छठी
गाड़ी अभी बालामऊ में ही थी जब माँ ने सीट के नीचे से सारा सामान निकालकर हमें सब समझा दिया- दोनों थैले सुमन के जिम्मे रहेंगे और खाने की टोकरी के साथ पानी का डिब्बा सुरेश के| लोहे का नया बक्सा घसीट कर डिब्बे के दरवाजे तक मुझे ले जाना था जबकि नए सूटकेस को अपनी निगरानी में मेरी मदद लेकर माँ खुद नीचे उतर लेंगी|
हम लोग जब भी धामपुर से लखनऊ लौटते यों ही लदे-लदे लौटते| उधर धामपुर में हमारे नाना के पास आटे की बहुत बड़ी चक्की थी| चार बेटे और बारह पोते-पोतियाँ थीं| सभी की बची-खुची चीजें माँ हर साल हमारी गर्मी की छुट्टियों में बटोरती हीं साथ ही, कोई न कोई भारी सामान भी छाँट लातीं| एक साल अगर वहाँ से मुड़वाँ चारपाई उठाए होतीं तो अगले साले दो-दो मोटी रजाई|
उस साल हम लोग शशि के दहेज का सामान लाए थे|
“लगता है तेरा कार्ड तेरे बाऊजी को मिला नहीं,” लखनऊ स्टेशन पर बाऊजी को कहीं न पाकर माँ मुझ से बोली|
“कार्ड मैंने तुम्हारे सामने लिखा था,” भाइयों में सबसे बड़े होने के नाते घर की सारी चिट्ठी-पत्री मेरे जिम्मे थी, “बीस जून को अपनी टिकटें मिलने के दिन|”
उस दिन दस जुलाई थी|
“जा देख कोई जान-पहचान की टैक्सी मिल जाए,” माँ ने मुझे दौड़ा दिया| बाऊजी टैक्सी चलाते थे और इसीलिए हमारी सवारी भी टैक्सी ही रहा करती|
“नहीं,” मेरे पूछने पर टैक्सी स्टैंड पर मिले वल्लभ चाचा ने मुझे बताया| शशि की सगाई उन्हीं के कुटुम्ब के एक लड़के से तय हुई थी- “बल्कि इधर तो कई दिनों से वह हमें भी कहीं दिखाई नहीं दिया है| मगर तुम चिन्ता क्यों करते हो? तुम लोगों को तुम्हारे अड्डे पर मैं पहुँचा आता हूँ|”
“हमारा कार्ड क्या आया नहीं?” घर में दाखिल होते ही माँ ने पूछा|
“न,” शशि और दिनेश एक साथ बोल पड़े| आठ साल पहले सुरेश के आने से जब हम भाई-बहनों की गिनती पाँच तक पहुँच ली तो माँ हम में से तीन को ही अपने संग धामपुर ले जाने लगी| हाँ, पहला बेटा रहने के नाते मैं अकेला ऐसा रहा जो हर बार माँ के साथ धामपुर जाने में सफल हो ही जाता था|
“बल्कि मैं घबरा रही थी,” शशि ने जोड़ा-क्या वह पहले से दुबली नहीं लग रही थी?- “इधर स्कूल खुलने वाले हैं और उधर आप लोगों की कोई खबर ही नहीं.....”
“तेरे बाऊजी कब गए?” माँ ने पूछा|
“सुबह तड़के| बोले टूर पर जा रहा हूँ| लौटने में देर हो सकती है.....”
माँ के घर न रहने पर बाऊजी कम ही घर से बाहर का टूर लगाते| वरना माँ के रहने पर उनके टूर कई बार उन्हें हफ्ते-दस दिन तक लखनऊ से बाहर रख लिया करते|
“मेरे लिए क्या लाई?” लगभग डेढ़ महीने बाद माँ को देखकर दिनेश लाड़ से माँ के कंधे पर झूलने लगा|
“दिखाती हूँ,” हँसकर माँ ने उसे अपने आलिंगन में बाँध लिया, “सब दिखाती हूँ| मगर पहले यह बता मेरे पीछे तूने शशि को तंग तो नहीं किया?”
“न| बिलकुल नहीं.....”
“दिन भर यहीं घर रहा?”
“हाँ.....”
“क्यों यह ठीक कह रहा है, शशि?”
“हाँ,” शशि बोली, “इससे मुझे कोई शिकायत नहीं-”
“तेरे लिए एक सेट बनवा कर लाई हूँ; बाली तो उसकी बेहद प्यारी हैं, देखेगी तू तो खिल उठेगी.....”
“पहले मेरी चीज दो,” दिनेश इठलाया|
“ले,” खाने की टोकरी से माँ ने पिन्नी का डिब्बा निकाला|
मगर दिनेश ने अभी डिब्बा खोला ही था कि शशि फूट-फूट कर रोने लगी और रोते-रोते कै करने लगी|
“तू रोती क्यों है, पगली?” माँ की आँखें भी गीली हो लीं, “यह तो समाज की रीत है| तू समाज से अलग है क्या? तुझे ससुराल भेज कर क्या मैं न अकेली पड़ जाऊँगी? या ये चारों न अकेले पड़ जाएँगे?”
देखा-देखी हम पाँचों भाई-बहन रोने लगे| शशि हमें बहुत प्यारी थी| देखने में तो वह लावण्यमयी थी ही, स्वभाव भी उसका बहुत ही मधुर था| कभी ऊँचे न बोलती| माँ उसे कभी डाँटती भी तो पलट कर कभी जवाब न देती| बाऊजी का भी ध्यान ज्यादा वही रखती| घर में उनका पैर पड़ते ही रसोई की ओर लपक लेती और उनकी रसोईदारी में लग जाती| हम भाई-बहनों में एकमात्र शशि ही ऐसी थी जिस पर बाऊजी ने भूलकर भी कभी हाथ न छोड़ा था|
रात में माँ ने हमारे साथ खाना न खाया|
बाऊजी के इन्तजार में|
आम दिनों माँ बाऊजी का इन्तजार न करती| मगर जिन दिनों वे धामपुर से ताजी-ताजी आई होतीं बाऊजी का इन्तजार जरूर करतीं| उन दिनों बाऊजी भी बाहर का टूर न बनाते, समय पर घर लौटते और रात का खाना हम सब साथ में खाते| धामपुर से लाई चीजों के हिसाब से हमारे उतने दिन खूब चैन-भरे कटते और आपस की ज्यों-त्यों मौका पड़ने पर भी टाल दी जाती|
“तेरे बाऊजी तो आए नहीं?” रात बारह बजे के करीब माँ बहुत घबरा गईं, “क्या मेरे पीछे भी ऐसा कभी किया उन्होंने?”
“हाँ,” शशि ने कहा, “एक बार पूरे दो दिन उन्होंने अपना कोई अता-पता न दिया था-”
“कब?” कब किया ऐसा?”
शशि का जवाब मेरी झपकी ने मुझे सुनने न दिया|
अगली सुबह माँ ने एक पोस्टकार्ड मेरे हाथ में थमाया और बोलीं, “अपनी बुआ को खत लिख.....”
“क्या लिखना है?” मैंने पूछा|
“श्री बांके बिहारी की जय| आगे समाचार बहुत बुरा है| पाँच-सात में पड़ी हूँ| जितनी जल्दी आ सकती हो, तुम आ जाओ| बड़ी बात है : मामूली बढ़ी-चढ़ी नहीं| एक-एक साँस पहाड़ सा बीत रहा है| आने में काहिली करोगी तो मेरा मरा मुँह देखोगी|”
बाऊजी क्या हमें छोड़ भागे थे?
कोई नया टंटा मचाने?
मैं डर गया|
“क्या हुआ?” बुआ वाराणसी में रहती थीं और कार्ड मिलते-मिलाते लखनऊ पहुँचने में उन्हें आठ दिन लग गए|
बाऊजी, खैर, अभी तलक अपने टूर से न पलटे थे|
“सुनेगी तो गश खा जाएगी,” माँ ने बुआ को चेतावनी दी|
उस समय दिनेश और सुरेश बुआ द्वारा लाई गई तिरंगी बरफी हाथ में लिए बाहर घूमने निकल गए थे और सुमन रसोई में चाय बना रही थी|
कनसुई लेने मैं दरवाजे से जा सटा|
“भाई को कोई बीमारी लग गई क्या?” बुआ रोने लगीं|
बाऊजी के परिवार में हम केवल इन्हीं बुआ को पहचानते थे| पूरे परिवार में एक वही थीं जिन्होने किसी भी भाई से अपना नाता न तोड़ा था| अपने तीनों भाइयों से वे सबसे बड़ी भी रहीं और सबसे ज्यादा पैसे वाली भी| उनकी शादी हमारे दादा ने अपने अच्छे दिनों में की थी| एक जमाने में हमारे दादा मुरादाबाद में गल्ले के ऊँचे आढ़ती रह चुके थे लेकिन पन्द्रह साल पहले उनके गोदाम में लगी एक भीषण आग ने उनके व्यापार को जो गहरा झटका दिया तो उनके बड़े और मँझले लड़के उनके मुकाबले में आ खड़े हुए| दोनों एक से एक बढ़ कर नालायक और धन-खारु| तिस पर एक-दूसरे के बैरी| आनन-फानन पुश्तैनी सारी जायदाद चार हिस्सों में बँट गई| हमारे ताऊजी ने अपना हिस्सा बेचकर वहीं मुरादाबाद में अपना किराना जमा लिया और मँझले हमारे बाऊजी, अपना हिस्सा बेचकर इधर लखनऊ आन बसे| उस समय शशि तीन साल की थी और मैं छह महीने का|
“तेरी लड़की झूठी है,” बुआ की चीख बाहर तक साफ चली आई, “एकदम झूठी.....”
“सारी नालायकी तेरे भाई की है,” माँ का मिज़ाज भी भड़क लिया, “मेरी लड़की बेचारी तो लिहाजदारी में मारी गई.....”
“हट, मुई,” बुआ के धौल की आवाज जैसे ही मुझ तक पहुँची, मैं अन्दर लपक लिया|
बुआ शशि का मुँह तमाचों से लाल कर रही थीं और माँ बुआ का कंधा अपनी ओर खींच रही थीं| अपने दुबले सींकिया शरीर के पूरे जोर के साथ.....
“छोड़िए, बुआ जी,” मेरे लिए बुआ को शशि से अलग करना आसान रहा, एकदम आसान| अपने स्कूल की हॉकी टीम का मैं कप्तान था और मेरी कद-काठी भी मजबूत थी, “आप यह क्या कर रही हैं?”
“तू समझ ले,” गदगद स्वर में माँ बुआ को अकड़ीं, “समझ ले अब| मैं अब अकेली नहीं| मेरे बच्चे मेरे साथ हैं.....”
“ये बच्चे तुझे दिए किसने?” बुआ ने माँ को ललकारा, “इन्हें क्या तू अपने साथ लाई थी? धामपुर से?”
बाऊजी दसवें दिन आए|
हमेशा की तरह हलुवे के डिब्बे के साथ|
मिठाई में मूँग की दाल का हलुवा उन्हें खास पसन्द था|
“अब आए हो?” करेले में धागा बाँध रही माँ हाथ का काम छोड़ कर बाऊजी की ओर बढ़ ली|
“यह हलुवा है,” बाऊजी ने हलुवा का डिब्बा माँ की ओर बढ़ाया, “बच्चों को अभी परोस दो| इस समय अच्छा, गरम है.....”
“आप स्टेशन पर नहीं आए?” सुरेश बाऊजी के घुटनों पर आ चढ़ा|
दिनेश और सुमन भी उनकी बगल में जा खड़े हुए|
“लो सुमन,” बाऊजी ने हलुवा का डिब्बा सुमन को पकड़ा दिया, “सबको परोस दो.....”
“हाँ बाऊजी,” सुमन ने उत्साह दिखाया, “अभी लीजिए.....”
"ताजा खबर कहाँ है?” सबके सिर पर हाथ फेरते-फेरते बाऊजी मुझे तलाशने लगे| अखबार में मेरी गहरी रूचि देखकर बाऊजी ने दसवीं जमात के मेरे उस साल की शुरुआत में ही मेरे लिए मेरी पसन्द की अखबार लगवा दी थी और मुझे वे ‘ताजा खबर’ के नाम से अक्सर छेड़ा करते|
“कहीं नहीं?” कमरे के अन्दर से मैं फौरन आँगन में पहुँच लिया| मेरे साथ बाऊजी का रिश्ता कभी भी लाड़-दुलार का न रहा| मेरे बचपन का वक्त और बाऊजी की फिक्र का वक्त एक रहा था और जब तक बाऊजी थोड़े बेफिक्र हुए थे मुझ से छोटा दिनेश तीन साल का हो चुका था और उनकी थपकी पर मुझसे ऊँची कूद लगाने को तैयार था|
“और शशि?” बाऊजी ने मेरे सिर पर हाथ फेरा|
“न!” माँ ने हाथ नचाए, “उसका मुँह देखने लायक तू है क्या?”
“वह मेरी औलाद है,” एक झटके के साथ बाऊजी हमसे अलग हो गए और माँ को पीटने लगे, “मेरी अपनी जायदाद| तू बीच में दो-दो चोंच लड़ाने वाली कौन है?”
बाऊजी माँ को अक्सर पीटते और देर तक पीटते|
हलुवे के डिब्बे के साथ सुमन रसोई की ओर चल दी|
दिनेश और सुरेश उसके पीछे हो लिए|
मुँह फेर कर मैं कमरे में लौट आया|
खिड़की के पास शशि सहमी खड़ी थी|
“बाऊजी ने तेरे साथ बलात्कार किया?” पिछले कई दिनों का अपना सवाल मैं अपनी जबान पर ले आया|
“हाँ” शशि की आँखें सूखी थीं और चेहरा खाली|
“माँ पुलिस में रिपोर्ट देंगी?” मैं काँपने लगा|
जग-हँसाई से मुझे बहुत डर लगता है|
“शैदाई” शशि ने मुझे त्यौरी दिखाई, “पुलिस बाऊजी को फाड़ न खाएगी?”
बारहवें-पन्द्रहवें रोज माँ ने शशि को अस्पताल ले जाने की बात उठाई तो बाऊजी ने माँ पर फिर हाथ फेंका, “खबरदार! वह मेरी छठी औलाद है| शशि उसे जरूर जनेगी.....”
“और पड़ोसी जो पूछेंगे.....”
आनन-फानन बाऊजी ने लखनऊ का मकान खाली करने का मन्सूबा तैयार कर लिया और तीसरे हफ्ते हमें टैक्सी में बिठा कर कस्बापुर ले आए : “शशि अपनी औलाद यहाँ जनेगी.....”
कस्बापुर का हमारा पड़ोस अजनबी था| शशि को एक तलाक-शुदा ब्याहता मानने में उन्हें कोई मुश्किल न हुई|
लेकिन हमारी पढ़ाई की बड़ी दुर्गति बनी| लखनऊ के मुकाबले में कस्बापुर के स्कूल बहुत निकम्मे थे और हमारे टीचर एकदम फटीचर| वे हमें पढ़ाते कम और टोकते ज्यादा|
उधर घर में माहौल अक्सर बिगड़ा रहता| जितने दिन बाऊजी अपने लम्बे टूरों पर रहते माँ फिर भी थोड़ी-बहुत हिल-डुल लेतीं लेकिन इधर वे कस्बापुर पहुँचते तो उधर माँ चारपाई पकड़ लेतीं| उनके पेट में रह-रहकर मरोड़ उठते और वे केवल दस्त करते समय ही अपनी चारपाई छोड़तीं|
‘छठी’ का जन्म अस्पताल में हुआ| शशि के साथ टैक्सी में बाऊजी सुमन को लेकर गए| माँ जाने की स्थिति में न थीं| उन दिनों उनकी हालत और भी पतली रही और सातवें दिन जब छठी पहली बार हमारे घर आई तो माँ का मलाल दुगना चौगुना हो गया| वे लगातार बड़बड़ाने लगीं, चीखने लगीं चिल्लाने लगीं, “प्रलय आ गई है, प्रलय| देखो/हटो/बचो/ हम पर पहाड़ टूट रहा है.....”
उधर छठी के लिए बाऊजी का चाव देखे न बनता|
उसके लिए वे दूध की बोतल लाते तो दो, बिछौना लाते तो दो, पोशाक लाते तो दो| कहते, घर में एक फालतू चीज पड़ी रहनी चाहिए|
उन दिनों अखबार में छपी हर हत्या की, हर आत्महत्या की, हर पुलिस रिपोर्ट की खबर मैं दस-दस बार पढ़ता और खीझता :
बाऊजी अखबार क्यों नहीं पढ़ते?
माँ अखबार क्यों नहीं पढ़ती?
शशि अखबार क्यों नहीं पढ़ती?
इनकी खबर अखबार में क्यों नहीं छपती?
“आपका अखबार चाहिए,” उस दिन पड़ोसिन अखबार माँगने आई, “सुना है दसवीं जमात का उसमें नतीजा आया है.....”
“दसवीं जमात का?” छठी को गुदगुदा रहे बाऊजी के हाथ उसी पल रुक गए| अब वे टूर पर न जाते थे और कस्बापुर में टैक्सी लेने-लिवाने की हैसियत कम ही लोगों के पास थी| फलस्वरूप बाऊजी के दिन का एक बड़ा हिस्सा घर में बीतता|
“नरेश.....” बाऊजी ने फौरन मुझे आवाज दी, “अखबार इधर लाओ| पहले तुम्हारा रोल नम्बर देखेंगे.....”
“मैं फेल हूँ,” पूरे घर में मेरे सिवा मेरा रोल नम्बर कोई नहीं जानता था|
अखबार लेकर पड़ोसिन जैसे ही लोप हुई बाऊजी ने अपनी पैंट से अपनी पेटी निकाली और मेरी नकल उतारते हुए मेरी तरफ बढ़ लिए, “मैं फेल हूँ? नालायक! तेरी पढ़ाई पर मैंने इतनी रकम लगाई और, ‘मैं फेल हूँ’?”
“मुझे पीटेंगे तो मैं थाने पहुँच जाऊँगा,” बाऊजी की पेटी वाला हाथ मैंने कस कर पकड़ लिया, “आपकी नालायकी की रिपोर्ट लिखाने.....”
बाऊजी सकपका गए|
सहसा|
फौरन फिर उन्होंने अपना सामान बाँधा छठी का सामान बाँधा और उसे गोदी में लिए-लिए अपनी टैक्सी में उड़ लिए|
“मैं फेल नहीं हूँ,” मैं तत्काल माँ की बगल में पहुँच लिया, “येन-केन प्रकारेण.....”
माँ उठकर बैठ गईं और हँसने लगी|
“येन केन क्या?” माँ की हँसी सुमन को हमारे पास खींच लाई|
“यह संस्कृत है,” मैं हँसा, “येन केन प्रकारेण.....”
“इसका मतलब?” शशि भी हमारे पास चली आई|
“येन केन प्रकारेण मतलब चाहे जैसे.....”
“येन केन प्रकारेण,” माँ ने दोहराया और दोबारा हँस पड़ीं..... ज्यादा जोर से
..... “बाऊजी से तूने झूठ क्यों बोला?” लेकिन शशि ने मुझे शाबाशी न दी| क्या उसे छठी मुझ से ज्यादा प्यारी रही?
“हाँ,” मैंने कहा, “अपनी खुशी का कोई हिस्सा मैं उन्हें नहीं देना चाहता.....”
“समझ लो अब,” माँ की पुरानी दृढ़ आवाज लौट आई, “समझ लो तुम्हारा बाप अब एक अजनबी से ज्यादा हमारा कोई नहीं| और उसकी वह छठी औलाद वह भी मानो, पैदा ही न हुई थी| इधर का सब हिसाब किताब अब बन्द कर देंगे और उधर धामपुर जा बसेंगे| उधर शशि की शादी का बन्दोबस्त भी आसानी से हो जाएगा| वहाँ कौन जानता है शशि पर कैसी घनघोर जबरदस्ती हुई थी.....”
“नहीं,” मैंने माँ को टोक दिया-मेरी हॉकी के लिए लखनऊ से बढ़िया कौन जगह रही?” “हम लोग धामपुर न जाएँगे| लखनऊ जाएँगे.....”
“लखनऊ के स्कूल भी हमारे लिए बेगाने नहीं,” मेरे सुझाव पर अपनी सहमति देने की सुमन को हमेशा जल्दी रहती, “वहाँ दाखिला मिलना आसान रहेगा.....”
“वल्लभ चाचा को मैं आज ही एक कार्ड लिख भेजता हूँ” मैंने कहा, “पहली जून तक वे हमारे लिए अपने पड़ोस में किराए का कोई मकान खोज लें.....”
“कार्ड जवाबी भेज,” माँ नए उत्साह से भर उठीं, “वल्लभ के जवाब से यह भी पता चल जाएगा शशि की वह पुरानी सगाई उसे अब माननीय है या नहीं.....”
अपने दुपट्टे के छोर से अपना मुँह ढँककर शशि सिसकने लगी|
लखनऊ हमें रास आया| संयोगवश इस वर्ष हम सभी की परीक्षाएँ बोर्ड की रहीं| मेरी इन्टरमीडिएट की| सुमन की दसवीं की| दिनेश की आठवीं की और सुरेश की पाँचवी की|
घर में मालमता भी अब अपर्याप्त नहीं| माँ और सुमन चिकन की कढ़ाई करती हैं, सुरेश और दिनेश फल का ठेला लगाते हैं| यहीं अपने मुहल्ले में| और मैं सुबह मुँह अँधेरे अखबार लगाने का काम करता हूँ और दिन ढलने पर एक रेस्तरां में खाना परोसने का|
हाँ, शशि और मेरी हॉकी को बनाए रखने में लखनऊ जरूर असफल रहा|
हॉकी मेरी व्यस्त दिनचर्या में कहीं ठीक बैठी नहीं और शशि को हमने मिलकर अपने हाथ से जाने दिया| चूक हमीं से हुई| शशि ने शादी करने से लाख बार इनकार किया| लेकिन फिर भी हमने वल्लभ चाचा के भतीजे के संग उसे ब्याह ही दिया| हमें भ्रम था वह लड़का उदार और भला था लेकिन वह शक्की और बदमिज़ाज निकला| फलस्वरूप अपने विवाह के एक माह के भीतर ही शशि मर गई|
बुआ दोनों बार वाराणसी से आई थीं| शशि की शादी पर और उसकी किरिया पर| उन्हीं से पता चला, बाऊजी यहाँ से सीधे वाराणसी गए थे| बुआ के पास| फिर बुआ को अपनी टैक्सी में बिठाकर मुरादाबाद गए| बुआ की कहा-कही पर हमारी दादी ने छठी को अंगीकार कर लिया और बाऊजी के अनुनय-विनय पर हमारे दादा ने बाऊजी को|
धामपुर की तरफ भी कागज के घोड़े हम तिमाही-छमाही दौड़ा ही देते हैं| लेकिन अब वहाँ माँ अकेली ही जाती हैं| हममें से कोई भी उनके साथ नहीं जाता|