राधे चाची
'' ओ गीता ! चाहा बना दे ! '', राधे चाची ने अपनी बहू से कहा |
'' होय '', गीता उत्तर दिया | फुसेरी रंगत, अंडाकार चेहरे वाली गीता के माथे से ईंगुर की लालिमा बहती दिखी, लाल टिकुली में उसका अत्यधिक गोरा रंग और भी चमकता दिखा |
लता की नजरें गीता पर टिक गयीं, साथ के बाकी लोग राधे चाची से गप्पों में लग गये | एक चौड़े नग्न तखत पर राधे चाची फूलदार धोती पहने ठीक गंवई अंदाज के ब्लाउज में थीं |
'' छ्यां !! '' लौह कढ़ाई में सरसों का तेल ; तेल में हरी लाई के पत्तों का साग , और लाल मिर्च की मिली-जुली गंध की छौंक ने बरांडे को सुवासित कर दिया | अहा! कितने साल बीत गये हैं इस पहाड़ी लाई के स्वाद को चखे हुए ! हरे चौड़े पत्ते ; जिनपर काले बैंगनी रेखाओं का महीन जालदार डिजाइन होता है | पहाड़ की आबोहवा में इनके पत्तों की सब्जी बहुत ही मीठी लगती है |
चाची के बरांडे में ही स्थित रसोई में मिट्टी के जुड़वाँ चूल्हों में से एक में गीता ने चाय का डेग चढ़ा दिया |
स्टील के गिलासों में चाय आ गयी | चाय का गिलास लेकर लता सामने बाथरूम के छत के लैंटर पर चढ़ गयी ;जिसकी छत इस भूमि के समानांतर थी |
लता ने देखा ; नीचे के खेत से देशी नाशपाती की एक बड़ी शाखा ऊपर बाथरूम की छत को छूती हुई ऊपर निकल आई थी, लता ने गौर किया कि इस शाखा पर ' बाँदा ' परजीवी बेल उगी हुई है | ' बाँदा वह बेल है जो वृक्षों पर उगकर ; वृक्ष से ही पोषण प्राप्त कर उसे खोखला कर देती है, पूरे वृक्ष को अपने लपेटे में लेकर जकड़ लेती है | खैर ; अब नाशपतियों की किसे परवाह ! पहले पहाड़ों से देशी नाशपतियों के कितने ट्रक के ट्रक जाते थे मैदानी भागों को ! कोई ' एग्रो ' कम्पनी यह ठेका लेती थी | अब पहाड़ वीरान हैं, शहरों के बढ़ते रिहायशी इलाकों के चलते सारे बंदर गाँवों में आ बसे हैं | गाँव के दूसरे भाई साहब ; मदन दा ने उस दिन बताया था कि जरा सा रस आते ही इन नाशपतियों को बंदर खा जाते हैं, अधखाया -मद्खाया कर खूब बर्बादी करते हैं |
' मदन दा ! इनको ठेके पर बेच क्यों नहीं देते !', लता ने पूछा था |
'' लेबर है नहीं ! यहाँ से कौन ट्रकों तक लेकर जाय ! यह वैसे भी मिटटी के भाव जाता है, कुछ पकी नाशपाती लोग खाते हैं, अधिकतर बंदर और चिड़िया, बाकी बची मिट्टी में चींटियों के भेंट चढ़ जाती हैं |''
लता को मॉल में खरीदी गयी बासी नाशपातियाँ याद आ गयी | हाँ : उन दिनों अपने स्कूल के दिनों में हम भी तो कितनी नाशपातियाँ बर्बाद करते थे !
''तुमको याद है !
बायो लैब के सामने का वह नाशपाती का बुजुर्ग वृक्ष
जिसकी नाश्पातियों में दांतों से कट्टक मार
चैक करते हुए नाशपाती का मीठापन
फेंक देते थे हम कई-कई नाशपातियाँ भूमि पर
अब बड़े शौक से खरीदती हूँ वह नाशपाती
महंगे दामों पर मॉल से
नाशपाती तो खरीद लेती हूँ पर
काश ! वह समय भी खरीद पाती ! ''
लता को अपनी डायरी की लिखी कविता याद हो आयी | एक ठंडी उसाँस भर वह भी तखत पर बैठी राधे चाची के साथ की टोली में शामिल हो गयी |
लता और उसके परिवार वाले यहाँ एक विवाह के लिए इकट्ठे हुए थे | तखत पर कोई पुरानी बातों का सिलसिला चल रहा था | लता गौर से चाची को देखने लगी |
चाची को युवा उम्र में भी देखा था उसने - गुलाबी - गोल पहाड़ी मुख, ओष्ठ कुछ मोटे, कम नुकीली नाक, बड़ी आँखे और भँवे इतनी काली कि काजल चपोड़े होने का भ्रम होता पर चाची गुड़िया जैसी प्यारी लगती |
गुमान चाचा अपनी माँ के इकलौते पुत्र थे, पिता फौज में थे पहले पर अब उनकी माता यानि लता के रिश्ते की दादी कम उम्र में विधवा हो गयी थी | युवा होने पर उन्होंने अपने पुत्र गुमान सिंह की शादी कर दी |
एक तो वैधव्य की उदासी ऊपर से इकलौता पुत्र ; दादी ने अपने पुत्र का विवाह कर तो दिया पर वे सशंकित रहती ! कहीं पुत्र गुमान अपनी दुल्हिन के प्रेम में अपनी माँ को न भुला दे ! फलस्वरूप वे अक्सर राधे को कार्यों में जोते रखती |
एक कार्य समाप्त हुआ नहीं कि दूसरा कार्य थोप देती | बालिका राधे ध्वां-फ्वां करके दौड़ती रहती |
सासू माँ रात्रि भोजन के बाद अपने सिर पर देर तक सरसों का तेल लगवाती, गुमान बेचारा नयी - नवेली का इन्तजार करते हुए सो जाता | इन कार्यों से परेशान हो वह सत्रह वर्ष की लड़की बहुधा अपने मायके जाने की जिद कर बैठती और राधे के मायके चार -पाँच ' किलोमीटर दूर 'सीमे ' गाँव की ओर आने -जाने वालों के साथ सास भी उसे ख़ुशी -ख़ुशी भेज देती | राधे मायके जाकर पूरी तरह अपने ससुराल को भूल जाती थी |
सौरास जाने के लिए उसके मायके वाले किसी प्रकार उसे बोत्याकर वापस भेजते |
ससुराल में काम ही काम, सासु माँ का निष्ठुर प्रेम ! गुमान के साथ बिठाये क्षीण पल ! कौन ऐसी प्रिय -मधुर ससुराल की यादें थी जिसके चलते वह ससुराल दौड़े आती पर मायके में भी तो ब्याही लड़की को नहीं रखा जा सकता था !!
समय बीतता गया, गुमान अब सब समझने लगा था, अब वह राधे को खुश रखने के उपाय करता, उसके कार्य में हाथ बंटाता, पति-पत्नी के प्रणय -पलों के मधुर झरोखे ! राधे को अब ससुराल भाने लगा |
गुमान जितना अपनी पत्नी को प्रेम करता उतना ही उसकी माँ का क्रोध दोनों के प्रति घृणा में बदलते जाता, वह रात-दिन बेमतलब दोनों को अंधाधुंध गालियों की बौछार करती रहती, दूध दुहकर लाती, आधा छुपा देती, चाहे उसे बिल्ली- बिलौटे को देना पड़े, दानेदार हरे घी को बेच देती | गुमान ने अपनी माँ और अपनी पत्नी के बीच कितना सामंजस्य बिठाने की कोशिश की पर यह मामला उलझा रहा |
कौन समझाता गुमान की माँ को कि ' अरे ! तेरे प्रिय पुत्र की प्रिय संगिनी तुझे प्रिय होनी ही चाहिए ! '
गुमान की माँ खीझ और क्रोध के जाल में स्वयं को फँसाते चली गयी | गाँव में सब उसका तिरस्कार करने लगे, छोटे बच्चे भी उसे बड़ों की देखा - देखी ' मनान वाली बूढी ' कहने लगे यानि मनान गुमान की माँ का मायका था, कैसी विडम्बना थी कि लगभग पूरी जिन्दगी यहाँ बिताने के बाद उसका नाम इस उम्र में उसके मायके के नाम के साथ उचारा जाने लगा था, इतनी उम्र बिताने के बाद ससुराल में वह अपने स्वभाव के कारण इस गाँव के नाम से जैसे बेदखल कर दी गयी |
नौले से जल भरते, कोई कार्य के लिए भीतर -बाहर करते, पूरी बाखली में घूमते वह ' मनान वाली बुढ़िया ' का पत-पटात अनवरत् जारी रहता था |
गुमान व उसकी दुल्हिन उनके गाली- बडबडाने पर निर्विकार रहते पर भी मन ही मन क्लेश तो रहता ही था |
राधे को जब अपने प्रियतम का प्रेम मिला तो सास का तिरस्कार ! क्या दोनों जनों के द्वारा प्रेम पाने की अधिकारिणी नहीं थी राधे !
राधे के तीन बच्चे हुए, बुढ़िया का मन तब भी नहीं बदला | अंतत: बुढ़िया स्वर्ग सिधार गयी |
कुछ साल पहले गुमान चाचा भी तो स्वर्गवासी हो गये | राधे चाची जीवन के इस मोड़ पर अब बिन साथी के थीं |
गीता सब्जी बनाकर आटा गूँथने लगी, लता उसके पास बैठ गयी |
' प्रताप के पास भी जाती हो ? '
'' नहीं ! एक भी बार नहीं ; बंबई यहाँ से कितना दूर है दीदी ज्यू ! '' कहकर वह मुस्कुराई और दोनों हाथों की मुट्ठियों से परात में आटे को ध्यानमग्न हो गूंथने लगी |
लता का मन उदास होकर गीता का मुख ताकने लगा |
'' वह साल में एक बार आ जाते हैं ; इजा और बच्चे हैं ना ! मन लगाने को, फिर खेती-बाड़ी यहीं ठैरी, नाज खूब हो जाता है यहाँ , वहाँ जायेंगे तो खाल्ली नौकरी से खायेंगे क्या !! ''
ऐसा लगा जैसे लता की मनोभावना समझ गीता ने दोबारा जवाब दिया |
लता दो सासों के मनोवैज्ञानिक पहलू पर उलझकर रह गयी ! , ' मनान वाली बुढ़िया' और राधे चाची |
राधे चाची गीता की स्नेहिल सास थीं |