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पटना से चिट्ठी आई

हर कहानी की किस्मत में एक अदद शुरुआत और मुकम्मल अंत नहीं होता। कुछ वृत में तरह घूमते रहने को अभिशप्त भी होती हैं।

छोटे शहर के अनाम मुहल्ले में जब हम बड़े हो रहे होते हैं तो अक्सर एक वर्जित घर होता है जिस ओर नज़र उठाने की भी सख्त मनाही होती है। ये कहानी नज़र बचाकर उस वर्जित कोने की दरारों में झांक पाने की गुस्ताखी और उसकी स्मृतियों के अवशेष पर शब्दों को खड़ा करने की कोशिश है।

पटना से चिट्ठी आई

‘पटना से चिट्ठी आई रस्ते में गिर गई, कोई देखा है’,

‘नाहीं’

‘पटना से चिट्ठी आई....’

बड़ा सा वृत बनाकर अंदर को मुंह किए बैठे ढेर सारे बच्चे, उनके चारों ओर दौड़ लगाता एक बच्चा, रूमाल की शक्ल में एक की पीठ पर गिरी चिट्ठी, दौड़ना, पकड़ना, धौल-धप्पा, खिलखिल, झगड़े। काले दरवाज़े से टेक लगाए कुर्सी पर ऊंकड़ू बैठी रश्मि कानों से देख सकती है सबको। इंद्रियों के बाँटे हुए काम बड़े बेमतलब से लगते हैं उसे, वो तो जब चाहे एक से दूसरे का काम ले सकती है। छोटी के प्यार का स्वाद महसूस कर सकती है, माई की उदासी, उँगलियों के पोरों से छू सकती है।

बादलों का बड़ा सा टुकड़ा बंद आँखों पर से गुज़र गया, तो शाम के ढल जाने का एहसास हुआ। बच्चों की आवाज़ गडमडा गई है, रोज़ से ज्यादा बच्चे हैं आज, तभी पता नहीं चल रहा हँस रहे हैं या लड़ रहे हैं, या किसी एक को चिढ़ा-रुलाकर मज़े लेने वाली हँसी है ये।

बैठे-बैठे दायाँ पैर सो गया है, मुंडेर तक जाने में तलवे में तेज़ झुरझुरी होती है। आंगन में एस्बेस्टस की छत वाले अकेले कमरे और मैदान के बीच चाहरदीवारी का एक हिस्सा अब ढह गया है, लेकिन उसे पार कर शाम के बाद इस ओर कोई बच्चा नहीं आता। टिकोले और कटहल चुराने भी नहीं।


शाम के धुंधलके में छत की मुंडेर से सारे बच्चे लगभग एक से दिखते हैं, छोटे-बड़े, काले-काले। एक मरियल लेकिन बाकियों से काफी लंबा लड़का दूर से भी थोड़ा अलग लग रहा था, नया आया था शायद। उसीको बीच में खड़ा कर बाकी सारे चारों ओर से हँस रहे हैं। थोड़ी देर यूँ ही खड़ी रहकर देखती है रश्मि, उन सबको, दीवार फांदकर भागती बिल्ली को, उस कबूतर के पंखों और हड्डियों के अवशेष को जिसे वो अभी-अभी खा रही थी, मैदान में ईंटों के ढेर पर बैठ पैर हिलाते उस बच्चे को जिसकी दायीं एड़ी में पट्टी बंधी है, टोकरियाँ नीचे रख बीड़ी के धुएँ के बीच सड़क किनारे बतियाती कुँजरिनों को, नीचे कमरे की खिड़की से निकलते, छोटी की जलाई अगरबत्ती के धुएँ को।

बीच वाले लड़के ने अब आत्मरक्षा में हाथ में लकड़ी उठा ली थी और थोड़ा सहम-सहमकर लेकिन बड़ी तेज़ी से उसे चारों तरफ घुमाने लगा था। उसके चारों ओर बच्चों का घेरा थोड़ा बिखरने लगा था अब। बहुमत हार रहा था और आज का खेल बिना मज़े के खत्म होने वाला था।

‘देख रे देख कारी केवाड़ वाला भूत’, ईंटों के ढेर पर बैठे लड़के ने एकदम से कहा और सबसे पहले लंगड़ाकर भागने लगा। उसके पीछे रोते, चीखते, हँसते, ठठाते बाकी सारे बच्चे भी भाग लिए। लंबा, मरियल लड़का हकबकाकर वहीं खड़ा रहा। रश्मि की ओर नज़र घुमा कर देखता रहा जहाँ सब ने इशारा किया था। अंधेरे में थोड़ी देर आँखें मिलाने की कोशिश भी की, फिर धीरे-धीरे पीछे हटने लगा। गड्ढे में पड़कर पैर लड़खड़ाए, फिर एकदम से मुड़ा और भाग खड़ा हुआ।

रश्मि वहीं खड़ी रही। देखती रही एकटक सबको। यूँ उन सबके चीखने, भागने पर अब रोना नहीं आता उसे, डरकर नीचे माई की गोद में भी नहीं भागती, ‘क्यों करते हैं सब ऐसा,’ ये भी नहीं पूछती, बल्कि कभी-कभी शाम ढले एकदम से मुंडेर पर अवतरित होकर, मुँह से अजीब सी आवाज़ें निकालकर, उन सबका खेल बिगाड़ने में परपीड़न की खुशी भी होने लगी है उसे। लेकिन सबसे ज़्यादा, सबसे ज़्यादा, पीछे मुड़कर उस छाया को ढूँढने की कोशिश करती है जो उन सबको तो दिख जाती है, लेकिन रश्मि को कभी नज़र नहीं आती।

इस छत पर डर ना उसे लगता है ना अकेले खड़े इस कमरे को, जिसकी दीवारों से अब नंगी ईंटें भी झांकने लगी हैं। ज़्यादा जर्जर काला दरवाज़ा है या उसपर लटका ज़ंग खाया ताला कहना मुश्किल है, फिर भी दोनों के बनाए उस तिलिस्म को तोड़ कोई अंदर नहीं जाता। काला दरवाज़ा दरअसल काला भी नहीं बेहद बदरंग था। उसका रंग कभी नीले और हरे के बीच का कुछ रहा होगा। चौखट का एक बड़ा हिस्सा काला था बस, जला हुआ। उस दरवाज़े से कुर्सी टिकाकर बार-बार पढ़ी किताबें पढ़ना सबसे अच्छा लगता है उसे, बेताल पचीसी, भागवत, जासूसी उपन्यास, छोटी के कॉलेज की फटी किताबें, माई की अखन्ड ज्योति।

लालटेन का शीशा चमकाकर छोटी बत्ती बाल रही थी, माई रसोई में। वो चुपचाप पलंग के सिरहाने पड़ी डायरी लेकर बैठ गई। कैसे बुलबुले हैं ये समय के जो फूटते नहीं, बस दूसरे बुलबुले के भीतर समर्पण कर देते हैं। इनके पार इतनी हचलच दिखाई देती है लेकिन अंदर कुछ नहीं आ पाता। समय का बीतते जाना बस उसकी बढ़ती छातियों और भरती पिंडलियों पर अपने अक्स छोड़े जा रहा है या फिर छोटी के बालों की सफेदी और माई के झुकते कमर पर। रोज़ घर से बाहर निकलना छोड़े भी जाने कितने साल हो गए उसे। माई या छोटी ही जाती है राशन, सब्ज़ी लाने, पोस्ट ऑफिस से मनीऑर्डर लाने।

अपने खुलने बंद होने का समय ज़ंग लगे लोहे के इस गेट को भी याद हो गया है। रश्मि को हमेशा लगता है कि किसी दिन अगर इसे समय से नहीं खोला गया तो भी ये अपने आप खुल जा सिम-सिम हो जाएगा। सामने के दरवाज़े से लगभग हर शाम माई की मोटी सहेली आती है। अजीब तरीके से घुटने मोड़कर सीढ़ियां चढ़ती है, पूरे दो घंटे माई के साथ बैठ फिर वापस जाती है। उसकी कहानियाँ सास, ननदों से चलती अब अपनी बहुओं पर आ गई है।

पीछे के दरवाज़े से हर दूसरी-तीसरी रात आता है नथुने से आवाज़ निकालता वो नाटा आदमी। बाल सहलाकर रश्मि को सुलाती छोटी बहुत सावधानी से उठती, किवाड़ का पल्ला उढ़का रसोई के पीछे वाले उस कमरे में जाने के लिए जहां चौकी के ऊपर माई के पीतल के बड़े बर्तन और अचार के मर्तबान रखे होते थे। पीतल के बर्तनों को माई बिना इस्तेमाल भी हर महीने घिस-घिसकर चमकाती थी। आंवले, कटहल, आम, लाल मिर्च के अचार से सजे माई के मर्तबान उसके लिए देवता-पित्तर समान थे, उन्हें ज़मीन छू भी जाए उसे बर्दाश्त नहीं था।

लेकिन रश्मि जानती है कि हर दूसरी रात ये भारी-भारी बर्तन चौकी के नीचे उतारे जाते हैं, छोटी और नाटे आदमी के लिए, सुबह माई के उठने से पहले वापस ऊपर रखे जाने के लिए। कुछ साल हुए, एक बार छोटी के जाते ही रसोई की खिड़की से झांक लिया था उसने। छोटी के ऊपर चढ़े उस आदमी की रेत की ढूहों सी धसकती सांसों और जबड़ों के बीच फंसी लार की कई-कई लकीरों को याद करके फिर मारे दहशत कई रातों तक नींद नहीं आई थी उसे।

‘छोटी...’ माई की आवाज़ हमेशा से पत्थरों के घिसने की सी रही है, बस वक्त ने पत्थरों को चिकना कर दिया है अब। आवाज़ की धार खत्म हो गई है।

छोटी, कई साल से घर में इकलौती है, फिर भी छोटी है। दिन-रात उसे आवाज़ देती, चिड़चिड़ाती माई को अब क्या ‘बड़ी’ की याद नहीं आती, अक्सर सोचती है रश्मि। ‘बड़ी’ का चेहरा याद भी नहीं आता अब, बस आवाज़ याद है, खुरदुरी सी, छोटी की तरह महीन नहीं। इस घर की दीवारों पर कोई फोटो नहीं है, सिवाए माई के सास-ससुर की और एक माई और बाबा की अपने तीनों बच्चों के साथ। दुर्गा जी का एक कैलेंडर भी है जाने कितने साल पुराना, जो बार-बार प्लस्तर की परत के साथ उखड़ जाता है, जिसे छोटी आटे की लेई बनाकर उसी जगह चिपका देती है।

छोटी, सिलबट्टे पर सरसों पीस रही ह।, सेम दोपहर को वही तोड़कर लाई थी एस्बेस्टस की छत तक जाती लत्तियों से। सरसों वाला सेम बनाते समय माई धीरे-धीरे गुनगुना रही है। क्या, ये उसे कभी समझ नहीं आता।

नहीं समझ में आने वाली बातों की परवाह तो जाने कब से छोड़ रखी है उसने। सवाल उसके सामने अब टेढ़ी लकीरें नहीं बनाते अब, बस सीधी लकीर में साथ-साथ चलते जाते हैं, चुपचाप, बिना उसे छेड़े। बचपन पूछे गए अबोध सवालों का पुलिंदा था तो जवानी ना पूछे जा सकने वाले सवालों की गठरी।

स्कूल की उस लड़की का चेहरा और नाम अभी भी याद है। सुम्मी, छोटे माथे और चुकीली आँखों वाली। मुंहफट थी बहुत। एक दिन स्कूल के पीछे अपने घर ले गई, दाल के पिठ्ठे खिलाने। दो-तीन और लड़कियाँ भी थीं साथ में।

“ऐ तुम्हारा नाम कौन रक्खा रश्मि, तुम्हारी मम्मी कि ऊ दादी आ कि फुआ तुम्हारी? “

‘छोटी’, उसने बिना सोचे कहा, एक यही बात थी जो छोटी उसे बार-बार बताती थी। बड़ी चाहती थी रजनी नाम लेकिन छोटी ज़िद पकड़कर बैठ गई थी।

"तुमको भी मारती है क्या घर में? हमको सब पता है, सब पकड़कर हाथ पैर बाँधकर, कपड़ा भी ठूंस दिया था उसके मुंह में, चिल्लाते बाहर भागी थी और चौखट पर गिर गई थी तुम्हारी मम्मी, फिर चौखट भी आग पकड़ लिया था, पता है तुमको। झूठ-मूठ दिखाने के लिए हॉस्पीटल ले गया था सब लेकिन रस्ते में मर गई थी तुम्हारी मम्मी, सब पता है हमको। और पप्पा कहां गए जी भागकर तुम्हारे जानती हो तुम? रेलवे लाइन के पीछे का एक आदमी देखा था उनको पंजाब में कि दिल्ली में कहीं।"

तुम्हारी मम्मी, तुम्हारी मम्, तुम्हारी...अंधेरा होने पर लौटते हुए बड़ी देर तक इन शब्दों को दोहराती, उनसे पहचान बनाने की कोशिश करती आई थी रश्मि। घर पहुँची तो माई बेहाल गेट पर खड़ी थी, छोटी सड़क पर। देखते ही एक झन्नाटेदार थप्पड़ दिया छोटी ने उसको। पहली बार, पूरी रात, आँगन में पैर पटक-पटककर, मम्मी-मम्मी कहकर रोती रही वो। सुबह बिना छोटी से बाल बनवाए स्कूल गई, सुम्मी से मम्मी की सारी कहानी सुनने का प्रण किए। बैग में छुपाकर दो फ्रॉक भी रख लिए थे, मन हुआ तो कभी वापस नहीं आएगी। लेकिन स्कूल में सुम्मी ही पलट गई।

“हम नहीं बोलेगें अब तुमसे, मम्मी मारेगी, कल्ले बहुत डांटी थी तुमको देखकर।"

उस दिन के बाद रश्मि कभी स्कूल नहीं गई।

बचपन की यादों की पिटारी में कुछ और दृश्य भी थे।

माई थी, बड़ी और छोटी दोनों, बड़ी ने साड़ी पहनी थी नारंगी रंग की, और खूब सारा नारंगी सिंदूर उसके माथे पर। पीछे मंदिर भी था। फिर बड़ी, माई के गले लगकर चली गई और कभी वापस नहीं आई। माई की मोटी सहेली के घर बस एक फोन आया था उसके ससुराल से। बेटी हुई थी मरी हुई, उसी के साथ वो भी..

‘असम’, माई उसका नाम लेकर हमेशा छत की ओर हाथ उठाती थी।

‘असम की जादूगरनी खा गई रे हमरी बेटी को,’ अचानक से बीच-बीच में माई छाती पीट कर विलाप करने लगती। छोटी, माई को पानी पिलाकर अंदर सुला देती और खुद दरवाज़े पर बैठकर सिसकने लगती। उस दिन फिर घर में चूल्हा नहीं जलता।

और एक बाबा भी थे, चेहरा बिल्कुल याद नहीं, माई के बगल में जो फोटो है उसी को बिठा लिया है अपनी यादों के साथ। माई, कई साल तक जेल में मिलने जाती रही। फिर एक बार नहीं मिले। कोई बोला दूसरे जेल में गए, कोई बोला अस्पताल में हैं।

फिर एक दिन दरबान ने बताया, ‘हाँ मर गया ऊ तो कब्बे, मलेरिया हुआ था, चिट्ठी गया नहीं तुमको? कोई आया नहीं बॉडी लेने तो कब तक वेट करते।‘

बहुत दिन तक मानने को तैयार नहीं थी माई, रोज़ जेल जाती, थाना जाती, वकील बाबू के घर जाती।

एक दिन नहाकर निकली बिना सिंदूर और चूड़ी के, छोटी ने फटी-फटी आँखों से देखा और वहीं फर्श पर बुक्का फाड़कर रोने लगी। उस दिन भी घर में चूल्हा नहीं जला। अगली सुबह माई उसे और छोटी को लेकर सिमरिया गई, गंगा नहाने। बाबा का क्रिया-कर्म उतनी ही देर का रहा। बाबा का नाम लेकर माई हमेशा फर्श की ओर इशारा करती है।

‘सबके करनी का पाप एक्के आदमी के चुकाना पड़ गया रे बाप’, अपना कपाल ठोंक माई सूखी आँखों में आँसू लाने की चेष्टा करती रहती।

खाना परोसकर छोटी आवाज़ दे रही है। माई ने अपने पीढ़े पर बैठ खाना शुरू भी कर दिया है।

‘आज खा काहे नहीं रही हो ठीक से’, छोटी ने उसे टोहका दिया। पता नहीं क्यों, उसने मन ही मन सोचा, कभी-कभी सवाल उसका रास्ता काटने की हिमाकत भी कर लेते हैं, फिर उस दिन भूख नहीं लगती, सरसों वाला सेम देखकर भी नहीं। नींद भी नहीं आती ठीक से।

माई खाना खाकर सोने चली गई है, मोढ़े पर बैठी छोटी उसकी तेल-चोटी करने लगी।

‘छोटी तुम थी क्या उस दिन, आवाज़ आई थी काले दरवाज़े वाले कमरे से? चिल्लाई थी वो? कितनी देर रही थी उसके बाद? मैं कहाँ थी? उसके बाद क्या हुआ?’ पूछना चाहती है रश्मि। बाल थोड़े ज़ोर से खिंचे, उसके हल्के ऊह से शिकन आ गई छोटी के चहरे पर, हाथों में पकड़े बाल छोड़ उसका माथा सहलाने लगी, फिर हल्के हाथों ढीली चोटी।

सवाल थूक के साथ गटककर रश्मि पैर के नाखून से फर्श कुरेदने लगी।

क्रिक-क्रिक, नाखूनों की आवाज़ कान में गूंजती है, अजीब सी गुदगुदी होती है रीढ़ की हड्डी में।

‘बंद करो ये’....छोटी ने हौले से मारा सर पर।

‘ऊंह हूं’….उसने दूसरा पैर भी घिस दिया फर्श पर।

छोटी ने तेल परे सरका, रीढ़ की हड्डी पर उसी जगह गुदगुदी लगाई। दुपट्टा संभालती भागी रश्मि फिर छत पर।

चांद सर पर आ गया है, सारी छतें, मैदान, सब खाली। अब समय है नारियल के पेड़ वाली छत की बहू के टहलने का। हौले-हौले अपनी छत के कई चक्कर लगाती है वो, फिर थके हुए कदमों से नीचे चली जाती है। छोटी भी नीचे से सोने के लिए आवाज़ दे रही है। आज नाटे आदमी के आने का दिन है शायद, या शायद नहीं, आजकल कई-कई दिन नहीं आता, कभी रोज़ भी।

माई को बुखार था, सिर में दर्द भी। छोटी पोस्टऑफिस से मनीआर्डर लाने गई थी, लेकिन खाली हाथ लौटी। पैसा तीन-चार दिन बाद भी नहीं आया। थोड़े दिन दर्द से रिरियाकर माई की तबियत बेहतर हो गई। आँगन के बैंगन भी खत्म हो गए तो छोटी ने दाल भिगो दिया और सड़क पार नाले पर लगे अरिकंच के पत्ते तोड़ लाई, फिर मर्तबानों में सूख गए आंवले के अचार की चटनी बनाई गई, फिर... पैसे एक महीने की देरी से मिले, अगली बार फिर दो महीने पर आए।

माई की तबियत हमेशा ही खराब रहने लगी है, उसकी चिड़चिड़ाने की आदत अब छोटी ने ले ली है। लेकिन घर में अब सब्ज़ियां कम नहीं पड़तीं । छोटी के हाथ में एक मोबाइल फोन आ गया है। बाज़ार से अपने अपने लिए दो नई साड़ियाँ भी ले आई है, एक पीले फूलों वाला कुर्ता रश्मि के लिए। नाटा आदमी अब सीधे दरवाज़े से आता है, माई के सामने तनकर बैठता है। उसके सामने छोटी, दौड़-दौड़ कर चाय- नाश्ता लाती है। माई भी उसके सामने चुपचाप, सहमी सी रहती है, लेकिन जबतक वो रहता है रश्मि को सामने आने की सख्त मनाही है। उसके जाते ही माई बिस्तर से चिड़चिड़ाती, छोटी को गालियाँ देती, रोने लगती है, फिर थककर सो जाती है। छोटी खाना बनाकर माई की चौकी के बगल की तिपाई पर रख आती है, फिर आधी रात को अपने बाल बनाती है, आँखों में काजल लगाती है।

छोटी के बाज़ार जाते ही माई ने उसे साथ लेकर काले दरवाज़े का ताला खोला, अंदर एक पलंग है, दो कुर्सियां और एक नीला संदूक। कुछ कागज़ संदूक के नीचे से निकले हैं। माई ने जल्दी-जल्दी पोस्टकार्ड पर चार लाइनें लिखी और खुद ही गेट के बाहर निकल गई। लौटकर बड़ी देर कर गोद में उसका सिर रखकर सहलाती रही।

तीन हफ्ते बाद वो आए, खिचड़ी दाढ़ी और पनियाली आँखों वाले, पैजामा, कुर्ता, बदरंग सा जैकेट पहने। असमंजस में गेट खड़काकर वहीं खड़े रहे, माई ने भी थोड़ा रुक कर ही पहचाना।

‘ये नाना हैं तुम्हारे, तुम्हारी मम्मी के बाबू’, इतने सालों में पहली बार माई के मुँह से उसने मम्मी का नाम सुना है।

छोटी, पहले हतप्रभ सी तीनों को देखती रही लेकिन कहा कुछ नहीं। उसी ने दो चोटियां गूंथ दी, उसका लाया पीले फूल वाला कुर्ता पहन लिया है, बाकी कपड़े, किताबें, काले बैग में हैं। छोटी लगातार रो रही है, माई ने आँसू पोंछते हुए पसीने से भीगी उसकी हथेली पर सौ का नोट रख दिया।

बस हिचकोले खा रही है, गर्म हवा के झोंके से उसका उनींदा सर उनकी गर्दन पर टिक गया तो उसने शर्म से अपनी गर्दन दूसरी ओर कर ली। उनकी आँखों में जैसे वात्सल्य और बेचारगी के बीच का कुछ अटक गया है। सड़क के दोनों ओर केले के हज़ारों पेड़ नज़र आ रहे हैं। बस रुकी हुई है।

‘यहाँ से आधा घंटा और’, उसके हाथ पर दो पेड़े और पानी का ग्लास रखते हुए उन्होंने कहा। वो भी मुस्कुराना चाहती है लेकिन कुछ है जो आत्मीयता के धागे उनतक पहुँचने से पहले ही तोड़-तोड़ देता है।

उनके साथ घर में घुसते ही पहले बरामदे के साथ लगा बाथरूम नज़र आया है। फिर रेलगाड़ी के डब्बों से तीन कमरे
, जिनसे निकलकर कई सारे उत्सुक चेहरों ने उसे घेर लिया है। बड़े-छोटे बच्चे, सीढ़ी की शक्ल में लाइन लगाकर खड़े हैं। उसे मैदान में खेलते बच्चे याद आए।

‘कसैय्या घर से घुर आई रे हम्मर मुनिया’, चौड़े मांग पर खूब सारा सिंदूर भरे दुबली-पतली सी बूढ़ी रोते-रोते बार-बार उसका माथा चूम रही है। दो कमउम्र औरतें एक दूसरे को केहुनी से टोहका दे रही हैं।

उसके गले में बार-बार कुछ अटक रहा है। थाली में घी लगी गरम रोटियाँ रखीं जा रहीं हैं। वो कहना चाहती है घी उसको पसंद नहीं है, खाने में नमक कम है, मिर्ची भी, लेकिन गले से आवाज़ नहीं निकल रही।

पहले कमरे में अगल-बगल दो पलंग लगे हैं, एक पर नानी उसे साथ लेकर सो गई है। दूसरा खाली है अभी। बगल के कमरे से घुटी-घुटी आवाज़ें आ रहीं हैं,

‘अब्भी काहे आई है?’

'हमहू तो नहीं खोज-खबर लिए एतना साल। खाली केस-कचहरी करते रहे', जवाब देने वाली आवाज़ नाना की है।

‘कब तक रहेगी?’

‘यहीं रहेगी अब’

‘हमेशा?’

‘हमेशा काहे रहेगी, बियाह जोग लड़की है।‘

‘और बियाह कौन कराएगा?’ आवाज़ में उत्तेजना है।

‘हम्म आउर कौन’, जवाब देने वाली आवाज़ में लेकिन ज़ोर कम हो गया है।

उसने अपनी आँखें ज़ोर से भींच लीं। छोटी की आँखों के काले धब्बे और माई की झुर्रियों की याद उसे धीरे-धीरे नींद के आगोश में ले जा रही है।

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