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आधार शिला

कहानी

आधार शिला /सुधा भार्गव

नारी के संघर्ष की अनूठी कहानी जिसे एक ही धुन थी शिक्षित होकर उसके प्रसारण से ज्ञानोदय –भाग्योदय करे ।

सुखिया जिस दिन से ससुराल आई ,सुख ही सुख बरसने लगा ।इतना सुख की लोगों की आँखों में खटकने लगा । सुबह से शाम तक जी तोड़ मेहनत करती ,सास ससुर की सेवा कर अपने को धन्य समझती । गाँव के मुखिया की बेटी होते हुए भी न खाने का नखरा न पहनने का । सलीके से रखे घर को देखते ही उसकी सुघडता का परिचय मिल जाता ।

शादी से पहले दसवीं पास करने के बाद उसने पढ़ने के लिए बड़े हाथ –पाँव मारे पर उसकी दाल न गली । गाँव में तो उसकी यही शिक्षा बहुत मानी जाती । मुखिया ने स्वस्थ ,सीधे –सादे हरिया से उसकी शादी कर दी । कई एकड़ जमीन का वह अकेला वारिस,सुखिया राज करेगी यही उसके बाप का सोचना था ।

सुखिया ने विवाह के बाद भी हिम्मत न हारी । वह नून –तेल की दुनिया से बाहर भी झांकना चाहती थी। दूसरे ,घर में एक कमाए और चार खाएं वाली बात उसे जमती न थी। आधी जमीन पर खेती होती और आधी जमीन बेकार पड़ी रहती। पुराने ढर्रे से हरिया खेती करता । इतना पैसा भी अंटी में न था कि कृषि करने के आधुनिक यंत्रों को खरीदा जा सके। उधारी से इन्हें खरीद भी लेता तो अज्ञानता के कारण उनका उपयोग न कर सकता था।

पिछले वर्ष ही उस गाँव में कृषि विद्यालय खुला था । सुखिया के पास सोचने का ज्यादा वक्त न था । उसने तुरंत उसमें दाखिला लेकर हरिया की मदद करने का निश्चय किया । हरिया अपनी पत्नी की बात सुनकर अति हर्षित हुआ । वह तो अपनी निरक्षरता पर खुद ही खीज उठता । पग –पग पर उसके सामने रुकावटें आतीं । सुखिया के आने पर उसे संतोष हुआ कि चलो घर के दरवाजे सरस्वती के लिए खुले तो सही।

उस दिन रात के समय घर के काम –काज से निबटकर पूरा परिवार एक साथ बैठा था। सुखिया सास के पैरों में तेल की मालिश कर रही थी । वृदधा गठिया की रोगिणी जो ठहरी । तभी हरिया ने बात उठाई –

"माँ,सुखिया कृषि विद्यालय में जाकर पढ़ना चाह रही है ताकि हम नए तरीके से फसल उगाएँ।"

"बाप –दादा के जमाने से मैं खेती करता चला आ रहा हूँ। अब यह क्या नई सूझ। भूखे मरने की नौबत तो न आई और न आएगी । बहू लड़कों के साथ पढ़ेगी तो गाँव भर में थू –थू अलग होगी। सुखिया के ससुर उबल पड़े।"

"अगर हम इस चिंता में रहे कि दूसरे क्या कहेंगे तो उनको प्रसन्न करने के चक्कर में हमारे ऊपर परेशानियों के बादल छा जाएंगे । हमारे पास कोई हुनर होगा तो सब पूछेंगे वरना कोई घास भी न डालेगा। विद्यालय जाकर मैं चार बातें सीखूंगी तो किसान भाइयों को भी बताऊँगी। अपने भले के साथ उनका भी भला होगा ।" सुखिया ने शांत स्वर में कहा।

बहू की चातुर्यपूर्ण वाकपटुता के आगे हरिया के बाप ने मौन होकर स्वीकृति दे दी ।"सास को बहू की आजादी कुछ जँची नहीं और बोली -

"घर का काम –धंधा कैसे चलेगा ? मैं तो कुछ कर नहीं सकती । मुझ से कुछ आशा भी न करना।"

"तुम चिंता न करो। मैं घर के काम में हाथ बटाऊंगा। सुबह की ही तो बात है । 2बजे तक तो यह घर लौट कर आ जाएगी ।"

"बेटा ,तू कहाँ –कहाँ काम करेगा । घर में भी और बाहर भी । कुछ दिनों में ही मुरझा जाएगा।" ममता का सागर कुछ ज्यादा ही उमड़ पड़ा ।

"मिलकर भार उठाने से काम हल्का ही नजर आयेगा । माँ तुम्हें भी हिलना –डुलना चाहिए। पिछली बार वैध जी बता रह थे एक जगह बैठे रहने से जोड़ दर्द करने लगते हैं।"

"ले ,तू तो अभी से अपनी बहू की तरफदारी करने लगा ।"बात बढ़ने के डर से हरिया वहाँ से तुरंत भाग खड़ा हुआ।

अगले दिन से पति –पत्नी की तपस्या शुरू हो गई। सुखिया बड़े सवेरे खाना बनाने में जुट जाती, हरिया ऊपर का काम समाप्त करता । दौड़ते –भागते एक गिलास दूध कंठ से उतारती और विद्यालय पहुँचती। दोपहर को अपना पाठ दोहराती और डट जाती कार्यक्षेत्र में। गोबर थापना,गाय –बैल की जुगाली का प्रबंध करना,शाम को दूध दोहना सभी तो उसे करना था। चाहती थी हरिया के लौटने से पहले चूल्हे-चक्की से फुर्सत पा ले ताकि दो मिनट उसके पास भी बैठ ले मगर इतना शायद उसके नसीब में न था।

एक दिन हरिया खेतों से कुछ जल्दी आ गया। माँ सो रही थी,बाबू उसके चौपाल गए थे । मौका देखकर वह सीधा सुखिया के पास चला गया । वे बातों में इतने तल्लीन हो गए कि पता ही न चला कब कब में आकाश में तारों की बारात निकल आई । हरिया का इंतजार करते –करते वृद्ध –वृद्धा थक गए। कमरे से आती धीमी आवाज को सुनकर उनके दिमाग में एक ही बात घूमने लगी -शादी के बाद बेटा उनके हाथ से निकला जा रहा है । इतने में हरिया कमरे से बाहर निकला –अरे हरिया तू आ गया क्या?हम लोग न जाने कब से भूखे बैठे हैं।

सास की ऊंची आवाज सुनकर सुखिया चौंक पड़ी और पल्लू संभालती चौके में घुस गई । हरिया हँसते हुए बाप से बड़ी आत्मीयता से मिला। उनके हाथ अपने हाथों में लेकर बोला –"चलो बाबा गरम –गरम रोटी खाएं ।"

"तवे की गरम रोटी अब मेरी तकदीर में कहाँ ?दोपहर के लिए बहू दाल बना गई । उसमें नमक बड़ा तेज था । आलू भी बड़े और कड़े थे। बूढ़ी ही सही –दो रोटी तो सेक ही लूँगी ।"

"अरी अम्मा ,यह तो खुशखबरी है । सुख़िया तूने कुछ सुना !अब मैं माँ के हाथों की रोटियाँ खाऊँगा जिसमें उसका प्यार समाया होगा । अच्छा ,बोल महतारी ,कल कब खेत से रोटी खाने आ जाऊं।"

बूढ़ी माँ ने तो गुस्से में ताना मारा था पर हरिया ने बात का रुख ही दूसती तरफ मोड दिया । हारकर दूसरे दिन उसे फुल्के सेकने ही पड़े । हरिया ने माँ की बात का बुरा नहीं माना । उसे क्रोध भी नहीं आया । जानता था बीमारी और ढलती उम्र के कारण माँ चिड़चिड़ी हो गई है । उसे वे दिन भी याद हैं जब माँ ने हर तूफान का सामना करके उस पर संताप की छाया भी न पड़ने दी । इसी कारण माँ की आँख में पड़ा धूल का कण ही उसे व्याकुल करने को पर्याप्त था। वह माँ के शब्द बाण हंसकर छाती पर झेलता । वैसे इसी में सबका भला था ।

सुखिया की परीक्षा निकट थी। सुबह से ही किताबों में दिमाग पड़ा था । सास –असुर को जल्दी से खाना खिलाकर न जाने कब –कब में बिस्तर पर लुढ़क गई । संध्या धीरे –धीरे घर –आँगन में उतार आई पर उसकी नींद न टूटी ।खेतो से लौटकर हरिया ने पूछा –"माँ सुखिया कहाँ है?"

"रूखी –सूखी रोटी खिलाकर न जाने कहाँ गायब हो गई।"

"देख माँ ,बहू तेरा कितना ध्यान रखती है । मसालेदार सब्जी से तो तेरा पेट खराब हो जाता है। ज्यादा नमक बाबू जी को ब्लडप्रेशर के कारण नुकसानदायक है। खुद भी वह बेस्वाद खाती है।"

"वह क्यों खाने लगी ?"

"कहती है जो मेरे बड़े खाएँगे मैं भी वही खाऊँगी । गांधारी ने तों अपनी आँखों पर पट्टी बांध ली थी कि मेरा पति अंधा है तो मैं भी अंधी बन कर रहूँगी । कुछ इसी प्रकार का सोचना उसका है।"

हरिया अनपढ़ होते हुए भी बेवकूफ नहीं था। इसकी विनोदप्रियता और हाजिरजबावी को देखकर उसके पिता को अहसास होने लगा कि उन्होंने अपने बेटे को पढ़ाया क्यों नहीं?"

सुखिया के आने से इसकी पीड़ा उसे ज्यादा सालती। एक दिन वे सुखिया से पूछ बैठे –"बहू,मेरा बेटा क्या इस उम्र में पढ़ नहीं सकता?"

"बाबूजी ,पढ़ने लिखने की कोई उम्र नहीं होती । वे और आप दोनों पढ़ सकते हैं।"

"मैं भी ----आश्चर्य से आँखें फैल गईं।"

"हाँ,आप भी---।"

"लेकिन पढ़ाएगा कौन? प्रौढ़ो को साक्षर बनाने के लिए रात में कक्षाएँ लगती हैं पर वहाँ आने –जाने में काफी समय लगेगा । हरिया तों खेत से काफी थका-मांदा लौटता है । उसके लिए जाना असंभव है ।" इतना कहकर बाबूजी गहरी उदासी में डूब गए ।

"असंभव को संभव बनाया जा सकता है यदि ------।"

"हाँ –हाँ बोलो बहू ,तुम हमें जरूर कोई रास्ता दिखाओगी ।"

"यदि मैं आपको अक्षर ज्ञान दूँ तों कैसा रहे ?"

"तुम तो बेटा मेरे घर के अंधेरे में ज्योति बनकर आई हो ।" उनकी आँखों में आशा के रंग –बिरंगे हजार दीप झिलमिला उठे।

सास ने पहली बार अपनी पढ़ी बहू की कदर जानी । अगले दिन से घर का वातवरण ही बदल गया । सुखिया स्कूल से लौटी थी कि सास बोली –जल्दी से कुछ खाकर आराम कर ले । आज तो तुझे पढ़ने के साथ पढ़ाना भी है । और हाँ शर्बत हमने पी लिया है ,बनाने की जरूरत नहीं।"

बहू सास की सहृदयता पर हैरान थी । उसे स्नेहिल लहरें छू –छूकर जा रही थीं। उदात्त भावनाओं के झोंकों में शीघ्र ही वह घोड़े बेचकर सो गई । उठने पर तरोताजा थी। उल्लास और उमंग ने उसे नवजीवन प्रदान किया । सब्जी सास काट चुकी थी बस उसे लौकी छौंकनी थी । गाय की सानी करके दूध दोहने उसके ससुर खटाल गए थे । भोजनोपरांत घर के सदस्य एक पंक्ति में आज्ञाकारी बच्चे की तरह कागज –पेंसिल लेकर बैठ गए । इधर वर्णमाला शुरू हुई उधर उसके स्कूल की परीक्षाएँ। लेकिन वह संघर्ष मार्ग पर अविराम डटी रही । उसे तो रिश्तों को अटूट विश्वास ,असीमित प्यार के धागों में बांधना था । शिक्षा के प्रसारण से ज्ञानोदय –भाग्योदय करना था। सुखिया के सतत प्रयास से हरिया और उसके माँ –बाप अंगूठे छाप से कलम के मालिक हो गए । सास हनुमान चालीसा गुनगुनाने लगी । ससुर को चंदा मामा पढ़ने का शौक चर्रा गया। खेत पर जाते तो किताब ले जाना न भूलते ,आते तों अपनी अर्द्धांगिनी को उपदेश देना शुरू कर देते और फिर होती पति –पत्नी की मीठी नोंक –झोंक ।

कृषि विद्यालय में एक अध्यापक सेवा निवृत हुए । उनका पद रिक्त होते ही सुखिया ने प्रार्थना पत्र प्राचार्य के हाथों में थमा दिया । वे उसके मृदुल व्यवहार से पहले से ही प्रसन्न थे। अत: शीघ्र ही उसे स्वीकार कर लिया गया। अगले माह की पहली तारीख से उसे शिक्षिका पद ग्रहण करना था और आज 20 हो गई थी । इतने कम समय में घर वालों से नौकरी करने की मंजूरी पाना टेढ़ी खीर था । उसकी गर्दन अधर में लटक गई ।ससुर और पति की उपस्थिति में एक दिन उसने कहा –"आधुनिक प्रणाली से मुझे खेती करना आ गया है । उसके लिए यंत्र ,छोटे औज़ार और धन की जरूरत है ।"

"धन हम साहूकार से ले सकते है ।" हरिया बोला ।

"उसके फंदे में एक बार उलझे तो उलझ कर ही रह जाएंगे ।" सुखिया ने अपनी असहमति जताई।

"बैंक से उधार ले सकते हैं मगर ब्याज देना पड़ेगा।" ससुर ने सलाह दी।

"जब तक खेती –बाड़ी में मुनाफा न हो ब्याज देना बहुत चोट पहुंचाएगा ।" सुखिया ने गहराई से सोचते कहा।

"कुछ दिनों के लिए मैं नौकरी कर लूँ तो कैसा रहेगा । ?उससे ब्याज चुका देंगे । "बड़े साहस ने सुखिया ने कहा।

सब सुखिया की बुद्धिमानी के कायल हो गए और इतना समझ गए थे कि समय के साथ उन्हें भी अपनी रफ्तार तेज करनी पड़ेगी, रुकने के लिए वक्त नहीं है। लेकिन हर दृष्टि में प्रश्न था –नौकरी कहाँ मिलेगी?उनका संशय दूर करती हुई सुखिया पुन:बोली –"नौकरी मैंने ढूंढ ली है।" एक विजयी मुस्कान उसके होठों पर छा गई।

"ना बाबा ,बहू से इतना काम लेना ठीक नहीं ।एक जान हजार काम ! कुछ हो गया तो दुनिया यही कहेगी,ससुराल में बहू को कोल्हू का बैल बना रखा है ।"

"हरिया के बाबू,चिंता न करो । घर का काम तो हम –तुम मिलकर सँभाल लेंगे । खेतों का काम हरिया करता ही है । सुखिया आराम से नौकरी करके हम सबका भविष्य बनाएगी।"

साक्षरता और सहयोगिता की आधारशिला पर निर्णय एक पल में हो गया और सुखिया के सुनहरे सपने झर –झर उसकी झोली में आन पड़े ।

समाप्त

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