किस्सा बाँके बाबू के जाने का
प्रेम गुप्ता ‘मानी’
मई की बेहद गर्म पिघलती हुई दोपहरी थी। कमरा किसी हलवाई की भट्टी की तरह तप रहा था। कमरे के बाहर आँगन और आँगन से बाहर गेट के उस पार का वातावरण खुला होने के बावजूद कुछ कम गर्म नहीं था। काले कोलतार से सड़क ताज़ी नहाई हुई लग रही थी, पर फिर भी उसका बदन पसीने से डूबा हुआ था। उसके चिकने काले बदन से उठती तपन की कसैली गन्ध हवा में पूरी तरह घुली हुई थी...उसे आसानी से महसूस किया जा सकता था।
सड़क की दुर्दशा देख कर तीखी, पीली धूप से पटा आकाश भी जैसे सन्नाटे में था। सफ़ेद, रुई के गोले से उड़ते बादल ये सारी चीजें बड़े ही पस्त भाव से देख रहे थे। सड़क के किनारे बड़ी सख़्ती से अपनी जड़ को जमाए खड़े पेड़ के नीचे की जगह किसी बंजर ज़मीन की तरह खाली पड़ी थी, लेकिन लोग उसके नीचे बैठ कर सुस्ताने या गप्प लड़ाने की बजाए उसके सामने वाले घर के गेट के पास खुले, गर्म आकाश के नीचे तपते हुए से खड़े थे और कुछ बाकी जो अपने बदन को तपाना नहीं चाहते थे, आँगन के पास ही बने छोटे से कमरे में एक-दूसरे को धकियाते हुए घुसे जा रहे थे। उनकी इस ग़ैर-ज़िम्मेदराना हरकत के कारण कमरा मुर्गी के दड़बे की शक़्ल अख़्तियार करता जा रहा था।
कमरे के कोने में रखा पैडस्टल फ़ैन बड़ी धीमी गति से चल रहा था। उसी की बगल में एक छोटी-सी खिड़की थी, पर उससे भी हवा आती कैसे? एक के ऊपर एक पटे पड़ रहे कन्धों ने हवा का रास्ता पूरी तरह से छेंक रखा था। हल्की-सी दरार पाकर हवा जल्दी से भीतर आकर अपने वज़ूद का अहसास कराती कि तभी उसकी काया दुर्गन्ध में परिवर्तित हो जाती...। पसीने में घुली एक अजीब सी कसाइन भरी गन्ध...। उस गन्ध से कमरे का माहौल और भी घुटन भरा हो गया था...कुछ इतना अधिक कि खिड़की के ठीक सामने सफ़ेद लिबास से ढँकी दीवार भी जैसे स्तब्ध खड़ी थी।
कमरे की वह अनकही घुटन अब नरेश के भीतर उतरने लगी थी। उसका सफ़ेद लखनऊवा कुर्ता और सफ़ेद टेरीकॉट का पायजामा
बदन से इस तरह चिपक गए थे जैसे उस घुटन से बचने के लिए फ़रियाद कर रहे हों। एक-दो बार पिघल कर नरेश ने हल्के से उन्हें झटका भी...। थोड़ी बहुत हवा भीतर घुसी तो लिबास के साथ नरेश ने भी हल्की राहत की साँस ली, पर थोड़ी देर बाद फिर वही ढीठ और बेशर्म घुटन...।
नरेश की इच्छा हुई कि कमरा पूरी तरह खाली करवा ले पर प्रत्यक्ष करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। एक तो ये वाजिब नहीं था, दूसरे बाँके बाबू भले ही उसे अपना सब कुछ समझते थे, पर वास्तव में वह था कुछ नहीं...और जो उनके सही में थे भी, वे सब अब वहाँ और भी मजबूरी को लादे हुए अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवा रहे थेबाँके बाबू के पाँचो भाई...बहनें-बहनोई...उनके बच्चे और कुछ और भी दूर-पास के सगे-सम्बन्धी...। बाँके बाबू के घर में रहने के कारण लगभग सभी उसे पहचानते थे और यह बात उसे अच्छी भी लगी थी और बुरी भी...। बुरी तब जब कोई हिकारत से फुसफुसाता,"क्यों, यही नरेश है न...? अरे भैयाऽऽऽ...बाँके बाबू तो इसी को असली नातेदार मानते थे...इसके रहते तो हम सब बेकार थे...।"
"अरे, तो वे क्या करते...? उनका काम-धाम कर के इसने उनका दिमाग़ पूरी तौर से कब्जिया जो रखा था...।"
शुरू में कमरे की घुटन में घुली इस फुसफुसाहट ने उसे काफ़ी असहज कर दिया था, पर बाद में उसने इसे नज़रअन्दाज़ कर दिया, उसे बाँके बाबू से मतलब था...वे उसे क्या समझते थे और क्या नहीं...। अब वे नहीं हैं तो इन सबकी ईर्ष्या भरी गुंजाहट उसके लिए कोई मायने नहीं रखती।
सहसा, उसे वह दिन याद आया जब इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए वह इस अजनबी शहर में आया। उम्र ज्यादा नहीं थी। इसी से उसके पिता चाहते थे कि कॉलेज के पास ही उसे कोई ऐसा कमरा किराए पर मिल जाए जिसका मकान-मालिक उसे पेइंग-गेस्ट के तौर पर रख सके। महज इत्तेफ़ाक था या उसका भाग्य, उसके पिताजी के बचपन के दोस्त बाँके बाबू से सहसा ही उनकी मुलाकात हो गई। कॉलेज के पास ही उनका घर भी था। घर में वे और उनकी पत्नी थे...सन्तान कोई थी नहीं...। उसकी समस्या यूँ पल भर में ख़त्म हो जाएगी, उसने तो कभी सोचा भी नहीं था...और उसके पिताजी...? वे तो इस कदर आश्वस्त हो गए कि पीछे मुड़ कर देखा ही नहीं...या तो बाँके बाबू ने देखने ही नहीं दिया...। उन्होंने उसका इतना ख्याल रखा कि वह उनका बेटा ही बन बैठा...।
"अरेऽऽऽ, भगवान की तस्वीर कहाँ गई? " बाँके बाबू के छोटे भाई चुन्नी बाबू कुछ इस तरह चीखे कि लगा कि जैसे अब तक वही तो अपने भाई की देखभाल करते रहे हैं, जब कि सच्चाई सभी जानते थे कि ज़िन्दगी भर उनकी अपने भाई से पटरी सिर्फ़ इस लिए नहीं बैठी कि वे बेहद लालची किस्म के इंसान थे। धन के आगे रिश्तों का उनके लिए कोई महत्व नहीं था और बाँके बाबू यह बात अच्छी तरह समझते थे। चुन्नी बाबू के घर आने पर वे उनकी आवभगत में, तीज़-त्योहार में मिठाई और कपड़ा-लत्ता देने में कोई कोर-कसर नहीं रखते थे। चुन्नी के पूरी तरह सम्पन्न होने के बावजूद जाते समय उनके बच्चों के हाथ में अच्छी-खासी रकम भी थमा देते थे, पर उस दिन उनकी भाई के प्रति एकतरफ़ा मोहब्बत का बाँध टूट गया जब पूरी जायदाद हथियाने की मंशा से चुन्नी बाबू ने अपना सबसे छोटा बेटा उन्हें कानूनी रूप से गोद देने की बात कही थी...। बस वह दिन और आज का दिन...बाँके बाबू ने तो अपने जीते-जी उनके घर आने पर बैन ही लगा दिया था।
"क्यों नरेशऽऽऽ, ऐसे ही ठाट से हाथ बाँधे खड़े रहोगे या लालन-पालन का कुछ फ़र्ज़ भी निभाओगे?"
दो जलती हुई सी आँखें नरेश की ओर बिजली सी तड़क कर उठी तो नरेश एकदम से हड़बड़ा गया,"नहीं चाचा जी...बताइए क्या करना है...?"
"लोटे में गंगाजल भर कर लाओ और उसे भैया के सिरहाने रख दो...और हाँ, उसमें दो-चार तुलसी की पत्ती और सोने की कोई चीज़ डाल दो...।"
नरेश ने चोर निगाहों से उनकी ओर देखा। उनकी उँगलियों में सोने व नवरत्न की चार-चार अँगूठियाँ जगमगा रही थी...गले में लगभग डेढ़ तोले की मोटी-सी चेन...। थुलथुले बदन पर कलफ़ लगी झक्क सफ़ेद धोती और कुर्ता उनके रोबदाब और शान में जैसे चार चाँद जड़े बैठा था...। लखनऊ के पॉश इलाके में एक आलीशान मकान और हज़रतगंज में मोटरसाइकिल का एक शानदार शोरूम...। बड़े सिद्धहस्त कारोबारी थे वे...।
सहसा नरेश झटका खा गया,"अभी तक तुम यहीं खड़े हो...? जाकर सारा सामान लाते क्यों नहीं...?"
बिना एक पल गँवाए नरेश तेज़ी से आगे बढ़ गया, पर मुड़ते ही उसके कानों में चुन्नी बाबू की बात पिघले शीशे सी गिरी,"धन का लालच आदमी को क्या बना देता है...। चेहरे पर मुखौटा लगा भैया-भाभी को ऐसा बहलाया-फुसलाया कि वे तो इसके मुरीद ही हो गए...। अच्छे-बुरे का ज्ञान ही नहीं रहा उन्हें और ये...? अब भुगतने की बारी आई तो गूँगे-बहरे बन बैठे...।"
चुन्नीबाबू ने आँखें तरेर कर नरेश की ओर देखा तो पल जैसे थम-सा गया। वक़्त सही होता तो न नरेश सहमता न पल...पर उसने आसपास खड़े लोगों की आँखों में उपहास की परत देखी तो हल्के से भुनभुनाता बाहर आ गया,"लालची कौन है, यह तो सारे रिश्तेदार जानते हैं और किसके चेहरे पर नक़ाब है, यह तुम बखूबी समझते हो चाचा, पर वक़्त-वक़्त की बात है...। भाई होने के नाते इस समय पलड़ा तुम्हारा भारी है, पर बाद में...बाद में तो मैं समझ लूँगा...। अम्मा जी को एकदम बेसहारा समझ लिया है क्या...?"
घड़ी की सुई अपनी गति से सरक रही थी और वक़्त उसे थामने की फ़िराक में था,"अभी तक माँ-बाबा नहीं आए...कहा तो था पर उनका एक ही जवाब...बहुत पहले आना ठीक नहीं...। बहू के पैर भी तो भारी हैं और फिर बाँके बाबू का घटका...पता नहीं कितना समय ले...। सब कुछ निपट जाए तो फोन कर देना...।"
वह मन ही मन फिर भुनभुनाया पर चुन्नी बाबू की आँखें दोबारा नमूदार हो, इससे पहले उसने गंगाजल से भरा लोटा उठाया, उसमें तुलसी की कुछ पत्तियाँ डाली, कमरे के भीतर आया और ठिठक गया...। भीतर कमरे में एक अजीब सी सहमन थी। हर कोई जैसे गूँगा हो गया था, पर उन सबसे बेख़बर चुन्नी बाबू अपने सारे रिश्तों को भूल कर भाई की उँगली से सोने की अँगूठी खींच रहे थे। अन्तिम समय जान कर अम्मा जी ने पहले ही उनकी हीरे की दो अँगूठियाँ उतार कर लॉकर में रख दी थी, पर पानी की कमी की वजह से जब पूरे शरीर के साथ उँगली भी फूल गई तो लाख कोशिशों के बावजूद इस अँगूठी को नहीं उतार पाई थी...। अब उस काम को चुन्नी बाबू ने अंजाम दिया और पूरी बेदर्दी से अँगूठी इस तरह बाहर खींच दी कि उसके साथ मुलायम माँस के लोथड़े भी खिंच कर बाहर आ गए...। इन सारी क्रूर कोशिशों के बीच उसे लगा जैसे बाँके बाबू हल्के से कराहे हों...। उसने झुक कर देखा पर आँखों की पुतलियाँ स्थिर थी...। हाथ-पैर भी बेजान से थे...तो यह क्या सिर्फ़ उसका भ्रम था...?
एक अवश सी तिलमिलाहट जबरई सी हावी होती कि उसने झुक कर बाँके बाबू के खुले मुँह में गंगाजल डाल दिया, पर दूसरे ही क्षण पूरा पानी बाहर आ गया...साथ में थोड़ा लिसलिसा लार भी...। उसका मन कचोट उठा। उनकी ऐसी हालत थी और अम्मा जी कहीं नज़र नहीं आ रही। उसने मन ही मन प्रार्थना की कि बाँकेबाबू की आत्मा अब रहा-सहा मोह भी त्यागे और जल्दी मुक्त हो।
"चलो, गंगाजल वाला लोटा इधर रख दो, और पहले भगवान की तस्वीर दो...जल्दी...।" चुन्नीबाबू फिर कुछ अनाप-शनाप कहें उससे पहले ही उसने भगवान की एक तस्वीर, जो उसने एक पुराने कैलेण्डर से फाड़ ली, तुरन्त पकड़ा दी।
चुन्नीबाबू ने एक अजीब सा निःश्वास भरा,"कम-से-कम विदा होते समय भैया भगवान के दर्शन तो कर ले...। अरे, देखो भैया को...भगवान का नाम सुनते ही आँखों में कैसा तेज़ आ गया है...। सीधे स्वर्ग जाएँगे...।"
चुन्नीबाबू ने अपनी हथेलियों को सूखी आँखों पर फिराया तो उसकी इच्छा हुई कि चीख कर कहे,"पहले इस नर्क से तो मुक्त हो लें, फिर स्वर्ग के दर्शन करेंगे...।" पर कहने का कोई अर्थ था क्या...?
चुन्नी बाबू ने इधर-उधर कुछ देखा फिर कमरे के आले में न जाने कब से रखी एक जंग लगी कील उठाई और फिर पास रखे कीमती पेपरवेट से ही ठोंक दी दीवार पर...। पेपरवेट के बीच का भाग पहली ही ठोकर में इस तरह दरक गया जैसे किसी का हृदय पट गया हो...।
न जाने क्यों उसकी आँख भर आई। अन्तिम समय में क्या हर आदमी इसी तरह अवश हो जाता है? अभी वे स्वस्थ होते तो क्या मज़ाल थी कि कोई उनकी किसी चीज को हाथ लगा पाता...और चुन्नीबाबू...? उनका तो घर में घुसने का कोई सवाल ही नहीं उठता था...। पर इस समय कैसे तो हुलक रहे हैं...। उनकी पूरी की पूरी थुलथुली देह भविष्य के सपनों से सराबोर है पर दिखा ऐसे रहे हैं जैसे उनसे ज्यादा दुःख किसी और को नहीं...। भाई की आँखों के ठीक सामने तस्वीर जड़ कर हुलस पड़े," हाँ, अब ठीक है...भगवान भैया की नज़र की सीध में हैं...। जरा देखो तो...भैया कैसे भगवान की ओर देख रहे हैं...।"
सब के साथ उसकी नज़रें भी उधर की ओर घूम गई। बाँके बाबू इस बार सचमुच लगा जैसे टकटकी लगाए भगवान की ओर ही ताक रहे थे। वह फिर यह देखने के लिए झुका कि बाँके बाबू सच में भगवान की ओर ताक रहे हैं या पूरी तरह प्राण निकल जाने के कारण उनकी आँखें पथरा गई हैं, पर झुकते ही उसकी हिम्मत टूट गई...। वह आँखों में भर आए पानी को सम्हालता पीछे हट गया।
वह सच में बर्दाश्त नहीं कर सकता उनके इस निःसहाय रूप को...। जब से वह यहाँ आया है तब से उनकी दबंगता की थर्राहट को ही महसूसता आया है...। वह दिन तो वह आज भी नहीं भूला है, जब बाँकेबाबू ने चाय की प्याली में मक्खी गिर जाने पर कमलादेवी को पुकारा था, पर कमलादेवी पड़ोसन से घर-गृहस्थी की बात करने में इतनी मगन थी कि उन्हों ने सुना ही नहीं...। बाँकेबाबू ने एक-दो आवाज़ और दी...नहीं सुना तो दनदनाते हुए गए और उस महिला के सामने से ही उन्हें घसीटते हुए ले आए। कमलादेवी ने बहुत कहा कि उन्होंने सच में नहीं सुना, अभी दूसरी चाय बना देती हैं, पर नहीं...बाँकेबाबू को एक बार गुस्सा चढ़ गया तो फिर चढ़ ही गया...। उनके पगलाए गुस्से से हर कोई वाकिफ़ था...। एक बार आवाज़ दी तो आखिर सुना क्यों नहीं? उनसे ज्यादा ज़रूरी कौन सी बात थी? उसकी इतनी हिम्मत कि चाय की प्याली उनके सामने रख कर बतियाने चली जाओ...। सारा दिन मर-खप कर कमाते हैं तो इस बाँझिन के लिए ही न...? एक औलाद तक नहीं दे सकी फिर भी रानी की तरह रखा...कभी कुछ नहीं कहा, पर ये है कि हर समय सिर पर ही चढ़ी रहती है...।
कमलादेवी बहुत रोई...गिड़गिड़ाई...पैरों पर गिर कर माफ़ी माँगी, पर फिर भी बाँकेबाबू नहीं पसीजे...। उनकी एक ही रट,"नहीं...अब इस घर में यह औरत नहीं रहेगी...।" वह समझाने आया तो उस दिन उसे भी डपट दिया,"खबरदारऽऽऽ, जो पैरवी की इस करमजली कीऽऽऽ...।"
उसने कमलादेवी से ही कहा वहाँ से हट जाने को, पर वह भी नहीं हटी,"नहीं भैयाऽऽऽ, तुम नहीं जानते...। हम यहाँ से हट गए तो ये और गुस्सिया जाएँगे...। बच्चों की तरह रूठ जाते हैं...। अब तुम्हीं बताओ, इस उमर में हम कहाँ जाएँ...?"
बाँकेबाबू अब भी दहाड़ रहे थे,"ऐसी औरत को रख कर मैं क्या करूँगा जो मेरा ख़्याल ही न रखे...।"
कमरे की चौखट पर बैठी कमलादेवी जार-जार रोए जा रही थी...। बाँकेबाबू अपने पगलाए गुस्से के चलते थर्रा-से रहे थे...। माहौल बेहद अजीब-सा हो गया था...। कमरे में घुस आई हवा भी जैसे थर्रा कर सहम गई थी और वह...?
यहाँ आने के बाद उसने बाँकेबाबू का यह रूप पहली बार देखा था, तो एकदम घुट सा गया...। कमलादेवी जैसी सीधी-सरल-समर्पित औरत पर ऐसा आक्षेप? जरा सा किसी से बतिया लिया तो क्या हुआ? ऐसी कई छोटी भूलें तो कानून भी माफ़ कर देता है, फिर बाँकेबाबू तो इसी कानून के साथ जीते हैं...तो क्या माफ़ी उनके शब्दकोश में नहीं है...?
काफ़ी देर हतप्रभ रहने के बाद आखिरकार उसने ही हिम्मत जुटाई,"बाबूजी, आप बड़े हैं और बड़े लोग तो छोटों को हमेशा माफ़ कर देते हैं। चलिएऽऽऽ, गुस्सा थूकिए और अम्मा जी को माफ़ कर दीजिए...। ऐसी ग़लती अब दुबारा उनसे नहीं होगी...।"
काफ़ी देर चुप्पी साधे बाँकेबाबू गहरी गहरी साँस भरते रहे, फिर नरेश के हाथ से पानी पीकर थोड़ा शान्त हुए।
नरेश ने राहत की साँस ली। थोड़ी देर पहले जो बाँकेबाबू बहुत भयानक और खुदगर्ज़ से लगे थे, वही अब ऐसा लग रहा था जैसे कोई शान्त और निरीह सा बच्चा सामने बैठा हुआ है। उसके कहने पर कमलादेवी दो प्याली चाय और थोड़ा-सा नमकीन ले आई तो बाँके बाबू बिना ना-नुकुर किए हुए चुपचाप पी गए...। बीच में नरेश की आड़ लेकर कमलादेवी को भी पीने को कहा। पल भर पहले उठा भयानक तूफ़ान गर्म चाय की भाप के साथ ही उड़ गया। चाय वैसे भी उनकी कमजोरी थी। दिन भर में बिना चीनी की बीस-पच्चीस प्याली तक पी जाते थे। एक प्याली चाय काफ़ी थी उनके भीतर के अनकहे तूफ़ानी गुस्से को दबाने के लिए...।
घर में सब कुछ सामान्य हो गया था। नरेश भी चाय पीकर अपने कमरे में चला गया और कमरे ने भी जैसे राहत की साँस ली। शाम को नरेश कमरे से बाहर आया तो एक अनकहे संवाद ने उसे चारो ओर से लपेट लिया। आखिर सच क्या था? सुबह का वह तपता हुआ सूरज...रेगिस्तान के तूफ़ानी बवंडर से उड़ते बलूई कण या शाम की यह भीनी-भीनी खुशबू से भरी ठण्डक...?
बाँके बाबू के हाथ में लाल प्रिन्टों वाली गहरे हरे रंग की सूती साड़ी थी और साथ में मैचिंग ब्लाउज का कपड़ा...पेटीकोट...। नरेश को उन्होंने देखा तो उनके साँवले...गहरे..सुरमई से रंग वाले चेहरे पर उगते सूरज की लालिमा बिखर गई,"आओ नरेशऽऽऽ...देखो, तुम्हारी अम्मा जी के लिए साड़ी लाया हूँ...। कैसी है...?"
उनका प्यार संशय भरा था फिर भी नरेश का मन हल्का हो गया,"अरे वाहऽऽऽ...आपकी पसन्द तो बहुत अच्छी है बाबूजी...अम्मा जी पर खूब खिलेगी...।"
नरेश की वाहवाही पर बाँके बाबू खिल उठे और एक बार फिर चाय की गर्म चुस्कियों के बीच कपड़े और उसकी क्वालिटी पर जो चर्चा शुरू हुई, वह कोर्ट की गर्म बातों...बहसों और रात के स्वादिष्ट खाने के साथ ही ख़त्म हुई।
एक हफ़्ते बाद ऐन करवाचौथ के दिन कमला देवी को वही साड़ी पहन कर पूजा करते देखा तो उसका मन गहरे समन्दर में गोते लगाने लगा। यूँ महसूस हुआ जैसे ढलती दोपहरी की तीखी...चुभनभरी धूप से निज़ात दिलाने ठण्डी शाम सज-धज कर सामने आ खड़ी हुई हो...। उन दोनो की यह छोटी-छोटी खुशियाँ नरेश के भीतर के खाली खोखल में बहुत कुछ भर देती थी। बचपन से अपनी माँ को पिता की दबंगई के आगे दबते-घुटते...कराहते देखा था और देख कर खुद भी अपनी निःशब्द कराहट से चौंका था, पर जवानी की दहलीज़ पर कदम रख देने के बाद भी उसे याद नहीं कि पिता ने माँ के जिस्म को घाव से भर देने के बाद कभी मरहम भी लगाया हो...। इस लिए जब बाँके बाबू को यह सब करते देखा तो लगा जैसे उसके रिसते-टीसते घाव पर किसी ने प्यार-दुलार से मरहम का ठाण्डा फ़ाहा रख दिया हो।
क्षणांश जैसे कोई आकाश से गिर हो। ज़मीन इतनी ठोस और तपती हुई सी थी कि उसने पल भर के लिए शिराओं में इस छोर से उस छोर तक बहते खून पर बन्दिश ही लगा दी। सुन्नता का वह क्षण बिजली के नंगे तार पर पाँव पड़ने जैसा ही अहसास था...। उस अहसास ने सब कुछ जैसे गडमड-सा कर दिया था। इत्तेफ़ाकन आज कमला देवी वही साड़ी पहने थी। उस दिन उस साड़ी में टँके लाल गुलाब उसकी आँखों में ठण्डक भर गए थे पर आज न जाने क्यों आँखें चुभन सी महसूस कर रही थी...। नरेश से वहाँ रुका नहीं गया। वह चिड़िया के नन्हें बच्चे-सा पंख फड़फड़ा कर बाहर निकल जाना चाहता था...। वह बहाना तलाश ही रहा था कि तभी बाँके बाबू की छोटी बहन, जो शायद बरेली से आई थी, उसे धकियाते हुए वहीं धम्म से बैठ गई,"हायऽऽऽ...हायऽऽऽ बड़े भैया...इस तरह अचानक तुम्हें क्या हो गया...। इत्ती जल्दी हम लोगों से ऊब गए...। बताओऽऽऽ...हमारा अपराध क्या है...क्यों हमें छोड़ कर जा रहे हो...?"
दूसरे ही पल आँसू पोंछ कर चुन्नी बाबू से बोली,"भैयाऽऽऽ...अभी प्राण नहीं निकले हैं न...? किसके लिए ये घटका है...? भगवान...बड़े भैया को जल्दी इस कष्ट से मुक्ति दो...।" फिर धीरे से फुसफुसाई,"भाभी को भी सबको इस तरह जल्दी नहीं बुलाना चाहिए था...। खामाख़्वाह खुद भी परेशान हुई और हमें भी किया...।"
"और नहीं क्या...फोन आया तो हमको लगा कि भैया गए पर यहाँ तो...।"
थोड़ी दूर खड़े बहनोई ने अजीब तरह से मुँह बनाया तो नरेश कमरे से बाहर आ गया...। बाहर कुछ और रिश्तेदार आ गए थे...कुछ पास के तो कुछ दूर के...। सबकी आँखों में एक अवश सी तिलमिलाहट थी, बेवजह बुला लिए जाने की...पर जाहिर कोई नहीं कर रहा था...।
यह तिलमिलाहट नरेश के भीतर भी भर जानी चाहिए थी, पर नहीं भरी...। गाँव गए हफ़्ता ही बीता था कि कमलादेवी ने फोन कर के उसे बुला लिया,"नरेशऽऽऽ...जल्दी से आ जाओ भैया...बाबूजी की हालत बहुत खराब है...कभी भी कुछ भी हो सकता है...।"
उसकी पत्नी की तबियत ठीक नहीं थी...पूरी तरह बेडरेस्ट पर थी...। अम्मा को भी हफ़्ते भर से बुखार था, उन्हें डॉक्टर को दिखाना था...। ऑफ़िस से पूरे पन्द्रह दिन की छुट्टी लेकर आया था, पर यहाँ तो...बाँके बाबू और कमला देवी के उस पर इतने अहसान थे कि सात जनम लेता तो भी उस अहसान का ऋण चुका न पाता...। पढ़ाई से लेकर नौकरी लगने तक बाबूजी ने तन-मन-धन से उसकी सहायता की थी...एक बेटे का बाप बन कर उसे प्यार-दुलार दिया...। उसे इतना दिया, बदले में अभी उसने तो कुछ भी नहीं दिया...। अब देने का वक़्त आया है। बाबूजी के जाने के बाद अम्मा जी को अकेली नहीं रहने देगा। अपनी पत्नी को गाँव से ले आएगा, ताकि कमलादेवी बहू का सुख उठा लें...और जहाँ तक बात है उसकी माँ की...वे छोटे के पास रह लेंगी...।
अरे...यह क्या सोचने लगा? अभी तो बाँके बाबू के प्राण बाकी हैं...। डॉक्टर ने भी तो कहा है...किसी भी क्षण मुक्ति हो सकती है...।
नरेश ने घड़ी की ओर देखा। बड़े तड़के गाँव से निकला था और इस समय बारह बज रहे हैं...। हड़बड़ी में बस एक कप चाय पिया था...बस से उतर कर भी कुछ नहीं लिया था। सोचा, आने वाले कुछ-न-कुछ तो लेकर आएँगे ही...नहीं तो पास-पड़ोस के लोग...उसी में से थोड़ा लेकर खा लेगा।
उसे सहसा कमलादेवी की य़ाद आई। बेचारी अम्मा जी...उन्होंने तो शायद कल से कुछ नहीं खाया होगा...। क्यों न चुपके से बाहर जाकर कुछ पूड़ी-सब्ज़ी ले आए और किसी कोने में जाकर खुद भी खा ले और अम्मा जी को भी जबर्दस्ती दो-चार कौर खिला दे...। उसकी सोच अभी और आगे बढ़ती कि सहसा कमलादेवी ने उसे एक कोने में घसीट लिया,"क्यों नरेश...डॉक्टर ने क्या कहा...? अभी कितना समय लगेगा...? इनका कष्ट अब देखा नहीं जा रहा है...।"
आवाज़ रुँधी थी और आँखों में निराशा थी। प्रश्नों के इस अप्रत्याशित वार से सहसा नरेश गड़बड़ा गया,"डॉक्टर क्या कहेगा अम्मा जी...अब तो बस ईश्वर का भरोसा है...।" ऊपर से तो नरेश ने कह दिया पर भीतर ही भीतर वह भी चाह रहा था कि बाँकेबाबू जल्दी से खुद मुक्त होकर दूसरों को भी मुक्त करें, इस उलझन भरे माहौल से...। उसकी भूख एकदम से दब कर रह गई। एक तो सुबह से कुछ ठोस खाया भी नहीं था...अँतड़ियाँ ऐंठे जा रही थी...दूसरे एक अव्यक्त खीज़ भी थी...प्राण निकले नहीं थे और अम्मा जी ने शोर मचा दिया...। बेवजह भीड़ इकठ्ठी कर ली...।
वह घर से बाहर निकलने का बहाना ढूँढ ही रहा था कि तभी कमलादेवी उसके कान में फुसफुसाई,"सुबह कुछ खाया था या नहीं...?"
उसने इंकार में अपनी मुँडी हिलाई तो कमला देवी उसे लगभग खींचती हुई सी स्टोर रूम में ले गई। चोर नज़रों से उसने चारो ओर देखा, फिर कोठरी में घुस गया।
कोठरी में ठीक से खड़े होने की भी जगह नहीं थी। घर का अधिकाँश ज़रूरी सामान वहाँ एक के ऊपर एक गाँज दिया गया था...। सिलाई मशीन, ढेर सारे बर्तनों से भरी बड़ी सी डलिया...पुरानी सन्दूकें...टोकरी में कुछ पुरानी फ़ाइलें और बाँके बाबू की कुछ खास चीज़ें...। एक बड़ी सी गोदरेज़ की अलमारी वहाँ पहले से थी और उसमें ताला बन्द था...। कमलादेवी की गुप्त चीज़ें उस गुफ़ा में पहले से बन्द थी और वह अलमारी ‘खुल जा सिमसिम’ की तरह तभी खुलती थी जब बाँके बाबू चाहते थे...पर इस समय वह गुफ़ा कमलादेवी के कब्ज़े में थी...। उनकी कमर में लटका वह चाभियों का भारी गुच्छा इस बात का गवाह था...।
घर की रसोई आँगन की सीध में थी और वहाँ चीन्हे-अनचीन्हे लोगों का जमावड़ा था...। आँगन से सटे कमरे में अर्धनिष्प्राण देह के साथ बाँके बाबू थे...। एक यही कोठरी थी जो एकदम किनारे...टेढ़ी-मेढ़ी गैलरी को पार करती ऐसी जगह थी, जहाँ आसानी से नज़र नहीं पड़ती...। इसका चुनाव उन्होंने कुछ सोच कर ही किया था...। नरेश का दम घुट-सा रहा था...। वह अपने को कोस रहा था कि चुपचाप सबकी नज़र बचा कर बाहर निकल जाता और हलवाई की दुकान से कुछ खाकर लौट आता।
चेहरे पर मातमी मुखौटा पहन उसने कोने में पड़ी सन्दूक पर आसन जमाया ही था कि सहसा कमलादेवी ने आलू के चार पराँठों के ऊपर आम का अचार रख कर लाई हुई प्लेट उसके हाथों में थमा दी,"सुबह तुम्हारे बाबूजी की हालत देख कर समझ गई थी कि आज कुछ भी हो सकता है, सो थोड़ा सा बना दिया था...।"
"पर अम्माजी..."
"पर-वर कुछ नहीं बेटाऽऽऽ, मैं जानती हूँ कि बिना खाए-पिए ही तुम वहाँ से चल दिए होगे, फिर कौन बनाता भी...? बहू तुम्हारी पेट से है और तुम्हारी अम्मा की तबियत ठीक नहीं है...।"
थोड़ी देर वे रुकी और फिर बाहर की टोह लेकर बोली,"चलो...सोचो मत ज्यादा...खा लो...। आज पता नहीं कितना बेर-अबेर हो जाए...क्या पता...।"
"पर अम्मा जी...आप...?"
"हमारी चिन्ता न करो...हमने सुबह ही खा लिया था...बस तुम्हारे लिए बचा कर रखा था...।"
नरेश के भीतर एक करेण्ट-सा दौड़ गया। लगा, जैसे हज़ार वॉट का झटका लगा हो...। कमलादेवी का यह रूप उसने पहले कभी नहीं देखा था...। तीज़ और करवाचौथ पर अपनी पति की लम्बी उम्र की दुआ माँगती वह निर्जला-व्रती औरत...एक छोटी-सी भूल के लिए पति के पैरों पर गिर कर माफ़ी माँगती...वह रोती-गिड़गिड़ाती औरत...एक मुस्तैद जवान की तरह आँखें बन्द कर अपने कमाण्डर की हर आज्ञा का पालन करने को अपना धर्म समझना जिसकी फ़ितरत में था...क्या ये वही है...? पति के प्राण हलक में अटके थे और इनकी हलक से कौर नीचे उतर गया...?
आगे नरेश ने कुछ कहा नहीं। अब कहने को बाकी क्या रह गया था, सो उसने जल्दी से पराँठा ख़त्म किया और वापस बाँके बाबू के पास आकर खड़ा हो गया। वह अब भी उसी तरह स्थिर नज़रों से भगवान की तस्वीर की ओर देख रहे थे। एकदम खाली...कठोर तख़्त पर उनका बेजान शरीर किसी लावारिस वस्तु की तरह पड़ा हुआ था और आसपास खड़े-बैठे लोगों के चेहरे पर एक अजीब तरह की ऊब भरी हुई थी।
नरेश को लगा जैसे हर कोई उस लावारिस वस्तु के वहाँ से हट जाने के इंतज़ार में हो। खुद बेध्यानी में वह भी तो ऐसा ही सोच चुका है...। उसे सहसा खुद पर शर्मिन्दगी सी महसूस हुई। अभी दो बरस पहले तक वह इनके पास से घण्टों तक नहीं हटता था। कोर्ट में कोई केस फँस जाता तो सलाह-मशवरा करने इनके पास आ जाता था।
‘सलाह’ शब्द पर अचानक ही नरेश को ध्यान आया कि बाहर बैठे हुए लोग भी तो आपस में सलाह ही कर रहे हैं...। बाँके बाबू के तन में अभी प्राण का नन्हा-सा अंश अटका है और सबने सारा कुछ पहले ही सोच लिया। ज्यादा देर अब लाश को रखने से कोई फ़ायदा नहीं...। महीनों से डायरिया है...देखा नहीं, कैसी दुर्गन्ध फैली है चारो ओर...?
बातें अभी चल ही रही थी कि तभी सब से छोटे भाई ने फुसफुसा कर कहा,"अरे, ये सब तो होगा ही...अब उसके बाद की भी तो सोचो...। भौजी का क्या होगा...? किसके पास रहेंगी...?"
"किसके पास रहेंगी का क्या मतलब...?" फुसफुसाहट के वक़्त भी चुन्नी बाबू से जब्त नहीं हुआ,"अरे, हमारे पास रहेंगी...अभी हम ज़िन्दा हैं...।"
"हाँऽऽऽ, काहे नहीं...बहुत दूर की सोची है भैयाऽऽऽ...।" बाँके बाबू की मंझली बहन सरला बिफर पड़ी,"अरे ज़िन्दगी भर तो भैया-भौजी से पटी नहीं, अब सारा धन अकेले हड़पने के लिए भौजी के सगे बन गए...। वाह भैया...वाह!"
गुस्से में चुन्नी बाबू बेकाबू होने चले ही थे कि सबसे छोटी बहन ने बीच-बचाव कर दिया,"बड़े भैया तो जा ही रहे हैं...। हम लोग भी पके आम से कम नहीं...। पता नहीं कब, कौन सरक जाए...। फिर ऐसे मौके पर यूँ लड़ना शोभा देता है क्या...? अरे, भौजी से ही पूछ लो...। वो जिसके साथ राजी-खुशी रहना चाहें, रह लें...।"
अभी आपसी बहस, सलाह-मशवरा चल ही रहा था कि अचानक पीछे आकर खड़ी हो गई कमलादेवी तमक पड़ी,"हमारी चिन्ता करने कि किसी को ज़रूरत नहीं...। इतने दिनो से इनकी तबियत खराब रही, किसी ने ख़बर ली कभी...? अब सबको चिन्ता हो रही है...?" फिर अचानक ही सुबकने लगी,"अरे, जब हमारा सरताज़ ही जा रहा है तो धन-जायदाद लेकर हम करेंगे क्या...? अरे अब तो हम जीना भी नहीं चाहते...भगवान बस हमें भी बुला ले...।" कमलादेवी के इस तरह रोने से सभा सहसा ही विसर्जित हो गई। हर कोई बारी-बारी उठा और खिसक लिया। कमलादेवी भी कुछ देर और रोई, फिर सहसा ही कुछ याद आ जाने पर नरेश को इशारा किया,"ऐ नरेशऽऽऽ, पीछे वाले कमरे को बन्द करना भूल गए थे। उसमें इनका सब ज़रूरी कागज़-पत्तर रखा है...। किसी ने कुछ इधर-उधर कर दिया तो मुसीबत हो जाएगी...। ऐ भइयाऽऽऽ, तनिक उसमें तलवा डाल देयो...।"
भीतर से नरेश को बहुत बुरा लगा। बाबूजी की हालत इतनी ख़राब है और इन्हें कागज़-पत्तर की चिन्ता सता रही है। वह कुछ कहता कि तभी नीले छींट वाली नायलेक्स की साड़ी पहने एकदम मरियल-सी एक स्त्री आ खड़ी हुई,"ऐ जिठानी जी, यहाँ चोर कौन है जो सारा सामान सहेज रही हो...? अरे तुम्हारा सोना-चाँदी तुम्हें मुबारक़...। हमें तो भगवान ने बहुत कुछ दिया है...। रुपया-पैसा...औलाद...। अरे हमारे सरताज़ बने रहें , हमें किस बात की कमी...?"
वो अभी बड़बड़ा ही रही थी कि तभी चुन्नीबाबू भी आ कर खड़े हो गए,"खा लिया जूता...पड़ गई कलेजे को ठण्डक...? पहले ही कहा था कि जाने की ज़रुरत नहीं, पर मेरी सुनो तब न...। अरे, लोगों के कहने की बड़ी चिन्ता थी न, तो अब खाओ जूता...।"
अब नरेश को बर्दाश्त नहीं हुआ। वह न चाहते हुए भी बोल पड़ा,"आप बेकार ही गुस्सा हो रहे हैं...। अम्मा जी ने किया ही क्या है...? अपना सामान ही तो सहेजा है...। अरे भीड़-भाड़ में सब सहेजते हैं, उन्होंने सहेज लिया तो क्या गुनाह हो गया...?"
"चुप रहो तुमऽऽऽ।" नरेश को बीच में बोलते देख कर चुन्नी बाबू आपे से बाहर हो गए,"तुम कौन होते हो हमारे घरेलू मामले में बोलने वाले...। भैया-भौजी ने अपना क्या कह दिया, खोपड़ी पर ही सवार हो गए...।"
नरेश चाहता तो उनसे भी ज़ोर से चीख सकता था, पर मौका इतना नाज़ुक था कि उसे खुद पर ही शर्मिन्दगी महसूस हुई। बेकार ही बीच में बोला। चुन्नी बाबू तो उससे पहले ही खार खाए बैठे थे...। अब उसे कुछ कहना होगा तो सिर्फ़ कमलादेवी से ही कहेगा। उसने कमलादेवी की ओर देखा...वह इस समय बड़ी ही दयनीय नज़र आ रही थी...। उसने उनसे कुछ कहना चाहा कि तभी भीतर के कमरे से चीख सुनाई दी...भौजीऽऽऽ...भैया गएऽऽऽ...।
सबके साथ नरेश भी अन्दर की ओर भागा। बाँकेबाबू की आँखें अब भी भगवान की तस्वीर की ओर ही टँगी हुई थी। नरेश ने झुक कर देखा तो लगा जैसे भीतर कहीं कुछ चटक गया है। तो क्या जब उसने काली पुतलियों के डोलने का अहसास किया था, उसी वक़्त तो अन्तिम बिन्दु ने साथ नहीं छोड़ा था...?
नरेश की आँखें नम हो आई। उसने कमलादेवी को साँत्वना देने की कोशिश की पर दे नहीं पाया...लगा जैसे आगे बढ़े हाथ अचानक ही किसी भारी बोझ से दब गया हो...। पूरे घर का माहौल भी अब पहले से कहीं ज्यादा अजीब-सा हो गया था...। गेट के बाहर खड़े लोग भी अब भीतर आ गए थे। कमरे में तिल धरने की भी जगह नहीं बची थी...। ठसाठस भरे लोगों की वजह से वातावरण पहले से कहीं अधिक घुटनभरा हो गया था...। नरेश उस घुटन की वजह से खुल कर साँस भी नहीं ले पा रहा था। आसपास बाँके बाबू के भाई, बहनों और भतीजों का घेरा कसा हुआ था। कमला देवी उन सब के बीच बैठी बड़ी असहाय-सी लग रही थी। बीच में वह पल भर के लिए चुप होती और फिर रोना शुरू कर देती। सब लोग काफ़ी देर तक तो ये सब देखते रहे, पर जब वे चुप नहीं हुई तो समझाने लगे,"अब बस भी करो भौजी...तुम्हारे इस तरह रोने से क्या भैया वापस आ जाएँगे...? अब तो तुम्हीं इस घर की कर्ता-धर्ता हो, अपने को सम्भालो...।"
नरेश ने देखा कि इस वाक्य के हवा में तैरने भर की देर थी कि सभी ने अपनी आँखें पोंछ ली। कमलादेवी ने भी एक-दो बार पछाड़ मारी और फिर वे भी इस तरह चुप हो गई जैसे रोने-धोने से अब वास्तव में कोई फ़ायदा नहीं होने वाला था।
बाँके बाबू की मृत देह अब भी खाली तख़्त की कठोर गोद में पड़ी थी। उसने सुबह उन्हें इस तरह देखा था तभी कहा था कि उन्हें ज़मीन पर उतार देना चाहिए। ऊपर बिस्तर पर मुक्ति नहीं मिलेगी। पर किसी ने उसकी नहीं सुनी। खुद कमलादेवी ने भी मना कर दिया था,"जाने दो नरेश, इन्हें इसी पर रहने दो...। आखिरी घटका है तो क्या, प्राण पता नहीं कब छूटे...।"
नरेश चुप हो गया तो उसे नाराज़ जान कमलादेवी धीरे से फुसफुसाई थी,"अब तुमसे क्या छुपाना...इन्हें इतने दिनो से डायरिया हुआ है...। तख़्त का भाग कटवा कर उसके नीचे पॉट लगवा दिया था...यह सोच कर कि बार-बार कौन सफ़ाई करेगा...।" दूसरे ही क्षण वह रुआँसी हो गई थी,"अब हमारा भी बुढ़ौती का शरीर है...हमसे अब बहुत नहीं होता...। गू-मूत करते सारी ज़िन्दगी बीत गई...अब...।"
नरेश को बहुत दया आई थी कमलादेवी पर...उन्होंने गलत नहीं कहा था...साठ तो वह भी पार करने आई थी। अब यह बात दूसरी थी कि बला की मेहनती होने के कारण उतनी लगती नहीं थी, फिर नरेश की जानकारी में बाँके बाबू ने कभी उनको एक पल चैन से बैठने नहीं दिया। घर के कामकाज के साथ सारा-सारा दिन चाय बनाना...खाली समय में अनाज की सफ़ाई, ज़रूरत पड़ने पर सौदा-सुलफ़ से लेकर बैंक से रुपया निकालने तक का काम करना, कोई कमी रह जाने पर डाँट सुनना...। नरेश को आश्चर्य होता था कि कम पढ़ी-लिखी होने के बावजूद वह ये सब कैसे कर लेती थी। उसने बाँके बाबू से एक बार इस बाबत पूछा भी था तो वे अपनी बड़ी-बड़ी कर्नली मूँछों को ताव देते हुए बोले थे,"अरेऽऽऽ, हम तो गधे को भी आदमी बनाना जानते हैं, फिर यह तुम्हारी अम्मा जी क्या चीज़ हैं? अरे, इस जाहिल औरत को यह सब इस लिए सिखा दिया है ताकि हमारे न रहने पर इसे कोई बेवकूफ़ न बना सके...।"
कह कर बाँके बाबू ज़ोर से हँसे थे, पर कमलादेवी चिढ़ गई थी,"मुफ़्त की नौकरानी मिली है न...बहाने से चाहे जैसे नाच नचा लो...।"
यद्यपि बाँके बाबू के साथ नरेश भी हँसने लगा था, पर भीतर से उसे कमलादेवी के साथ सहानुभूति ही हुई थी...। उनका रुआँसा चेहरा देख कर उसे अपनी दादी की याद आई थी। दादी ने घर नाम के क़ैदखाने की घुटन भरी हवा में जिस तरह तड़प-तड़प कर साँस लिया था, उसने उनके अन्दर एक मूक और विवश आक्रोश भर दिया था। छोटा-सा था, तभी से उसने उनकी निरीह आँखों मे यदा-कदा तैरते उस आक्रोश को कई बार लक्ष्य किया था और तब उसे लगा था कि जैसे दादी दादा से बदला लेना चाहती थी, पर अपने भीतर के डर और दादा की अनकही गुण्डई से डरती भी थी...। पर बाद में यह उसका भ्रम ही साबित हुआ था...। दादी ने दादा से अपने तरीके से बदला ले ही लिया...वह पहले ही चली गई उनकी ज़िन्दगी से...। क्षण-क्षण उनकी सेवा के अभ्यस्त दादाजी उनके जाने के बाद एकदम टूट-से गए थे। वे अक्सर उन्हें याद करते हुए कहते,"सती सावित्री को बड़ा दुःख दिया मैने...ज़िन्दा होती तो पैर पकड़ कर माफ़ी माँग लेता, पर...।"
बाद में जब दादा जी की दयनीय मृत्यु हो गई तब भी वह जान नहीं पाया कि दादी की माफ़ी के बिना उनकी आत्मा मुक्त भी हुई या नहीं, पर आज यह ज़रुर जानता है कि बाँके बाबू की आत्मा ज़रूर मुक्त हो गई होगी...। कमलादेवी ने अभी कुछ समय पहले उसे लिखे अपने पत्र में बताया था कि जब से वे बीमार पड़े हैं, तब से उन्हीं की चिन्ता करते हैं...।
"ओफ़्फ़ोऽऽऽ...।" अचानक एक साथ कई लोग चीख पड़े तो कमलादेवी को सम्भालता नरेश भी चिहुंक पड़ा। दुर्गन्ध का एक तेज़ भभका उसके चारो ओर फैल गया तो उसे उबकाई-सी आने लगी। बाँके बाबू का शरीर मैले में बुरी तरह लिथड़ा हुआ था। तख़्त के चारो ओर चादर कसी होने और कमरे में ढेर सारी अगरबत्तियाँ जलने के कारण पहले कोई नहीं जान पाया था, पर बाद में जब उन्हें ज़मीन पर उतारने लगे तो सारी पोल खुल गई। बाँके बाबू को सबने किसी तरह ज़मीन पर उतार तो दिया, पर उसके पल भर बाद ही सब पीछे हट गए,"राम-राम...इतनी दुर्दशा तो जानवर की भी नहीं होती...। यह क्या किया तुमने भौजीऽऽऽ...।"
कमलादेवी फिर पफक पड़ी,"अब सब लोग हमीं को दोष दोगे...। इतनी खराब रही हालत, एक आदमी भी झाँक चला...? अरे ये भी नहीं सोचा कि हम अकेली औरत कैसे क्या करेंगे...।"
"अरेऽऽऽ...नहीं सम्भलते थे तो अस्पताल में डालना था न...।" भीड़ में से ही किसी ने बड़े गुस्से में कहा तो पास ही खड़ी बाँके बाबू की बहन सरला से बर्दाश्त नहीं हुआ,"ये मुँह छिपाए कौन बोला...ऐंऽऽऽ...? करना न धरना...बस, सीख देना आता है...। अरे, आज इनकी भी औलाद होती तो देखते कि कौन माई का लाल इतनी बातें सुनाने की हिम्मत करता? बेचारी भौजी अकेली मरती रही, किसी ने नहीं पूछा...। आज भैया चले गए तो जायदाद के लालच में सब सियार की तरह उनको रोने चले आए...।"
सरला की बात सुनते ही एक अजीब सी खामोशी छा गई। वैसे भी वह इतनी तेज़ थी कि उनके मुँह लगते हर कोई डरता था, फिर इस समय सबके भीतर एक चोर भी बैठा था...कहीं कुछ और बात हुई तो...?
सब नाक में रुमाल लगाए अचानक ही व्यस्त हो गए,"अच्छा भाई...चलो बात खत्म करो...। अब यह सोचो कि करना क्या है...?"
"अरे, करना क्या है? अब मट्टी उठाने का इंतज़ाम करो...। ज्यादा देर रखना ठीक नहीं है...।"
चुन्नी बाबू की बात सुनते ही सब आदमी कमरे से बाहर आ गए। बाँके बाबू के लगभग सभी रिश्तेदार आ गए थे। अब इस हालत में रखना सचमुच ठीक नहीं था...। पूरे घर में एक अजीब सी दुर्गन्ध बेवजह फैली रहेगी...। फिर जितनी देर होगी, मिट्टी की उतनी ही दुर्दशा है...।"
बाहर कुछ लोग अर्थी की तैयारी में जुट गए और भीतर मुँह को आँचल से ढँके कमलादेवी ज़ार-ज़ार रोए जा रही थी...। नरेश को अपने ऊपर झुंझलाहट हुई, सुबह जान लेता कि बाँके बाबू के शरीर की इतनी दुर्गत है तो और कुछ नहीं, कोई जमादार बुलवा कर सफ़ाई करवा देता, पर अब...?
नरेश थोड़ी देर कमलादेवी को सान्त्वना देता रहा, फिर वह भी कमरे से बाहर आ गया। दुर्गन्ध के मारे उससे भी अब अन्दर नहीं रुका जा रहा था...। थोड़ी देर पहले जहाँ तिल धरने की जगह भी नहीं बची थी, अब बंजर ज़मीन की तरह खाली पड़ी थी। किसी ने बिना कहे पैडस्टल फ़ैन भी बन्द कर दिया था, जिससे कमरे में दुर्गन्ध के साथ-साथ उमस भी भर गई थी। तख़्त के सामने की खिड़की खुली हुई थी, पर लगता था जैसे घबरा कर हवा ने भी अपना रास्ता बदल दिया हो...। पर हाँ...सुबह से स्तब्ध खड़ी दीवार के कसमसाने का अहसास ज़रुर हुआ था...। लगा था, जैसे वह हल्के से हिली हो...। उसकी उस कसमसाहट से उसके बदन पर चिपकी पपड़ियाँ झरी और सट कर खड़े लोगों के पसीने डूबे कपड़ों से चिपक गई। लोगों ने झटका दिया तो छिटक कर ज़मीन पर आ गिरी। कमरे के भीतर की वह अनकही घुटन पूरी तरह नरेश के भीतर भी उतर गई। बाहर आया तो खुलेपन के अहसास ने उसे हल्की-सी राहत दी। मुँह पर से रुमाल हटा कर उसने खुल कर साँस लेने की कोशिश की, पर पता नहीं क्यों नहीं ले पाया...। वह कसमसा कर कर पलटा ही था कि तभी सामने मिश्रा खड़ा दिख गया,"तुम कब आए याऽऽऽर...?"
वह मिश्रा से बच कर निकलना ही चाहता था कि मिश्रा ने टोंक ही दिया। हार कर उसे वहीं रुकना पड़ा,"सुबह ही आया हूँ...और तुम कैसे...?"
पान मसाले से भरा थूक गटकते हुए मिश्रा ने अजीब-सा मुँह बना कर कहा,"अभी थोड़ी देर पहले ही निखिल का फोन आया था कि बाँके बाबू तो गएऽऽऽ...तो हमने भी सोचा कि चलो भाई, चलते हैं...। थोड़ा सियापा हम भी कर आएँ...।"
नरेश की इच्छा हुई कि उसी समय दे एक झापड़ मिश्रा के मुँह पर और कहे,"सालेऽऽऽ, तुम मरोगे तो हम भी ऐसे ही सियापा करेंगे...।" पर उसने कहा कुछ नहीं, अपने को जब्त कर के वहाँ से हट गया।
मिश्रा की इस चिढ़ के बारे में वह अच्छी तरह जानता था। बाँके बाबू के लिए कोई भी केस आता था, यह किसी-न-किसी तरह झटक लेता था...। यहाँ तक कि उनकी बुजुर्गियत का भी ख़्याल नहीं करता था। शुरू में छोटा समझ कर बाँके बाबू ने बर्दाश्त किया, पर एक दिन अचानक जब वह उनके ही चैम्बर में बैठा शेखी बघार रहा था, तब उन्होंने गुस्से में इसकी ही फ़ाइल इसके सिर पर दे मारी थी। गनीमत थी कि उस दिन वह भी वहाँ मौजूद था, वरना बाँके बाबू गुस्से में इसका सिर ही फोड़ डालते...। बाद में दोनो की बोलचाल बन्द हो गई थी। अब, इधर उसने सुना था कि मिश्रा ने ही पहल कर के बाँके बाबू से बोलना शुरू कर दिया था।
नरेश वहाँ से हट कर आँगन में आया तो पीछे-पीछे मिश्रा भी आ गया। आँगन में सारे बाँस बराबर लम्बाई में रख कर बाँधे जा रहे थे। हाथ बँटाने के लिए नरेश झुका ही था कि चुन्नी बाबू ने जोर से झिड़क दिया,"रहने दोऽऽऽ...कोई ज़रुरत नहीं है...। हम लोग काफ़ी हैं भैया के लिए...।"
नरेश खिसिया कर सीधा खड़ा हो गया। पर सीधे खड़े होते ही उसके मुँह से एक कराह निकल गई...। नीचे झुकने से पीठ की कोई नस तड़क गई थी शायद...। झटके से खड़ा हुआ तो दर्द की एक तीखी लहर उसे भीतर तक भिगो गई...। दो पल खुद को सम्हाल कर उसने पीछे हट कर बेवजह कमरे के भीतर झाँका। भीतर, ज़मीन पर बाँके बाबू की बेजान देह किसी लावारिस वस्तु की तरह पड़ी हुई थी...। कमलादेवी भी आँचल से मुँह ढाँपे चुप बैठी थी...शायद रोते-रोते थक गई थी...। उनके आसपास दो-चार औरतों का जमावड़ा था, पर किसी के भी हाथ कमलादेवी की ओर नहीं बढ़े थे। उसकी इच्छा हुई कि जाकर उनके पास बैठ जाए और उन्हें ढाँढस बँधाए, पर दूसरे ही क्षण थोड़ी देर पहले की झिड़कन याद कर के चुपचाप खड़ा रहा।
अर्थी बँध कर लगभग तैयार हो गई थी कि तभी बाँके बाबू का भतीज़ा ढेर सारे फूल लेकर आ गया। नरेश ने देखा, गेंदे और गुलाब के बीच कुछ रातरानी की मुरझाई कलियाँ भी थी...साथ में दो-तीन हार भी थे, पर वे भी कुछ मुरझाए से थे।
नरेश गेट के बाहर जाने की सोच ही रहा था कि तभी किसी ने कहा,"अरे भाई, अर्थी भी तैयार है...। बाँके बाबू को नहलाने-धुलाने का इंतज़ाम करो...।"
"अरे रहने दो...यहाँ यह सब झंझट न करो...। घाट पर सब इंतज़ाम रहता तो है, फिर यहाँ नहलाएगा कौन...? पूरा शरीर तो अटा पड़ा है गू-मूत से...।"
"चुन्नी बाबू ठीक ही कह रहे हैं भैया...यहाँ बहुत गन्दगी फैल जाएगी...। ऐसा करो, रस्म के लिहाज से ऊपर से थोड़ा गंगाजल छिड़कवा दो...फिर बाद में घाट पर देखा जाएगा...।"
बात सभी को जँच गई थी। बाँकेबाबू के शरीर को चादर से लपेट कर अर्थी पर डाल दिया गया। किसी ने उनके ऊपर थोड़ा-सा गंगाजल भी छिड़क दिया...। चुन्नी बाबू ने सस्ते कपड़े का झिल्लर सा कफ़न उन्हें उढ़ाया तो सहसा नरेश के भीतर कहीं कुछ चटक गया...। वह अवश सा खड़ा सब कुछ एक मूक दर्शक की तरह देख रहा था...यहाँ तक कि बाँके बाबू के बेजान शरीर के पीछे जब रोती हुई कमला देवी बाहर आई और पछाड़ खा कर वहीं गिर पड़ी, तब भी उसने आगे बढ़ कर उन्हें नहीं उठाया...।
कमलादेवी बहुत बुरी तरह रो रही थी। सामने, अर्थी पर बाँके बाबू का स्याह, जर्द चेहरा खुला हुआ था। नरेश ने उन्हें देखा और चुपचाप थोड़ा पीछे हट कर खड़ा हो गया। आसपास भीड़ का कसाव बढ़ गया था। सगे रिश्तेदारों ने अर्थी पर फूल डालना शुरू कर दिया था...। एक ने बढ़ कर उनके गले में हार डाल दिया। कुछ ने नाक पर रुमाल रखे-रखे ही दूर से ही उनका चरण-स्पर्श किया, तो कुछ ने दूर से ही हाथ जोड़ दिया...। नहलाने की रस्म छोड़ कर बाकी सब रस्में पूरी की जा रही थी।
नरेश ने उसाँस भर कर आकाश की ओर देखा। आकाश के नीचे शाम पूरी तरह झुक आई थी, पर फिर भी हल्की लालिमा अब भी शेष थी...। सूरज लगभग पूरा ढल चुका था, पर पीछे अपना निशान छोड़ गया था आकाश की छाती पर...। आका्श के ठीक नीचे की सड़क भी गहरी, स्याह रंगत की हो गई थी...और...।
"राम नाम सत्य है...सत बोलो, गत है...।" अचानक आ गए तूफ़ान की तरह उठा यह वाक्य हुँहआता हुआ नरेश के कानों से टकराया, तो वह हड़बड़ा गया...। लोग बड़ी तेज़ी से अर्थी लेकर बाहर निकल गए...। औरतें भी गेट तक दौड़ी...। कमलादेवी किसी तरह गिरती-पड़ती अर्थी के पीछे दौड़ी तो, पर दूसरे ही क्षण थक कर वहीं गेट के पास बैठ गई...। सब लोग एक-दूसरे को धकियाते-से बाहर निकल गए थे, पर नरेश वैसे ही मूर्तिवत खड़ा रहा...। कुछ पलों में जैसे कुछ चैतन्य हुआ तो बाहर की ओर भागा, पर वहाँ तेज़ी से जा रहे लोगों के कन्धों पर सस्ते बाँस वाली बाँके बाबू की अर्थी को चरमराते-डोलते हुए देखा तो वहीं पर खड़ा होकर बच्चों की तरह फफक पड़ा...।
(प्रेम गुप्ता "मानी"