कम्युनिस्ट Raja Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कम्युनिस्ट

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राजा सिंह

प्रवेश जब इस कस्बे में आया था, उसे अच्छा नहीं लगा था. वह महानगरीय जिंदगी जीने का अभ्यस्त, यह जिंदगी ठहरी ठहरी सी एकांत बोझिल और उकताई लगी. कुछ नया, रोचक और अच्छे की तलाश में वह कस्बे के हर गली में घुमा फिरा था. शायद ही कोई गली बची हो जहाँ वह न गया हो. वह हर जगह धूमता था, इसलिए नहीं की उसे घूमना बहुत पसंद था बल्कि एक कारण और था, वह यहाँ की सम्पन्नता का भी राज जानना चाहता था. ऐसा क्या है जो इसे एक बड़े शहर के संपन्न इलाके का रूप देता था और इसका बाज़ार महानगर के किसी एक बाज़ार के दृश्य का आभास कराता था. उसे कुछ कुछ किथोरा भाने लगा था.

कुछ दिनों पूर्व उसकी पे राष्ट्रीय बैंक में जमा हुई थी. उसने अपने लिए एक शर्ट पैंट का कपड़ा खरीदने का इरादा किया. उसने जीवन से मंत्रणा की. जीवन तुरंत उसे लेकर अपने चाचा की दूकान पर गया. वह चाचा से परिचय करा कर कुछ देर रुका. जब चाचा, उनका पुत्र और नौकर उसे कपडे दिखलाने लगे तो वह धीमे से खिसक गया. उसने एक सेट पसंद किया. उसने उनके बतलाये दाम दिए. वे अतिरिक्त प्र्रसन्न हुए. उन्हें नकद भुगतान की उम्मीद नहीं थी. उन्होंने नौकर को चाय लाने का आर्डर दिया और चाय पीकर जाने का अनुरोध किया. उसे अच्छा लगा, जीवन के कारण उसे कम भुगतान करना पड़ा, जैसा की चाचा जी ने कपडे के दाम बताने के समय कहा था और उसे अब अतिरिक्त सम्मान मिल रहा था चाय के रूप में.

-चाचा जी, आपके पास अच्छा कलेक्शन है और काफी वैराइटी है रेंज भी अच्छी है. आपका बिज़नेस अच्छा चलता होगा. उसने कुछ बात करने की नियत से कहा.

-कहाँ, बेटा? बेकार का धंधा है. यहाँ, सब कुछ उधारी का काम है.

-क्यों ऐसा क्यों? उसे उत्सुक्तता हुई.

-लोकल के बन्दे तो सब बाहर शहरों से खरीदते है. आसपास के गाँव के लोग ही खरीदते है, त्यौहार वार, या शादी व्याह आदि में और उनके पास नकद कहाँ? उन्होंने यह कहकर बुरा सा मुहँ बनाया. वह अचरज से अभी निहार ही रहा था कि वह फिर बोले..

-ऐसा है कि यहाँ के किसान के पास, साल में दो बार पैसा आता है, जब वह अपनी गेहू और गन्ने की फसल बेचता है, बाकि समय उसके पास तो खर्चा ही खर्चा है. इस कारण उधारी का भुगतान छै महीने से पहिले नहीं हो पाता है और कभी कभी वह भी पूरा नहीं होता अगले सीजन के लिए टल जाता है.

-तो उधार मत दिया करें. उसने बिना सोचे विचारे कह दिया.

-बेटा ! तो बिक्री ठप्प. बिना उधारी के सामान कौन खरीदेगा?शायद पुरे दिन एक भी ग्राहक न मिले... वैसे बिना उधारी के बिक्री करने का एक फायदा तो है, ग्राहक मोलभाव नहीं करता और कभी कभी तो दाम भी नहीं पूछता. किताब में कुछ लिख लो.

-आसानी से समय पर बकाया आ जाता है?

-अरे! कहाँ ? काफी तगादा कराना पड़ता है. नौकर को साइकिल देकर दौड़ाना पड़ता है, फसल बिक्री के समय, नहीं तो छै माह और साल भर भी भुगतान न मिले.

-अच्छा, उसने मायूसी जाहिर की.

-बेटा, छोटी जगह में किसी भी चीज की बिक्री बिना उधार के संभव नहीं है. आप बैठे रह जाओगे और अगला कमा खा रहा होगा. आप झुनझुना हिलाते रह जाओगे.

चाय आ गयी थी. चाय पीते पीते, चाचा जी उसके घर परिवार आदि के विषय में जानकारी करते रहे और वह अपने जवाबो से उन्हें संतुष्ट करता रहा.

जीवन से ही उसने स्थानीय दर्जी के विषय में पूछताछ की तो उसने बुरा सा मुंह बनाया और बोला, “मै क्या ज्यादातर लड़के शहर के टेलर से अपने कपड़े सिलवाते है. ” फिर बड़ी मुश्किल से उसने एक माडर्न टेलर शंकर का नाम और एक पुराने टेलर रमजान अली की दुकान का पता बताया. रमजान अली की दुकान ऊपर थी, नीचे मकान मालिक की परचून की दूकान, जिसके बगल से जीना उपर दुकान पर जाता था.

वह दरमियाँने कद के पचास के आसपास उम्र, इकहरे बदन के, बिना दाढ़ी मूछ के सफेद कुर्ता-पैजामा पहने, टेलर कम नेता ज्यादा लगते थे. उनके होंठो पर तम्बाकू दबी थी जो यहाँ के लोगों द्वारा कम प्रयोग में लायी जाती थी. यहाँ के लोग बीड़ी सिगरेट का प्रयोग ज्यादा करते थे. वे स्वयं जमींन में एक कोने में बैठे थे और उंनके सामने लकड़ी का एक पटरा था जो जमींन की सतह से एक फूट ऊँचा और ३ बाई ५ फुटकी लम्बाई चौड़ाई में फैला हुआ था. जिस पर एक मोटा नीला चादर बिछा हुआ था.. उस पर वह कपड़ो की कटिंग किया करते थे. उनकी अपनी एक हाथ की सिलाई मशीन थी जिसे वह जरुरत के मुताबिक खुद चलाया करते थे और इस समय वह उसी तखतनुमा मेंज पर अपनी हाथ की मशीन से सिलाई कर रहे थे. कमरे के दुसरे कोने, दो लड़के पैर वाली मशीन पर बैठ कर सिलाई कर रहे थे. एक लड़का जो उनका था वह इस समय तैयार कपड़ो पर प्रेस कर रहा था. उसका काम तुरपन करना और काज बटन टांकना भी था. ग्राहकों के बैठने के लिए बाकी फ़र्श पर एक मोटी दरी बिछी हुई थी जिस पर एक चादनी बिछी हुई थी. दूकान एकदम पुराने परिवेश में थी.

प्रवेश ने दरवाजे से प्रवेश करते हुए, मास्टर कहते हुए, एक प्रश्नवाचक निगाहों से उनकी तरफ मुखातिब हुआ.

“आईये.. आईये .. तशरीफ़ रखिये. ” उन्होंने अपने सामने बैठने का इशारा किया. उसने जूतें दरवाजें के पास उतारे जहाँ फ़र्श नंगा था और कपड़े उनकी सामने कटिंग चौकी-तखत पर रखे और बिछी चादनी पर बैठ गया. उन्होंने इंची टेप से कपड़ो की नाप की, कपड़ो की क्वालिटी परखी. उसकी शर्ट पैन्ट्स की नाप ली और फिर अपने गद्दी पर बैठ गए.

प्रवेश के भीतर एक शक घुस आया, यहाँ आकर उसने ठीक किया? क्या यह मास्टर उसके साथ न्याय कर पायेगा. कही उसके कपड़ो की रेढ न पीट दे. लखनऊ में वह सबसे अधिक आधुनिक टेलर्स पर जाया करता था और वह बेस्ट फिटिंग के कपडे पहनता था. वह उसका पुराना टेलर था. कहते है की दर्जी और नाई नहीं बदलने चाहिए. उसे कुछ अफ़सोस सा हो आया था कि वह शंकर टेलर के पास क्यों नहीं गया? परन्तु वह क्या करें? अक्सर उसका मन कम चलने वाली दुकानों पर चला जाया करता था. वह सोचता था कि वह जैसे लोग अगर इन लोगो के पास आते रहेंगे तो इनकी भी रोटी रोजी चलती रहेगी. वह सोचता था इसे लोगो के पास भी अच्छा हुनर है, और काम अच्छा हो जाता है, परन्तु ताम झाम न होने के वजह से यह लोग काम से बंचित रह जाते है, जो इन्हें भुखमरी तक घसीट ले जाती है.

“मिया चिंता न करो, बहुत अच्छी फिटिंग दूँगा. अगर आपके दिमाग में कोई डिज़ाइन हो तो मै वैसा ही बना दूँगा. ” मास्टर ने उसका शक पकड़ लिया था.

“है. ! ऐसा है ? क्या शर्ट में आप ऐसी जेब लगा सकते है.... ” यह कहकर उसने एक कागज पर जेब की डिज़ाइन कर दी.

“हो जाएगी.. बस दो दिनों बाद आप इसी समय आ जाईयेगा. आपके सामने ही मै आपके मन मुताबिक बना दूँगा, और न भी आ सके तो भी इस कागज के आधार पर मै ऐसी ही जेब फिट कर दूँगा. ” मास्टर ने उसे आश्वस्त किया. उसके जेहन में उतर आयी व्यर्थता के अहसास का निराकरण होने से उसे राहत मिली. मास्टर के पास इस समय कोई और ग्राहक नहीं था. लड़के अपने अपने काम पर लगे थे.

-मियां ! नए हो?

-हाँ. उसने अपने विषय में सम्पूर्ण जानकारी दी.

-कहाँ से कपड़ा लिया? उसकी जिज्ञाषा बढ़ी.

-साहू जमुना प्रसाद से. और उनसे क्यों लिया इसका भी सन्दर्भ स्पष्ट किया.

-क्या भाव का दिया? उसने उसे बताया. अब की बार उनकी प्रतिक्रिया निराशाजनक थी.

-आपको भी नहीं छोड़ा? काट ली जेब ? मार्किट रेट से भी ज्यादा है इसके दाम. उन्होंने अफ़सोस जनक मुद्रा में मुंह बनाया.

-यह बनिया किसी को भी नहीं छोड़ते. इनके लिए कोई सगा नहीं. ये बनिए बनते ही ऐसे है. उसे बुरा लगा. उसे चाचा जी अच्छे आदमी लगे थे. परन्तु वह परिवाद में पड़ना नहीं चाहता था, कि कौन गलत है और कौन सही. किन्तु पता नहीं क्यों उसे यह महसूस हो रहा था कि मास्टर क्यों झूंठ बोलेगा?उसके लिए तो साहू साहेब तो उसके अपने है जबकि वह अनजान और अपरचित.

-इस छोटी जगह में, उधार ही तो बहुत बिकता है. उसने बिना सोचे समझे उनका बचाव करने के कोशिश की.

-उधार देते हो तो क्या पैसे वापस नहीं लेते हो? अरे. ! यह बनिया दुकानदार जानबूझकर उधार चढ़ाने की कोशिश करते है. लेने जाओ हज़ार का, दे देंगे तीन हज़ार का. जब आप कहोगे कि मेरे पास इतने पैसे नहीं है, तो कहेंगे की, आ जायेगे क्या जल्दी है? कही भागे जा रहे ? इस तरह से धर्म के दूने इकट्ठे करते है. प्रवेश को बातचीत में दिलचस्पी आने लगी थी. उनकी चाय आ गयी थी. उसे भी जबरदस्ती दी गयी वह मना करता रह गया.

-बनिया बनिया की काट जानता है इसलिए ये आपस में लेनदेन कम करते है.

-मगर यह समृध्य इलाका है. उसने युक्ति दी.

-भईया, सारी समृद्धि इन बनियों में ही सिमट आयी है. बाकी लोग तो रोटी दाल ही चला पा रहे है.... अभी आपको कितने दिन ही हुए है ? समय के साथ सब समझ जाओगे. कभी सुभाष नगर और बाल्मीकि नगर इलाके में जाओगें तो पता चलेगा कि इस किथोरा में कैसी समृद्धि है?

-क्यों? ऐसा नहीं है, जैसा यहाँ सब है. वह वाकई में वहाँ नहीं गया था. उसके दोस्तों ने भी कभी न उसका जिक्र किया था न कभी उधर से उनके साथ गुजरे थे.

-नहीं.. बिलकुल नहीं.. !.. सुभाष नगर में ज्यादातर अनुसूचित जातियां रहती है और मुस्लिमो की आबादी है. जबकि बाल्मीकि नगर में हरिजन यानि भंगी लोग रहते तथा कुछ घर मुस्लिमो के भी है.... वहां की आबादी के घर और रास्ते, सड़क आदि देख लो, तो मन गिजगिजा जायेगा. सोचोगे कैसे रहते है यह लोग? ज्यादातर घरों में सर्विस लैट्रीन है और सार्वजानिक हैण्ड पम्प. इन जगहों में आदमी से ज्यादा आबादी है मुर्गियो, बकरों, भैसों, और सुवरों की, जो पूरी बस्ती में लोटते नज़र आते है.

-मगर, मैंने कुछ घर सरदारों और मुस्लिमो के देखे है जो काफी रहीस लगते है.. उसने अपनी धारणा को खंडित हो जाने से रोकने का भरसक प्रयाश किया.

-वह शो पीस है इस समाज के. और वे वह लोग है जिन्होंने बनियागिरी अपना ली है.. उसने अपवाद की धज्जिया उड़ा दी.

-नगर पालिका कुछ नहीं करती, उनके इलाके में सुधार के लिए ?

-वहां भी उनका कब्ज़ा है. ९० प्रतिशत बनिया सभासद है और चेयरमैन तो सदैव अग्रवाल ही होता आया है. १० प्रतिशत गैर जातीय, वे यही शो पीस समृध्य लोग है जो बाल्मीकि नगर और सुभाष नगर का प्रतिनिधत्व करते है.

-आपको इन निम्न समुदाओ का इतना ख्याल है, तो आप क्यों नही इनका प्रतिनिधत्व करते है?

-यह करके भी देख लिया. दो बार सभासद के लिए खड़ा हुआ, एक बार बाल्मीकि नगर से, और एक बार सुभाष नगर से. दोनों बार १५-२० से ज्यादा वोट नहीं मिले.

-क्यों इन निम्न वर्ग ने आपका साथ नही दिया.

-भइये, कमुनिस्टो को लोग अपनी लड़ाई का जिम्मा तो सौप देते है, परन्तु वोट तो वे अपनी जाति धर्मं और पैसे वाले के हिसाब से ही देते है.

-आपके धर्म वाले तो एकजुट होकर वोटिंग करते है. फिर आप क्यों नही?

-मै कमुनिस्ट हूँ मै धर्म को नहीं मानता. मै कभी नमाज पढ़ने मस्जिद नहीं जाता, कभी रोजा आदि नहीं रखता. वे मुझे मुस्लिम मानते कब है?.. यहाँ कांग्रेस और बीजेपी के चाहने और मानने वाले है. कमुनिस्टो की क्या बिसात?..

बातों बातों में शांत चित मास्टर रमजान अली उत्तेजित हो गए थे. माहौल में तनाव पसर गया था. लड़के अपने अपने काम में मशगूल थे. उसने मास्टर से जाने की इजाजत ली और अपने कमरे की तरफ निकल पड़ा.

-राजा सिंह

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-ईमेल-raja. singh1312@gmail. com