दास्तानगो - 2 Priyamvad द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दास्तानगो - 2

दास्तानगो

प्रियंवद

राजाओं, नवाबों, सामंतों के ब्राह्मण मुंशी या दीवान उनकी जागीरों की आमदनी और खर्च का हिसाब किताब भी रखते थे। वे इन जागीरों की देखभाल या तो ठीक से कर नहीं पाते थे या पिफर उसकी आमदनी और हिसाब को जानबूझ कर धुंधला बनाए रखते थे जिससे कि उसका एक बड़ा हिस्सा उनके पास भी आ सके। यह न हो तब भी, रिआया से पैसे की वसूली एक कठिन काम था। इसके लिए क्रूरता, निर्ममता के साथ कुशलता और योग्यता भी चाहिए थी, जो इन निकम्मे और पुराने पड़ चुके मुंशियों के पास नहीं थी। उनके पास वसूली के लिए अपना कोई शक्तिशाली और विकसित प्रशासनिक तंत्रा भी नहीं था। पहले सिपर्फ प्रयोग के तौर पर ही, बाद में नियमित रूप से, वसूली का काम फ़्रांसीसी व्यापारियों को दिया जाने लगा। उन्होंने निर्ममता के साथ किसानों, कारीगरों से पैसा वसूलने का काम शुरू किया। इसके लिए उन्होंने अपनी सैनिक टुकड़ियाँ रखनी शुरू कीं। इन्हें तिलंगे कहा जाता था। यह पूरी सैनिक टुकड़ी खरीदी और बेची जा सकती थी। इनकी क्रूरता, इनके आतंक और यु( कौशल पर इनका मूल्य निर्भर करता था। अपने मूल्य और अपनी माँग को बढ़ाने के लिए ये लगान न देने पर या किसी विद्रोह को कुचलने के लिए गाँव के गाँव नष्ट करते थे। एक कत्ल की जगह दस कत्ल करते थे। आधुनिकतम हथियारों से लैस ये तिलंगे सुर्ख वर्दी, ऊँची जरीदार टोपी, मस्त द्घोड़ों की उठान और पत्थर हो चुके चेहरों के साथ ऐसी क्रूरता का प्रतीक बन गए थे, जो उस समय के राजनैतिक षड्यंत्राों, लूट और वर्चस्व की क्षेत्राीय लड़ाइयों में मूर्ख, निकम्मे और एक्षयाश राजाओं, नवाबों, जागीरदारों के बीच उनकी कीमत बढ़ाती चली जाती थी। किसी भी जनविद्रोह को दबाने के लिए इन पर सबसे अधिक विश्वास किया जाता था। जब किसी इलाके के किसान लगान देने से मना कर देते या गुमाश्तों, अमीन या सरकारी कारिन्दों की हत्या कर देते या संगठित होकर खुदमुख्तारी का एलान कर देते, तब ये तिलंगे बुलाए जाते। विद्रोहियों के काटे हुए सरों को भालों पर लटकाए जब वे लय भरी टापों के साथ ठुमकते द्घोड़ों पर लौटते, तो बाजार में उनकी कीमत बहुत बढ़ जाती। समुद्र के इस छोर से लेकर अवध की रियासतों और रजवाड़ों तक तिलंगों की मांग थी। दस्तावेजों में ऐसे बहुत से पत्रा थे जिनमें मराठों, राजपूतों और दोआबा के राजाओं ने यहाँ के रीजेन्ट से तिलंगे की टुकड़ी की कीमत पूछी है या उसकी मुँहमांगी कीमत देने की पेशकश की है। दस्तावेजों में ऐसे कुछ सिपाहियों का जिक्र भी है जिनकी सैनिक योग्यता और आतंक का सिक्का चलता था, खासतौर से उन दस तिलंगों की टुकड़ी का।

एक रात, वामगुल के अंदर नीली खिड़की वाली औरत को देखने की गहरी तड़प उठी। पिछली बार जब वह उसके पास गया था, और उसके द्घर की खिड़की पर खड़े होकर, अपनी उत्तेजना को और बढ़ाने के लिए, नारियल की शराब में दो पफाँकों में कटी हुयी लम्बी मिर्च डाल कर पी रहा था, उसे अचानक अपना द्घर दिख गया था। अगर वहाँ से अपना द्घर देख सकता है तो एटिक की दूरबीन से वह उसका द्घर तो देख ही लेगा, इसी उम्मीद से वह एटिक में आया था।

उस रात चाँद से इस कदर सपफेदी गिर रही थी कि खेतों के नमक, समुद्र के ऊपर उड़ते सपफेद पक्षी और मरियम की मूर्ति की सपफेदी भी उसने सोख ली थी। दूरबीन को कई बार द्घुमाने और पफोकस करने के बाद भी वाम को उसकी खिड़की नहीं दिखी, अलबत्ता दूसरे द्घर जरूर दिखे। उसे लगा शायद लहरों के पफेन से उठी धुंध में वह छुप गयी है। एक क्षण के लिए उसे यह भी लगा कि शायद उस दिन उसे अपना द्घर भी न दिखा हो बल्कि वह शराब में मिर्च डालकर पीने का विकार हो या पिफर अंदर की गहरी ऊब से जन्मी द्घर लौटने की बेचैनी हो। जब वह निराश होकर लौट रहा था, तब एक दीवार में टंगी पेंटिंग की लड़की की नाभि में चाँदनी भरने लगी थी। उस नाभि को देखने के लिए जब वह रुका, तभी उसने पीतल के पुराने हुक्के के नीचे दबे कुछ काग़ज देखे। ये एक कम पढ़े आदमी की लिखावट में थे। उन काग़जों में एक छोटे से गाँव के कुछ लोगों के विद्रोह और तिलंगों द्वारा उसके कुचलने की मुख्तसर कहानी थी। पढ़ने से वाम को मालूम हुआ कि यह पत्रा उस द्घर के छोटे दरवाजे से अंदर आने वाले भंगी ने लिखा था जो सोलह साल तक फ़ांसीसियों का पखाना उठाते रहने के कारण थोड़ी बहुत फ़्रांसीसी सीख गया था, और उस सुबह गुसलखाना सापफ करते हुए उसने साथ के कमरे में बैठे रीजेन्ट की बातें सुन ली थीं। बाद में उसने इस पूरी द्घटना को मछलियों के सौदागरों, बावर्ची, हुक्काबरदार, साईस, चोबदार, आइनासाज, रंगरेज, मशालची, पालकी ढोने वाले कहार और दाइयों से भी सुनने के बाद, अपने भाई को पत्रा लिखा था कि अवध की सेना की टुकड़ी में भिश्ती का काम छोड़कर अलीगढ़ में नयी-नयी शुरू की गयी नील की खेती में मजदूरी करने चला जाए। पत्रा में द्घटना की भयावहता, नरसंहार और इसके प्रमाण के रूप में पत्रा के साथ चार काग़जों पर कोयले से बनाए रेखांकन भी नत्थी थे।

पहले रेखांकन में लकड़ी के पटरों से बने एक बहुत छोटे कमरे की दीवारों के बीच तीन मृत शरीर पड़े थे। उनके गठे शरीर, मोटी हथेलियाँ, चौड़े कंधे और मजबूत जाँद्घें बता रही थीं कि वे जवान और मेहनती मजदूर या किसान थे। उनके चेहरे मृत्यु के ठीक पहले के क्षणों में ीज होकर आतंक, यातना, भय और पीड़ा से विकृत हो चुके थे। एक का शरीर पेट के बल पड़ा था। उसकी गर्दन पूरी तरह द्घूमी हुयी थी। एक की नंगी छाती और जाँद्घों के बीच उसका अपना कटा हुआ हाथ पड़ा था। एक की सिपर्फ नंगी पीठ दिख रही थी। उसके टूटे पैर पफैले और मुड़े हुए थे। दूसरे कमरे में जाने वाले दरवाजे की चौखट पर सिपर्फ दो एड़ियाँ पड़ी थीं। वे तीनों शरीर एक दूसरे के पास थे। इस रेखांकन में कहीं रक्त नहीं था। हथियार नहीं था। कोई सिपाही या यो(ा भी नहीं था। वे क्यों मरे, िकसने मारा, यह भी नहीं पता था। सिपर्फ मृत्यु थी। उसके बाद की बची रह गयी भयावहता थी। उन सब चेहरों की सलवटों में भय था... अविश्वास था। प्रश्न थे... विस्मय था।

दूसरे रेखांकन में एक कटे हुए पेड़ के एक तिरछे तने की शाख से बंधी रस्सी में झूलता हुआ आदमी था। उसकी गर्दन लटक कर आगे की ओर झुक गयी थी। नीचे बेहद पतला शरीर था। उस पर एक ढीला कपड़ा था। उसके पाँवों का पायजामा आधा नीचे उतरा हुआ था। उसके बाल द्घने और बिखरे थे। हाथ सीधे खिंचे हुए लटक आए थे। उसके पीछे दो अस्पष्ट तने और कुछ आकृतियाँ थीं। ध्यान से देखने पर वे पफंदों से लटके शरीरों का आभास देती थीं। लटके हुए आदमी के सामने पफौजी वर्दी पहने अपफसर एक स्टूल पर बैठा था। एक बड़े पत्थर पर उसकी कोहनी रखी थी। हथेली पर उसकी गर्दन थी। वह उस लाश को नृत्य नाटिका देखने जैसे आनंद, कौतुक और निश्चिंतता से देख रहा था। उसकी द्घनी मूंछों के पीछे एक मस्सा था जिस पर मक्खी जैसा कुछ बैठा था। उसके सर की लंबी टोपी के नीचे दिखती छोटी आँखों में काम पूरा हो जाने की चमक, संतोष और गर्व था। लटकती हुयी लाश के लिए द्घृणा और अपमान था। उसके बैठने की मुद्रा में भी लाश के लिए गहरी हिकारत थी।

तीसरे रेखांकन में तीन औरतें द्घर छोड़कर भाग रही थीं। उनके पीछे कटे हुए सर पड़े थे। भागती औरतों में सबसे आगे की औरत जवान थी। उसके बाएँ हाथ में छोटा बच्चा लटका हुआ था जिसे वह किसी तरह गिरने से बचाए थी। उसके दाएँ हाथ में दो मुर्गियाँ थीं। मुर्गियों को वह परों से दबोचे थी। उसके पीछे दूसरी औरत अपने कंधों पर थोड़े बड़े बच्चे को बैठाए थी। वह आगे की ओर थोड़ा झुकी हुयी थी। बच्चे को गिरने से बचाने के लिए उसके लटकते पंजों को हथेलियों से पकड़े थी। तीसरी औरत झुककर बिल्कुल दोहरी हो गयी थी। उसकी पीठ पर बड़ी गठरी थी। आगे की दो औरतों के चेहरे सापफ बने थे। उनमें भावविहीन सपाटता थी। बच्चों के चेहरों के नक्श नहीं थे। बस रेखाओं में उकेरी गयी आकृतियाँ थीं।

चौथे रेखांकन में एक छोटे कमरे में तीन सिपाहियों से लड़ती चार औरतें थीं। एक औरत के हाथ में बड़ा सा पत्थर था... दूसरी जमीन पर गिरी हुयी थी और उसकी छाती पर एक भारी बूट गिरने ही वाला था। उसके हाथ में खंजर था। तीसरी औरत एक हाथ से पीठ पर लटके हुए बच्चे को सहारा दिए थी। उसके दूसरे हाथ में बड़ा भाला था जिसे वह एक सिपाही के पेट में द्घुसेड़ चुकी थी। चौथी औरत दो सिपाहियों के बीच द्घिरी थी। उसके एक हाथ में तलवार थी जिसे वह एक सिपाही की छाती में द्घुसेड़ चुकी थी। दूसरे हाथ में एक पेटी थी जिसे वह छाती में चिपकाए थी। उसके चेहरे पर द्घृणा और क्रोध की गहरी रेखाएँ थीं। उस औरत पर बंदूक से निशाना साधता हुआ एक सिपाही था। इस रेखांकन में सिपाहियों की वर्दी, टोपियाँ और बंदूकें सापफ थीं।

इन चारों रेखांकनों में सबसे महत्वपूर्ण मरे हुए लोगों की आँखें थीं। वे उबलती हुयी चेहरे से बाहर निकल रही थीं। भय और अविश्वास से पफट कर वे सामान्य आँखों से बड़ी हो गयी थीं। उनकी पुतलियों के चारों ओर का सपफेद हिस्सा गूदे की तरह निकला था। उन आँखों में जो था वह ज़िंदा इंसान की आँखों में नहीं दिखता। उनमें उस मृत्यु का साक्षात था जो उन पर अचानक झपटी थी। वे भय से पीली हो चुकी काँपती आत्माओं की, या पिफर, मारे जाने के विश्वास से आखरी दम तक लड़ने वालों की आँखें थीं।

एटिक से नीचे आकर वामगुल ने पत्रा और चारों रेखांकनों को महत्वपूर्ण दस्तावेजों की सूची में चढ़ाया और पिफर दस तिलंगों के प्रशस्ति इतिहास का महत्वपूर्ण अध्याय लिखा।

अट्ठारहवीं सदी में, जब पूरी दुनिया में नए ज्ञान की रोशनी पफैल रही थी, जब विज्ञान की महत्वपूर्ण खोजें हो रही थीं, जब मनुष्य को हीन बनाने वाले शारीरिक श्रम से मशीनों द्वारा मुक्त करने का अरस्तू का महत्वाकांक्षी स्वप्न साकार हो रहा था, जब प्रकृति के रहस्यों को वैज्ञानिक तरीकों से समझते हुए उसे मनुष्य जीवन में व्यावहारिक रूप से उपयोगी बनाया जा रहा था, जब दर्शनशास्त्रा में सफ़ांसारिक दुखों के कारणों में व्यर्थ के अध्यात्म के स्थान पर सामाजिक ढांचे के आधार को समझने के लिए तर्क की खोज शुरू हो चुकी थी, धर्म को अंधविश्वास, कट्टरपन और असहिष्णुता से मुक्त करने के प्रयास शुरू हो रहे थे, जब समुद्रों की छाती चीर कर देशों की सीमाओं से बाहर होने वाले पूंजी व्यापार जगत दुनिया को छोटा करते जा रहे थे, जब बाख और मोजार्ट संगीत कला को नया अर्थ दे रहे थे, जब वाल्तेयर की बौ(किता और रूसो के भावनात्मक अधिकारों के बीच की बहस में फ़ांस उलझा हुआ था, तब दुनिया के इस नामालूम मुल्क के, नामालूम कोने की एक बस्ती में कबीलाई संस्कृति जीने वाले कुछ सरदारों ने, मूर्ख और अंधविश्वासी लोगों को फ़्रांसीसी व्यापारियों के विरु( भड़काना शुरू किया। वे लोग अपनी कुरीतियों, अविकसित सामाजिक संरचनाओं और धार्मिक जड़ता को उस समय भी विश्व में अतुलनीय समझते थे। मनुष्यों की बलि देते थे, पशुओं का मूत्रा पीते थे, उन्हें पूजते थे। औरतों को जिं़दा जलाते थे। धरती पर उगते हुए नए सूरज की नयी रोशनी की तरपफ पीठ करके जीते रहने को ही मोक्ष मानते थे। ये उस समय भी एक दूसरे का छुआ नहीं खाते थे। उनके पास ज्ञान की कोई किताब नहीं थी। कानून की कोई किताब नहीं थी। उनके पास सैकड़ों धर्म और हजारों ईश्वर थे। उनके देवता जानवरों की शक्लों के थे जो हमेशा भूखे रहते थे। ये धरती के सबसे अशिक्षित, निकम्मे, भूखे और अंधविश्वासी लोग थे। अपनी इन्हीं अंधेरी गुपफाओं को सृष्टि की अंतिम सीमा और इसकी संपूर्ण परिधि मानते हुए वे इन्हीं में रहना चाहते थे। अपने धर्म, परंपरा और समाज की दुहाई देकर उन्होंने फ़ांसीसियों के शासन और व्यापार को, उनकी बनायी नयी भूमि व्यवस्था को, संगठित कर ढाँचे को, न्याय प्रणाली और नयी भाषा की शिक्षा को स्वीकार नहीं किया। लोगों को इकट्ठा करके, भड़का कर फ़्रांसीसी व्यापारियों पर हमले शुरू किए। नील और काली मिर्च के व्यापार को नष्ट करने लगे। उनके कारिन्दों, गुमाश्तों की हत्या करने लगे। देखने में यह छोटी बात थी पर पूरे यूरोप को अपनी भाषा, दार्शनिकों, चित्राकला, साहित्य और संस्कृति से सम्मोहित और जाग्रत करने वाले फ़ांस की राजनीति पर, उसके व्यापार, उसकी साख और उसके दूसरे उपनिवेशों पर इसका बुरा असर पड़ रहा था। फ़्रांसीसी गवर्नर के लिए उनको कुचलना और उनसे सहानुभूति रखने वाले दूसरों को सबक सिखाना जरूरी हो गया था। शौर्य और वीरता से भरा यह महान काम तिलंगों ने किया।

संलग्न पत्रा से तिलंगों की रणनीति और काम की दिशा का पूरा ब्यौरा मिलता है। इस पर विश्वास किया जाना चाहिए, क्योंकि यह अनेक चश्मदीदों से बात करके और खुद फ़्रांसीसी रीजेन्ट की बातें सुनने के बाद लिखा गया है। इसके साथ के रेखांकन इसकी पुष्टि करते हैं। इन रेखांकनों में तिलंगों की शक्लों में एक महान उद्देश्य को प्राप्त करने की चमक और शांति है। उनमें गहरी निर्लिप्ता और आनंद है। उनके चेहरों पर द्घृणा या क्रोध या लोभ या बर्बरता नहीं है। पफसल को बचाने के लिए झाड़ झंखाड़ सापफ किए जाने वाले का सुख है। इस पत्रा से मालूम पड़ता है कि तिलंगों ने उनकी औरतों की छातियाँ काटीं, उनकी अपवित्रा योनि को पत्थरों के टुकड़ों से भर दिया, लोगों के सर काटकर सूखे तालाबों में डाल दिए, कुओं को लाशों से पाटकर हमेशा के लिए बेकार कर दिया, उनके पाँच बड़े बागियों के आधे हाथ उड़ा दिए, हर जवान औरत से बलात्कार किया, तीन सौ द्घरों को आग लगायी, पेड़ों पर लाशें लटका कर उनके सामने नृत्य किया, उनका धन लूटा और पिफर द्घोड़ों की टापों के साथ हुमकते हुए लौट आए। इसी समय होने वाली फ़्रांसीसी क्रांति जब मनुष्यों को हमेशा के लिए गहरे दुखों और झूठे स्वप्नों में भटकाने वाले तीन विरोधी व अर्थहीन शब्द दे रही थी, ये दस तिलंगे यहाँ द्घोड़ों के खुरों के साथ आदिम सच्चाइयों का उद्द्घोष कर रहे थे। मनुष्य उपकार नहीं अपमान याद रखता है। जय नहीं पराजय याद रखता है। प्रेम नहीं द्घृणा याद रखता है। यही उसकी आत्मा का सच है। यही उसके समाज और राज्य का सच है। बदला लेने का न्याय दुनिया का सबसे पुराना और अंतिम न्याय है। यही मनुष्य को और उसकी समस्त संरचनाओं को वास्तविक सुख और शांति देता है।

अगर तिलंगों के इस काम को इससे भी बड़े परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, तो इसके पीछे विश्व में चल रहे पुनर्जागरण की चेतना और राज्यसत्ता के मूलभूत सि(ांतों की रक्षा की भावना थी। विश्व के पुनर्जागरण को छोड़ भी दें, तो भी राज्यसत्ता के अपने कुछ नैतिक सि(ांत और नियम होते हैं जिनके अनुरूप आचरण करना हर शासक का कर्तव्य होता है। इनमें भी किसी भी विद्रोह को दबाना सबसे बड़ा कर्तव्य है क्योंकि यह स्वयं राज्यसत्ता के अस्तित्व पर आद्घात करता है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि मनुष्य ने अपना सबकुछ सौंपकर राज्यसत्ता को जन्म दिया है। उसके हर क्षण, हर गति, हर विचार पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष राज्यसत्ता का अधिकार है। इसलिए हर राज्यसत्ता का सर्वोच्च धर्म है कि वह यह सुनिश्चित करे कि उसके और मनुष्यों के बीच हुए इस अनुबंध के महान आदर्शों से कभी कोई विचलन न हो। विचलन चाहने वाले किसी व्यक्ति या समूह की विकृत

मानसिकता, राज्यसत्ता के स्थायित्व, प्रभुता व जीवन पर आद्घात न कर सके। ऐसा हो, तो राज्य को पूरा नैतिक अधिकार है कि उसकी भर्त्सना करे। उसे हर संभव तरीके से कुचल कर नेस्तनाबूद करे। अपनी रक्षा के लिए क्रूरतम कदम उठाए। यही प्राचीन शास्त्राों में लिखा है। यही परंपरा रही है। यही महान साम्राज्यों की नींव और मनुष्य के विकास का आधार है। मनुष्य की रक्षा के लिए मनुष्य की हत्या, शांति बनाए रखने के लिए यु( और श्रेष्ठ मनुष्यों की स्वतंत्राता के लिए हीन मनुष्यों को गुलाम बनाना ही वह नीति और विवेक है, जो किसी भी राज्यसत्ता का प्राण तत्व होता है।

विद्रोह से सतर्क और शक्तिशाली राजा कभी नहीं डरता क्योंकि वह जानता है कि सैकड़ों लोग एक ही स्वप्न देखें, एक ही तरह से सोचें, एक ही आवाज में बोलें, यह कभी संभव नहीं होता। वह जानता है कि प्रजा सदैव उस राजा को चाहती है जो भय पैदा कर सकता है, दंड दे सकता है और जो उनकी तरह कायर नहीं होता। वह जानता है कि अविवेकी, लालची और अशिक्षित लोगों का संगठन अंततः इधर-उधर भागती भीड़ में बदल जाता है। इस भीड़ को पुनः नियंत्रिात और अनुशासित करके एक संगठित व

प्रगतिकामी समाज में बदलना उसका सबसे महान काम और सबसे बड़ा राजधर्म है।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि जय- पराजय हमेशा एक साथ रहते हैं। यह ईश्वर की अनुकम्पा है कि वह किस क्षण किसे क्या देता है। इस द्घटना के बाद तिलंगों की टुकड़ी एक बार पिफर एक

जनविद्रोह को दबाने गयी थी। पर इस बार विद्रोही तैयारी के साथ थे, इसलिए

ताकतवर थे। उन्होंने जमकर मुकाबला किया। कभी किसी चट्टान के पीछे से, कभी गुपफा से, कभी ऊँचे पेड़ों पर बनी मचानों से, कभी जंगल, कभी द्घाटियों से निकलते और तिलंगों पर टूट पड़ते। जब तक ये तिलंगे कुछ समझते वे गायब हो जाते। धीरे-धीरे तिलंगों की टुकड़ी कमजोर पड़ने लगी। ऐसी लड़ाई की उन्हें आदत नहीं थी। विद्रोही बिखरे रहते थे। बस्तियों में कहाँ कौन उनसे मिला है, कौन खुद विद्रोही है, कौन रसद देता है, कौन भेदिया है, कौन भट्ठी में हल की पफाल के साथ तलवारें भी ढालता है, पता नहीं चलता था। एक बार द्घने जंगल में तिलंगों की टुकड़ी से चौदह सिपाही अलग होकर भटक गए। भूखे और थके हुए एक नदी के किनारे जब वे नहा रहे थे, खाना बना रहे थे और सो रहे थे, विद्रोहियों ने हमला कर दिया। उनमें चार मारे गए। बाकी दस को उन्होंने जिंदा पकड़ लिया। वे उन्हें द्घसीटते हुए जंगल के बीच एक बस्ती में ले गए। वहाँ वे लोग भी थे जो तिलंगों के पहले हमले में किसी तरह बच गए थे। उन्होंने उस हमले में शामिल इन दसों को पहचान लिया। एक औरत ने बताया कि उनमें से दो ने तीन दिन तक उसके साथ बलात्कार किया पिफर उसे सूखे तालाब में पड़े सरों को उठाने का काम सौंप दिया। उन सरों को उठाते समय उसे अपने पति और दो छोटे लड़कों के सर मिले जिन्हें वह उसी छोटी गाड़ी में उठाकर दूर ले गयी। वहाँ उसने उन्हें आग दी। एक कटे हुए हाथ वाले अधेड़ ने बताया कि इनमें से एक को उसने तीन लोगों की आँखों में संगीन भोंकते देखा था क्योंकि वे आँख पफाड़कर देख रहे थे। और पूरी द्घटना के चश्मदीद गवाह थे। इसे वे दूसरे विद्रोहियों के बीच बयान कर सकते थे। एक औरत ने तीन को पहचाना जिसने मुर्गी और अनाज लेकर भागती औरतों पर द्घोड़े दौड़ा कर उन्हें टापों से कुचल दिया था। सबने एक मत से पफैसला दिया। इन दसों तिलंगों को जिंदा जला दिया गया। बाद में इनकी राख अधजले शरीर, हड्डियाँ, मैडल, जूते, जेबों का बचा अधजला सामान आठ बोरों में भरकर, एक बैलगाड़ी में यहाँ भेज दिया गया। उसी राख को दस हिस्सों में बांटकर इस सीशोर सीमेट्री में दस कब्रों में दपफन कर दिया गया।

इन दस तिलंगों को स्पार्टा के तीन सौ रणबाँकुरों के समकक्ष रखा जा सकता है। ये मैकयावली और नीत्शे के स्वप्नों के उस महानायक को प्रतिबिम्बित करते हैं जो हीन... लोभी... दुर्गंधयुक्त भीड़ का विनाश करके समर्थ मनुष्यों के लिए लौकिक और सुखी जगत रचने की क्षमता रखता है। हमें याद रखना चाहिए कि यु( ही मनुष्य की प्रगति का मूल मंत्रा है। सिकन्दर, हैनिबल, तैमूर, चंगेज, नेपोलियन मनुष्यता के लिए सदैव बु(, ईसा या दूसरे संतों से अधिक उपयोगी और श्रेयस्कर सि( हुए हैं।

लिखने के बाद वामगुल ने बंद मकड़ी की शीशी में तीन उंगलियाँ एक-एक करके डालीं... नारियल की बनी शराब में मिर्च डालकर पी और उस चाँदनी रात की रोशनी में पगडंडियों पर चलता हुआ, रात के तीसरे पहर नीली खिड़की वाली औरत के द्घर पहुँचा। बची हुयी रात में उसने उसके साथ अप्राकृतिक संभोग किया... लौटते समय एक खारिशजदा कुत्ते के साथ लिपट कर रोया और सुबह तक तीन बार वमन करने के बाद सो गया।