मुक्म्मल मोहब्बत - 2 Abha Yadav द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मुक्म्मल मोहब्बत - 2


कितनी अजीब बात है. इंसान तंन्हाईयों में भी तंहा नहीं रहता. किसी की यादें, किसी के साथ गुजरेलम्हें, कुछ ख्यालात, कुछ सवालात, कुछ उलझनें... दिमाग में आडियो-वीडियो चलते रहते हैं. स्वीच ऑफ ही नहीं होता दिमाग का.

अरे,जनाब!जब तक सांसें हैं, दिल की धड़कनें हैं-दिमाग का स्वीच ऑफ कहां होगा. जहां सांसें रूकी सब बंद.दिमाग का थियेटर भी बंद.
मैंने एक गहरी सांस ली और कार की स्पीड़ बढ़ा दी.सडक़ खाली थी.कम स्पीड़ पर चलने का कोई औचित्य नहीं था.
ड्राइविंग करते हुए मेरी नजरें सड़क किनारे लगे पाकड़ के पेड़ों के बीच खड़े अमलतास के पेड़ों पर उलझ जातीं. फूलों वाले पेड़ों में वैसे भी मेरी विशेष रूची है. वैसे इन पेड़ों को लगाने का उद्देश्य मात्र मृदासंरक्षण ही नहीं है. यह पर्यावरण को भी शुद्ध रखते हैं. सदियों से राह में पेड़ लगाने का चलन रहा है.ताकि राह गीरों को उनकी छाँव मिलती रहे. यही बात मेरी समझ में भी आती है. वैसे पेड़ छाँव के साथ साथ राहगीरों को कंपनी भी देते हैं. बचपन में पापा के साथ कार में सफर करते हुए में सड़क किनारे लगे फूल वाले पेड़ों को गिना करता था. आज भी सड़क पर चलते हुए मेरी नजर ऐसे ही पेड़ों में अटक जाती है.


जब-जब ट्रेन के सफर का मौका मिलता -मैं हैरत से ट्रेन के साथ चलते पेड़ों को देखता.पापा से पूँछता-"पापा, ट्रेन के साथ साथ पेड़ भी चल रहे हैं.

पापा प्यार से सिर पर हाथ फेरते फिर मुस्कुरा कर कहते-"ट्रेन चल रही है. पेड़ तो अपनी जगह स्थिर हैं. और मैं आश्वत् हो जाता. क्योंकि मैंने भी पेड़ों को कभी चलते हुए नहीं देखा था.गार्डन के पेड़ जहां थे ,वहीं रहते थे.


वैसे ट्रेन और बस के सफर के भी अपने मजे हैं. बेशक, घर से अकेले निकलो.जहां अपनी सीट संभाली. बराबर वाले से हाय हैलो हुई. मिल गया हमसफर. जब तक मंजिल न आयी साथ रहे. बातें हुईं. विचारों का आदान प्रदान हुआ. हमसफर की सुविधाओं का ध्यान रहा .एक छोटे से समय में एक छोटी सी जिदंगी जी ली.अपने साथ उसके सुख-दुख को भी जिया. सच यही छोटे छोटे सुख हैं, जिन्हें इंसान जुगनुओं की तरह पकड़ता रहता है.

दूर एक ढ़ाबा दिखाई दिया तो मैने कार की स्पीड़ कम करते हुए कार ढ़ाबे के पास जाकर रोक दी.ढ़ाबा साफ सुथरा था.गुलाब और गुलहड़ के पेड़ों ने उसे अपनी बाहों में लिया हुआ था.गुलाब की महक ने मन खुश कर दिया.


ढा़बे में प्रवेश करते ही एक दस-बारह बर्ष के लड़के साफ मेज को दोबारा कपड़ा मार कर साफ किया. मेरे बैठते ही संयत आवाज में बोलने लगा-"दाल मखानी, रोटी,राजमा-चावल,कढ़ी-मक्की की रोटी, ...."
"कुछ नहीं. चाय -नाश्ता मेरे साथ है"कहते हुए पर्स से एक बीस का नोट निकाल कर मैंने उसकी ओर बढ़ा दिया.


अभी थर्मस को मैंने हाथ लगाया ही था कि ऐनी की काल आने लगी.मैंने काल रिसीव की-"कहो,ऐनी कैसी हो?"
"तुम कहां हो?"मेरी बात का जबाव न देकर उसने प्रश्न दाग दिया.

"हल्द्वानी वाईपास पर लक्ष्मी ढा़बे पर हूँ.चाय पीने जा रहा हूँ. आ रही हो, साथ देने."मैंने हँसकर कहा.

"यानि तुम नैनीताल के लिए निकल चुके हो."उसने फिर मेरी बात को महत्व नहीं दिया.

"तुम्हें साथ आना नहीं था,इसलिए बिना बताए निकल आया."

"वो,इधर काम...."

"ओ.के.,ओ.के."मैंने उसकी बात काट दी.


"सुनो, तुमने होटल बुक कराया."

"अकेले के लिए क्या होटल बुक कराता. तुम साथ होतीं..."


"कहां ठहरोगे ?"उसने मेरी बात काटते पूँछा.

"कोई भली सी महिला अनाथ समझ कर शरण दे ही देगी."मैंने हँसकर जबाव दिया.


"अच्छा, जोशी आंटी के काटेज में ठहरोगे. चलो,मेरी चिंता दूर हुई."कहकर ऐनी ने फोन काट दिया.


डियर,ऐनी, कभी मेरी मोहब्बत की भी परवाह कर लिया करो.मैंने मोवाईल चूमा और जेब में रख लिया. ढा़बे पर निगाह डाली.ढ़ाबा लगभग खाली सा था.शायद अभी कोई बस इधर आकर रूकी नहीं थी.

मैंने थर्मस से चाय निकाली और पेस्ट्री खाने लगा.नाश्ते के बाद कुछ राहत सी मिली.मैंने पैर फैलाये. दोनों हाथों को गोद में रखकर आँखें मूंद लीं .दिमाग को एकदम खाली छोड़ दिया. मैं योगा बहुत कम कर पाता हूँ. लेकिन ,यह योगा म़े अक्सर करता हूँ. दोनों पैर फैलाये. हाथों को एक दूसरे से थामकर गोद में रखा आँखें बंद कीऔर दिमाग का स्वीच दस-पन्द्रह मिनट के लिए ऑफ कर दिया. इसके बाद मैं अपने आप को बहुत तरोताजा महसूस करता हूँ.


"साहब,राजमा-चावल पैक करवा दूँ?"लड़के की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हो गई.
लड़का स्वीकृति की चाह म़े याचना भरी दृष्टि से मेरी ओर देख रहा था. मैं उसकी बात टाल न सका .सिर हिलाकर स्वीकृति दे दी.

यहां से चलने से पहले जोशी आंटी को अपने पहुँचने की सूचना दे दी ताकि उन्हें कमरा साफ करवाने का वक्त मिल जाये.

मैंने थर्मस उठाया. ढ़ाबे वाले का पेमेंट किया. और राजमा-चावल का पैकेट लेकर कार की ओर चल दिया.


क्रमशः