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अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार

अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार

आठ महीने के देबू को कंधे से लगाए अनुपमा गांगुली जब नैहाटी जंक्शन पहुँची तो नौ-पंद्रह वाली लोकल पटरियों पर रेंगने लगी थी। उसने खुद को कोसना भेजा । कैसी कूड़ मगज़ हो वक़्त का ज़रा अंदाज़ नहीं। कल भी कुछ फ़र्लांग की दूरी पर थी और ट्रेन सामने ही धड़धड़ाती गुज़र गयी। फ़िर सारा दिन का कोसना- कलपना। किसी पैने नश्तर की तरह मन प्राण में पैवस्त होता एक अबूझ खालीपन जिसका कोई पार नहीं । अपनी कल की हालत को यादकर उसे घबराहट होने लगी । वही सब आज फ़िर नहीं । उसने इरादा किया और इससे पहले कि ट्रेन रफ़्तार पकड़ती बिना एक पल गवांए साड़ी के पल्लू को कमर में खोंसकर वो ट्रेन की गति के साथ दौड़ पड़ी।

ये सम्मोहन और बेलगाम चाहतों की दौड़ थी। ट्रेन का छूट जाना आज मंज़ूर न था।

इस दौड़ में कन्धे पर सोया देबू बाँह पर खिसक आया था। थोड़ी सी भी चूक जानलेवा हो सकती थी। लेकिन उसे अपने यूँ जोख़िम उठाने पर कोई तअज्जुब नहीं। प्रेमिकाएं कच्चे घड़े का अवलंबन लिए उफ़नते दरिया में कूद पड़ती हैं।

उसने अपनी बाँह में देबू को कसकर दबोच लिया, पायदान पर पाँव जमाया और ठीक अगले ही क्षण पोल पर झूलती हुई बिल्ली की सी खूँखार फुर्ती के साथ अंदर समा गई।

उसे लगा वो बेकार ही डरती थी। कितनी ही औरतें तो रोज़ ऐसा करती हैं। दौड़ती लोकल पकड़ना उसके लिए एक सरल सा काम था। बिल्कुल इतना सरल जितना आजकल किसी औरत को देखने भर से उसकी ब्रेसियर का साइज़ जान लेना।

ये ख़्याल आते ही उसका मन हँसने को हुआ कि कैसी बेहूदा नौकरी है। कितने उल -जुलूल सी बातें मन में आती हैं।

ठस्समठस्स भीड़ थी। उसे बैरकपुर का इंतज़ार था। अभी पूरे बीस मिनट बाक़ी थे। तक़रीबन एक घन्टे के सफ़र में बस ये बीस मिनट ही उसे असह्य थे। बाक़ी समय को फुर्ररर से उड़ जाना था। अगर आज भी वो ये लोकल न पकड़ पाती तो......

उसकी सारी चेतना इस अप्रिय 'तो 'पर ठहर गयी। एक सयानी औरत के केंचुल में लिपटी अंधी प्रेयसी उद्विग्न हो उठी।

तो .......

दिन पहाड़ सा होता। उसे देखे बिना एकदम फीका और बेरंग।

बाहर की सयानी औरत को ये उद्विग्नता फ़िज़ूल लगती है। उसने डपटकर कहा " कैसा फ़ितूर है, तुम्हें उसके सिवा कुछ सूझता भी है?"

"नहीं सूझता । " प्रेयसी ढीठ और बेफ़िक्र है।

"मैं उसके प्रेम में हूँ। "

"चौथी बार !" सयानी औरत विद्रूपता से मुस्कराने लगती है ।

"क्या हर्ज़ है?"

प्रेयसी मोहब्बत के फ़लसफ़े जानती है। उसे जिरह पैरवी करने से गुरेज़ नहीं।

"अगर एक बार तो चौथी बार क्यों नहीं। सही पात्र न मिले तो सौ बार भी लाज़िम है। "

सयानी औरत पूछती है।

"मगर किस बिना पर ? कोई भला आदमी इस दमघोंटू लोकल में उसके रोते बच्चे को बहला दे और इसके बदले वो अपनी तमाम सोचों को उसके नाम लिख दे!"

"सिर्फ़ इसलिए तो नहीं। "

प्रेयसी को दंभ है कि वो सब जानती है जो कुछ भी मोहब्बत में है।

वो यक़ीन से कहती है "लेकिन अगर वो भला आदमी किसी उद्धारक की तरह इस लोकल की सारी उलझनों से उसे उबार ले, तब तो सपने उसके नाम किए जा सकते हैं न ?"

सयानी औरत मुतमइन न हुई। मगर खामोश हो गयी।

प्रेयसी उस भले आदमी की उदारताओं को सोचने लगी। कि जब देबू लोकल की इस निर्दयी भीड़ में दूध के लिए उसकी छातियां ढूँढने लगता है और वो लज्जा से मरी जाती है ,तो नज़दीक बैठा वो भला आदमी कैसे उसके लिए अपने अख़बार की एक सुरक्षित दीवार चुन देता है । उसकी एक सिसकारी से बिना देखे ही वो कैसे जान लेता है कि देबू कटखना हो गया है। रबड़ की उन रंगीन चाभियों (टीथिंग कीज़) को याद करके वो कृतज्ञ हो उठी, जिन्हें उसने देबू के हाथ में थमाया था। कौन कहता है पुरुष का प्रेम आँखों से और स्त्री का कानों से शुरू होता है। उसने तो कभी उसे आँख भर नहीं देखा न ही कभीउनके बीच प्रेम जैसे किसी शब्द पर कोई संवाद हुआ था।

अचानक उसे लगा कि कंधे पर लटके जूट के थैले में वाइब्रेशन मोड पर लगा मोबाइल बहुत देर से गुर्रा रहा है। उस तरफ़ उसका ध्यान ही न था। थैले में बहुत सी चीज़ें थी। प्लास्टिक का लंचबॉक्स ,बेबी पाउडर, डायपर, एक पुड़िया में बंधा सेरेलक, तौलिया, पानी की बोतल। उसने उंगलियों से टोहकर मोबाइल को बाहर खींच लिया। मोबाइल गुर्राकर खामोश हो चुका था। छः मिस्ड कॉल। सुरंजन आजकल खूब फ़ोन करता है। दिन में दो- एक बार तो ज़रूर ही। उठाते ही बेसिर पैर के बीसियों सवाल।

" देबू बिल्कुल मुझ पर पड़ा है न .... दूध -भात खाता है या नहीं.…उसके बाल छिलवा देंगे तो बाल अबकी भी घुंघराले आएंगे न... अच्छा कितने दिन में वो उसे पहचानने लगेगा ?

वो सोच रही थी इन बेज़ा सवालातों में कोई एक भी उसके लिए है ? घंटियों जैसी वो हँसी जिस पर सुरंजन मर मिटा था देबू की किलकारियों में जज़्ब हो गयी है। जिन्हें सुन लेने को वोआजकल ख़ूब बेसब्र हुआ रहता है।

कैसे अचानक ही हमारे प्रेम का विस्थापन किसी दूसरे पर हो जाता है।

बाप बनते ही मर्द आखिर बौरा क्यों जाते हैं ! बिना किसी शारीरिक परिवर्तन के ऐसा हृदय परिवर्तन !इन अर्थों में पितृत्व माँ होने से कहीं ऊपर है। उसे अपने पिता की याद हो आयी और सुरंजन पर श्रद्धा होने लगी। किन्तु अगले ही पल उसने सोचा कितना कहा था कि नौकरी के लिए बाहर न जाओ। एक बार मुल्क छोड़कर आदमी सारी उम्र के लिए परदेस का हो जाता है। मगर सुरंजन ने उसे समझाया " सत्तर हज़ार तनख्वाह है। ओवरटाइम अलग। खा -पीकर भी लाख रुपए कहीं नहीं गए। " सुनकर उसकी आँखें फैल गयी थीं। उसने खुद को आश्वस्त किया डेढ़ साल ही तो है, कट जाएगा। फ़िर वो इस बाड़ी में नहीं रहेगी। एक ऊँची छत वाला खुला मकान लेगी। सुरंजन के चले जाने के पंद्रह दिनों बाद उसे अपने गर्भ की खबर हुई। इतनी जल्दी जानेे किस लिपत में फंस गयी। पता होता तो सुरंजन को कभी जाने न देती।

उसने देबू को देखा। देबू नेे होंठ दूध पीने की मुद्रा में सिकोड़ रखे हैं। बीच -बीच में वो अपने होठों को चलाने लगता है। उसे उस पर लाड़ आने लगा। देबू है भी कित्ता प्यारा। गोल -मटोल गदबदे ख़रगोश सा। बिल्कुल सुरंजन पर पड़ा है। वैसी ही नाक, माथा और उजला रंग। वो रोज़ कानी उंगली से उसके माथे के बीचोंबीच एक नज़रबट्टू रख देती है । घर छोड़ने से पहले ये आख़िरी काम है जिसे वो कभी नहीं भूलती। उसने देबू को प्यार से चूम लिया। फ़िर याद आया सोते बच्चे को प्यार नहीं करना चाहिए।

मोबाइल दोबारा गुर्राने लगा था। एकबारगी मन हुआ बात कर ले। मगर बैरकपुर आने को है। अगर बात पर बात निकलती गयी तो जाने कित्ती देर लगे और फ़िर बैरकपुर .......

उसने मोबाइल को गुर्राने दिया।

अब तक वो भीड़ के जटिल व्यूह को बेधकर खड़े होने लायक जगह बना चुकी थी। लेकिन उसे पूरी आशंका थी कि अगले ही स्टेशन पर भीड़ का कोई रेला आएगा और उसे कहीं भी पटक देगा। किसी की बदबूदार साँसों से जी घिन्ना जाएगा ,किसी की गलीज़ अंगुलियाँ उसकी रान को छूती गुज़र जाएंगी । कितना ही शरीर को सिकोड़ेगी किसी का गुस्ताख़ कन्धा उसके जिस्म को छीलता निकल जायेगा या किसी के जूते के तले उसका पाँव कुचल जाएगा।

सारी धकापेल में बाक़ी दिनों से जुदा देबू आज कंधे पर चुप सोया पड़ा था। फ़िर से बुख़ार तो नहीं उसने बुशर्ट के भीतर हाथ सरकाकर तसल्ली की। उसका बदन पसीने से तर था। जैसे अभी हरारत टूटी हो। उसके माथे ,नाक और होठों के ऊपर पसीने की बूंदें ओस कणों की तरह उभर आयी थी। और कोई दिन होता तो भीड़ और गरमी से आक्रांत होकर वो बुक्का फाड़कर रोने लगता। रोते -रोते इस कदर बिछलता कि फ़िर ब्लाउज़ के हुक खोले बिना त्राण नहीं। उसकी शिकायत कोई हो मगर ज़रूरत एक ही थी। वो कभी भी कहीं भी आक्रामक ढंग से उसकी छातियाँ टटोलने लगता । उसका रोना जितना प्रचण्ड होता उसी अनुपात में दूध के लिए उसकी आक्रामकता । ऐसे समय उसके जिस्म में चींटियां सी रेंगने लगती हैं और दिल अपनी जगह से दायीं ओर को झुक जाता है। उसे कुछ नहीं सूझता कि वो क्या करे। और तो और ये डरावने पल उसकी रातों के दुःस्वप्न बन गए थे।

वो सपनों में देखती कि देबू के चार छोटे धवल दाँत किसी दैत्य की तरह लंबे और नुकीले हो गए हैं। उसके नाख़ून बहुत तेज़, पैने और धारदार हैं। किसी ज़िद में उसने उसके ब्लाउज़ को दांतों और नाखूनों से चींथकर रख दिया है। हज़ूम का हज़ूम आँखे फाड़े उसे घूर रहा है। और वो दोनों हाथों से अपनी छातियों को ढाँपे दोहरी हुई जा रही है।

कभी देखती कि जाने किस हड़बड़ी में दूध पिलाने के बाद ब्लाउज़ के हुक लगाना भूल गयी है। हवा का कोई निर्लज्ज थपेड़ा उसका पल्लू उड़ाए जा रहा है। बहुत से आदमी औरत उसकी नग्नता पर हँसी ठट्ठा कर रहे हैं।

इन सपनों ने मारे डर के उसकी नींदें उड़ा दी थी। एहसान उस भले आदमी का जिसने उसे उबार लिया।

अपने सपनों में आजकल वो देखती है एक लम्बी अकेली सड़क। जिसके दोनों ओर यूकिलिप्टस की कतारें हैं। उनसे लिपटी लाल सफ़ेद फूलों की लतरें हैं। सड़क के दूसरे छोर पर एक दिव्य पुरुष की छाया उसे व्यग्र प्रेमी की तरह पुकार रही है। और वो इस आवाज़ को पहचानकर बेतहाशा दौड़ रही है।

सरपट भागती लोकल किसी स्टेशन पर रुकी। उसने झाँककर देखा 'श्यामनगर' । अगला स्टेशन बैरकपुर होगा। वो सँभल गयी। बस दस मिनट और देबू यूँ ही सोता रहे।

ट्रेन में रोज़ का परिचित माहौल था। 'आनंद बाजार' के पन्ने रुचि और रुझान के हिसाब से बांट लिए गए थे। कुछ हाथों में अंग्रेज़ी अख़बार थे। उन चेहरों पर ज़हीनियत की ठसक थी। दायीं तरफ़ की एक सीट पर कुछ नौकरीपेशा मर्द ताश के पत्तों को जापानी पंखों की तरह हाथों में फैलाए जोशोखरोश के साथ 'स्वीप' की बाज़ी में मशगूल थे। छुट्टी के दिन सुरंजन बाड़ी के दोस्तों के साथ दिन- दिन भर ताश की बाज़ियों में लगा रहता था। और चाय पर चाय मांगता था। उसे सुरंजन पर खूब खीझ होती थी।

ग्रैब हैण्डलों पर झूलते कुछ नए लड़के शाम को होने वाले क्रिकेट मैच की हार -जीत पर कयास लगा रहे थे। उसके निकट ही बगलों में झोले दबाए दो औरतें बड़ी देर से बढ़ती महँगाई पर अपना दुखड़ा साझा कर रही थीं। औरतें कितना बोलती हैं। इसलिए उसे जनाना डिब्बों से ख़ास परहेज़ है।

अचानक उसने अपनी पीठ के निचले हिस्से पर कोई सख़्त दवाब महसूस किया। एक लिजलिजी छिपकली सी समूचे बदन पर रेंग गयी। उसने मुड़कर देखा । एक बड़ा सा डोल लिए कोई सोलह -सत्रह का लड़का था। उसके कपड़ों से छेने की खटास भरी गंध उठ रही थी। होठों के ऊपर बालों की विरल रेखा अभी जमने ही लगी थी और आँखों में सारे जहाँ की वहशियत और नदीदापन। ये वो कुत्सित और भेदक आँखे थी जो किसी औरत के बुर्के के पार भी झाँक सकती हैं। घृणा से उसका बदन फरफरा उठा। अभी वो होता तो इस दुष्ट लड़के पर चढ़े कामुक प्रेत को एक झापड़ में झाड़ देता। उस भले आदमी की निर्विकार आँखे उसकी आँखों में मुस्कराने लगीं। वो कितना सज्जन और शालीन है। एक अनिवर्चनीय श्रद्धा से वो अभिभूत हो उठी। और चुपचाप दो सीटों के बीच के तंग गलियारे में खिड़की से सटकर खड़ी हो गयी।

खिड़की वाली सीट पर दोहरी देह की एक औरत बैठी ऊँघ रही थी। उसकी बगल में ज़रूरत से कुछ अधिक ही तनकर बैठा मरघिल्ला सा आदमी शायद उसका पति था। जो दुबलेपन की अपनी हीनता को मूंछों में पैने खम देकर काफ़ूर कर देना चाहता था। मगर बावजूद इसके उसके चेहरे पर कतई रुआब न था। मोटी औरत उस पर ढही जा रही थी। उसके ब्लाउज़ की तंग बांहों से छितराया हुआ गोश्त और बाहर को उबली पड़ती उपलों सी छातियां।

अड़तीस.....

उसने अनुमान लगाया और मुस्करा दी।

चाssss गौरोमsss....

टेर लगाता चायवाला भीड़ में गलियारा बनाकर इसी तरफ़ को आ रहा था।

इतनी गरमी में गरम चाय !

सुरंजन जेठ की गरमी में उसके सारी नानुकर और झल्लाहट के बाद भी उसे दबोच लेता है। बाड़ी की नीची छत और नीचे उतर आती है।

"गरमी गरमी को मारती है । "

कैसी उल्टी बात है ! वो साड़ी के छोर से चीकट हो आयी गर्दन को पौंछने लगी। चायवाला उसकी तरफ़ आस भरी नज़र से देख रहा था। उसे जाने क्यों सुरंजन और चायवाला बिल्कुल एक से लगे। उसे लगा चायवाला अपनी निरीह मुस्कराहट फेंककर कह रहा है " एक चाय ले लो जी.... गरमी गरमी को मारती है । "

उसने हिक़ारत से मुँह फेर लिया।

पीछे झाल मूड़ी वाला अपना खोमचा लिए तैयार था। कच्चे तेल की झांस चाय की गरमी से कुछ बेहतर थी। ऐसे माहौल में लोग खाते भी कैसे होंगे ! इस समय उसके पेट में तंदूर सा जल रहा था। सुबह जल्दी में कुछ भी खाकर नहीं चली थी। सवेरे की मसरूफ़ियत और ज़रुरतों में खाना ही उसे गौड़ लगता है। उसके थैले में दोपहर के लिए जल्दबाज़ी में बनाए गए दो परांठे और लाल मिर्च का अचार था।

कुछ दूर दो कमसिन लड़कियां मुँह जोड़े कुछ फुसफुसा रही थीं। वो बहुत धीमी आवाज़ में कुछ कहती और फ़िर बहुत ज़ोर से हँस पड़तीं। इस उम्र में लड़कियाँ फुसफुसाकर बतियाना सीख जाती हैं। उसे उनकी हँसी पर रश्क़ हुआ। उसे याद आने लगीं अपनी हमजोलियाँ और ऐसी ही बेवजह की खिलखिलाहटें , ढेले मारकर शहतूत और झरबेरियाँ गिरानाऔर उन पर टूट पड़ना , स्कूल कैम्पस और घुंघराले बालों वाले म्यूज़िक सर। उसे याद आ रहा था उनका गिटार बजाते हुए झूमकर गाना "ओsss सुज़ियाना नाउ डोंट यू क्राई फ़ॉर मी......

वो होठों ही होंठों में हठात गुनगुनाने लगी।

"ऐज़ आई केम फ्रॉम अलाबामा विद माय बैंजो ऑन माय नी ...."

उसे अचंभा हुआ सालों पुराना सुज़ियाना गीत उसे याद है !

बोर्ड पर सरगम लिखते समय उसे गुम देखकर अक्सर म्यूज़िक सर उसकी गर्दन के ठीक नीचे चॉक का टुकड़ा खींच मारते। "पॉमेला अंतरा सुनाओ । " उन्नत शिखरों के बीच दर्रे में चॉक कहीं फंस जाती और शर्म से उसकी कनपटियाँ लाल हो आतीं। वहीं खुद पर गुरूर भी होता कि इतनी लड़कियों के बीच म्यूज़िक सर ने अपनी इस दिलकश खुराफ़ात के लिए उसी को चुना। उसे इल्म था कि उसकी कौन सी खूबी पर म्यूज़िक सर उसे 'पॉमेला' बुलाते हैं। अपनी कमीज़ को दो इंच सिलाई लगाकर और स्कर्ट को ढाई इंच छाँटकर उसने भी 'पॉमेला ' बनने में कसर न छोड़ी। स्कूल छोड़ते समय म्यूज़िक सर ने बड़े लाड़ से उसके गाल पर चपत लगाई थी। बहुत दिनों तक उसे लगा कि म्यूज़िक सर अपनी गर्म उंगलियां वहीं उसके गाल पर छोड़ गए हैं।

कोई साल भर बाद इस सम्मोहन को मोहल्ले के एक जांबाज़ छोकरे ने तोड़ दिया। जो उसकी एक झलक के लिए घन्टों छत पर तपा करता। और उसके पीछे फर्राटे से स्कूटर घुमाता। इस हिमाकत पर एक दिन उसे बेतरह पीटा गया।

सुरंजन से मिलना भी उसके लिए कुछ कम रोमांचक न था। वो लोकल में उसके बिल्कुल नज़दीक खड़ा था और उसने पूछा था "कोथाई नाम्बे ?"

बिना सोचे ही वो तपाक से बोल पड़ी "अनुपमा झा । "

सुरंजन के साथ बाक़ी सब भी ही -ही कर हँस पड़े थे। वो खिसिया कर रह गयी थी। उसने सोचा था इस शहर में बांग्ला सीखे बिना गुज़र नहीं।

बात की बात में सुरंजन से मुलाकातों का सिलसिला चल निकला। बहुत जल्द वो अनुपमा गांगुली बन गयी।

लोकल की रफ़्तार धीमी पड़ने लगी थी और धड़कनों की तेज़।

बैरकपुर आ गया था।

उसकी नज़र गिद्ध की तरह प्लेटफॉर्म पर चिपक गयीं। एक दूसरे को धकियाते लोग ही लोग। जैसे मधुमक्खियों के छत्ते पर किसी ने ढेला मार दिया हो। और वो पगलाई सी उड़ती फिर रही हों। । उसने नज़रें गाड़कर देखा। वो कहीं न था। उसकी बेचैनी फनफनाकर बेकाबू हो रही थी।

वो आया क्यों नहीं ?

कहीं बुख़ार वुखार तो नहीं?

कहीं ऐसा न हो कि आज वो अपनी ट्रेन गंवा बैठा हो !

आशंकाओं के पीछे भागते हुए उसकी साँसे फूलने लगीं। काश ये आख़िरी स्टेशन होता तो वो बाहर निकलकर उसे ढूँढने लगती ।

मोटी औरत जागकर आँखे मल रही थी। उसने अपने भारी भरकम हाथ से उसे टहोककर अपनी जगह बैठने का इशारा किया और अपना कुल वज़न घुटनों पर तौलती हुई उठ खड़ी हुई। इस वक़्त उसकी टाँगे जवाब दे रही थीं। वो बेजान सी सीट पर फैल गयी।

बैरकपुर पीछे छूट रहा था।

वो खिड़की से बाहर ताकने लगी। दृश्य तेज़ी से बदल रहे थे। पोखर में नहाती भैसें ....काई जमी खपरैलें और बेढब झोंपड़े..... ख़जूर और केले के दरख़्त ...और उन पर लटकी गाछें...मुंडेरों पर बैठे पीली आँखों वाले नंग -धड़ंग बच्चे..... कीचड़ में लोटते सुअर..…...पटरियों के नज़दीक कुड़कुड़ाती मुर्गियां..... घरों के उपेक्षित पिछवाड़े..... बिना पलस्तर की दीवारें और उन पर लिखे खोई ताकत और जवानी वापस लौटाने वाले हकीमों के पते..... निरमा साबुन और घोड़ा बीड़ी के विज्ञापन..... क्रॉसिंग पर इंतज़ार देखते वाहनों की कतारें।

किन्तु वो इन सबसे बिल्कुल असंपृक्त थी।

बराबर से कानों में हल्ला मचाती एक रेल गुज़र गयी। देबू चिहुँक कर जाग गया। वो अपनी अबोध आँखों से दुनिया देख रहा था। वो सोचने लगी जब देबू पैदा हुआ था उसे लगता था अब और कोई चाह बाक़ी नहीं । ऐसा ही सुरंजन को पाकर भी लगा था। अब कुछ और नहीं चाहिए कहते कहते भी मन कितना कुछ चाहता है। हवा की तुर्शी से या किसी और बात से उसकी आँखों में पानी छलक उठा।

सियालदह उतरी तो गला सूख रहा था। उसने झोले में रखी पानी की बोतल से गला तर किया। उसे प्यास लगी थी लेकिन पानी खारा और कुनकुना सा था। सूरज अभी से सिर पर था। रात थोड़ी बूंदाबांदी हुई थी। खुलकर बरस जाता तो कुछ राहत होती। वो रिक्शा देखने लगी। नज़दीक ही छाँव में सुस्ताता रिक्शेवाला शायद बीड़ी पीने की फ़िराक में था। लेकिन सवारी को देख उसने वापस बीड़ी अपने कान पर अटका ली।

"कैनिंग स्ट्रीट । "

रिक्शेवाला गमछे से पसीना पौंछकर बोला

" दौस टका । "

उसने छिपे - छिपे साड़ी की चुन्नटें ठीक की और बिना हील हुज़्ज़त के बैठ गयी।

रास्ते भर उसकी बंजारन आँखें सड़क छानती रहीं। बिल्कुल ऐसे जैसे हमारी कोई बेहद प्रिय चीज़ कहीं खो जाए और हम उसके मोह में उसे असंभावित जगहों पर भी खोजते रहें।

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दुकानों के पिछवाड़े संकरी गली के मुहाने पर जाने कब से रंग -रोगन को तरसती एक गंदली सी इमारत थी। उसके ठीक सामने गंधाता हुआ सार्वजनिक शौचालय। वो पल्लू से नाक भींचकर पहले तल्ले पर चढ़ गई।

एक मैली कुचैली अधेड़ औरत दौड़ी आयी।

"अजा एता दुरा!"

वो फीकी सी मुस्करा दी।

बिना खिड़कियों वाला हॉलनुमा कमरा था। मगर छत ऊँची थी। लकड़ी के नंगे तख़्त पर आधे हिस्से में प्लास्टिक का बिछावन था। उस पर दो छोटे बच्चे सोए पड़े थे। फ़र्श पर एक बड़ी चटाई बिछी थी। एक आठ- दस महीने का बच्चा घुटनों के बल रेंग रहा था। वो हवा भरे रबड़ के बबुए को अपनी नन्ही हथेलियों में भर लेना चाहता था। एक कोने में बाँस के हिंडोले में एक बच्ची गला फाड़कर रो रही थी। अधेड़ औरत एक हाथ से हिंडोले को और दूसरे हाथ में झुनझुना हिलाती हुई उसे पुचकार रही थी।

नेक औरत है देबू को ऐसे ही दुलार करती होगी उसने सोचा और दीवार की ओर मुँह करके चटाई पर बैठकर देबू को छाती से लगा लिया। दस मिनट में ही वो तृप्त हो गया।

उसने थैले से एक छोटा आईना निकालकर रुमाल के कोने से आंखों और होठों से नीचे बह आए काजल और लिपस्टिक को पौंछ दिया। अस्त व्यस्त हो गए बालों में उंगलियों की कंघी फिराकर चेहरे पर पाउडर पफ़ की एक और परत चढ़ा ली। दिवाकर सेठ हर बात में खुचड़ निकलता है। "ऐसे नाय चलेगा सेल्स गर्ल को स्मार्ट दिखना चाहिए। " उसने देबू की दिन भर की ज़रूरत का सामान तख़्त पर रख दिया। मगर जाने क्यों रबड़ की चाभियाँ निकालते निकालते थैले में वापस छोड़ दीं।

पौन घण्टा देर...

दिवाकर सेठ कुढ़ रहा होगा।

उसने तेज़ कदमों से दुकान का रास्ता पकड़ लिया।

'परफ़ेक्ट इनरवियर्स' ।

दस बाई बीस की अच्छी -खासी सुसज्जित दुकान थी। अंदर कदम रखते वक़्त उसने अपने चेहरे पर जमाने भर की दीनता और बेचारगी को पसर जाने दिया। उसने देखा रमला और निवेदिता अपनी जगह पकड़ चुकी हैं।

साफ़ चमकते काउन्टर के एकदम बीचोंबीच दिवाकर सेठ की रिवॉल्विंग कुर्सी थी या लेडीज़ -जेण्ट्स को तक़सीम करने वाला एक विभाजन बिंदु। कुर्सी के दोनों ओर मर्दाना और जनाना डमी थीं। मर्दाना डमी पर V शेप का नीला जांघिया और जनाना डमी पर उन्नाबी रंग की ब्रेसियर -पैंटी । कुर्सी के सामने काउंटर पर कैलकुलेटर और कम्प्यूटर बेज़रूरत ही रखे थे । क्योंकि दिवाकर सेठ को उनसे कोई सबब न था। वो मगज़ का शक़्क़ी और हिसाब का पक्का ऐसा शख़्स था जिसे अपने अतिरिक्त और किसी पर यक़ीन न था।

उसे अंदर दाख़िल होते देख जुगाली करते हुए वो बाहर निकला और बेस्वाद हो चुके पान को पिच्च से एक कोने में थूक दिया।

" कोयट्टा बाजे ?" वो घड़ी की ओर इशारा करके गुर्राया।

सूखे होंठों पर जुबान फिराकर उसने किसी तरह कहा ।

"ग्यारह । "

वो सोच चुकी थी इन दिनों बुख़ार का बहाना ही ठीक होगा।

"दद्दा ...आमार ज्वॉर छिला । "

माक़ूल वजह सुनकर भी सेठ गुर्राता रहा।

"तुमी की भाभछा आमी बोका .... .चाकरी छोड़े घोरे बोशो । "

उसने चप्पलों के भीतर अपने पाँव सिकोड़ लिए। और अपना कंठ छूकर कहा।

"सौत्ति दद्दा । "

दिवाकर सेठ ने उसे अनसुना कर एक भरपूर जम्हाई ली तो उसके दाँतों की विकृति साफ़ नज़र आने लगी। उसने नीम उपेक्षित भाव से कहा "ताले सौंध्या एक्स्ट्रा टाइम दुइ । "

फ़रमान सुनकर उसे अपना दिल डूबता सा महसूस हुआ। कि अब शाम की लोकल में भी उससे मिलने की उम्मीद नहीं।

निवेदिता ने मुस्कराकर उसकी तरफ़ देखा तो उसे उसकी मुस्कराहट ज़हर की तरह लगी। निवेदिता उसे बहुत कुटिल और भौंडी सी लगती है । गहरी काट का गला और सीने में ज़बरन पैदा किया औचक नुकीलापन। उसे नज़रअंदाज़ कर वो चुपचाप काम में जुट गई ये सोचते हुए कि शाम तक कोई जुगत लगाकर निकल लेगी।

कभी- कभी ये नौकरी उसे बहुत पकाऊ लगती है। सनक की हद तक औरतों की बेज़ा फरमाइशें। किसी को बैंगनी धरती पर सफ़ेद फूल चाहिए ,किसी को गुलाबी पर नीली बुंदकियाँ। किसी को सी थ्रू, किसी को पैडेड । सब की सब उसे बीमार लगती हैं। एक ने तो हद ही कर दी जब उसे घूरते हुए कहा "तुम्हारा ब्राण्ड कौन सा है ....वही दिखाओ । " उसे बड़ा क्रोध आया कि ब्राण्ड में क्या रक्खा है....

दिन भर यहाँ खाने तक की फुर्सत नहीं। काउंटर के पीछे छिपे छिपे बस किसी तरह ठूँस लो। चार बजे ढाई इंची के डिस्पोज़ेबल में मटमैली सी चाय और दो टिक्कड़ से बिस्कुट। या कभी दिवाकर सेठ बहुत खुश हुआ तो तेल में डूबा एक सिंघाड़ा।

साँझ तलक उसकी पिंडलियाँ दुखने लगती हैं। पीठ में अकड़न की एक तेज़ लहर सी उठती है मगर उस भले आदमी को सोचते ही वो किसी अनिवर्चनीय खुशी से भर जाती है। एक मख़सूस चेहरे पर उसकी देह ,मन ,बुद्धि सब दांव पर लगे हैं।

आज वो आपे में नहीं थी। हालांकि चौकोर खानों में डिब्बे पर डिब्बे जमाते उसके हाथ वहीं थे। एक से दूसरे पर थके हुए समूचे जिस्म का भार डालते उसके पाँव वहीं थे । सनक भरी फ़रमाइशों पर झूठ- मूठ मुस्कराते होंठ वहीं थे। डिब्बों पर वांछित रंग और नंबर खोजती आँखे वहीं थीं मगर औघड़ मन कहीं और रमा था। वो कभी प्लेटफॉर्म पर, कभी लोकल में और कभी सपने की उस लंबी अकेली सड़क पर भटक रहा था।

सात बजते ही उसने कातर स्वर में कहा ' दद्दा एबार आमी जेते दाओ । "

किन्तु दिवाकर सेठ अपने फ़रमान पर दृढ़ था। उसने उसकी दरख्वास्त कोई तवज्जो न दी । और उसे अनसुना करके जमा - घटा करते हुए घुटनों पर रखे रजिस्टर के नीचे बदस्तूर अपनी रानें खुजाता रहा। उस समय वो उसे अपनी प्रेम कहानी के खलनायक की बजाय किसी खुजलिहा कुत्ते की तरह जान पड़ा।

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दुकान छोड़ते वक़्त उसका सारा जिस्म टूट रहा था। नखशिखान्त एक स्तब्ध थकान। जैसे बुख़ार आने को हो। गठीले बदन का सारा करारापन ढुलमुला रहा था। उससे न मिल पाने की नाउम्मीदी ने मन को भी तोड़ दिया था। वो सुस्त कदमों से चलती हुई स्टेशन पहुँची। मन में किसी के मिल जाने की ललक न थी। ट्रेन पकड़ लेने की कोई जल्दी न थी। छूट भी गयी तो क्या..... दूसरी मिलेगी।

इस समय काजल उसकी आँखों में कीचड़ की तरह पड़ा था। दिन भर बगलों ने जो पसीना उगला था वो नीले ब्लाउज़ पर धब्बे बनकर बेतरतीब नक्शों सा उभर आया था। गर्दन पर टैल्कम पाउडर ,गर्द और पसीने के मेल से धारियाँ बन गयी थीं। बस ग़नीमत थी कि देबू को बुख़ार नहीं चढ़ा था। मगर वो बुरी तरह चिड़चिड़ा रहा था। ट्रेन छूटने में थोड़ी देर थी। खिड़की वाली जगह आसानी से मिल गयी थी। देबू अपनी नन्ही अंगुलियों से जूट के थैले पर टँकी सीपियों और कौड़ियों को उखाड़ लेने को मशक्क़त कर रहा था। छत पर लगे पंखे की कोई पंखुड़ी टेढ़ी होकर शोर कर रही थी। खिटर खिटर ...खिट्ट खिट्ट..…....

उसने खिड़की के सहारे सिर टिकाकर अपनी श्रान्त आँखें मूँद लीं।

जाने कब आँख लग गईं। और जब खुलीं तो देबू ज़ोर से उसकी छाती पर अपनी उंगलियाँ और मुँह मार रहा था। ख़तरा भाँपकर वो घबरा गयी। ट्रेन खचाखच भर चुकी थी। पंखा लगातार शोर कर रहा था। उसने अपने चारों तरफ़ देखा। अचानक आँखों में बिजली सी कौंध गयी। वो उससे दो हाथ के फ़ासले पर पीठ किए खड़ा था । जिसके बारे में उसका ख़्याल था कि वो उसका प्रेमी है। जिसकी आवाज़ सपने में उसे रोज़ पुकारती है। खुशी के अतिरेक से उसकी देह काँप गयी। वो उसके इतने कऱीब था कि वो हाथ बढ़ाकर उसे छू सकती थी। उसका जी हुआ उसे छूकर पूछे "कल से कहाँ थे ?"देबू का रुदन और हमले तेज़ होने लगे थे। मगर अब उसे फ़िक्र क्यों हो। वो चट से सब संभाल लेगा। उसके लिए कुछ मुश्किल नहीं।

देबू जोरों से चिंघाड़ने लगा था । इस समय रबड़ की चाभियाँ उसे बहलाने को नाकाफ़ी थीं। वो उसकी छातियाँ टकोर रहा था। वांछित चीज़ न मिलने पर उसने अपने बालों को मुट्ठी में जकड़ लिया था। रोते - रोते उसका बदन ऐंठने लगा था। मगर उद्धारक पीठ किए खड़ा था। उसे हुआ क्या है ! ज़रूर ही वो नाराज़ है। कल उसे न पाकर वो उदास हो गया होगा। उसी का गुस्सा दिखा रहा है। सोचकर उसे और अच्छा लगा। वो अविरल उसे ताक रही थी । एक बार आँखें मिले और वो आँखों आँखों में सारे गिले शिकवों की माफ़ी मांग ले। कि अब ये नाराज़गी छोड़ भी दो। ऐसी भूल फ़िर नहीं होगी।

देबू बेक़ाबू हो रहा हो रहा था। अब रोते रोते गोद से बाहर निकला जा रहा था। उसका चेहरा लाल पड़ गया था। क्या ये सब वो नहीं देख रहा है! उसकी हर एक हरक़त को पकड़ लेने वाला उसका मसीहा इतना उदासीन क्यों है। कैसी गुत्थी है। उसे अपनी साँस भारी होने लगी। इतना गुस्सैल ! उसकी आँखें बरसने को हो आयीं। बैरकपुर कऱीब ही था।

लोकल अपनी रफ़्तार कम कर रही थी। थोड़ी देर में वो उतर जाएगा। उसका जी हो रहा था वो उसे झिंझोड़ दे वो ऐसा क्यों कर रहा है। देबू का रुदन अब असहनीय था। उसका सारा सम्मोहन टूट गया ,उसने देखा उसका प्रेमी अगली सीट पर बैठी एक लजीली सी औरत को बड़े एहतियात से सहारा देकर भीड़ से निकाल रहा था। उसकी मांग में ढेर सिंदूर था और हाथ में शंख चूड़ा। वो पेट से थी। उसकी तरफ़ बिना किसी तवज्जो के वो यूँ उतर गया जैसे उसे जानता ही नहीं। उसका कलेजा धक्क रह गया। कुछ देर को उसकी देह दिमाग सब कुंद हो गए। देबू बदहवास हो रहा था। उसकी साँस चढ़ने लगी थी । लोग उसे अजीब नज़रों से घूर रहे थे। अचानक उसने देबू को कसकर अपनी गोद में भींच लिया। उसकी नसें सख़्त हो गईं उसने पल्लू फैलाकर एक पल में ब्लाउज़ के हुक खोल दिए। देबू नदीदा सा छाती से चिपट गया। अब उसके लिए जैसे वहाँ कोई न था। उसे किसी की शर्म न थी । उसके कानों में कोई आवाज़ न थी। न पंखे की खिट्ट- खिट्ट न भीड़ की किच- किच न उसे पुकारती कोई आवाज़। बस दहाड़े मारता हुआ देबू था और वो थी। वो थी और देबू था। रबड़ की चाभियाँ मुट्ठी में फ़िज़ूल सी पड़ी थीं। उसने खिड़की से बाहर हाथ निकाला और मुट्ठी खोल दी।

देबू के बालों को सहलाते हुए वो सोच रही थी आज सुरंजन को एक लंबा सा कॉल करेगी और पूछेगी "वापस कब आओगे ?"

विजयश्री तनवीर

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