मन के हारे हार है....और....मन के जिते जित.
दोस्तों यह कहावत का मतलब तो आप समझ ही गए होंगे....आज में आपको एसी ही एक सत्य घटना पर आधारित कहानी बताने वाला हूँ, यह कहानी साबित कर देगी की हार और जित दोनों मन से ही होती हैं।
यह कहानी की शुरुआत कुछ इस प्रकार से होती है कि..
उत्तरप्रदेश के अंबेडकर नगर की एक लड़की जो भारत देश के लिए वॉलिबोल खेलती थी, लखनऊ से दिल्ली जाने वाली पद्मावत एक्सप्रेस ट्रेन में बेठती है, आधी रात में बरेली के पास चार गुंडो की नजर लड़की के गले में पहने सोने की चैन पर पडती हैं, जो इस लड़की को उसकी माँ ने गिफ्ट किया था, चारो गुंडे लड़की से वो सोने की चैन छीनने की कोशिश करते हैं, लेकिन लड़की तो ऐथलिट थी भारत देश के लिए वॉलिबोल खेलती थी तो इतनी आसानी से तो वो देने वाली नहीं थी,
वो लड़की चारों गुंडो से लड़ना शुरू कर देती हैं , मजे की बात तो यह थी की ट्रैन में सोये और बैठे लोगो मे से कोई लोग उसकी मदद के लिए भी नहीं आते,
कुछ देर की हाथापाई के बाद वें चारों इस लड़की को उठाकर चलती ट्रैन से नीचें फेक देते हैं, 😰
दुसरे ट्रेक पर वो बेहोश पड़ी हुई थी की उस ट्रैक पर एक और ट्रैन आ जाती हैं, ये बदहवास अवस्था में वो लड़की अपने आप को हटा तक नहीं पाती और ट्रैन की सारी बोगीया एक पैर को शरीर से अलग करते हुए चली जाती हैं, 😣
पुरी रात 7 घंटो में 49 ट्रैने एक एक करके गुजरती हैं, खून से लतपत पैंरो को चुहे तक कुतरने लगते हैं, सब कुछ दिमाग देख तो रहा होता है, लेकिन उसके शरीर में इतनी ताकत नहीं होती की उन्हें हटा पाये, 😰
सुबह लोगों की नजर पड़ती हैं और लोग उसे बरेली हॉस्पीटल में लेकर जाते है,
हॉस्पीटल में खून नहीं, बेहोश करने की दवा नहीं, लेकिन लड़की की हिम्मत को देख कर डॉक्टर और हॉस्पीटल के कर्मचारी ही खून देते है, बिना बेहोशी की दवा के ही पैंरो को काटा जाता है,
मिडीया में भी ख़बर आ जाती हैं क्योंकि देश के लिए वॉलिबोल खेलती थी, नहीं तो शायद किसी पेपर के कोने में जगह मिल जाती वही बहुत बड़ी बात होती,
एम्स दिल्ली में रेफर किया जाता है, वहा उसका इलाज चलता है इलाज के दौरान टी.वी पर देखती है कि कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी और रेल्वे उसे आत्महत्या का प्रयास साबित करने में लगे हुए थे,
सोचिए क्या गुजरी होगी उसपे ....😕
देश के लिए वॉलिबोल खेलती थी और देश के लोग और देश की संस्था ही उसको कायर बता रही थी,
लड़की हॉस्पीटल से ही संदेश लिखती है...की
आज तुम्हारा वक्त है जिसको जो केहना है कह दो, अपना क्या जाता है, ये वक्त वक्त की बात है और वक़्त सबका आता है, और जब मेरा वक़्त आयेगा तो मैं तुम्हें बताउंगी की मैं कायर हु या बहादुर,
इस इच्छाशक्ति को देखकर ही आप अनुमान लगा सकते हो कि उस लड़की के शरीर में खून की कमी भले ही हो गई होगी, लेकिन उसकी नशो में कुछ कर गुजरने की क्रांतिकारी भूख अभी भी दौड रही थी,
"उसकी जान में जान थी यही बहुत बड़ी बात थी "
कुछ दिनों बाद एम्स से डिसचार्ज होते ही वो घर नहीं जाती बछिंद्री पाल को मिलने चली जाती है, शायद अमुमन लोग इसे पागलपन ही कहेंगे की घर चली जाती ठीक हो जाती, स्वस्थ हो जाती फिर मिलने चली जाती, 😕
लेकिन असाधारण लोगों का
जुनून भी साधारण नहीं होता ,
बछिंद्री पाल तो उँचे उँचे पहाड़ो पर चड़ने वाली पर्वतारोही महिला थी उसके वहां क्या काम था,
आप यकीन नहीं मानेंगे की वो लड़की माऊन्ट एवरेस्ट पे चढ़ने की ट्रेनिंग की बात करने के लिए गई थी,
जिसके हाथ पैर सब होते है वह भी दस बार सोचते हैं, और यहाँ एक पैर नहीं है दुसरे में राड लगा हुआ है स्पाइन में 3 फेक्चर है अब तो यह पागलपन की हद ही थी,
लेकिन एक विजेता ही...
दुसरे विजेता की कद्र करता है ।
बछिंद्री पाल जी कहती है कि तुम एक पैर से अपाइज हो हॉस्पीटल से सिधे यहाँ आयी हो, आज माऊन्ट एवरेस्ट की उंचाई भी तुम्हारे जज्बे के आगे छोटी हो गई है, तुमने आज ही माउण्ट एवरेस्ट के शिखर पर पहुंच कर आज ही माउण्ट एवरेस्ट को फतेह कर लिया है,
बिन पैंरो के माउण्ट एवरेस्ट चढ़ना अपने आप में ही एक कहावत लगती हैं,
विपरीत परिस्थितियों में इतिहास लिखना सुना था , लेकिन परिस्थितियां विपरीत से भी भयंकर हो जहा जिवन और मरण में सिर्फ एक सेकेंड का फर्क होता है,
जो लोग पर्वतारोही है वो जानते होंगे की एवरेस्ट का हर पड़ाव मौत का पड़ाव हैं, लेकिन जिन्हें देश के झंडे को गले से लगाने में आत्मा से परमात्मा के मिलने का अनुभव होता हो उसे मौत भी दुर से सलाम करती हैं, जी हाँ.....
में बात कर रहा हूँ अरुणिमा सिंहा की 😍
11 अप्रैल 2011 को जिसे चलती ट्रैन से फेंका गया था, हॉस्पीटल से निकल ने का बाद 18 महीने की ट्रेनिंग की, वो ट्रेनिंग नहीं थी वो 18 महीने का हर दिन - हर रात दर्द से भरे हुए थे,
21 मई 2013 को सुबह 10 : 55 मिनट पर वो लड़की 8848 मिटर उँचे माउण्ट एवरेस्ट के उपर भारत का झंडा फरहाती हैं,
यह कहानी बहुत कम शब्दों में लिखी है पर पर सच में तो वो 52 दिनों की जिवन -मरण की कहानी थी, 52 दिनों में अरुणिमा ने एवरेस्ट को फतेह किया था,
लेकिन आपको एक बात जानके हैरानी होगी की जितनी कठिनाई एवरेस्ट चढ़ने में होती उनसे कही ज्यादा कठिनाई एवरेस्ट से उतरने में होती हैं, अरुणिमा सिंहा का शेरपा जो उनके साथ गया हुआ था उतरते वक़्त उसने जवाब दे दिया था कि हम नींचे नहीं पहुच पायेंगे ,😰 अरुणिमा के हाथो का रंग निला पड़ गया था , और अरुणिमा का ऑक्सीजन बोटल खत्म ही होने वाला था,
अरुणिमा थोड़ी दुर चलते ही गिर जाती हैं, वो लगभग मर ही चुकी थी की एक ब्रिटीशर जो उपर की तरफ चढ़ रहा था, उसके पास एक एक्स्ट्रा ऑक्सीजन बोटल था वो अरुणिमा की और केंक कर चला जाता है, शेरपा जो अरुणिमा के बचने की पुरी उम्मीद छोड़ चुका था , वो तुरंत ऑक्सीजन बोटल की नली अरुणिमा के ऑक्सीजन मास्क में लगाता है और अरुणिमा की सांस फिर चलने लगती हैं, बड़ी मुश्किल से अरुणिमा नींचे आती है,
लेकिन भगवान भी उन्हीं का साथ देते है
जो खुद पर विश्वास रखते हैं,
अरुणिमा माउण्ट एवरेस्ट चढ़ने वाली दुनिया की पहली अपाइज महिला बनती है, और यहाँ एवरेस्ट से तो सिर्फ अरुणिमा की शुरुआत होती हैं,
"अभी तो इस बाज की असली उड़ान बाकी है
अभी तो इस परिंदे का इम्तिहान बाकी है,
अभी अभी तो मेंने लांधा हैं समुंदरो को,
अभी तो पुरा आसमान बाकी हैं ।"
वो यही नहीं रुकती, वो 2014 के बाद पुरे विश्व की सात सबसे उँची चोटियों को फतेह करती हैं,
1. एशिया का माउण्ट एवरेस्ट
2. आफ्रिका का किलिमंजारो
3. युरोप का एलब्रश
4. औस्ट्रैलिया का कसीउजसको
5. अर्जेनटिना का अकानगूआ
6. इंडोनेशिया का पिरामिड
7. अँटार्कटिका का माउण्ट विंसन
अभी एक साल पहले ही 1 जनवरी 2019 को अँटार्कटिका का माउण्ट विंसन पर भी फतेह किया ,
अभी तक अरुणिमा जी को बहुत सारे अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है, जिसमे पद्मश्री अवार्ड (2015) रानी लक्ष्मीबाई अवार्ड, यश भारती अवार्ड, Firts Lady Award (2016), Tenzing Norgay National adventure award (2015), सामिल हैं,
अभी भी अगर आपको लगता है कि आपकी मुश्किले अरुणिमा की मुश्किलों से बड़ी है, अगर नहीं है और आप सिर्फ बहाने बनाकर खुदको कमजोर साबित करने में लगे हुए हैं, तो जाग जाओ और आगे बढ़ो।
दोस्तों अरुणिमा सिंहा पर लिखी हुई एक पुस्तक हैं, " Born Again On the Mountain " यह पुस्तक मेंने पढ़ी उसके बाद अरुणिमा सिंहा जी के व्यक्तिगत जीवन से प्रेरणा लेकर मेंने यह कहानी लिखी है और अन्य वांचको को भी अरुणिमा सिंहाजी के जिवन से प्रेरणा मिले इस हेतु मातृभारती पर प्रदर्शित की है,
अरुणिमा सिंहा की हॉस्पीटल में लिखी हुई कविता से ही यह कहानी समाप्त करना चाहेंगे,
" रहने दे आसमा , जमी की तलाश कर,
सब कुछ यही है , कही और न तलाश कर ,
जिने के लिए बस एक कमी की तलाश कर."
आपके मूल्यवान सुझाव और रेटिंग जरूर दिजिये
😍 कहानी पढ़ने के लिए आपका धन्यवाद 😍
- Wr.Messi 🙏