनाती।’
सुपर्णा चौधरी तस्वीरों के पीछे-पीछे होती हुई टॉयलेट पहुंची और वेसिन पर सिर टेक फूट-फूटकर रो पड़ी। हां, वह क्यों नहीं बनाती वैसी तस्वीर? क्यों नहीं बना सकती? सुपर्णा कल्पना में तो नहीं जीती और अगर जीती भी है तो उसकी कल्पना के सहारे वह बना सकती थी? दो साल का बच्चा! उसकी कल्पना उस बच्चे को बढ़ता देखने लगी। एक-एक कर बढ़ते अंग-प्रत्यंग। बढ़ती बांहें, बढ़ती छाती, बढ़ते पैर, जांघ और जैसे एक झटका लगा। कल्पना का कैनवास उजड़ गया और छा गया केवल अंधेरा।
सुपर्णा किताबें खोजती हैं। देशी विदेशी किताबें। वह भटकती है। घूमती है, विक्टोरिया से लेकर एस्प्लैनेड के मैदान में, ईडन गार्डन में, पर बेकार। वह अजन्ता-एलोरा भी घूम आई। किन्तु... वह, वह नकल की नकल करना नहीं चाहती। वह कल्पना में भी यथार्थ को चित्रित करने वाली कलाकार है। अजंता के मित्तिचित्र या खुजराहो उसे प्रेशर नहीं कर सके। वह परेशान है। एक पूरी की पूरी मानव आकृति खड़ी है। लम्बा शरीर, सुपुष्ट बांहें, चौड़ा चकला सीना, चौड़ी कमर, मजबूत जंघाएं, परन्तु जांघों का मध्य का स्थान बिल्कुल रिक्त पड़ा हुआ है –कोरा, जैसे उस पर किसी ने सफेदी पोत दी हो। उसे बलगम थूकता बूढ़ा एकदम याद आता है और एक ठण्डा लिजलिजापन उसके पूरे शरी में दौड़ जाता है। वह झुरझुरा जाती है।
मीताली आजकल और भी चहकने लगी है। उसकी देह गदरा गई है। मंजरियों से भरी आम्रडाली की तरह। उसकी गुनगुनाहट भी बढ़ गई है। कृष्णकली चहक रही है। सुपर्णा जानती है कि इधर वह रोज विक्टोरिया जाती है। रैलिसन की कुल्फी खाती है। नीरेन भी आजकल खुश रहता है।
‘दीदी गो’ जब वह कहता है तो पता नहीं उसकी छाती में कौन सी सुगबुगाहट पैदा हो जाती है। उसे लगता, वहां दूध की धार फूटने लगी है। दो साल का बच्चा मां की कुर्सी पकड़े हुए और मां की आंखों में असीम स्नेह।
कैनवास का कागज अधूरा है। सुपर्णा दिन-प्रतिदिन बौखला रही है। उसके कमरे में आने की किसी को इजाजत नहीं। उसके सामने एक विदेशी किताब पड़ी है। ठीक है। नकल ही सही। उसने कूची उठाई और निश्चित स्थान पर रखा ही था कि फफक पड़ी। आंसू किताब पर गिरने लगे –‘शोक्ति दाओ मा गो, शोक्ति दाओ। शोक्ति दाओ, शोक्ति.....’
देवेन और नीरेन् कितने युवा हो गए हैं। किन्तु करेंगे हरकतें बच्चों जैसी। अभी तक भी नहा कर बाथरूम से निकलेंगे तो सिर्फ कच्छा पहनकर। यह भी नहीं कि उस पर से तौलिया ही लपेट लें। उसने कितनी बार टोका है-‘बाथरूम से निकल तो ठीक से कपड़े पहनकर निकला कर।’ दोनों हो-हो कर हंस दिये थे-‘दीदी गो’ और वह जैसे खुद ही झेंप गई थी।
आंसू थमे तो किताब उठाकर रख दी। कैनवास ढंक दिया और कमरे से बाहर आने लगी कि.... नीरेन बाहर निकल रहा था, वही कच्छा पहने हुए। अभी वह वैसा ही दिख रहा था जैसी उसकी ढेर सारी पेंटिंग्स, जैसे सबके सब नीरेन हों। जैसे संभोगनिवृत्त लड़की मीताली हो, जैसे... जैसे अगर यह कच्छा हट जाए... तस्वीर का कोरा स्थान... एक फुरफुरी सी समा गई उसके बदन में। अरे सुपी, ऐसे क्या सोच रही है? वह तेरा भाई है भाई... ‘बट यू आ’ एन आर्टिस्ट माई डियर दीदी, मेरे कच्छा पहनकर निकलने को इतना वल्गरली मत देखो। डोंट टेक अदरवाइज। यू आ’ एन आर्टिस्ट....यू आ’ एन आर्टिस्ट... यस, सुपर्णा इज एन आर्टिस्ट, सो शी विल डू इट.... नीरेन अभी नीरेन नहीं है। वह एक मर्द है... पूर्ण स्वस्थ पुरुष, ऐसा जिसकी उसे तलाश है, जहां उसकी कल्पना साकार हो सकती है।
दिल्ली के ‘त्रिवेणी कला संगम’ में सुपर्णा के पेंटिंग्स की एकल प्रदर्शनी लगी हुई थी। सुपर्णा चौधरी की पेंटिंग्स। कौन सुपर्णा? अरे वही जो हॉलैंड में अपने चित्रों की प्रदर्शनी लगाकर आई है। सुना वहां उसकी एक पेंटिंग तो इतनी प्रसिद्ध हुई कि ढेरों आफर आए थे उसके पास। शायद यहां भी लगी हो। वातानुकूलित हॉल। विदेशी भारतीय सभी तक के लोग। हॉल के ठीक बीच में एक खासी बड़ी-सी पेंटिंग रखी हुई है और...और सुपर्णा का मन शांत है। उसकी इच्छा होती है कि ‘कलकत्ता सूचना केन्द्र’ के हाल में मिली उन महिलाओं से वह मिले और उन्हें अपना विनम्र अभिवादन देकर उनके प्रति अपना आभार प्रकट करे। सचमुच कितनी उपजाऊ है बंग की यह भूमि, रवीन्द्र की यह धरती। कला, साहित्य, भक्ति का अद्भुत संगम। सुपर्णा आज मुस्कुरा रही है। टंगाइल की सादा साड़ी आज तस्वीरों के पीछे गुम नही है। वह हंस रही है। शरतपूर्णिमा सी धवल साड़ी और झड़ते हरसिंगार-सी हंसी......कौन कहता है कि सुपर्णा कल्पनाजीवी है।
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यूट्यूब लिंक- https://youtu.be/BTFAhaO0n9Q