मेरे घर आना ज़िंदगी - 20 Santosh Srivastav द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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मेरे घर आना ज़िंदगी - 20

मेरे घर आना ज़िंदगी

आत्मकथा

संतोष श्रीवास्तव

(20)

इन दिनों कविता के प्रति रुझान तेजी से हो रहा था। कहानी दिमाग में आती ही नहीं थी। सुबह घूमने जाती तो कोई न कोई कविता दिमाग में पकती रहती। सुबह से शाम, रात कई कई दिन वह कविता खुद को लिखवा लेने की जिद करती। एक कविता के 5, 6 ड्राफ्ट तो बन जाते। मैंने अन्य कवियों के संग्रह को भी पढ़ना आरंभ किया। अब कविता लिखने में इतना आनंद आने लगा कि मेरे अंदर का कथाकार सन्यास लेने की सोचने लगा । अक्सर ऐसा ही होता है। लेखक कथा से कविता या कविता से कथा की ओर धीरे-धीरे मुड़ने लगता है। मैं बाकायदा मुक्त छंद की कविताएँ लिखने लगी। मैंने उसे आत्मप्रसिद्धी का साधन कभी नहीं माना।

मुझे लगता है कवि का अंतर्मन उससे लिखवाता है । वह सहन नहीं कर पाता उस तंत्र को जिसका वह हिस्सा है। बोलने की आजादी उसे कविता देती है।

सुबह जब मैं घूमने के लिए कॉलोनी पार कर रही थी पटना से सतीशराज पुष्करणा दादा का फोन आया। "मिथिलेश जी नहीं रहीं। मै सन्न रह गई। आम के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठ गई। भूटान में जब लघुकथा अधिवेशन मैंने किया था तब काफी कमजोर दिख रही थीं वे। उनकी देखभाल संजू शरण कर रही थी। वे हिंदी संस्कृत दोनों भाषाओं में लिखती थीं और बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की निदेशक थीं। गउडवहो का प्राकृत से हिंदी अनुवाद करने वाली वह पहली रचनाकार हैं जो लखनऊ विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में हैं । डॉ मिथिलेश मिश्र का जाना हिंदी और संस्कृत साहित्य में एक बड़ा शून्य का हो जाना है। अब और मुझसे घूमा न गया । उठी तो देखा कपड़ों पर लाल चीटे चल रहे थे । काट लें तो ददौरा उठ आता है और खूब खुजलाता है।

उस दिन रात तक मैं किसी काम की नहीं रही । उस दिन क्या बल्कि चार-पांच दिन तक मिथलेश दीदी का चेहरा सामने आता रहा । वह मुझे बहुत प्यार करती थीं और लघुकथा की उच्चतम लेखिका मानती थीं। कैसे बिछड़ जाते हैं लोग और फिर कभी नहीं मिलते।

मेरे मन को संभाला मंजुला श्रीवास्तव ने । उन्होंने विश्व मैत्री मंच की छत्तीसगढ़ इकाई द्वारा वार्षिक अधिवेशन की घोषणा की। मुझे अगले हफ्ते रायपुर पहुंच जाना था।

अप्रैल का महीना गर्म तो हो ही जाता है। लेकिन रायपुर में सभी का उत्साह देखने लायक होता है । मैं नीता के घर रुकती हूं जो छोटे चाचा की बहू है। दो रिश्ते हैं नीता से मगर दोनों में वह भाभी है मेरी। निसंतान शांति बुआ ने छोटे चाचा के बेटे तरुण को गोद ले लिया था । सो वह बुआ की भी बहू हुई। उस घर में मुझे बहुत मान-सम्मान लाड़ दुलार मिलता है। तरुण इंतजार करते हैं कि संतोष दीदी आएं तो एग करी बने । मगर इस बार उदास हो गए क्योंकि मैंने अंडा खाना छोड़ दिया है।

कार्यक्रम वृंदावन भवन में डॉ मंजुला श्रीवास्तव, रूपेंद्र राज तिवारी, नीता श्रीवास्तव के कठिन परिश्रम से संपन्न हुआ । नगर के प्रमुख साहित्यकारों की उपस्थिति में मुझे, डॉ सुधीर शर्मा, गिरीश पंकज को शॉल स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया। नीता के घर तीन दिन रुकी । हर दिन ही नगर के साहित्यकारों में से कोई न कोई मिलने आता रहा ।

मधु के बेटे ने आउट ऑफ सिटी बंगला खरीदा है । मधु दिखाने ले गई। वहां निर्माण कार्य चालू था। इलाका अच्छा हरा भरा था।

प्रतिलिपि पर लौट आओ दीपशिखा, नॉट नाल पर टेम्स की सरगम दोनों ही अमेजॉन पर भी उपलब्ध थीं। कुछ किताबें मेरे पास आई। सुशील सिद्धार्थ ने अपना व्यंग्य संग्रह हाशिए का रंग भेजा और फोन पर बताया कि उस पर कुछ लिखेंगी, कहेंगी तो खुशी होगी। गीताश्री ने डाउनलोड होते हैं सपने कथा संग्रह भेजा। कितना कुछ होता रहा।

मालवगढ़ की मालविका भी गाथा ऑनलाइन पर आ गई । गाथा वालों का नियम था कि अगर कोई किताब मंगवाता था तो उसका पेपर बैक छाप कर भेजते । मुझे भी मालवगढ़ की मालविका के पेपर बैक संस्करण की छै प्रतियां मिलीं। अच्छी छपी थी किताब।

पिट्सबर्ग अमेरिका से निकलने वाली मासिक पत्रिका सेतु में अनुराग शर्मा ने श्रीलंका का मेरा यात्रा संस्मरण "जहां रावण मुखौटो में जिंदा है" प्रकाशित किया तो देश विदेश से फोन, मेल आए। संस्मरण वैश्विक स्तर पर खूब चर्चित हुआ ।

उन्हीं दिनों छपी भी खूब। कथाबिम्ब में कहानी "रात भर बर्फ "छपी, मातृभारती में हमारा संयुक्त उपन्यास "ख्वाबों के पैरहन" धारावाहिक छपने लगा। मुजफ्फरनगर से निकलने वाली पत्रिका आंच में मेरा इटली का संस्मरण छपा । डॉ भावना संपादक है आंच की । रायपुर से डॉ सुधीर शर्मा के संपादन में निकलने वाली पत्रिका छत्तीसगढ़ मित्र में यात्रा संस्मरण रेगिस्तान में हरियाली का द्वीप दुबई" छपा । रायपुर से ही गिरीश पंकज के संपादन में निकलने वाली पत्रिका सद्भावना दर्पण में ऑस्ट्रेलिया का संस्मरण "मौरियों का देश "छपा। यह संस्मरण मातृभारती ने भी प्रकाशित किया। लंदन से निकलने वाली पत्रिका पुरवाई संपादक तेजेंद्र शर्मा ने न्यूजीलैंड का संस्मरण छापा। हिंदी समय में मनोज पांडे ने "अब वे कैसे कहेंगे पथिक फिर आना "प्रकाशित किया और अंतरराष्ट्रीय पत्रिका विभोम स्वर में अंडमान निकोबार का यात्रा संस्मरण "जो खौफ आंधी से खाते तो" छापा। संपादक सुधा ओम ढींगरा ने कनाडा से फोन करके इस लेख से संबंधित तस्वीरें मंगवाई । और इतनी सारी पत्रिकाओं में मेरे यात्रा संस्मरण एक साथ प्रकाशित होना एक ऐसी बात हो गई कि मुझे यात्रा संस्मरणों का एक्सपर्ट माना जाने लगा । रजनी मोरवाल ने तो यहाँ तक कहा कि यात्रा संस्मरण का पेटेंट आपके नाम होना चाहिए।

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23 मई हेमंत का जन्मदिन हर साल एक उत्सव की तरह मनाया जाता है। पूरे मुंबई में उत्सव का माहौल रहता है। यह बात हिंदी मीडिया के चंद्रकांत जोशी ने जब फोन पर मुझसे कही तो मुझे लगा मैंने भले मुम्बई छोड़ दिया है पर मुम्बई ने हेमंत को नहीं छोड़ा । हर साहित्यकार की यादों में वह जिंदा है। तय हुआ कि जन्मदिन मुंबई में ही मनाया जाएगा । जेजेटी विश्वविद्यालय का लगभग 100 की कैपेसिटी वाला हॉल संदीप ने बैनर आदि टांग कर सुंदर ढंग से सजा दिया था लेकिन लोग आए करीब सवा सौ । हेमंत के संस्मरण सुनाते हुए ललिता अस्थाना, सूरज प्रकाश, अमर त्रिपाठी, सूर्यबाला, सुधा अरोड़ा, राजेंद्र गुप्ता (अभिनेता ), डॉ नंदलाल पाठक बहुत इमोशनल हो गए थे। ललिता अस्थाना के संस्मरण ने सभी को रुला दिया था। ग्वालियर से डॉ राकेश पाठक आए थे। मैं अभिभूत थी। कहाँ हूँ अकेली मैं। इतना बड़ा साहित्यिक खानदान मेरे साथ है। वह शाम बल्कि रात जैसे नितांत मेरी थी और मैं उस के सदके।

उस रात हेमंत ने मुझे सोने न दिया। होटल लौट कर भी मैं, राकेश और मधु देर तक हेमंत की बातों में खोए रहे। राकेश ने भी 2 साल पहले हुई पत्नी प्रतिमा की मृत्यु का जिक्र छेड़ दिया। यूँ रात आँखों में ही गुजरी।

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विकेश निझावन जी का आग्रह रहता है कि मैं अधिक से अधिक रचनाएं पुष्पगंधा के लिए भेजूं। अंबाला में मेरे फैन बहुत हैं और जब मेरी रचना छपती है तो पुष्पगंधा का सरकुलेशन बढ़ जाता है। उन्होंने मेरी कहानी "अमलतास तुम फूले क्यों "नया ज्ञानोदय से लिफ्ट कर प्रकाशित की और तुरंत सूचना दी । " लौट आओ दीपशिखा "उपन्यास की समीक्षा निरंतर अखबारों पत्रिकाओं में छप रही थी । सृजन blogspot.com पर "लिव इन की विसंगतियों से जूझता महत्वपूर्ण उपन्यास" शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। ई कल्पना को भी समीक्षा भेजी थी पर उन्होंने पहले गूंगी कहानी प्रकाशित की । फिर भी लौट आओ दीपशिखा को पाठकों का अच्छा प्रतिसाद मिला।

मेरी पिछली भोपाल विजिट में सभी का आग्रह था कि मैं भोपाल शिफ्ट हो जाऊं। इस बीच हुआ यूँ कि मेरी फैन नीलिमा शर्मा का ग्वालियर से फोन आया कि उन्होंने भोपाल में घर खरीदा है अगर मैं चाहूँ तो उस घर में रह सकती हूँ । नीलिमा जी के पति की मृत्यु हो चुकी थी और उन्होंने अकेले दम पर अपनी 4 साल की बेटी और 6 साल के बेटे का पालन पोषण किया। बेटा शिकागो में गूगल में एम्प्लॉई है। बेटी टीवी धारावाहिकों में काम करती है। मुंबई में रहती है । बेटी की शादी कर नीलिमा जी भी उसी घर में साथ में रहेंगी। मुझे यह प्रस्ताव अच्छा लगा। औरंगाबाद की परिस्थितियाँ भी मजबूर कर रही थीं कि मैं स्वतंत्र रहूं।

मैं जब घर देखने भोपाल पहुंची तो बेंजामिन आईवी भी बेंगलुरु से आ गए। सचखंड एक्सप्रेस ने रात 1:30 बजे हबीबगंज उतारा । जया का बेटा यश लेने आया। मैं जया के घर ही रुकी। बेंजामिन आईवी होटल में रुके। दूसरे दिन मैं जया के पति शर्मा जी के साथ बावडियां कलां आई जहाँ मल्टी स्टोरी बिल्डिंग सुरेंद्र रेजिडेंसी में पांचवीं मंजिल पर नीलिमा जी का घर था । दरवाजा खोलते ही उन्होंने मुझे गले लगा लिया । बेहद हँ समुख महिला । पहली नजर में अपनत्व का बोध हुआ । विजयकांत वर्मा जीजाजी पहले से ही आकर बैठे थे । वे मेरी सगी बुआ के दामाद हैं। गीता जीजी की मृत्यु 2 साल पहले हो गई थी। बच्चे हुए नहीं । वे बाग मुगलिया के अपने डुप्लेक्स बंगले में अकेले रहते हैं। बेंजामिन आईवी भी आ गए । घर बहुत पसंद आया। तीन बड़े-बड़े बेडरूम, हॉल, किचन, पूर्व पश्चिम की बालकनी और खूब हरा-भरा परिसर। यह जगह प्रधान एनक्लेव कहलाती है। कई एकड़ में फैला प्रधान एनक्लेव मेरी मौसेरी बहन कुक्की का है। कुक्की के पति की मृत्यु के बाद ससुराल से उसे फूटी कौड़ी भी नहीं मिली और घर से निकाल दिया गया । बाद में सुनने में आया उनकी प्रॉपर्टी के चक्कर में हत्या कर दी गई थी। कुक्की न्यूयार्क में डॉक्टर है।

बेंजामिन ने फ्लैट का 11 महीने का एग्रीमेंट 6000 हर महीने किराए के हिसाब से तय कर लिया । 11 महीने बाद 10 परसेंट किराया बढ़ाने की परंपरा यहाँ भी निभाई जाएगी । मात्र छह हजार डिपॉजिट .......और मैं इस घर की किराएदार हो गई। एक बेडरूम नीलिमा जी ने अपने लिए रखा ।

मेरी वापसी की फ्लाइट 4 दिन बाद थी। और कई लोगों से मिलना था। आईवी को भोपाल घूमना भी था। इसलिए हम बावड़ियाँ कलाँ से सैर सपाटा और सांची घूमते हुए जया के घर पहुंचे । बेंजामिन आईवी होटल लौट गए । उन्हें फिल्मेपिया के काम में बिजी रहना है। मैंने संतोष चौबे जी से मिलने की इच्छा प्रकट की । उन्होंने हरि भटनागर के संग आईसेक्ट यूनिवर्सिटी बुलाया। यूनिवर्सिटी भोजपुर में है । शहर से बहुत दूर। हरि भटनागर वक्त पर लेने आ गए । जया के साथ हमने पहले बापू की कुटिया में लंच लिया। हरि भटनागर के घर से फोन था कि कढ़ी चावल बनाए हैं। संतोष को लेकर घर आ जाओ लेकिन समय नहीं था क्योंकि हरि भटनागर को समय पर यूनिवर्सिटी पहुंचना था। तब वहां वे एम्पलाई थे।

संतोष चौबे शहर के रईसों में से एक हैं यूनिवर्सिटी भी बहुत बड़े परिसर में है। अब उसका नाम रविंद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय हो गया है । विजय कांत वर्मा जीजाजी यहीं उपकुलपति और निदेशक हैं । और यह बात संतोष चौबे जी को नहीं मालूम थी कि मैं उनकी साली हूं ।

मैंने उन्हें अपनी किताबों का सेट लाइब्रेरी के लिए भेंट किया। शुरू में वह इस भ्रम में थे कि मैं भोपाल शिफ्ट हो रही हूं इसलिए यूनिवर्सिटी में उनसे काम मांगने आई हूं। बाद में स्थितियां स्पष्ट हुई।

जया को टीकमगढ़ जाना था । इसलिए मैं विनीता राहुरीकर के घर चली गई। खूबसूरत डुप्लेक्स बंगले में उसके दो कुत्ते भी हैं जो जाली में से भौक रहे थे। विनीता के घर वह शाम और रात बेहद शानदार गुजरी जब हमने एक दूसरे के साथ, एक दूसरे के सामने मन की परते खोली । उस रात मैंने विनीता को निकट से जाना । उसकी बेटी की मृत्यु के बाद से वह अपने में सिमट गई है। दुख कितने हैं। सबके अपने अपने भाग्य के अलग-अलग।

सुबह जया लौट आई थी और मेरे सम्मान में अपने घर कवि गोष्ठी आयोजित की थी । मैं विनीता के साथ 3 बजे उसके घर पहुंच गई । गोष्ठी में विश्व मैत्री मंच की 15 लेखिकाओं के बीच अकेले लेखक हरि भटनागर। उन्होंने अपना उपन्यास "एक थी मैना एक था कुम्हार "मुझे भेंट किया और इसी उपन्यास के कुछ अंशों का पाठ भी किया। रिमझिम बारिश से मौसम खुशगवार हो गया था । यश के मोबाइल रेस्तरां के इडली वड़ा सांभर और गर्मागर्म चाय ने मौसम की खुशगवारी में स्वाद का भी इजाफा कर दिया।

सुबह यश ने मुझे एयरपोर्ट पहुंचाया तो एकदम अपना सा लगने लगा यह शहर।

देख रही हूँ दूर पूरब में उगते सूरज को। वह दूर है पर कितना नजदीक निकलता है । एक मिनट का भी आराम नहीं उसे । पूरब से पश्चिम तक की दूरी उसे दिनभर में तय कर लेनी है और वह अपनी निर्धारित डगर से जरा भी नहीं चूकता। यही प्रवृत्ति मैंने पाई है । नित चलते रहना ......चलते रहना..... और मैं अपनी इस प्रवृत्ति को बहुत मूल्यवान मानती हूँ। मेरा अपना घुमक्कड़ी शास्त्र है । इस जीवनशैली में उम्र कहीं बाधा नहीं । परिवार मैंने जिया नहीं तो अपनी टुकड़ा होती जिंदगी को समेटकर कुछ इस तरह का रूप दे दिया है । आखिर कोई तो बहाना चाहिए जीने को। इस बार विश्व मैत्री मंच का अंतरराष्ट्रीय सेमिनार रूस के मास्को शहर में कर रही हूँ। अगस्त 2017 में । मॉस्को के साथ सेंट पीटर्सबर्ग, क्रेमलिन भी। मैंने अनिल जन विजय से संपर्क किया। लेकिन बाद में हमारे संबंधों में खटास आ गई और मैंने उन्हें सम्मेलन में बुलाने की योजना मुल्तवी कर दी। मॉस्को में हमारे विशिष्ट अतिथि थे दिशा फाउंडेशन मॉस्को के अध्यक्ष डॉ रामेश्वर सिंह, डॉ सुशील आज़ाद एवं डॉ विनायक जिनके कर कमलों द्वारा सम्मेलन का उद्घाटन हुआ। इस सत्र की मुख्य अतिथि डॉ माधुरी छेड़ा, अध्यक्ष आचार्य भगवत दुबे एवं विशिष्ट अतिथियों द्वारा डॉ विद्या चिटको, डॉ रोचना भारती, डॉ प्रमिला वर्मा, संतोष श्रीवास्तव एवं कमलेश बख्शी की पुस्तकों का विमोचन हुआ ।
अनुपमा यादव के कुशल अभिनय की एकल नाट्य प्रस्तुति तथा विनायक जी के द्वारा गाई अहमद फराज की गजल ने समा बांध दिया ।
यह सम्मेलन भारत मॉस्को वैश्विक साहित्य की दिशा में एक नई पहल के रूप में दर्ज किया गया।

मॉस्को, सेंट पीटर्सबर्ग, क्रेमलिन.......यहाँ गुजरा पूरा सप्ताह स्मृतियों में कैद है । तमाम फोकस की गई वस्तुएं, स्थल, रशियन लोग, प्यारी लरीसा हमारी गाइड । हम भारत के लिए उड़ान लेने पुलकोवो एयरपोर्ट पर हैं। पीछे छूट रहे हैं गोर्की, चेखव, टॉलस्टॉय, पुशकिन, फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की , रसूल हमजातोव और कितने ही कलम के सिपाही। 1902 में गोर्की के घर के सामने ज़ार ने पहरा लगाया था। गोर्की श्रमिकों का चहेता कलमकार था । उस पर बरसाई गई गोलियों को मजदूरों ने झेला था । वह मजदूरों की पीड़ा का लेखक था। जब ज़ार की गोलियां मजदूरों की शांतिमयी हड़ताल पर बरसी थीं गोर्की के विद्रोह और दर्द से भरे तेवरों वाले लेख की वजह से ज़ार ने उसे जेल में डाल दिया था। गोर्की की यादों को सहेजा है रूस ने। लेखकों की कद्र रूसी जानते हैं तभी तो यहाँ की फिजाओं में शब्द लिखे हैं। जिन्हें समेटे हवा मेरे हवाई जहाज के संग संग उड़ रही है।

वादा, अपने देश पहुँचकर तुम्हें लिखूंगी रूस!!

****


मॉस्को से दिल्ली लौटे तो महानगर डेरा सच्चा सौदा के राम रहीम के कारनामों के विरोध में हिंसा पर उतर आया था। दिल्ली के आसपास सिरसा हरियाणा तक आग पहुंची थी । मुझे एटा में अपनी मौसेरी बहन गुड्डी, (लेखिका निरूपमा वर्मा) को देखने जाना था । मॉल की सीढ़ियों से फिसल जाने के कारण उसके कंधे में फ्रैक्चर हो गया था । मैं दिल्ली से आगरा आई और वहाँ से टैक्सी से एटा। गुड्डी का दाहिना हाथ बेकार हो गया था और वह काफी तकलीफ से गुजर रही थी। उसका विशाल घर। घर के चारों तरफ फलों के दरख़्त, फूलों की क्यारियाँ। समृद्धि कोने-कोने से झलक रही थी। लेकिन एक भुतहा सन्नाटा था वहाँ जिसमें गुड्डी और उसके पति अजनबियों की तरह रहते थे। कहीं संतुष्टि नहीं । सुबह लान में कुर्सियों पर हम चाय पी रहे थे ।

"जीजी कुछ सुनाओ। " गुड्डी के अनुरोध पर मैंने अपनी कविता सुनाई।

मैं तब भी नहीं

समझ पाई थी तुम्हें

जब सितारों भरी रात में

डेक पर लेट कर

अनंत आकाश की

गहराइयों में डूबकर

तुमने कहा था

हां प्यार है मुझे तुमसे

समुद्र करीब ही गरजा था

करीब ही उछली थी एक लहर

बहुत करीब से

एक तारा टूट कर हंसा था

तब तुमने कहा था

हां प्यार है मुझे तुमसे

जब युद्ध के बुलावे पर

जाते हुए तुम्हारे कदम

रुके थे पलभर

तुमने मेरे माथे को

चूम कर कहा था

इंतजार करना मेरा

तुम्हारी जीप

रात में धंसती चली गई

एक लाल रोशनी लिये

मुझे लगा

अनुराग के उस लाल रंग में

सर्वांग मैं भी तो डूब चुकी हूं

हां मैं बताना चाहूंगी

तुम्हारे लौटने पर

कि तुम्हारी असीमित गहराई

तुम्हारी ऊंचाईयों

को जानना

मेरी कूबत से परे है

मैंने तो तुम्हारी

बंद खिड़की की दरार से

तुम्हें एक नजर देखा भर है

और बस प्यार किया है

वाह जीजी, अनुराग के लाल रंग को आपने खूब उकेरा है। जिसकी तुलना जीप की लालबत्ती से की है। प्रेम का यह अप्रतिम सौंदर्य जिसकी गहराई को नापा नहीं जा सकता जबकि उसका प्रवेश बंद खिड़की की संध से होता है। प्रेम की यह सूक्ष्मता कविता को नया अर्थ देती है। क्योंकि यह बचा ही रहता है। "उसने कहा था "के बोधा सिंह के प्रेम की तरह।

इतनी खूबसूरत समीक्षा ने मुझे निशब्द कर दिया। रिमझिम बारिश शुरू हो गई। हम बरामदे में आ गए । सन्नाटे तब भी तारी थे ।

दिल्ली लौटने पर पता चला प्रमिला के पति सत्येंद्र सीरियस हैं। जब हम रूस जा रहे थे तब भी उनकी तबीयत खराब थी और जांच में कैंसर निकला था । दिल के मरीज पहले से ही थे। प्रमिला तुरंत प्लेन से औरंगाबाद रवाना हो गई। मुझे दो दिन बाद लौटना था। लेकिन मेरे लौटने के पहले ही सत्येंद्र की हार्टअटैक में मृत्यु की खबर आ गई।

फरीदाबाद लौटकर मैं प्रमिला का मन बहलाने के लिए वर्धा ले गई। प्रोफेसर दरवेश कठेरिया भी चाह रहे थे कि मैं वर्धा आ जाऊं। ताकि रूबरू बैठकर एविस का उनका जो किताबों के ऑडियो का प्रोजेक्ट है वह डिस्कस कर लें। वे मेरे सभी उपन्यास कहानियों का भी ऑडियो तैयार करा रहे थे।

वर्धा में कठेरिया जी के शोध छात्र हमें स्टेशन लेने आए और बाबा नागार्जुन अतिथि गृह में कमरा हमारे लिए अरेंज कर दिया। भोजन का समय हो गया था। नीचे ही डायनिंग रूम था । खाना खाकर हमने आराम किया। तीन बजे कठेरिया जी और उनके शोध छात्र हमसे मिलने आए । शाम तक अशोक मिश्र जी, वीरपाल सिंह जी अपनी पत्नी सहित आए। वर्धा की काफी जानकारियां मिलीं । हम डिनर तक साथ बैठे।

वर्धा का महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय लेखकों का गढ़ है। यह बात सुबह यूनिवर्सिटी जाते हुए अधिक स्पष्ट हुई । विभूति नारायण राय जब यहाँ कुलपति थे तो उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान इसका स्वरूप निखार दिया। कदम कदम पर बाबा नागार्जुन, कामिल बुल्के, प्रेमचंद, टैगोर, निराला, पंत, शमशेर बहादुर सिंह जैसे लेखकों के नाम पर अतिथि गृह पुस्तकालय तथा विभाग हैं । पुस्तक वार्ता के सह संपादक अमित कुमार विश्वास हमें स्वामी सहजानंद सरस्वती संग्रहालय ले गए । जहाँ हिंदी के ठाठ देखते ही बनते हैं। मील का पत्थर कहलाने वाले लेखकों के वस्त्र, चप्पल, चश्मा, पांडुलिपियाँ वहाँ करीने से मौजूद हैं । मन खुश हो गया उस पुस्तकालय में।

त्रैमासिक पत्रिका बहुवचन के ऑफिस में बहुवचन के संपादक अशोक मिश्र से दोबारा मिलना हुआ । छोटा सा ऑफिस एक मेज और उस पर कंप्यूटर । जहाँ से हर 3 महीने में कभी दो सौ और अगर विशेषांक हुआ तो पौने तीन सौ पृष्ठों तक का बहुवचन निकलता है । मनोज पांडे भी आए। वह हिन्दी समय वेब पोर्टल का काम देखते हैं। पुस्तक वार्ता का ऑफिस ऊपरी मंजिल पर था । अमित जी ने तीन किताबें दीं कि 15, 20 दिन में समीक्षा लिख भेजिए ।

"इतनी जल्दी कैसे?"

"अच्छा तो महीना भर ले लीजिए। " हमारी हँसी ऑफिस में गूंजने लगी।

शाम को हुस्न तबस्सुम निहा कमरे में मिलने आई और मुझे अपनी पुस्तक नीले पंखों वाली लड़कियां भेंट की। वे यहाँ हॉस्टल में रहती हैं और अपनी थीसिस लिख रही हैं । डिनर के बाद कठेरिया जी आए ।

"सुबह 7:00 बजे हम लोग बापू की कुटी घूमने चलेंगे। "

सुबह हल्की हल्की बारिश हो रही थी फिर भी कठेरिया जी नियत समय पर आ गये। हम कठेरिया जी की गाड़ी से बापू की कुटी आए। स्वतंत्रता संग्राम को वर्धा से चलाने के उद्देश्य से 30 अप्रैल 1936 को गांधीजी सेवाग्राम आए और ग्रामीणों के साथ रहते हुए 100 रूपयों में स्थानीय सामग्री का इस्तेमाल कर घर बनाने की अवधारणा रखी । तभी बापू कुटी बनी। इस आश्रम में गांधीजी ने अपने जीवन के संध्या काल के 12 वर्ष बिताए ।

वर्धा शहर से 8 किलोमीटर दूरी पर 300 एकड़ की भूमि पर फैला यह आश्रम इतनी आत्मिक शांति देता है जिसको शब्दों में पिरोना मुमकिन नहीं। यहाँ बापू ने कई रणनीतियाँ बनाईं । कईयों से मिले और बहुतों को जीवन की नई दिशा दी। इस आश्रम को समझने में गांधीजी का व्यक्तित्व भी समझ आता है । बापू की कुटी के हर कमरे का अपना इतिहास और कहानी है । बापू की धरोहर घड़ी, चश्मा कपड़े, छड़ी, साँप भगाने वाली लंबी छड़ी, टाइपराइटर, पेन, टेलीफोन, बर्तन, बाल्टीयाँ, नहाने का टब, मालिश की मेज़, पलंग आदि बहुत सावधानी से रखे गए हैं। बा की कुटी अलग है।

पुण्यधाम सेवाग्राम में जैविक खाद से सब्जियां उगाई जाती हैं। गौशाला भी है और भोजनालय में पूर्ण रुप से सात्विक भोजन पकाया जाता है।

विनोबा भावे आश्रम पहुंचने पर बारिश की फुहारें शुरू हो गई थी । गांधी हिल पर गांधीजी का खूब बड़ा चश्मा रखा था । कठेरिया जी ने हमें सभी दर्शनीय स्थल घुमाए। रात को वे अपना बैनर लेकर आए । साथ में विद्यार्थीगण । दीवार पर बैनर टांग कर उन्होंने चरखा और पोनी का प्रतीक चिन्ह देकर तथा सूत की माला पहनाकर विशेष सम्मान दिया । वह क्षण अभूतपूर्व था । एक तो वर्धा का शैक्षणिक माहौल। फिर बाबा नागार्जुन अतिथि गृह में 3 दिन का डेरा । खातिर सत्कार........

सुबह प्रस्थान था । कठेरिया जी अपने विद्यार्थी को भेजेंगे स्टेशन तक पहुंचाने।

वर्धा से लौटकर ढेरों प्रकाशित रचनाओं की पत्रिकाएं मेज पर थीं। कुछ वेब पत्रिकाओं के लिंक भी। वेब पत्रिका अंतरा शब्द शक्ति के सितंबर अंक में आसमानी आंखों का मौसम कहानी संग्रह की समीक्षा मुकेश दुबे ने की थी। कथा रस की मधुर फुहार शीर्षक था । इस पुस्तक के ऑडियो पर ही कठेरिया जी काम कर रहे थे। पिट्सबर्ग से रेडियो प्लेबैक पर भी पूजा अनिल की बोलती कहानियां के अंतर्गत आवाज में "शहतूत पक गए" प्रसारित हुई थी। सामयिक सरस्वती के जुलाई सितंबर 2017 के अंक में डॉ रविंद्र कात्यायन द्वारा "मुझे जन्म दो माँ "की समीक्षा "कोख से कब्र तक स्त्री विमर्श के विभिन्न रूप "प्रकाशित हुई थी । किरण वार्ता में कंबोडिया वियतनाम का यात्रा संस्मरण छपा था। संपादक शैलेंद्र राकेश ने बताया कि इस अंक का लोकार्पण 5 अक्टूबर 2017 को किरण मंडल के 70वें कौमुदी महोत्सव के अवसर पर हुआ था। सुषमा मुनींद्र ने भी “लौट आओ दीपशिखा” की समीक्षा लिखकर नया ज्ञानोदय में भेजी थी वह अक्टूबर अंक में प्रकाशित हो गई थी।

कलम ने हमेशा साथ दिया है। तब भी जब मुंबई छोड़कर औरंगाबाद आई थी। अब भी जब यहाँ से "लाद चला है बंजारा। "

अपने आराध्य कृष्ण पर भरोसा है। वह जो करेंगे, जैसा चाहेंगे मेरे हित में नहीं तो अहित में भी नहीं होगा । जानती हूँ सपने बुनती हुई सलाईयाँ बार-बार फंदा गिरा देती हैं । सपने उधड़ने लगते हैं । पर सपने सलाई पर हैं तो सही । इसी आस में तो जिंदगी चलती है ।

तो मैं अक्टूबर की आखिरी तारीखों में यानी 26 अक्टूबर को भोपाल शिफ्ट हो गई। औरंगाबाद में भी रुकने का कोई आग्रह न था । पूरे 14 महीने की निष्क्रियता ....... जो उल्लास और जीवंतता मुंबई में थी वह औरंगाबाद में कपूर की तरह उड़ गई थी। जिंदगी ने जब भी करवट बदली है मुझे तेजी से एहसास कराया है कि बूंद भर पाने की कामना मुझसे बहुत कुछ ले लेती है।

*****