घाट-84, रिश्तों का पोस्टमार्टम - भाग-2 saurabh dixit manas द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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घाट-84, रिश्तों का पोस्टमार्टम - भाग-2

घाट–84 ‘‘रिश्तों का पोस्टमार्टम’’ (भाग-3)

नहीं–नहीं वो ऐसा नहीं कर सकती वो तो कितनी प्यारी है, लेकिन ? मेरे मन में फिर से सवालों का ज्वार–भाटा उठने लगा ।
अरे काशी विश्वनाथ जी कैसा स्वागत करे हो अपनी नगरी में! मैंने आसमान की तरफ देखकर मन में कहा । फिर जल्दी से डायरी को बैग में रखने लगा तो हाथ सेे कुछ टकराया । बैग को अच्छे से टटोला तो नोकिया 1100 के पीछे का कवर हाथ लगा । अरे ये तो मेरे फोन का है । मैंनेे बुदबुदाते हुए बैग को फिर अच्छे से चेक किया तो मेरा फोन उसी में मिला जिसकी बैटरी खुल चुकी थी साथ ही मेरा बटुआ भी उसी में कपड़ों के बीच मिल गया । ख़ुशी के कारण मैं चीख पड़ा । दुकानदार ने घूरते हुए देखा और बोला– “का बे गाँव से आये हो का, चिल्ला काहे रहे होे ?” सुनकर मैं चुप हो गया और मैंने उससे पूछा– “कानपुर के हो का–– ?
“हाँ तो––– ?” उसने प्रश्न के जवाब में फिर प्रश्न किया ।
फोन की बैटरी लगाकर मैंने जैसे ही फोन ऑन किया तो धड़ाधड़ मेसेज आने लगे, पैंतीस मिस्ड कॉल, जो पापा और मम्मी के थे । इससे पहले मैं उन्हें फोन करता पापा का फोन आ गया ।
“हैलो!”
“हाँ पापा, पैर छू रहे हैं ।” डरकर अपनी सिगरेट को दूर फेंकते हुए मैंने धीमे से बोला –
“हाँ तो तुम्हाआ फोन काहे बंद हतो ?” उधर से आवाज आयी (मेरे पापा आज भी अपनी मातृभाषा में बात करते हैं जो जिला जालौन की है) ।
“पापा वो––––” मैं कुछ और कहता कि फिर बोले
“सही से पहुँच गये ते ?” मैं उनको क्या बताता इसलिए बस हाँ ही बोल सका “एडमिशन को पता कर लियो और शर्मा जी के भाई होईन राहत हैं, उनसे बात भई है हमाई, संझा को मिल लियो ।”
“कौन शर्मा अंकल ?” मैंनेे पूछा ।
“अरे बेई जिनकी मोड़ी (बेटी) तुम्हाये संघे पढ़त ती ।” मैं “जी” से ज्यादा कुछ नहीं बोल सका ।
“अब फोन न बंद करियो । बे तुम्हें फोन करहैं ।” “हौ ।” मैंने कहा ही था कि फोन कट गया । मेरी हालत ठीक वैसी ही थी जैसे एक साधारण परिवार के लड़के की बाप की डाँट खाने के बाद होती है । ख़ैर मैंने कपड़े बदले और चल पड़ा मिशन एडमिशन पर ।
कहते हैं जिस दिन किस्मत आपकी एक बार अच्छे से बजा चुकी होती है उस दिन ज्यादा दिक्कत नहीं होती इसलिए एडमिशन की सारी औपचारिकताएँ आसानी से पूरी हो गयीं । शाम के 4ः25 हो रहे थे, मैं ऑफिस बिल्डिंग से निकलकर बीएचयू स्थित काशी विश्वनाथ मंदिर के बाहर की दुकान से समोसे लेकर अपनी भूख मिटाने की कोशिश कर रहा था तभी सामने नजर पड़ी ।
काली शॉर्ट कुर्र्ती, लाल पैजामी और धानी रंग की चुन्नी ओढ़े एक बेहद खूबसूरत लड़की सामने से आती दिखी । समोसा आधा मुँह के भीतर और आधा बाहर, आँखें खुली की खुली, बिना पलक झपकाये मैं उसे देखे जा रहा था ।
“ज्यादा घूरो मत, कूट दिये जाओगे! पंडित जी के पीछे की पलटन नहीं दिख रही क्या ?” किसी ने बड़े प्यार से मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा ।
मैंने जल्दी से ख़ुद को संम्भाला । वो सीधे मेरी ही ओर आ रही थी, उसके पीछे 12–15 लड़के 6–7 लड़कियाँ भी थीं । मुझे डर भी लग रहा था और निशा को देखने की ख़ुशी भी हो रही थी । बहुत कुछ था जो मुझे उससे जानना था । एक–एक करके सारे सवाल मन में धमाचैकड़ी कर रहे थे पर इतनी बड़ी पलटन के सामने मेरे हाथ पैर काँपनें लगे ।
“ओह सौरभ! कैसे हो, हो गया एडमिशन ?” निशा ने मेरे पास आकर पूछा ।
“जी ।” के सिवा कुछ और मेरे मुँह से न निकल सका ।
“ये है सौरभ, आज ही एडमिशन लिया है और ये मेरी टीम– रश्मी, पिंकी, श्वेता, राकेश, जतिन, टुईं और ये शक्ति शिकारी! चैंको मत इनके नाम की अलग कहानी है, धीरे-धीरे पता चल जायेगी ।” परिचय कराते हुए निशा ने कहा ।
“मुझे आज शाम दिल्ली निकलना होगा । शक्ति! सौरभ को कोई जरूरत हो तो देख लेना यार ।” बोलकर निशा आगे निकल गयी ।
टुईं, शक्ति शिकारी––––ये क्या नाम हैं ? मैं सोच रहा था तभी मेरा फोन बजा ।
“दिल के टुकड़े–टुकड़े करके मुस्कुरा के चल दिये–––” सुनकर सभी जोर से हँस पड़े, निशा ने भी पलटकर एक नज़र मुझे देखा और मुस्कुरायी । फोन उठते ही उधर से आवाज़ आयी ।
“सौरभ बोल रहे हो ?”
“जी ।” मैंने उत्तर दिया ।
“मैं इन्द्रबदन शर्मा बोल रहा हूँ, सुबह आपके पापा ने नंबर दिया था ।”
“जी अंकल, नमस्ते ।”
“तो शाम 6, साढ़े 6 बजे लंका चैराहे पर मिलो ।” मेरे “जी अंकल” बोलते ही फोन कट गया ।
रश्मी ने कहा– “यार सौरभ! रिंगटोन तो बहुत बढ़िया लगायी है ।” सुनकर सब खिलखिलाकर हँसने लगे ।
“वो कोई गाना नहींं मिल रहा था तो बस, ऐसे ही लग गयी ।” मैंने झेंपते हुए कहा ।
जतिन– “तो ब्रो! रुकने का क्या सीन है ?”
“आज तो डीएलडब्ल्यू वाले अंकल के यहाँ फिर कोई पीजी देखूँगा ।”
“हॉस्टल के लिए ट्राई क्योंं नहीं किया ?” मेरी बात को रोकते हुए पिंकी ने कहा ।
“बस ऐसे ही––”मैंनेे उत्तर दिया ।
“चल ठीक फिर मिलते हैं ।” शक्ति शिकारी ने कहा फिर हमने अपने फोन नंबर बदले और वो लोग आपस मैं हँसी ठिठोली करते हुए जाने लगे ।
“दिल के टुकड़े–टुकड़े–––– हाहाहा–––” मुझे उनकी धीमी–धीमी आवाज़ आ रही थी ।
मैं बीएचयू से बाहर आया । चैराहे के पास रोड के दोनोंेंं ओर खाने–पीने की चीजों की बहुत सी दुकानें और ठेले लगे थे । मैं कुछ खाने का प्लान बना ही रहा था तभी मेरा फोन बजा । अब मैंनेे नोकिया की डिफॉल्ट टोन लगा ली थी ।
“हाँ सौरभ! कहाँ हो–– ? उधर से आवाज़ आयी ।
“जी अंकल! महामना की मूर्र्ती के पास ही हूँ ।” ठीक बोलकर फोन कट गया ।
अबे क्या आदमी है ये ? पूरी बात भी नहीं सुनते । मैंनेे ख़ुद से कहा ।
“पीं–पीं” हॉर्न बजा । काली स्प्लेंडर पर बैठे आदमी ने मुझे पास आने का इशारा किया । मैं उस ओर बढ़ चला, 30 मीटर जाने में मुझे 12 मिनट लग गये क्योंंकि बनारस में लोग सीधे तो चलना ही नहीं जानते । ऐसा लग रहा था कि यहाँ के लोग दूसरी गाड़ियों को तो छोड़िए पैदल वालों के लिए भी जाम लगावाने की विशेष योग्यता रखते हैं । स्प्लेंडर के पास पहुँचा तो 43–44 साल के एक थुल–थुल शरीर वाले आदमी ने हाथ से इशारा करते हुए कहा–
“सौरभ हो! फिर बाइक पर बैठने का इशारा किया । जिसे मैं सर हिलाकर स्वीकार कर चुका था । गाड़ी स्टार्ट हुई और आगे बढ़ने लगी । कुछ दूर चलकर ही उन्होंने बातचीत शुरू कर दी । मुझे कुछ भी ठीक से सुनाई नहीं दे रहा था क्योंंकि जब आप बाइक पर पीछे बैठे होते हो तो चलाने वाले कि आवाज़ बमुश्किल ही सुनाई पड़ती है और अगर चलाने वाले ने हेलमेट पहना हो तो भगवान भरोसे । लगभग 20 मिनट चलने के बाद गाड़ी एक सोसायटी में जाकर रुकी । शर्मा अंकल के भाई डीएलडब्ल्यू में कोई इंजीनियर के पद पर कार्यरत हैं । गाड़ी खड़ी करने के बाद अपना हेलमेट निकलते हुए उन्होंने कहा–
“तुम्हारी आँटी थोड़ी मॉडर्न है ।” जी में सिर हिलाकर मैं उनके पीछे चल दिया । एक घर पर जाकर अंकल ने डोरबेल बजायी । अन्दर से एक 32–33 वर्ष की महिला ने आकर दरवाजा खोला । जिसने हल्के हरे रंग का सिंगलपीस गाउन पहना हुआ था जो काफ़ी पतला दिख रहा था ।
“ये तुम्हारी आँटी हैं ।” शर्मा अंकल कहते हुए कुर्र्सी पर बैठ गये और अपने जूते खोलने लगे ।
आँटी तो सच मैं कुछ ज्यादा ही मॉर्डन हैं । मैंने बुदबुदाते हुए ख़ुद से कहा । हालांकि मुझे शर्म से ऊपर देखने की हिम्मत नहीं हो रही थी पर मैंने गौर किया कि आँटी ऐसे देख रहीं थी जैसे निगाहों से ही मेरा एक्सरे करने वाली हैं ।
“तो तुम सांडिल्य जी के बेटे सौरभ हो ?” उन्होंने मुझे घूरते हुए पूछा । मैंने नमस्ते करके जी में सर हिलाया ।
“चाय या कॉफी ?” आँटी ने पीछे मुड़ते हुए कहा । मैं जैसे ही कुछ कहने को हुआ कि फिर वो बोलीं –“ठीक है हाथ पैर धुल लो खाना ही लगाती हूँ, साढ़े आठ हो गये हैं ।”
“आँटी भी गजब ही हैं ।” मैं बुदबुदाया और हाथ धुलने लगा । आलू मटर की सूखी सब्जी, अरहर दाल के साथ चपाती, अच्छे से सजाया हुआ सलाद, नमक और अचार डाइनिंग टेबल के बीच लगाया जा चुका था । मैं दो दिन बाद सुकून से खाने बैठा था । हम खाना शुरू करने ही वाले थे तभी आँटी भी हमारे साथ खाना खाने के लिए बिल्कुल मेरे बगल वाली कुर्र्सी पर बैठ गयीं ।
“तो सौरभ क्या करने आये हो बनारस ?” आँटी ने पूछा ।
“पोलिटिकल साइंस में पोस्ट ग्रेजुएशन ।” वो “अच्छा!” बोलकर खाने लगीं । खाना खत्म होने के बाद अंकल ने पापा को बता दिया था कि आज मैं उनके साथ ही रहूँगा फिर जैसा होगा कल बात करेंगे । मेरा बिस्तर पास के कमरे में ही लगाया गया था जो देखने में स्टडी रूम जैसा लग रहा था । मैंने बिस्तर पर लेटते ही चादर को सर से ओढ़ लिया फिर निशा की डायरी खोलकर अपने फोन की टॉर्च जला ली । डायरी की लिखावट बहुत ही खूबसूरत थी । मुझे यकीन हो गया था कि ये किसी विज्ञान संकाय के विद्यार्र्थी की डायरी हो ही नहीं सकती क्योंंकि उनकी लिखावट अधिकतर उनके सिवा दूसरों के पढ़ने के लिए बहुत मुश्किल होती है । मेरी उत्सुकता डायरी को लेकर बढ़ती जा रही थी । दिल भी तेजी से धड़क रहा था हालांकि कमरे में मैं अकेला ही था पर फिर भी छिपने को मन कर रहा था अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई “सौरभ–––” ........क्रमशः