मेरे घर आना ज़िंदगी - 25 - अंतिम भाग Santosh Srivastav द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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मेरे घर आना ज़िंदगी - 25 - अंतिम भाग

मेरे घर आना ज़िंदगी

आत्मकथा

संतोष श्रीवास्तव

(25)

आत्मविश्वास के पद चिन्ह

संतोष श्रीवास्तव की रचनाधर्मिता के कई आयाम है। वे एक समर्थ कथाकार, संवेदनशील कवयित्री, जागते मन और अपलक निहारती नजरों वाली संस्मरण लेखिका, न भूलनेवाले लेखे-जोखे के संग देर औऱ दिनों तक याद रखनेवाले यात्रा वृत्तांत लिखनेवाली ऐसी रचनाकार है जो हर विधा में माहिर है। उनका लेखन स्तब्ध भी करता है और आंदोलित भी।

उनके कविता संग्रह 'तुमसे मिलकर' की कविताओं से गुजरते हुए यह अहसास होता है कि उनकी दृष्टि दूर तक जा कर न तो ओझल होती है, न भोथरी। वह पाठक को चेतना के उस महाद्वार पर खड़ा कर देती है जहां जीवन के सरोकार भी है, उसका स्पंदन भी। उसकी विविधता भी है, विराटता भी। वहाँ प्रेम भी है, वियोग भी। कविता की, शब्द की सम्भावना ओर सीमा को स्पष्टता औऱ निर्भीकता से वे उभारती हैं। यही इन कविताओं की ताकत भी है, खूबसूरती भी।

वे लिखती हैं

'ठाट बाट चाहिए

तो काठ होना पड़ेगा,

और उन्हें, काठ होने से इनकार है। '

'भुगतान'कविता में वे लिखती है

'वह दरकी हुई जमीन में

बोता है बीज,

सम्भवनाओं के, अरमानों के। '

उनकी कविताओं में बसा अदम्य जीवनोल्लास और उतना ही उनके अंतर में बसा अवसाद पाठकों को झकझोरता भी है ओर रिझाता भी है।

इस संग्रह की 'घायल अतीत', 'जिल्द', 'आषाढ़ की बूंदे'औऱ'चिलकते सहरा में' जैसी कविताएं अपनी लगभग अकेली ओर अद्वितीय राह नहीँ छोड़ती। यहाँ लेखिका का आत्मविश्वास से चलना और अप्रत्याशित दृश्य उकेरना मन को भिगो जाता है।

इन कविताओं में हमारे समय में अन्तःकरण की विफलता भी है औऱ हताश प्रार्थनाएं भी । उम्मीदों के फिसलन भरे गलियारे में ये कविताएं लकदक विश्वास का बीज मंत्र है।

कुल जमा यह संग्रह एक मुकम्मल लेखिका का भरोसेमन्द मुकाम है।

सुंदर कवर और खूबसूरत छपाई वाली इस पुस्तक का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेले में होना था। किताबवाले प्रकाशक प्रशांत जैन और उनके सहयोगी सुकून भाटिया किताबों के प्रकाशन से लेकर लोकार्पण तक बहुत उत्साह में रहते हैं। उन्होंने दोनों किताबों के लोकार्पण की तारीख 10 जनवरी रखी।

8 जनवरी की सुबह जमा देने वाली ठंड और कोहरे की घनी चादर में दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर उतरी तो देखा मेरे प्रकाशक मित्र नितिन गर्ग मुझे लेने आए हैं। 8 से 11 जनवरी तक मुझे फिरोज शाह कोटला स्टेडियम स्थित विक्रम नगर में उनके घर रुकना था। उनकी पत्नी मीनू ने जिस अपनत्व से भरकर चार दिनों में मेरा स्वागत किया वह मेरे दिल में बस गया। इतना स्नेहिल परिवार, नितिन जी की दोनों बेटियां, बेटा लगा ही नहीं कि पहली बार इस घर में आई हूं।

नाश्ते के बाद नितिन जी मुझे अपने ऑफिस ले गए। मुझे हंस के ऑफिस भी जाना था जो हर बार दिल्ली आने पर मेरा आवश्यक शगल रहता है । बीना उनियाल पूर्व परिचित .....हंस का ऑफिस सूना सन्नाटे से घिरा..... राजेंद्र यादव जिस कमरे में बैठते थे, जिस कुर्सी पर, पल भर तो मेरे कदम दरवाजे पर ही थम गए । कुर्सी पर राजेंद्र यादव की कमर से सिर तक की प्रतिमा । जैसे बैठे हों कुर्सी पर। हमेशा की तरह काला चश्मा आंखों पर । किसी लेखक को इस तरह जीवंत रखना राजेंद्र यादव की लोकप्रियता ही है। हंस ने उनकी प्रतिमा स्थापित कर मानो उन्हें अपनी कर्तव्यनिष्ठ श्रद्धांजलि दी। यह कमरा गुलजार रहता था जब वे जीवित थे। भारी मन से मैं नमन प्रकाशन नितिन जी के पास लौटी तब तक मीनू भी लंच लेकर आ गई थी। हमने साथ में खाना खाया। शाम 4:00 बजे मैं मीनू के साथ साहित्य अमृत के ऑफिस गई । बाबूजी श्यामसुंदर बेहद अशक्त, दुर्बल लगे। मुझे क्या मालूम था कि उनसे मेरी यह आखरी मुलाकात होगी। इस मुलाकात के लगभग साल भर बाद उनकी मृत्यु हो गई। उनके विषय में जब भी सोचती हूं तो उनका

आशीर्वाद भरा स्नेहिल वाक्य याद आ जाता है कि बेटी घर आई है तो खाली हाथ थोड़ी विदा करेंगे और उन्होंने मुझे साहित्य अमृत का जिंदगी भर का मानद सदस्य बना दिया । मेरे इतनी बार घर बदलने, शहर बदलने के बावजूद भी साहित्य अमृत मुझे आज भी मिल रही है और उनके बेटों पवन, प्रभात व पीयूष से भी वैसे ही सम्बन्ध बने हुए है। श्याम सुंदर बाबूजी ने पंडित विद्यानिवास मिश्र, डा लक्ष्मीमल सिंघवी, डा त्रिलोकीनाथ को जोड़कर साहित्य अमृत शुरू की थी । मगर उन्होंने उसमें कभी अपनी किसी पुस्तक की समीक्षा प्रकाशित नहीं की। वे एक साहित्यिक प्रकाशक नहीं थे बल्कि उन्होंने साहित्य को जिया भी था।

साहित्य अमृत के ऑफिस से मीनू मुझे चांदनी चौक बाजार ले आई । गर्म कपड़ों की दुकानें ही दुकानें। दिल्ली का पारा पहाड़ों में बर्फबारी के कारण लुढ़कता ही जा रहा था । 5:00 बजे शाम से ही स्वेटर जर्सी के बावजूद मेरे बदन में कपकपी शुरू हो गई । बहरहाल एक ऊनी कोट और नाइन प्लाई का गरम स्वेटर खरीदकर हमने चाट कचोरी खाई और अंधेरा होते होते घर लौट आए।

कल और परसों मुझे मेले में ही दिन बिताना है। इतने लेखकों से मिलना जुलना, विभिन्न स्टालों पर हो रही चर्चा, विमर्श, लोकार्पण...... साहित्यिक उत्सव के क्या कहने।

10 जनवरी दोपहर 3:00 बजे किताब वाले प्रकाशन के भव्य स्टॉल पर मेरी किताबों का लोकार्पण हुआ । सहयोग दिया हरीश पाठक, महेश दर्पण, गिरीश पंकज ने। साथ में गिरीश पंकज, प्रमिला वर्मा और राजकुमार कुंभज की किताबों का लोकार्पण मेरे हाथों हुआ। इस सत्र का संचालन भी मैंने किया । लोकार्पण में करीब 60 लेखकों की उपस्थिति रही। मेरे सभी लेखक मित्र आए। यहीं पहली बार सविता चड्डा से मुलाकात हुई। अब वे विश्व मैत्री मंच की दिल्ली शाखा की अध्यक्ष है।

दूसरे दिन मेरी भोपाल वापसी थी। इसलिए बाहर डिनर लेने का प्लान बना। मेले से हम डिनर के लिए डॉल म्यूजियम स्थित होटल में आए । नितिन जी के बेटे बेटियां डायरेक्ट होटल पहुंच गए थे । उस रात के डिनर का वह आनंददाई वक्त मेरी यादों में अक्स हो गया और भी इसलिए कि हमने सन्नाटे भरी सड़क के फुटपाथ पर जमा देने वाली ठंड में रात 11:00 बजे आइसक्रीम खाई । मैंने मीनू से कहा "मेरी आइसक्रीम खाते हुए एक फोटो खींच दीजिए धीरेंद्र अस्थाना जी को भेजूंगी । विश्व पुस्तक मेले में ठंड की वजह से वे नहीं आते। "

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तुमसे मिलकर पर चर्चा भोपाल में वरिष्ठ कवि राजेश जोशी की अध्यक्षता में रखी गई । प्रमुख वक्ता हीरालाल नागर, राजेश श्रीवास्तव, नरेंद्र दीपक, सुभाष नीरव और बलराम अग्रवाल थे । राजेश जोशी के अनुसार

नमक का स्वाद", " बदलाव "और "बचा लेता है" इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कविताएँ हैं। उन्होंने इन तीनों कविताओं का विस्तार से जिक्र किया। " बचा लेता है" कविता का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि कागज जब नोट बनता है तो पावर में आते ही नष्ट कर डालता है मानवीय रिश्तो को, संवेदनाओं को, जीवन मूल्यों को । लेकिन किताब का पन्ना बनते ही वह सब कुछ को सहेज लेता है ।

कविता पिकासो में इसी पावर का जिक्र है कि दुनिया की किसी भी करेंसी से महंगा वह चार इंच का कागज है जिस पर पिकासो के हस्ताक्षर हैं।

मैं संतोष जी को साधुवाद देता हूँ कि उन्होंने कागज को किताब का पन्ना बनाने की महत्वपूर्ण कोशिश की है।

प्रसिद्ध गीतकार, अंतरा के संपादक नरेंद्र दीपक ने कहा कि कहते हैं मुक्त छंद की समकालीन कविताएँ बहुत अच्छी हो ही नहीं सकती लेकिन संतोष श्रीवास्तव ने मुक्त छंद में लिखकर यह सिद्ध कर दिया कि यह मुक्त छंद में लिखे गीत हैं।

हीरालाल नागर ने संग्रह की कविताओं को गीत की पंक्तियों की तरह बताया। जिनमें जीवन का ठहरा हुआ उल्लास झरने की तरह बह निकला है। रात बन जाऊं और सबूत कविताएँ इसी तरह की कविताएँ हैं । नई भंगिमा नए बिंब के साथ संतोष श्रीवास्तव काव्य पंक्तियां रचती हैं।

दिल्ली से आए वरिष्ठ लेखक सुभाष नीरव ने कहा कि इस संग्रह की कमाल की बात यह है कि पहली कविता जो पाठक की उंगली थामती है तो अंतिम कविता तक का सफर करा देती है। जिसे पढ़कर पाठक बंध जाए, डूब जाए, व संवाद करे वही कविता की सार्थकता है। इन कविताओं ने छीजती संवेदना को उठाकर प्रेम के बीज बोए हैं।

रामायण केंद्र के निदेशक डॉ राजेश श्रीवास्तव ने संग्रह की कविताओं के लिए कहा कि ये कविताएँ स्वयं को पढ़ा ले जाती हैं । कविता पढ़ने का खिंचाव मन में बना रहता है । यही संग्रह की सफलता है। उन्होंने संग्रह की कविताओं के शीर्षकों पर एक कविता बनाकर सुनाई जिसे श्रोताओं का बहुत अच्छा प्रतिसाद मिला।

इन वक्तव्यों ने कविता की ओर मेरा रुझान और भी अधिक कर दिया। कार्यक्रम का समाचार भोपाल के अखबारों नव दुनिया, दैनिक भास्कर, पत्रिका, हरी भूमि आदि ने प्रमुखता से छापा । इसके तुरंत बाद मेरी कविताएं वागर्थ, ज्ञानोदय, हिंदुस्तानी जबान, लोकायत तथा अन्य कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं।

हीरालाल नागर द्वारा लिखी समीक्षा पत्रिका के भारत भर के सभी संस्करणों में प्रकाशित हुई । मुंबई से राजेश विक्रांत ने समीक्षा लिखी जो मुंबई के दैनिक अखबार दोपहर का सामना में छपी। भारतीय काव्य का सबसे विशाल ऑनलाइन संकलन पद्य कोष में भी मेरी 20 कविताएँ प्रकाशित की गईं।

“तुमसे मिलकर” कविता संग्रह के साथ ही मुम्बई पर लिखी मेरी किताब करवट बदलती सदी आमची मुंबई जो मेरे पाँच वर्षों का अथक परिश्रम है प्रकाशित होकर विश्व पुस्तक मेले 2019 में आ गई उस का लोकार्पण भी तुमसे मिलकर के साथ ही हुआ। चूँकि मुम्बई छूट चुका था अत: इसके ब्लर्ब में मैंने लिखा

अभिभूत हूं तुझसे मुंबई

मुंबई की सरज़मी पर जब मेरा पहला कदम पड़ा था तो सोचा न था यहां जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा गुज़रेगा । कुछ सुनहले, कुछ धूपहले, कुछ चितकबरे और बहुत अधिक स्याह काले पल। बहुत अधिक इसलिए कि जबलपुर से तीन महीने के हेमंत को लेकर सपनो से लदी फदी आई थी। पत्रकार बनने का जोखिम मेरे बेचैन मन में हड़कंप मचाये था । धीरे-धीरे पत्रकारिता में पांव जमने लगे। धर्मयुग, नवभारत टाइम्स आदि में फीचर, स्तंभ भी लिखने लगी । छोटा सा घर भी बस गया लेकिन फिर सब कुछ खत्म। न हेमंत रहा, न रमेश ।

जब होश आया तो लगा हेमंत की अकाल मृत्यु के स्याह पन्नों को आत्मसात कर मुझे मुंबई का कर्ज़ उतारना है । उसने जो दिया और जो लिया उसकी फितरत थी पर मुझे चालीस सालों का हिसाब चुकता करना है ।

मुंबई की उन जगहों को मैं कैसे भूल सकती हूं जिन्होंने मुझे जिंदगी का फ़लसफ़ा समझाया। तो मैं कोलंबस की तरह मुम्बई द्वीप की यात्रा पर निकल पड़ी । उन तमाम जगहों से जुड़ा इतिहास, संस्कृति, कला, धर्म, प्रकृति, नदियां, पर्वत, समन्दर को लांघती, फलांगती पहुंच गई अद्भुत निराली .....खुद को भारत के हर शहर से अलहदा महसूस कराती मुंबई.... आमची मुंबई की बाहों में । मुम्बई के ज़र्रे ज़र्रे को प्रत्यक्ष देखभाल कर इस पुस्तक में लिखने की कोशिश की है । चालीस सालों में मुम्बई को जितना नहीं जाना पांच सालों में इस किताब को लिखते हुए उससे कहीँ अधिक जाना। अभिभूत हूँ मुम्बई तुझसे.... तू मेरे प्राणों में बसी है और अब जबकि मैं पिछले छै महीनों से भोपाल आ बसी हूं, तू मुझसे रुठ गई होगी... रूठ गया होगा ठाठे मारता अरब सागर।

पर जिंदगी इसी को तो कहते हैं

इस किताब को मुंबई की संपूर्ण जानकारी और पर्यटन का दस्तावेज बनाने में और शोध छात्रों के लिए संदर्भ ग्रंथ बनाने में मुझे सात से भी अधिक साल लग गए ।

करवट बदलती सदी आमची मुंबई पर चर्चा "मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति "की ओर से हिन्दी भवन के महादेवी वर्मा कक्ष में रखी गई। चर्चा 23 नवंबर को रखी गई जो कि मेरा जन्मदिन भी था। उम्मीद न थी इतना भव्य आयोजन होगा । पद्मश्री रमेशचंद्र शाह की अध्यक्षता में सीहोर से मुकेश दुबे अपनी पत्नी सहित आए। अशोकनगर से सुरेंद्र रघुवंशी आए। मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की ओर से मुझे आदरणीय कैलाश चंद्र पंत ने शॉल और पुष्पगुच्छ देकर सम्मानित किया। फिर तो फूल मालाओं से लद गई मैं। भोपाल की लेखिकाओं ने लाइन लगा दी फूलों की माला पहनाने की कि जैसे मैं नहीं कोई मूर्ति हूँ। मैं मूर्ति की तरह खड़ी की खड़ी रह गई । कम से कम 25 फूल माला मेरे गले में, हाथों में फूलों के गुलदस्ते। उस दिन मुझे पता चला मैं भी अमीर हूँ। मेरी ज़िंदगी भर का प्राप्य मेरा साहित्यिक परिवार.....और मैं समृद्धि से भरी पूरी।

पुस्तक पर चर्चा करते हुए पद्मश्री रमेश चंद्र शाह ने कहा

"पुस्तक में जबरदस्त पाठकीय आकर्षण है। हाथ में किताब आते ही यह अपने को पढ़वा ले जाती है । ऐसा लगता है कि संतोष की कलम से मुम्बई ने अपनी आत्मकथा लिखवाई है । संतोष के पास एक कहानीकार की आँख है तो उन्होंने मुंबई के परिदृश्य को कहीं ज्यादा गहरे आत्मसात किया है। उसका अंतरंग पक्ष अपने आप सामने आ जाता है । संतोष का मार्मिक योगदान है महानगर के लिए। जो जीवनी का भी रस देता है। मुझे इतनी जानकारियां नहीं थीं जबकि मेरा ससुराल मुम्बई है और मैं बरसों वहाँ रहा हूँ। "

(पद्मश्री रमेशचंद्र शाह )

"जब कोई मुम्बई में रहकर उसको आत्मसात करता है तभी ऐसी सम्पूर्ण जानकारी युक्त पुस्तक लिख सकता है। यह मुम्बई के लिए सम्पूर्ण सन्दर्भ पुस्तक है। सभी जानकारियों से परिपूर्ण । यह पुस्तक नायक है तो गूगल सहायक। वैसे गूगल में भी इतनी जानकारी मुंबई के लिए नहीं मिलेगी जितनी इस पुस्तक में संतोष जी ने दी है। यह उनकी वर्षों की मेहनत का फल है। "

(डॉ जवाहर कर्णावत)

"कोई शहर चँद लाइनों या नक्शों में कैद एक शहर नहीं होता, वरन एक जीवंत धड़कता स्थान होता है। मुम्बई के ऊपर दर्जनों किताबें लिखी गई पर वे अंग्रेजी में और अपूर्ण जानकारी युक्त लिखी गई। इस पुस्तक ने पहली बार समूची जानकारी हिंदी में प्रस्तुत की है। पुस्तक का एक वाक्य, कि "ब्रिटिश और बिल्ली इस होटल में प्रवेश नहीं कर सकते" एक विलक्षण वाक्य है। फिल्म निर्माण, भिन्डी बाजार, और पुरानी मुम्बई के मछेरों को, पारसी समुदाय, डिब्बे वालों, व्ही आई पी कल्चर और पर्यटन स्थलों को भी अपने पन्नों में जगह दी है।

(मुकेश दुबे सीहोर)

पुस्तक को पढ़ते हुए लगता है कि एक झरोखे से हम मुम्बई दर्शन कर रहे हैं, मुम्बई के इतिहास, गोपन कला, स्थापत्य, साहित्य, संस्कृति का युवाओं के संघर्ष का, कलाकारों, साहित्यकारों का इसमें विस्तार से वर्णन है। बहुत सारी जानकारियाँ मुम्बई के बारे में यह किताब देती है। मुंबई के पर्यटन में यह पुस्तक संदर्भ ग्रंथ के रूप में रखी जा सकती है। "

(सुरेंद्र रघुवंशी अशोकनगर )

"मुंबई के पूरे परिदृश्य को अगर जानना हो तो इससे बेहतर कोई दूसरी किताब नहीं । सुंदर भाषा शैली में सहज मन को आकृष्ट करती मछुआरों की बस्ती से लेकर अरबपति इलाकों तक की जानकारी देती यह पुस्तक मुम्बई की मानो शोध ग्रंथ है। "

(स्वाति तिवारी )

किताब के प्रति इतनी गंभीर चर्चा के बाद मुझे महसूस हुआ कि मेरा श्रम सार्थक हुआ है

इस किताब को मुम्बई की संपूर्ण जानकारी और पर्यटन का दस्तावेज बनाने में और शोध छात्रों के लिए संदर्भ ग्रंथ बनाने में मुझे जो 5 से भी अधिक साल लगे उसका रिजल्ट मेरे सामने हैं । "

फिर इसी किताब पर मुंबई के नजमा हेपतुल्ला हॉल में चर्चा हुई जिसमें विश्वनाथ सचदेव, सूर्यबाला दी, मनमोहन सरल, सुदर्शना द्विवेदी और हरीश पाठक ने किताब के बारे में अपनी बात रखी।

कि मुम्बई पर यह एक जरूरी किताब है। यह संदर्भ ग्रन्थ की तरह जरूरी है। इसे पढ़ना हर मुम्बईकर के लिए जरूरी है। (सूर्यबाला)

मुंबई का भूगोल लोककथा मानस इतिहासकार ने नहीं लिखा है बल्कि कथाकार ने लिखा है इसलिए यह विशेष है। इस शहर की खासियत को समझाया लेखिका ने जिसे आप इस पुस्तक में महसूस कर सकते हैं। " ( विश्वनाथ सचदेव)

" मुंबई की धड़कन को शब्दों में ढाला है संतोष ने। न ही यह कोई नीरस इतिहास है न ही कोई कथा । पूर्ण तटस्थ भाव से वे मुंबई को देखती हैं"

( सुदर्शना द्विवेदी)

एक कथाकार अपनी शैली से विचार बदल देता है तो उस किताब का नाम हो जाता है करवट बदलती सदी आमची मुंबई। भरपूर रोचकता, एक पन्ना खुला तो दूसरे को पढ़ने की उत्सुकता.......

(हरीश पाठक)

"मैं कला से जुड़ा रहा और इस पुस्तक में संपूर्ण कला उभरकर आई है। "

( मनमोहन सरल)

इतना तो कह सकती हूं कि मुंबई में पर्यटन के लिए अगर यह किताब पढ़ ली तो फिर किसी भी तरह के मुंबई के पर्यटन इनसाइक्लोपीडिया को नहीं पढ़ना पड़ेगा।

*****

भोपाल में चार लाख कायस्थ हैं और ढेरों कायस्थ सभाएं। जाति संबंधी उत्सवों, सभाओं से दूर ही रहती हूं। किसी को अपनी जाति या गोत्र या रिश्तेदारों के बारे में जानकारी देना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं। लेकिन इस बार विजय कांत वर्मा जीजाजी के दूर के रिश्तेदार खरे जी का आग्रह था कि मैं उनके द्वारा स्थापित चित्रांश वरिष्ठ नागरिक कायस्थ सभा के आयोजन में कविता पाठ करूं। इस बार मंच पर कवि केवल मैं और श्रोता कविता रसिक। अद्भुत अनुभव था। विशिष्ट अतिथि के रूप में भाजपा सांसद आलोक संजर भी मौजूद थे । वह एक बेहतरीन शाम थी जब मुझे ढेर सारे श्रोता मिले।

धीरे-धीरे भोपाल का भूगोल समझ आ रहा है। भोपाल से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका समरलोक में अंगना नाम से जो मेरा कॉलम 10 साल तक चला था उसकी संपादक मेरी मित्र मेहरून्निसा परवेज से जब मेरी फोन पर बातचीत हुई तो बेहद खुश होकर बोली "अरे कितना बढ़िया डिसीशन है तुम्हारा भोपाल शिफ्टिंग का । "

और यह जानकर कि मेरा बसेरा बावड़िया कला में है और भी खुश हुई" लो तुम तो एकदम घर के पास आ गई हो। शाहपुरा जहां मैं रहती हूं तुम्हारे घर से 15, 20 मिनट के वाकिंग डिस्टेंस पर है। कल ही आ जाओ। अब मेहरुन्निसा जी पद्मश्री मेहरून्निसा परवेज हैं। मिलने की उतावली मुझ में भी थी।

दूसरे दिन शाम को मैं उनसे उनके घर पर मिली। उनकी बेटी सिमाला के बड़े-बड़े पोस्टर लगे थे कमरे में। वैसे तो वह पुलिस विभाग में है लेकिन वह फिल्मों में जाना चाहती थी। मेहरुन्निसा जी उसे लेकर मेरे मुंबई प्रवास के दौरान आई हुई थी लेकिन बात बनी नहीं ।

मेरे कॉलम अंगना को वे तीन-चार सालों के अंतराल के बाद पुनः आरंभ करना चाहती थी ।

"लेकिन अंगना को स्त्री विमर्श पर ही केंद्रित मत रखिए । "

मेरा आग्रह था।

" तो आप विविधता लाइए न। "

बहरहाल तय हुआ कि अंगना में अब विविधता रहेगी । साहित्य, संस्कृति, पर्यटन और समसामयिक विषयों को लेकर आरंभ होगा अंगना। मुझे मंजूर था।

वे आग्रह कर करके मेवों भरी गुझिया, मूंग की दाल की कचोरी खिलाती रहीं। नौकर चाय ले आया बेहद स्वादिष्ट अदरक वाली चाय । उनका डुप्लेक्स बंगला, खूबसूरत बगीचा उनकी अभिरुचि की गवाही दे रहा था।

सेरोगेसी से जन्म लिए उनका बेटा भी मुझसे मिला।

समाज को चुनौती देता है मेहरून्निसा जी का व्यक्तित्व । अच्छा लगा उनसे मिलकर।

*****

जब भोपाल के लिए बोरिया बिस्तर बांधा था तो यह सोच कर चली थी कि जैसे पहले वानप्रस्थ आश्रम हुआ करते थे मैं भी वानप्रस्थ ले रही हूं । नाते रिश्तों से पहले से ही विरक्त थी। दुनियादारी की समझ न थी और खुद के लिए कभी सोचा नहीं....... तो भोपाल में यह जो मुझे फॉरेस्ट एरिया में फ्लैट मिला है यह भी मानो वानप्रस्थ का आवाहन ही है। मैं बस लिखूंगी और लिखूंगी ।

लेकिन भोपाल के साहित्यकार वर्ग ने मुझे वानप्रस्थ कहां लेने दिया । जब भी सोचा कि मेरा यहां कोई नहीं भोपाल के लेखक साथ खड़े नजर आए । और फिर मेरी वीरानियां को, उदासियों को बूंद बूंद अपने प्यार से सोखकर मुझे जिसने अपनत्व दिया वह अंजना मिली । अम्मा के सबसे चहेते छोटे भाई संतोष चद्र पंड्या की बेटी जिनके नाम पर चाचा जी ने मेरा नाम संतोष रखा था । मेरा नाम रखने का वह एक ऐतिहासिक दिन था क्योंकि ऐसा किसी के साथ नहीं हुआ होगा।

भोपाल में उसका होना मेरे लिए वरदान है मेरी छोटी बहन, मेरी मित्र, मेरी केयरटेकर

........ देखती है चेहरे पर उदासी तो थिएटर ले जाती है । गहन अवसाद में मांडू, महेश्वर, ओंकारेश्वर, उज्जैन । दो दिन संग संग .....दुनिया को भूल हम अपने में मगन......

मैंने उन कुछ धूप के टुकड़ों को संभाल कर रखा है जिन्होंने मेरी जिंदगी को ताप दिया । हिमशिला होने से बचाया । उनमें से एक टुकड़ा धूप का अंजना है। तो मैं जो खुद को भूलने लगी थी । अब याद करने लगी हूं। अब मुझ में समाया कुछ बाहर आया है। जिसमें मैं बहने लगी हूं । यह बहाव जाने कितने समंदर बह जाने को उतावला है।

मुझे पता है मेरे गुजरे वक्त ने पीड़ाओं ने कमियों ने, गलतियों ने ही मुझे मेरे लक्ष्य से परिचित कराया है । मेरा लेखन उन सभी को समर्पित है जो मेरी जैसी वेदना से गुजरे हैं।

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अभी पिछ्ले दिनो किसी ने सवाल किया था “ ओह आप अकेली रहती हैं?कैसे रह लेती हैं?” अब मैं उसे क्या बताती कि मैंने अपने एकांत को रचनात्मक चैनल में डालकर मथ डाला है । आखिर जीवन और दर्शन ने हमें यही सकारात्मक रवैया दिया है । हमारे चलने फिरने, हंसी-खुशी, काम धाम के नीचे पता नहीं कितने खंडहर छिपे होते हैं। क्या हम टटोल पाते हैं उन्हें ।

मेरे सरोकार मेरी प्रतिबद्धता जन और जीवन के प्रति है। मैं मानती हूं कि लेखन एक ऐसा सफर है जहां अतीत और भविष्य दोनों मेरे हमसफ़र हैं। मैं तमाम वैज्ञानिक प्रगति, भूमंडलीकरण, बाजारवाद, छिछली राजनीति, दृश्य श्रव्य मीडिया, इंटरनेट और साहित्य की चुनौतियों के सामने जिरह बख्तर बांधकर खड़ी हूं।

एक बार मुंबई से उखड़ कर पुनः मुंबई में आ बसना फिर से मुंबई से उखड़कर औरंगाबाद चले जाना, औरंगाबाद से उखड़कर भोपाल आ बसना मात्र मेरी संकल्प शक्ति ही थी।

हालांकि घर किराए का है। सोच लिया है किराए में ही रहना है ताउम्र। घर भी खरीद लूं तो किसके लिए! मुझे तो जरूरत ही नहीं है और मेरे बाद उस घर को संभालने वाला कौन होगा यह फिर चिंता का विषय हो जाएगा। इसलिए इस ओर से किनारा कर लिया है।

पांचवी मंजिल के मेरे फ्लैट के चारों ओर हरा-भरा परिदृश्य है । ठंडी हवाएं हैं। उगता सूरज है। डूबता सूरज है। और मैं हूं और मेरी अछोर फैली तनहाई। मैं इस तन्हाई को एंजॉय करती हूं क्योंकि जानती हूं यही जीवन की सच्चाई है । चाहती हूं हेमंत की यादों को और और जियूं। अपनी अतृप्ति को तृप्ति में बदल डालूं। भले ही मुझे कदम दो दुनियाओं में एक साथ रखने पड रहे हैं। एक यथार्थ की दुनिया, दूसरी सपनों और कल्पनाओं की दुनिया। पर .........

जामे हर जर्रा है सरशारे तमन्ना मुझसे

किसका दिल हूं कि दो आलम से लगाया है मुझे।

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