गूगल बॉय - 4 Madhukant द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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गूगल बॉय - 4

गूगल बॉय

(रक्तदान जागृति का किशोर उपन्यास)

मधुकांत

खण्ड - 4

बाहर से आकर गूगल ने जैसे ही बैठक में अपने औज़ारों का थैला रखा तो पापा-माँ को आहट हो गयी । माँ उठकर उसके लिये पानी लेने चली गयी।

‘पापा, सारा दिन कैसी रही आपकी तबियत ..?’ कमरे में प्रवेश करते हुए गूगल ने पूछा।

‘बेटे, तबियत काफ़ी ठीक रही....दिन भर बुख़ार तो नहीं चढ़ा, परन्तु कमजोरी अधिक आ गयी है... कुछ भी खाने का मन नहीं होता.... सब कुछ कड़वा-सा लगता है’, धीरे-धीरे करके गोपाल उठ बैठा। गूगल के आने से उसमें कुछ स्फूर्ति आ गयी थी।

माँ ने गूगल को पानी का गिलास दिया तो उसने अधिक प्यास होने के कारण तेज़ी से गटक लिया। एक विचार उसके मन में उत्पन्न हुआ - दुनिया में माँ ही ऐसा प्राणी है जो बिना बताये बालक की इच्छा समझ लेती है। उसका मन हुआ कि एक बार माँ के गले से लग जाये। तभी उसे हाथ में थामे लिफ़ाफ़े का ध्यान आ गया।

‘लो माँ, मीठे अँगूर हैं पापा के लिये। धोकर ला दो।’ गूगल ने लिफ़ाफ़ा माँ को पकड़ाते हुए कहा।

‘बेटे गूगल, कैसा रहा तेरा आज का दिन...? आज तेरा पहला दिन था, जब तूने स्वयं अपने निर्णय से दुकान को सँभाला है...।’

अँगूरों को धोते हुए भी माँ के कान उनकी बातें सुनने में लगे थे।

‘पापा, इसमें मेरा स्वयं का निर्णय कहाँ था। आपका मार्गदर्शन, अनुभव मेरे साथ था। मुझे आज काम करने में कोई कठिनाई नहीं आयी। बीच में मैं आपको देखने आना चाहता था, परन्तु समय ही नहीं निकाल पाया.... आज दिनभर में पाँच सौ की मज़दूरी बनी है। लो, रख लो।’

‘पाँच सौ रुपये! एक दिन के पाँच सौ....गूगल बेटे, पाँच सौ तो मुझे भी कभी नहीं मिले’, गोपाल आश्चर्य से भर गया। उसने कहा - ‘तुने पहले ही दिन पाँच सौ कमा लिए....कमाल कर दिया बेटे, कमाल...’।

गोपाल ने एक बार रुपयों के बंडल को अपने दोनों हाथों में लिया, माथे से लगाया और गूगल को लौटाते हुए कहा - ‘ले बेटे, तेरे जीवन की पहली कमाई है, इसे अपने पास रख ले और अपनी इच्छा से खर्च कर ले।’

‘नहीं पापा, मेरी पहली कमाई पर आपका अधिकार है, इन्हें आप ही रखिए’, गूगल पुनः पापा को लौटाने लगा।

‘ठहर गूगल, देख....तुझे अच्छी और सच्ची बात बताता हूँ। बेटे की पहली कमाई पर उसकी माँ का अधिकार होता है। तू अपनी पहली कमाई अपनी माँ के आँचल में डाल दे...।’

पापा का आदेश सुनकर गूगल स्टूल से उठकर माँ के सामने आ गया। माँ पापा-पुत्र का संवाद सुन रही थी और समझ भी रही थी। गूगल ने नोटों का बंडल माँ की ओर बढ़ाया। माँ ने दोनों हाथों में चुनरी का आँचल फैलाकर ग्रहण किया। पुत्र की पहली कमाई को माथे पर लगाया और लड्डू गोपाल से गूगल के लिये आशीर्वाद माँगा। सारी क्रियाएँ तीनों प्राणियों के अन्तर्मन में चल रही थीं। माँ की आँखें जिनमें ममता के कुछ शब्द बन रहे थे और टपक रहे थे।

इन भावुक क्षणों को तोड़ने का उपक्रम गोपाल ने किया - ‘बेटे, मुझे यह तो बता, तूने आज इतनी कमाई कैसे की....?’

‘पापा, जैसे ही मैंने दुकान खोली, कान्हा जी के सम्मुख ज्योत जलाकर पूजा पाठ किया तो दुकान पर ग्राहक आ गया। कपड़े धोने की दो थापी और दो पटरी एक सौ बीस रुपये में ले गया। फिर मैं गया मास्टर रामफल के घर। वह कई दिनों से किवाड़ की चूल ठीक करने को कह रहा था। उसके दरवाज़े ठीक किये, एक अलमारी की चौखट ठीक की। बड़े दरवाज़े की साँकल ठीक की, तभी वहाँ माँगे सरपंच का लड़का बुलाने आ गया। उसके घर में एक पलंग, एक तख़्त और तीन पीढ़ों की मरम्मत की। वहाँ से काम करके आ रहा था कि रास्ते में सुमेर नम्बरदार ने पकड़ लिया.... उनकी माँ का चरखा, पोते का पालना और गरड़ा ठीक किया - उससे सौ रुपये लेने हैं। कहने लगा, मैं कल दुकान पर तेरे पापा को दे जाऊँगा...।’

भाव विह्वल हुई माँ के दिल में शब्द उत्पन्न हुए - ‘बेटे गूगल, तेरी पहली कमाई है, इसलिये एक सौ एक रुपये का प्रसाद बाँके बिहारी के मन्दिर में चढ़ाऊँगी, बाक़ी पैसा तू अपने लिये खर्च कर लेना...।’

‘माँ, इनमें से सौ रुपये के ऑयल कलर मैं अपने लिये मँगाना चाहता हूँ, क्योंकि मैंने श्री कृष्ण भगवान के विराट रूप की लकड़ी की मूर्ति बनाई है। उसको रंगने का काम करना है...।’ गूगल ने माँ के सामने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया।

‘बेटे, मैं कल ही ड्राइंग मास्टर सहगल से तेरे लिये रंग मँगवा दूँगा। वह प्रतिदिन शहर के स्कूल में पढ़ाने जाता है।’

‘ठीक है पापा..। माँ, आज तो ज़बरदस्त भूख लगी है। चलो, खाना बना दो।’ कहते हुए गूगल उठ गया।

‘चलो बेटे, मैंने सब तैयारी कर रखी है। तू हाथ-मुँह धोकर आ, मैं खाना परोसती हूँ।’

‘नारायणी, एक काम करना, अपने बेटे के लिये आज हलवा अवश्य बनाना। घर में बेटे की पहली आमदनी आयी है...।’ तनिक ऊँची आवाज़ में गोपाल ने कहा।

‘मुझे सब मालूम है। इसलिये मैंने पहले ही बना रखा है। गूगल को खाना परोस दूँ, फिर मैं आपका भी मुँह मीठा करवाती हूँ’, कहते-कहते नारायणी ने झटपट खाना परोस दिया।

‘माँ, आज तो बहुत स्वादिष्ट भोजन बनाया है।’

‘हाँ बेटे, परिश्रम का फल बहुत मीठा होता है। इसलिये आज तुझे भोजन स्वादिष्ट लग रहा है।।’

गोपाल भी वहीं किचन में आकर स्टूल पर बैठ गया।

‘अरे, आप भी यहीं पर आ गये?’ नारायणी ने आश्चर्य से पूछा - ‘सुबह से तो इतनी कमजोरी थी!’

‘नारायणी, आज मेरी सब कमजोरी गूगल ने दूर कर दी। जब बेटा जवान होकर अपने पाँवों पर खड़ा हो जाता है तो उसका कमजोर बाप भी फिर से जवान होने लगता है।’

‘लो, आप भी मुँह मीठा कर लो’, कहते हुए नारायणी ने हलवे की प्लेट उनके हाथ में थमा दी।

‘बेटे, कल तूने रक्तदान किया और आज ही भगवान कृष्ण ने तुझे सेवा का फल प्रदान कर दिया।’

‘सचमुच माँ, तुमने ठीक कहा।’ गूगल ने माँ से पूछा - ‘माँ, क्या तुम दानवीर भामाशाह के विषय में जानती हो?’

‘अधिक तो नहीं, बस इतना जानती हूँ कि मेवाड़ की रक्षा के लिये उन्होंने हताश व परेशान महाराणा प्रताप को अपना सारा ख़ज़ाना भेंट कर दिया था।’

‘हाँ माँ, वही दानवीर भामाशाह। आज मैं उन्हीं की जीवनी पुस्तक में पढ़ कर आपको सुनाऊँगा’, अपने रूमाल से हाथ साफ़ करते हुए गूगल ने कहा।

‘तुम जाकर अपने पापा के पास बैठो, मैं तुम दोनों के लिये गर्म-गर्म दूध लेकर आती हूँ और वहीं बैठकर तुम्हारी कहानी भी सुनूँगी।’

पापा के पास बैठने से पूर्व गूगल ने उनका बिस्तर व्यवस्थित कर दिया। माँ के आने से पहले ही गूगल अपनी प्रिय पुस्तक ‘दानवीरो की कहानियाँ’ उठा लाया।

‘आप लोगों का दूध अधिक गर्म हो गया है। कुछ समय बाद ठीक हो जायेगा। तब तक तुम मुझे दानवीर भामाशाह की कहानी सुना डालो,’ कहते हुए माँ ने दूध के दोनों गिलास स्लैब पर रख दिये।

गूगल ने पुस्तक को पढ़ना आरम्भ किया - ‘दानवीर भामाशाह का जन्म राजस्थान की वीरभूमि मेवाड़ में 19 अप्रैल 1547 को जैन धर्म में हुआ। आप बाल्यकाल से ही मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप के मित्र, सहयोगी और विश्वसनीय सलाहकार थे। मातृभूमि के प्रति आपका अगाध प्रेम था।

अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिये हल्दी घाटी के युद्ध में पराजित अपने मित्र महाराणा प्रताप के लिये भामाशाह ने अपना सारा धन दे दिया ताकि वे नयी ऊर्जा के साथ युद्ध कर सकें। इतना धन मिलने के बाद महाराणा प्रताप ने पुनः अपनी सैनिक शक्ति को संगठित किया और मुग़लों को पराजित करके फिर से मेवाड़ का राज्य हासिल किया।

भामाशाह का निष्ठापूर्ण सहयोग महाराणा प्रताप के जीवन में महत्त्वपूर्ण साबित हुआ। मेवाड़ के इस मंत्री ने अपनी कुशलता से काफ़ी धन-संपदा एकत्रित की थी। अपनी मातृभूमि तथा मित्र को संकट में पाकर वे सारे धन के साथ उनकी सेवा में उपस्थित हुए और उस धन से मेवाड़ की रक्षा करने की याचना की। अनुमान स्वरूप माना जाता है कि यह सम्पत्ति इतनी अधिक थी कि उससे पच्चीस हज़ार सैनिकों का बारह वर्षों तक का खर्च उठाया जा सकता था।

कुछ याद आने पर माँ बीच में बोल पड़ी - ‘बेटे गूगल, मुझे भी याद आ रहा है कि जब मैं स्कूल में पढ़ती थी तो एक पाठ हमारी हिन्दी की पुस्तक में आया था कि जब महाराणा प्रताप मुस्लिम सेना से छुपते-छुपाते जंगल में भटक रहे थे, तब भूख से व्याकुल बच्चों के लिये रानी ने घास की रोटियाँ बनायी और जैसे ही माँ ने बच्चों की थाली में रोटियाँ रखीं तो एक जंगली बिलाव उन रोटियों को झपट कर भाग गया। कितनी भारी विपदा आ गयी थी मेवाड़ के राजा पर...हे भगवान!’ माँ का कोमल हृदय द्रवित हो गया।

‘हाँ माँ, उन्हीं महाराणा प्रताप की सहायता के लिये दानवीर भामाशाह आगे आया। 52 वर्ष तक भामाशाह अपनी मातृभूमि की सेवा करते रहे। उदयपुर में राजाओं की समाधि स्थल के मध्य दानवीर भामाशाह की समाधि बनी हुई है। जैन महाविभूति भामाशाह के सम्मान में वर्ष 2000 में भारत सरकार ने 3 रुपये का डाक टिकट भी प्रसारित किया था।

‘बेटे गूगल, बहुत कठिन होता है अपने सम्पूर्ण जीवन की कमाई को देश-सेवा में लगा देना। आज हमारे वीर सैनिक भी सरदी, गरमी, बरसात और बर्फीले पहाड़ों पर देश की सीमाओं की चौकसी करते हुए डटे रहते हैं और अपने प्राणों की परवाह न करके मातृभूमि की रक्षा का संकल्प धारण करते हैं। ऐसा गौरवमय जीवन भी बड़े सौभाग्य से मिलता है।’

माँ ने उठकर पिता-पुत्र को दूध के गिलास थमा दिये। दोनों भामाशाह के त्याग व दानवीरता के विषय में सोचते हुए दूध पीने लगे। तभी माँ को कुछ ध्यान आया और उसने गोपाल को टोक दिया - ‘इस बार आपका गोवर्धन परिक्रमा के लिये तो जाना नहीं हो सकेगा?’

‘जाना तो चाहता हूँ। कल तक शरीर में कुछ ताक़त आ जाये तो....दस वर्ष से लगातार प्रत्येक मास परिक्रमा कर रहा हूँ....आगे बाँके बिहारी की इच्छा...।’ गोपाल को पश्चाताप हो रहा था।

‘पापा, आपके बदले मैं परिक्रमा कर आऊँ तो...?’ गूगल ने प्रस्ताव रखा।

‘यह तो बहुत अच्छी बात है...।’

‘मेरी तीन दिन की छुट्टियाँ हैं। पिछले वर्ष मैं आपके साथ गया था। इस बार रोहतास चाचा भी मेरे साथ होंगे, इसलिये कोई परेशानी नहीं आयेगी...।’

‘हाँ, यह ठीक है। इस बार गूगल ही परिक्रमा कर आयेगा’, माँ ने भी उनकी हाँ में हाँ मिला दी और अपनी किचन का शेष काम समेटने के लिये चली गयी।

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