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गूगल बॉय - 17

गूगल बॉय

(रक्तदान जागृति का किशोर उपन्यास)

मधुकांत

खण्ड - 17

सच तो यह है कि स्वैच्छिक रक्तदान करने से लोगों का डर निकल गया। छात्र व युवा तो इसे सम्मान का सूचक मानने लगे। अनेक छोटी-बड़ी सामाजिक संस्थाएँ जो विभिन्न प्रकार की सामाजिक सेवाएँ कर रही थीं, वे भी रक्तदान शिविर आयोजित करने लगीं। किस संस्था ने कितने रक्तदान शिविर लगाये और कितना रक्त एकत्रित किया...आपस में स्पर्धा का विषय बन गया। रक्तदानी संस्थाओं और अधिक बार रक्तदान करने वाले युवकों को बार-बार सम्मानित किया जाने लगा। स्वैच्छिक रक्तदान करना और कराना एक आन्दोलन बन गया।

गूगल का पुराना मकान टूट गया और बैंक की सहायता से उसमें बैंक की बिल्डिंग तथा उसके पापा की स्मृति में गोपाल कॉम्प्लेक्स बनने लगा। लोग आते-जाते उसके सामने खड़े होकर देखते और मन-ही-मन बुदबुदाते - ‘गूगल बॉय पर श्री बाँके बिहारी की कृपा हो रही है!’

गूगल ने अपना सब सामान सामने ख़ाली पड़े गोदाम को किराये पर लेकर शिफ़्ट कर दिया था। मशीन को भी वहाँ रखवा दिया और अधिकांश समय वहीं बैठकर काम करने लगा। उसका काम निरन्तर बढ़ता जा रहा था। दुकान में दो मिस्त्रियों को और रख लिया था जो ठेके पर काम करते थे। गूगल के पास रहने से उसके मामा का लड़का भी बहुत काम सीख गया था। परिणामस्वरूप स्वयं गूगल को कोई परेशानी नहीं थी। इसके अतिरिक्त गूगल की आस्था श्री बाँके बिहारी जी में इतनी बढ़ गयी थी कि वह कहने लगा था - ‘परिश्रम करना तो धर्म है, परन्तु बाँके विहारी जी ने मुझे छप्पर फाड़ के दिया है। सम्भवतया मैं इसके योग्य भी नहीं था।’

बेटे को अच्छे कामों में लगा देख माँ भी बहुत खुश थी। एक रात माँ ने गूगल के समक्ष एक प्रस्ताव रखा - ‘बेटे, अब तेरा व्यापार अच्छा जम गया है। उम्र भी तेईस वर्ष की हो गयी है। ...अब तू गूगल बॉय नहीं, गूगल मैन बन गया है। मुझे भी घर में अकेलापन काटने को दौड़ता है। कल तेरे मामा भी एक रिश्ते के विषय में कह रहे थे...तू कहे तो तेरे विवाह की ...।’

‘देखो माँ, मैंने कभी तुम्हारी बात में ना नहीं कही, क्योंकि तुम सदैव मेरे भले की सोचती हो। परन्तु मेरा एक सुझाव है...जब तक अपना शोरूम और बैंक की बिल्डिंग पूरी नहीं हो जाती, तब तक और इंतज़ार कर लो, फिर जैसा तुम कहोगी....।’

‘कितना समय लगेगा इसमें?’

‘लगभग छ: महीने लग जायेंगे।’

‘छ: महीने में सब काम हो जायेगा?’

‘हाँ माँ, अपना ठेकेदार बहुत समझदार है, बहुत तेज़ी से काम करवा रहा है। बैंक वालों को भी वहाँ से बदल कर यहाँ आने की जल्दी है।’

‘यह बात तो ठीक है। आज मैं तेरे मामा को समझा दूँगी’, निश्चिंत होकर माँ बिस्तर पर चली गयी।

तभी माँ को दूसरा ख़्याल आया और वह बोली - ‘गूगल बेटा, मेरा विचार है कि हमें विवाह का सिलसिला तो चालू रखना चाहिए। आजकल पाँच-सात महीने तो देखने-भालने, बातचीत में ही बीत जाते हैं। बेटे, आने वाले शुभ से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए।’

माँ के द्वारा पुनः चर्चा करने से पहले ही अरुणा गूगल के दिल में आ बैठी। विवाह की चर्चा आरम्भ होते ही अरुणा का ख़्याल उसे गुदगुदाने लगा। परन्तु माँ के सामने मन की बात कैसे रखे....फिर अरुणा से भी इस विषय में कभी कोई बात नहीं हुई....न जाने उसके मन में क्या हो....यह बात तो पक्की है कि वह मुझे पसन्द करती है ....परन्तु वह मुझे प्यार करती है या नहीं....मुझसे शादी करना चाहेगी या नहीं....ठीक-ठीक कुछ कहा नहीं जा सकता। हाँ, अपनी माँ पर तो मुझे पूरा विश्वास है कि वह मेरी बात मान लेगी, क्योंकि हमारे सामाजिक स्तर, मान-मर्यादा, शिक्षा-संस्कार, धार्मिक-परम्पराओं आदि सबमें समानता है।

काफ़ी उधेड़बुन व सोचने-विचारने के बाद भूमिका बांधते हुए गूगल ने कहा - ‘माँ, आजकल की सबसे बड़ी समस्या है लड़की की नये परिवार में एडजस्ट होने की। कहीं ग़लत संस्कारों वाली लड़की घर में आ जाये तो घर नर्क बन जाता है।’

‘यह तो ठीक है बेटा। वैसे तो सब सोच-समझ कर ही सम्बन्ध जोड़ते हैं, फिर भी क़िस्मत का क्या पता चलता है।’

‘माँ, फिर भी कोई जानी-पहचानी अच्छे संस्कारों वाली लड़की हो तो अच्छा है,’ गूगल ने संकोच से कहा। धीरे-धीरे वह बातों की दिशा अरुणा की ओर मोड़ने लगा।

दाईं से कौन पेट छुपा सकता है। माँ ने उसके संकेत को पकड़ लिया। ‘बेटे, जानी-पहचानी अच्छे संस्कारों वाली लड़की मेरे ध्यान में तो है नहीं। हाँ, तुझे कोई पसन्द हो तो बोल,’ माँ ने उसका मन टटोलने की कोशिश की। वैसे तो माँ को विश्वास था कि उसका बेटा बहुत भोला है, इन सब बातों में उसकी रुचि नहीं हो सकती, परन्तु आज के ज़माने को देखते हुए माँ ने उससे पुनः पूछ लिया - ‘बेटा गूगल, शादी को लेकर तेरे मन में कोई बात है तो कह दे।’

गूगल ने हल्की-हल्की रोशनी में माँ की ओर देखा और साहस बटोर कर कहा - ‘माँ, अरुणा कैसी रहेगी?’

‘अरुणा, वो केशव की लड़की?’

‘हाँ, वही।’ कह तो गया गूगल किन्तु माँ की ओर देखने का साहस नहीं कर पाया। उसका दिल धक-धक करने लगा।

‘बेटे, अरुणा के पापा केशव और तेरे पापा तो अच्छे दोस्त थे। अरुणा की माँ कई बार सत्संग में आती-जाती मिल जाती है। कल मैं उनके घर के पास से दर्जन से कपड़े ले रही थी तो मुझे आग्रह करके अपने घर ले गयी। बड़े चाव के साथ, घूम-घूम कर अपना घर दिखाया। अरुणा ने अपने हाथ से चाय-पकौड़े बनाकर नाश्ता कराया। भले लोग हैं। जब मैं चलने लगी तो बोली - बहन, अरुणा की शादी करनी है, कोई अच्छा लड़का हो तो बताना।.....मैंने कहा - आप लोगों को कैसा लड़का पसन्द है? तो कहने लगी - आप लोगों जैसा मिलता-जुलता घर हो तो अच्छा है।... मैंने कहा - ठीक है, कोई ध्यान में आया तो ज़रूर बताऊँगी, कहकर मैं अपने घर आ गयी। अब मुझे कुछ ख़्याल आ रहा है कि वे लोग भी हमसे सम्बन्ध जोड़ना चाहते हैं,’ एक क्षण माँ कुछ सोच में डूब गयी, फिर बोली - ‘बेटा, और तो सब बातें ठीक हैं, परन्तु एक बात का मुझे डर है....।’

गूगल जो अभी तक सारी बातें ध्यान लगाकर सुन रहा था, ने माँ से सवाल किया - ‘किस बात का डर माँ?’

‘एक ही गाँव के लड़का-लड़की और वहीं पर शादी। शहर में तो यह सब हो जाता है, परन्तु गाँव में तो इसको अच्छा नहीं मानेंगे।’

‘माँ, वो लोग इस गाँव के स्थायी निवासी कहाँ हैं? वे तो दूसरे गाँव से आकर यहाँ रहने लगे हैं।’

‘ठीक है बेटे, मुझे सोचने दे’, कहते हुए माँ चुप हो गयी और बिस्तर पर लेटकर इस विवाह के विषय में विचार करने लगी।

गूगल को लगा जैसे आज तो अचानक ही आकाश से उतरकर चाँद उसकी झोली में आ गया हो! कई बार रात को गूगल अरुणा के सपने संजोता था, किन्तु छुई-मुई जैसा संकोची स्वभाव होने के कारण वह किसी से कुछ कह नहीं पाता था। शायद आज बाँके बिहारी जी की कृपा ही हुई है जो अरुणा की चर्चा चल पड़ी। सम्भव है यह बात बन जाये...सोचते-सोचते गूगल अरुणा के साथ अपने भावी जीवन के रंगीन सपनों में खो गया।

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