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लाल फूल का एक जोड़ा

लाल फूल का एक जोड़ा

उमा झुनझुनवाला

सीमा सिंह मामूली लड़की नहीं थी| उसके व्यक्तित्व में एक ख़ास आकर्षण था| बातचीत का सलीका ऐसा कि सुनने वाला उसके असर से बंध जाए जबकि आवाज़ में कोई एक रेशा ऐसा भी मिश्रित रहता कि उससे बंध कर भी सुननेवाला नियंत्रण की हद में ही रहे| और आँखे तो लगता है ईश्वर ने किसी ख़ास मकसद से ही बनाई थी, गज़ब का चुम्बकीय आकर्षण था उन आँखों में| काजल लगी आँखें प्रतीत होती जैसे समंदर में तिरती कोई नौका| शहर के प्रतिष्ठित आनन्द मोहन राय कॉलेज के फाइनल इयर की विख्यात छात्रा जिससे कॉलेज का हर लड़का उसका आशिक़, मगर हिम्मत किसी में नहीं प्रेम-प्रस्ताव रखने की |

एक दिन सबको पता चला सीमा सिंह ने अपनी ही कक्षा के सुरेन्द्र सिंह से शादी कर ली| जिसने जिसने यह सुना, वह अचंभित रह गया| लड़कों के खेमे में अलग हलचल थी – यह क्या; उसे कोई और नहीं मिला; उस चमनलाल में उसे ऐसा क्या दिख गया; अरे हममें क्या कमी थी; वह फिसड्डी लड़का तो बड़ा चालाक निकला, कैसे चुपचाप उसको पटा लिया; अरे मैं तो इस लड़की को अक्लमंद समझता था, मगर ये तो अव्वल दर्जे की मुर्ख निकली; अरे खुली आँख से देखकर भी ऐसे कोई मक्खी निगलता है क्या; उसे मर्द चाहिए था या औरत; अरे नहीं उसे ज़रूर गूंगा गुलाम चाहिए होगा... वगैरह वगैरह|

उधर लडकियाँ भी ग़ज़ब तरीके से परेशान थीं – हाय राम, सीमा को क्या हुआ, उस गधे से शादी; मुझे तो उल्टी आ रही है यह सोच सोच कर कि सुरेन्द्र को भी कोई पसंद कर सकता है; अरे ये सब बातें तो बाद की है, पहले यह तो सोचो आख़िर सुरेन्द्र ने सीमा को पटाया कैसे होगा; अरी, कहीं ऐसा तो नहीं कि सीमा में ही कोई खोट हो और कोई लड़का उसे स्वीकार नहीं कर सकता इसलिए इससे शादी कर ली हो; राम जी ही जाने उसे उस लड़के में क्या दिखा, मैं तो सारी ज़िन्दगी कुंवारी रह जाऊँगी मगर उस गधे से कभी शादी न करूँ; उसने तो मुझे कभी नहीं बताया कि उस लड़के के साथ उसका कोई प्रेम-उरेम भी चल रहा है; हाय, कमीनी तो छुपी रुस्तम निकली; पागल, रुस्तम होती तो क्या उस चमगादड़ को पसंद करती; भई, मेरे तो पेट में दर्द हो रहा है, अब जब तक सारी बात पता नहीं चलती ये दर्द ठीक नहीं होगा; चलो अच्छा है किसी सड़े मुँह वाले का घर तो बसा; मैं तो यह सोच सोच कर परेशान हो रही हूँ वह लड़का जब उसे चूमेगा तो वह....छी छी... वगैरह वगैरह| एक ने लगभग उल्टी ही कर दी थी|

अध्यापकों में भी जैसे सन्नाटा पसर गया था इस ख़बर से – सीमा को ये क्या सुझा; इनलोगों में प्रेम भी है ये तो पता ही नहीं चला; प्रेम अँधा होता है, सही सुना था; जहाँ तक मैं जानता हूँ लड़के की आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं है, उसके बाप की किराने की छोटी-सी दूकान है, ये लोग तीन भाई और चार बहनें हैं, बड़ी मुश्किल से गुज़ारा होता है इनका; मगर सीमा के घरवाले तो पैसे वाले हैं न; हे भगवान्, इस लड़की की अक्ल कहाँ गई; भई, ये सब देख-सुनकर तो मुझे बड़ा डर लगा रहता है, कहीं मेरी बेटी ऐसी ग़लती करने की जिद न कर बैठे; अरे बच्चों के ज़िद करने से क्या होता है, माँ-बाप को तो अक्ल होनी चाहिए, मैं तो कतई नहीं होने दूँ अपनी बेटी की इस तरह की शादी, मज़ाक है क्या कोई; अब तो भगवान् ही जाने आख़िर माजरा क्या है; भगवान् करे सीमा की ज़िन्दगी चौपट न हो जाए अब... और फिर सबने मिलकर सीमा के बेहतर भविष्य की कामना की और अपनी अपनी कक्षा में चले गए|

दरअसल सुरेन्द्र सीमा की कक्षा का सबसे ख़ामोश लड़का था| कभी किसी प्रश्न का जवाब देता तब समझ में आता कि वह गूंगा नहीं है| किसी के साथ उसकी कोई बातचीत नहीं थी| दूसरे लड़के उसे छेड़ते भी – क्या बे साले, ये हर वक़्त छुईमुई-सा क्यों बैठा रहता है; चल बे हमारे साथ, ऐश करवाएंगे तुझे; पैसों की फ़िक्र मत कर बे; दोस्तों के दोस्त हैं हम... आदि आदि| मगर सुरेन्द्र ख़ामोशी से टाल जाता| उसे कभी किसी की बात का बुरा भी मानते नहीं देखा किसी ने| पढ़ाई में भी औसत ही था| शक्ल बनाते वक़्त शायद उपरवाला क्रोध में रहा होगा, इसलिए सांवली सूरत पे चेचक के धब्बे भी उसकी किस्मत में डाल दिया था उसने| ग़रीब परिवार के दुबले–पतले आकर्षणविहीन लड़के का व्यक्तित्व प्रभावहीन ही होता है इसलिए सुरेन्द्र की उपस्थिति भी अनुपस्थिति की तरह दर्ज होती|

तब फिर ऐसा क्या दिखा सीमा को सुरेन्द्र में कि उससे उम्रभर का नाता जोड़ लिया? यह बात किसी के भी गले के नीचे उतर नहीं रही थी| घरवालों का तो जैसे काटो तो खून नहीं वाली स्थिति हो गई थी जब सीमा ने रात के खाने की टेबल पर ये एलान किया – ऐसे कैसे शादी के लिए हाँ कर दें, पहले उससे मिलवाओ, क्या करता है, कहाँ मुलाकात हुई, कब से जान-पहचान है, पहले कभी क्यों नहीं बताया, कॉलेज जाकर यही सब गुल खिला रही हो, क्या इसीलिए तुम्हें कॉलेज भेजा... प्रश्नों की कतार अंतहीन थी| मगर सीमा के एक छोटे-से जवाब से सब सकते में आ गए – आज शाम को उसे बुलाया है| मुझे पता है वह आपलोगों को पसंद नहीं आएगा| मगर मुझे बस वही पसंद है| इसलिए आपलोगों से आग्रह है कि उसके आने पर आपलोग उसका यथोचित सम्मान करेंगे और कोई भी बेकार-सा प्रश्न करके उसे अपमानित नहीं करेंगे| मैं नहीं चाहती कि आपलोग मेरा मरा मुँह देखें...|

सब हैरानी से एक दूसरे का चेहरा ताकते रह गए – ये एकदम अचानक से...? क्या हुआ है इसे? यह ऐसी तो नहीं थी... फिर अचानक ये शादी का भूत इसपर क्यों सवार हो गया? बाप ने माँ को कोसते हुए कहा – पहले ही मना किया था कि और आगे पढ़ाने की ज़रूरत नहीं है; मगर तुम्हें ही ज़िद थी कि आजकल लड़कियों को पढ़ाना चाहिए...लो अब देख लिया न उसका फल...भुगतो अब...| बड़े भाई की आवाज़ जैसे गले में ही अटकी हुई थी, इसलिए जोर से चीख़ते हुए उसने कहा – ये सब आपलोगों के लाड-प्यार का नतीजा है; अकेली लड़की है; पराये घर चली जाएगी; करने दो उसे भी थोडा अपने मन की; हो गया न अपने मन का अब...| छोटे भाई को तो कोई बात समझ में नहीं आ रही थी, वह तो बस अपनी बहन के आत्मविश्वास से सराबोर हो रहा था| और बेचारी माँ, हतप्रभ, करे तो क्या करे| बेटी की आवाज़ ही इतनी गंभीर थी कि किसी और बातचीत की कोई गुंजाइश ही नज़र नहीं आ रही थी माँ को| सोचा शाम को पहले लड़का आए तो, फिर देखा जाएगा| वैसे भी सीमा की पसंद बेकार होने से रही|

प्रतीक्षा की घड़ी सबके लिए असहज बनी हुई थी| किसी तरह वक़्त की कछुआ-गति को बर्दाश्त करना ही था| मगर प्रतीक्षा का परिणाम ऐसा होगा किसी ने नहीं सोचा था| सीमा सुरेन्द्र के साथ जब बैठकखाने में दाखिल हुई तो सबका चौंकना वाजिब था – इस लड़के के साथ शादी...? इसकी पसंद को क्या हो गया...? पहले बड़ा भाई उठ कर बाहर चला गया, छोटा चिंतित कि उसको जीजा कैसे बुलाएगा... उसके दोस्त उसका मज़ाक उड़ायेंगे और दुखी नज़रों से दीदी को देखता हुआ अपने कमरे में चला गया, पिता समझ नहीं पाए कि क्या करे| माँ ने पिता का हाथ दबाकर संयम बरतने का संकेत दिया तो उनके हलक से किसी तरह निकला - क्या करते हो? “अभी एक स्कूल में पढ़ा रहा हूँ| रेलवे और बैंक की परीक्षाएँ दे चुका हूँ, बस इंटरव्यूज होने बाकी हैं|” जवाब सुनकर पिता ने सपाट आँखों से बेटी को एक नज़र देखा और वे भी उठ कर चले गए| नौ महीने के कोख ने एक बार फिर लात मारी और माँ प्रसव-पीड़ा से भर उठी – तुम मुझे प्रिय हो बिटिया, तुम्हारी ख़ुशी में ही मेरी आत्मा की संतुष्टि है| लेकिन शायद तुम्हें वह नहीं दिख रहा जो मेरी अंतर्दृष्टि मुझे दिखा रही है – बेटी को रसोई में बुलाकर माँ ने विचलित होते हुए कहा| मगर सीमा सौन्दर्य और अमीरी-ग़रीबी की सीमा को मानने के लिए तैयार नहीं थी, सो विवाह टल न सका|

सुरेन्द्र का कम बोलना, लोगों के उलाहने सुनकर भी मुस्कुरा कर रह जाना, अपने दुखों का इज़हार न करना, नुक्ताचीनी की महफ़िलों से दूर रहना आदि आदतों ने सीमा को उसकी तरफ आकृष्ट किया| सीमा को लगता था वाचालता और मौन एक सिक्के के बेहतर पहलू हो सकते हैं, और इसीलिए एक सार्थक विलोम को रचने की कोशिश में सीमा ने जब सुरेन्द्र के सामने प्रेम-प्रस्ताव रखा तो सुरेन्द्र ख़ुद हैरान रह गया| ऐसी खूबसूरत लड़की जिस पर कॉलेज का हर लड़का मर मिटने को तैयार बैठा था; उस कतार में वह ख़ुद को आख़िरी व्यक्ति मानने का भी दुःसाहस नहीं कर सकता था; आज उसी लड़की से प्रेम-प्रस्ताव...! वह समझ ही नहीं पाया कि कैसे प्रतिक्रिया करे, बस उसकी आँखों से छलछल आँसू बरसने लगे सावन भादो की बारिश-सा... नम-सा... उपजाऊ-सा..., पिघलते सूरज-सा...| और तब सीमा को महसूस हुआ सुरेन्द्र जैसा सच्चा प्रेम उसे कोई दे ही नहीं सकता| जिस प्रेम को उसने नॉवेलों और कहानियों में जिया है वह यही है और फिर उसके रोमांच को मयूरी पंख लग गए|

उसके बाद दोनों कई बार कॉलेज से बाहर मिलने लगे| सिलसिलेवार मुलाकातों ने सीमा के हृदय में सुरेन्द्र के प्रति आस्था को मजबूती दी| संयुक्त परिवार वाले सुरेन्द्र के बड़े भाई की शादी हो चुकी थी जिससे दो बच्चे थे| एक होटल में बैरे की नौकरी थी, तनख्वाह ऐसी नहीं कि बीवी बच्चों को अच्छी ज़िन्दगी दे सके| छोटा भाई बारहवीं में था| पढ़ाई के अलावा मुहल्ले के स्पोर्ट्स क्लब के लिए क्रिकेट खेलता था| खिलाड़ी अच्छा था, मगर किस्मत नहीं थी कि रणजीत ट्राफी खेल सके| दो बहनों की शादी हो चुकी थी जिसमें से एक बहन ससुराल छोड़ कर अपने तीन बच्चों के साथ माएके में आकर बैठ गई थी| दो और बहनें आठवीं और दसवीं में पढ़ रही थी| घर में कमाने वाले दो व्यक्ति और खाने वाले पंद्रह लोग| दस बाई पंद्रह का एक ही कमरा जिसमें सब रहते थे| रात को सोने के लिए मकान की छत पर सबके बिछौने होते थे| बारिश के दिनों में सीले कपड़ों-सा सब एक दूसरे में लिपटे सुबह का इंतज़ार करते नींद को दावत खिलाते| सुरेन्द्र की साफ़गोई ने सीमा की माँ की अंतर्दृष्टि की आवाज़ को कहीं दबा दिया था|

खिड़की से देखने पर आसमान भी खिड़की भर ही नज़र आता है – इस बात का अर्थ सुरेन्द्र के उस छोटे से घर में रहने के बाद सीमा को आहिस्ता आहिस्ता समझ में आने लगा था| सुन्दर लड़की अगर पढ़ी-लिखी हो, तर्क में भी पारंगत हो और साथ ही मायका पक्ष आर्थिक दृष्टि से मजबूत हो तो ससुराल में ये गुण उसकी विशिष्टता नहीं अपितु कलह का कारण बन जाते हैं| अक्सर सास का गुस्सा फूटता – “अरे, पैसे वाले बाप की बेटी है तो क्या हमारी छाती पर बैठ कर हमारी इज्ज़त पर हथौड़े बरसाएगी...; हाँ भई, एक तुम ही तो पढ़-लिखी हो, हम तो गँवार हैं...; ये लो भाई, मेमसाब को खाना बनाना ही नहीं आता, राजकुमारी जो है... हमारी तो किस्मत ही फूटी थी... सारी ज़िन्दगी बच्चों को बना बना कर खिलाया अब बहू को भी बनाकर खिलाओ...हम तो बंधुआ मजदूर हैं... पैसे की धौंस कहीं और जाकर दिखाना, कहे देते हैं... ये हमारा घर है, हमारे हिसाब से ही रहना पड़ेगा, कह देते हैं...”

अभी सीमा सास के उलाहनों का कारण समझ ही नहीं पाती कि जेठ अपनी पत्नी को सुनाकर कहता – “अरे भाई, काश सुरेन्द्र जैसी किस्मत हमारी भी होती...” और जेठानी को जाने क्यों अपने पति की आँखों में लपलपाती वासना नज़र आती और किसी आशंका से भयभीत होकर वह भी सीमा के कामों में मीनमेख निकालकर उसको कोसना शुरू कर देती – “अमीरों के यहाँ घर-परिवार के कोई तौर-तरीके नहीं होते क्या ; साड़ी का आँचल ठीक से लिया करो देवरानी, देह दिखाने का इतना ही शौक है तो घर के बाहर ये शौक पूरा किया करो, ये शरीफों का घर है.. देवर जी मुग्ध रहते हैं तुमपर क्या उतना ही काफी नहीं है...

अपने तीन बच्चों के साथ ससुराल छोड़कर मायके पर बोझ बनी ननद के तेवर भी नुकीली कील की तरह तीखे थे – “अम्मा, आजतक हमें ये घर अपना ही लगता था, मगर अब नहीं रहा... तुम्हारी छोटी बहू बार बार हमें उस नरक में जाने को कहती रहती है, आजतक बड़ी भाभी ने भी कुछ नहीं कहा, मगर शायद इसे लगता है हम यहाँ बोझ हैं...; तो सास कहती अरी, उसकी हिम्मत कैसे हुई तुझे यहाँ से जाने को कहने की, इसके बाप के घर का खाती है क्या जो इसके पेट में दर्द होने लगा......”

कैक्टस-सा उलाहने दिल को तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ते| सुरेन्द्र की आँखों में जो तरलता उसे प्रेम-प्रस्ताव वाले दिन दिखाई दी थी वह मिराज साबित हो रही थी, और इसलिए हरेपन की रंगीनियाँ ग़ायब थीं शादी के इस पार - “सुरेन्द्र, इस तरह कैसे रहूँगी मैं इस घर में... तुम्हारे घरवाले जाने क्यों मुझे हर बात पर ग़लत ठहराते रहते हैं... तुम कुछ कहते क्यों नहीं उनसे...?”

जवाब होता – “तुमने मुझे कभी किसी को जवाब देते सुना है क्या सीमा... मैं तो ऐसा ही हूँ, तुम जानती हो... जब मैंने कभी बाहर वाले को जवाब नहीं दिया तो ये मेरे घरवाले हैं... मुझे पैदा किया है, बड़ी कठिनाइयों से पाल-पोस कर बड़ा किया है... इनके दुःख ऐसे ही कम नहीं है... मगर तुम नहीं समझ पाओगी ये सब...”

“समझ नहीं पाऊँगी...” से तुम्हारा क्या मतलब है सुरेन्द्र...? क्या मैं दुःख और ईर्ष्या का फर्क नहीं समझती..?

- “ईर्ष्या”..?

- “तुमने कहा मैं कुछ नहीं समझती... काश तुम समझ पाते तुम्हारे घरवालों का बर्ताव”... बात बीच में ही अधूरी छोड़कर सीमा मुँह घुमाकर सो गई|

मई की गर्मी की तपिश से सिर्फ़ छत की ज़मीन ही नहीं जल रही थी... दायरे भी सुलग रहे थे जिसके दरमियान सीमा के अरमान ख़ाक हो रहे थे – मुझे यह बात क्यों नहीं समझ में आई कि जो लड़का कॉलेज में ख़ुद के साथ होने वाली किसी भी ग़लत हरकत का विरोध नहीं करता था, दरअसल वह उसकी भलमनसाहत नहीं थी, उसका डरपोक होना था, भीरु होना था| सीमा ने कई अलग अलग मौकों पर सुरेन्द्र को सही और ग़लत का फ़र्क समझाने का प्रयास किया था मगर हर बार खीझकर अपमान के आँसू पीकर रह जाती – “उससे कहाँ चूक हुई....?” एक बड़ा-सा उत्तररहित प्रश्न दिनभर उसका पीछा करता| वह अपने मायके जाने से डरने लगी कि माँ की अंतर्दृष्टि सब भाँप लेगी; पिता की आँखों से उसके अंतस का रोदन नहीं छुपेगा और दोनों भाइयों को अपनी कलाई पर बंधे धागों में बहन की आत्मा की छटपटाहट महसूस होने लगेगी..|

और फिर एक दिन एक कागज़ के टूकडे पर उस उत्तररहित बड़े-से प्रश्न को लिख सीमा हमेशा के लिए चली गई| जवाब में हर किसी ने अपने-अपने तर्कों का पहाड़ खड़ा किया – ससुराल का एक पहाड़; मायके का एक पहाड़, कॉलेज के अध्यापकों का एक पहाड़; छात्र-छात्राओं का एक पहाड़; पास-पड़ोस वालों का एक पहाड़...| लोगो का कहना है, सीमा को जवाब न दे पाने के अपराधबोध से ग्रसित सुरेन्द्र अब इन पहाड़ों पर चढ़कर ज़ोर ज़ोर से चिल्लाकर सीमा से माफ़ी माँगता फिरता है|

प्रेम के दिनों में सीमा ने एकबार सुरेन्द्र का हाथ अपने हाथों में लेकर कहा था –

जानते हो सुरेन्द्र

जब किसी दिन प्रेम की बारिश में

आकंठ डूबेंगे हम साथ साथ

तो एक स्मारक उभर आएगा यहाँ

रंग बिरंगे सपनों की

क्यारियाँ सजने लगेगी

जल-पुष्पों की ख़ुशबू से खींचे आएँगे लोग

लगेगा मन्नतों का मेला वहाँ फिर

सच्चे प्रेम के स्पर्श से

खिल जाएगा लाल फूल का एक जोड़ा

और बंधनों से जकड़े प्रेमियों की

मुक्ति की अभिलाषा होगी पूर्ण

सुना है आँसूओं के रेत में बनी समाधि पर एक जोड़ा लाल फूल के खिलने की बाट जोहता सुरेन्द्र सीमा से मिलने की प्रतीक्षा में है|

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