स्थानांतरण Deepak sharma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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स्थानांतरण

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“बधाई हो,” प्रधानाचार्य ने मेरे तबादले के सरकारी निर्देश मेरे हाथ से लिए और तीन बार पढ़कर मेज पर धर दिए, “तुम्हारी दौड़-धूप आखिर सफल हो ही गई| अब तो तुम्हें पूरी एक किलो केसर की बर्फी खिलानी ही पड़ेगी|”

“आज तो आप जो भी माँगेंगी मैं देने को तैयार हूँ,” मैं खुशी से फूली न समा रही थी, “पिछले छः महीने मेरे लिए किसी भी भयानक दु:स्वप्न से कम नहीं रहे हैं-साठ मील दूर इस कॉलेज में रोज पढ़ाने के लिए आने-जाने से मेरी पूरी गृहस्थी चौपट हो रही थी| मेरे बेटे की सेहत तो बिगड़ ही रही थी, मेरे पति भी बात-बात पर झल्लाने लगे थे.....”

छः महीने पहले जब मेरी पहली सरकारी नियुक्ति अपने शहर के सरकारी कॉलेज में होकर इस अजनबी शहर के कॉलेज में हुई थी तो हमें लगा था मानो हम पर कोई पहाड़ टूट गिरा हो| तीन घंटे पढ़ाने तथा दो बस यात्राएँ तय करने के बाद जब मैं घर पहुँचती तो गहरी थकान तथा तनाव से घिरे अपने पति के म्लान चेहरे को देखकर और भी दुखी हो उठती थी| मेरे पति अपने शहर के स्थानीय कॉलेज में रसायन-शास्त्र के प्रवक्ता थे तथा शाम के पाँच बजे तक लड़कों को प्रैक्टिकल करवाने के साथ-साथ उन्हें दो मील दूर घर पर नौकरानी द्वारा पल रहे डेढ़ साल के बच्चे पर भी नजर रखनी पड़ती थी| इन पिछले दो महीनों में मेरे तबादले के लिए मेरे पति ने शिक्षा निदेशक के दफ्तर के एक हजार चक्कर लगाए थे| तब कहीं जाकर यह कीमती पत्र हाथ लगा था|

“जो दुःख तुम्हारे परिवार ने भोगा है, वह मैं भली भांति समझ सकती हूँ,” मेरी प्रधानाचार्या ने कहा, “मेरी अपनी बहू दूसरे शहर में नौकरी करती है और मैं जानती हूँ-हम सबको कितना कष्ट होता है| दोनों पोते बहू के पास वहाँ रहते हैं और बेटा मेरे पास यहाँ| बहू की तनख्वाह की अन्तिम कौड़ी तक वहीं खर्च हो जाती है उलटे हर महीने एक मोटी रकम हम उसे भेजते हैं-यदि उसकी नौकरी सरकारी न रही होती तो हम उसे वहाँ कतई न जाने देते.....”

“उनका तबादला आप यहाँ करवा दीजिए न!” मैंने कहा और फिर अपनी जुबान काट ली| उनकी बहू का विषय समाज-शास्त्र था और इस कॉलेज में समाज-शास्त्र की एक ही जगह थी, जिस पर पिछले बाईस वर्षों से शालिनी दुबे काम कर रही थीं| शालिनी दुबे इस कॉलेज की उपप्रधानाचार्या भी थीं| इसी शहर में जन्मी, पली तथा बड़ी हुई शालिनी दुबे ने पिताविहीन अपने छः भाई-बहनों की देख-रेख, शिक्षा-दीक्षा तथा शादियाँ भी इसी शहर से की थीं| उनकी सबसे छोटी बहन की शादी तो पिछले वर्ष ही कैनेडा में बसे एक भारतीय डॉक्टर से हुई थी| बाकी बहनें भी इस शहर से दूर ही ब्याही गई थीं| दोनों भाइयों ने भी अपने ठिकाने इस पिछड़े तथा गँवई शहर से दूर ही ढूँढे थे| इसीलिए गठिया की मरीज अपनी बूढ़ी माँ तथा पैतृक सम्पत्ति के नाम पर एक पुराने मकान की देख-भाल का पूरा जिम्मा अभी भी शालिनी दुबे के कंधों पर ही था| पिछले पन्द्रह वर्षों से बड़े मामूली किराए पर जबरदस्ती रह रहे अपने किराएदारों को मकान के निचले हिस्से से बाहर निकालने में शालिनी दुबे अभी पिछले महीने ही सफल हो पाई थीं| आजकल वह अपने मकान का वही हिस्सा मरम्मत करवा रही थीं ताकि वह अब ऊँचे किराए पर चढ़ाया जा सके|

“दुबे के तबादले के लिए मैं जमीन तैयार कर रही हूँ,” प्रधानाचार्या ने अपनी मेज की दराज से कुछ कागज बाहर निकालकर मुझे थमाए और कहा, “सोलह लोगों ने यहाँ दस्तखत कर दिए हैं| यदि तुम भी कर दोगी तो तैंतीस प्राध्यापिकाओं के इस कॉलेज से मुझे दुबे के विरुद्ध साफ बहुमत प्राप्त हो जाएगा.....”|

शिक्षा विभाग के शिक्षा सचिव, शिक्षा मन्त्री तथा शिक्षा निदेशक के नाम टाइप किए गए थे पत्र इस कॉलेज की कुछ प्रवक्ताओं की ओर से लिखे गए थे, जिसमें शालिनी दुबे के विरुद्ध कई आरोप लगाकर यह प्रार्थना की गई थी कि शहर तथा इस कॉलेज के मानसिक स्वास्थ्य के लिए शालिनी दुबे को यहाँ से तुरन्त बदल दिया जाना चाहिए.....|

“ये सभी आरोप अनुचित हैं, कुटिल हैं, झूठे हैं,” मैं तड़प उठी|

“देखो,अचला, यहाँ दस्तखत कर दोगी तो तुम्हें कार्य-मुक्ति का पत्र इसी पल मिल जाएगा और तुम अपने तबादले की खुशी में उधर जाकर अपने पति तथा उनके मित्रों को शाम की चाय के साथ पकौड़ी भी बनाकर खिला सकोगी.....” प्रधानाचार्या ने मुझे हँसाने की असफल चेष्टा की|

“मेरी कार्य-मुक्ति का पत्र आप कैसे रोक सकती हैं जबकि मेरे पास शिक्षा निदेशक के दस्तखत समेत अपने तबादले के सरकारी निर्देश मौजूद हैं,” मैंने आपत्ति प्रकट करते हुए कहा|

“शिक्षा निदेशक अपने इस निर्देश को निरस्त कर सकते हैं- मैं उन्हें पत्र लिख सकती हूँ कि अचला गौड़ का तबादला आठ महीने तक रोक दिया जाए क्योंकि पढ़ाई में इस वर्ष की अवधि पूरी होने में अभी पूरे आठ महीने बाकी हैं और दर्शनशास्त्र जैसे कठिन विषय में कक्षाएँ जारी रखना अत्यधिक आवश्यक है और.....”

“आप ऐसा नहीं कर सकतीं, आप ऐसा नहीं करेंगी,” मैंने प्रार्थना की, “आप जानती हैं, मेरे बेटे को मेरी कितनी जरूरत है, मेरे पति कितने व्यस्त रहते हैं.....”

“इसीलिए तो कहती हूँ यहाँ दस्तखत कर दो| शालिनी दुबे तुम्हारी कोई नहीं| उससे तुमने कोई कर्ज नहीं ले रखा| तुम्हारे भूत, वर्तमान तथा भविष्य से उसका कोई सरोकार नहीं| तुम्हें यहाँ दस्तखत जरूर कर देने चाहिए.....”

“शालिनी जी इस शहर का अभिन्न अंग बन चुकी हैं-उन्हें यहाँ से हटाने का प्रयास करना सरासर अन्याय होगा, धोखा होगा|” मैं बड़बड़ाने लगी|

“सोलह औरतें यहाँ दस्तखत कर चुकी हैं| तुम्हारे दस्तखत न करने से शालिनी दुबे का तबादला रुकने वाला नहीं| हाँ, तुम्हारा तबादला अवश्य रुक जाएगा,” प्रधानाचार्या की ठनी मुद्रा, प्रचंड भाव, गहरा रही माथे की त्योरियाँ, फूल उठे नथुने तथा तिरछे होंठों की हुंकार से मेरा सिर चकरा उठा| गला सूख गया और शरीर काँपने लगा|

“मैं यहाँ दस्तखत नहीं कर सकती,” मेरा स्वर दृढ़ हो चला तथा घृणा व वितृष्णा के कई-कई अंगारे मेरे शरीर में चिलक उठे|

“क्या यही तुम्हारा अन्तिम निर्णय है?” प्रधानाचार्या ने मेरे तबादले के निर्देश तथा शालिनी दुबे के विरुद्ध लिखवाए गए पत्र समेटते हुए मुझसे पूछा|

“जी हाँ, मैं शालिनी जी को हानि पहुँचाने के लिए स्वयं को कभी भी तैयार नहीं कर सकती,” मैंने कुर्सी से उठते हुए कहा|

“अपने पति से भी पूछकर देख लो, शायद वे तुम्हें दस्तखत करने की ही सलाह दे दें,” प्रधानाचार्या ने अपनी जिद नहीं छोड़ी|

“मैं अपने पति को आपसे बेहतर जानती हूँ| मुझे विश्वास है कि वे मेरे निर्णय का अवश्य ही आदर करेंगे,” मैंने नमस्कार की मुद्रा में हाथ जोड़े|

“नहीं,” प्रधानाचार्या हँसने लगीं, “मेरे गहरे तथा तीखे अनुभव मुझे बताते हैं कि तुम्हारे पति तुम्हारे निर्णय का नहीं, मेरी जिद का आदर करेंगे| परिवार की प्रतिष्ठा, समृद्धि तथा सज्जा की बढ़ोतरी के लिए पत्नी को मित्र बनाने, मैत्रियाँ निभाने तथा परोपकार करने की पूरी स्वतन्त्रता उपलब्ध हो सकती है, परन्तु निजी तुष्टि के लिए, चाहे वह भौतिक हो अथवा आध्यात्मिक, बौद्धिक हो अथवा शारीरिक, पत्नी को अपनी छोटी उँगली तक हिलाने की अनुमति नहीं मिल पाती है| विवाहित लोक के नियम निराले होते हैं, अचला! परिवार का हित, सुविधा अथवा सलामती त्याग कर जिस किसी पल भी पत्नी दूसरों की भलाई चाहने लगती है, उसी पल इस लोक का प्रत्येक स्नेह-स्त्रोत तथा वैभव उससे झटक लिया जाता है और वह एकदम अकेली तथा निरीह पड़ जाती है.....”

“आज से बीस वर्ष पहले ऐसा होता होगा, श्रीमती द्विवेदी,” मैं मुस्कुराई-“आजकल पति पूरे मनोबल के साथ अपनी पत्नियों का साथ निभाते हैं तथा सच्चाई और न्याय के प्रति उनके समर्पण की दाद ही नहीं देते, अपितु उसके लिए हर असुविधा भी हँसते हुए स्वीकार कर लेते हैं|”

“तुम अभी भी स्वप्निल अवस्था में घूम रही हो,” प्रधानाचार्या ने सभी कागज अपनी मेज की दराज में फेंक दिए, “पर मैं जानती हूँ-तुम्हारी नींद अब टूटने ही वाली है|”

“नमस्कार,” मैंने सपाट स्वर में कहा और प्रधानाचार्या के कमरे से बाहर निकल आई|

अगले दिन जैसे ही मैंने कॉलेज में कदम रखा, कॉलेज का चपरासी प्रधानाचार्या के कमरे में लिवा ले गया|

“तुम कैसी हो, अचला?” प्रधानाचार्या की आँखें कुतूहल से भरपूर थीं, “तुम्हारे पति ने तुम्हें क्या निर्देश दिया है?”

“मैं अपने पति का निर्देश नहीं मान रही हूँ, जब तक आप मुझे कार्य-मुक्ति का पत्र नहीं देंगी, अपने बेटे के साथ इसी शहर में रहूँगी| आज ही मैं अपने लिए कोई सुरक्षित मकान खोज लूँगी और.....”

“किसी भी पत्नी को अपने पति के घर से अधिक सुरक्षित मकान खोजने पर भी नहीं मिल सकता, अचला,” प्रधानाचार्या ने अपने स्वर में सहानुभूति घोलते हुए कहा|

“यह मेरा सौभाग्य है कि मैं आपके सभी सुझाव मानने पर बाध्य नहीं की जा सकती| नमस्कार|” मैंने प्रधानाचार्या की दिशा में बेरुखी से हाथ जोड़े और अपनी कक्षा की ओर दृढ़ कदमों से बढ़ ली|

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