शबनम मौसी फ़िल्म को हम महज मनोरंजन के लिए नही देख सकते। यह फ़िल्म दिमाग को झंझोड़ने में सक्षम है।
महमूद साहेब पर फिल्माया गया गीत, "सज रही गली मेरी अम्मा सुनहरी गोटे से " ने हमेशा आंखे नम की। ना जाने इस गीत में ऐसा क्या है।
कुछ ऐसा ही हाल हुआ जब शबनम मौसी का यह गीत सुना
"तेरे घर आया कृष्ण गोपाल,जुग जुग जिये तेरा लाल
अम्मा नोटों वाला बंडल निकाल,जुग जुग जिये तेरा लाल"
कलेजे को चीरते चले गए इसके बोल।
एक किन्नर शबनम मौसी के जीवन पर बनी यह फ़िल्म जब देखी तो सोचने पर विवश कर गयी।
सवालों ने उथल पुथल मचा डाली।
क्यों इनको एक आम जीवन जीने नही दिया जाता?
इनकीं कमी प्राकृतिक है जिसमें इनका कोई दोष नही तो समाज से अलग क्यों कर दिया जाता है इनको?
शबनम मौसी द्वारा उठाये गए सवाल भी लाजमी हैं -
"हम औलाद पैदा नही कर सकते, समाज में बांझ स्त्री और पुरुष भी तो होते है, उन्हें तो नही त्यागा जाता।
हम पढ़लिख कर डॉक्टर, इंजीनियर, कला के पुजारी तो बन सकते हैं लेकिन समाज की स्वीकार्यता नही मिलती।
सभी डर और कायरता को सहनशीलता का नाम देते हैं
दो तरह के किन्नर होते हैं तन से और मन से ।
तन का किन्नर ताली पीटकर रोटी कमाता है मन का किन्नर तो ताली पीटने से भी डरता है।
ओह, अन्तस् को झकझोर डाला।
जब चुनाव के लिए फार्म भरा तब महिला/पुरुष को काटकर किन्नर लिखा। एक दर्द की लहर दौड़ गयी।
मनुष्य द्वारा उपजाए गए अप्राकृतिक रिश्तों पर कानून बन सकता है लेकिन ईश्वरीय अभिशाप को झेलते किन्नरों की सहायता के लिए कोई कानून नही।
शबनम मौसी की माँ का कथन कि- " जिस समाज से तिरस्कार मिला, उससे पुरस्कार की उम्मीद ना कर।"
तीर की तरह चुभ गया।
फ़िल्म में मुख्य किरदार के रूप में आशुतोष राना जी का अभिनय अप्रतिम रहा। हर जगह बहुत सहज दिखे। सहजता से स्थिति को सुलझाना, ईश्वर के दिये स्वरूप को सम्मानपूर्वक अपनाना , बखूबी शबनम मौसी को जी गए।
राना जी द्वारा लगाए ठुमको में शालीनता स्पष्ट तौर पर दिखी। संवाद तो बेहतरीन थे ही अदायगी भी कमाल की।
फ़िल्म की कव्वाली
"मैं बड़ा जोगिया" ने सूफी रँग से मन को रँग दिया।
फ़िल्म की गति मध्यम है, नजे ही तेज़ और ना ही बोझिल। आशुतोष राना जी के सहयोगी कलाकारों का काम भी सराहनीय है। किन्नरों के साथ अप्राकृतिक यौन सम्बंधों का घिनौना चित्रण मन क्लान्त कर गया। पूर्ण होने पर भी इनके मन को समझने वाला कोई नही और शरीर की अपूर्णता में भी इनको सम्मान से जीने का हक नही।
प्राकृतिक कमी के कारण इनका एक अलग समाज बनजे दिया गया जो नाच गाकर मांगने पर मजबूर हैं।
सवाल उभरता है क्यो?
कल इस फ़िल्म को देखकर विमर्श उतपन्न हुआ तो समाज के घिनोने रूप का अहसास हुआ कि इनके साथ हमेशा से ही कितना अन्याय होता है।
इन्हें भी आम मनुष्य की जिंदगी नसीब क्यों नही?
यह भी पढ़ लिख कर उजले समाज का हिस्सा बनने की कुव्वत रखते हैं तो इन्हें त्याग कर अंधेरे का हिस्सा क्यों बनाया गया?
2005 में आई एक संवेदनशील फ़िल्म जो हमारे मन को गहरे तक छू गयी।
थोड़ा अफसोस भी हुआ कि अब तक फ़िल्म क्यों नही देखी थी।
विनय...दिल से बस यूँ ही