घाट-84, रिश्तों का पोस्टमार्टम (भाग-1)
“चलो कपड़े पहनते हैं अब इश्क़ पूरा हुआ–––छी...!!
बस यही रह गया है प्यार–मुहब्बत का पर्याय!” पास पड़ी मेज पर किताबें पटकते हुए निशा ने कहा । मैंने पीछे पलटकर देखा तो यूँ लगा मानो सुपरफास्ट ट्रेन का बेकाबू इंजन मेरी ओर दौड़ा चला आ रहा है जिसे मैं असहाय खड़ा देखने के सिवा कुछ और नहीं कर सकता था ।
“बस लड़कों को लड़कियों से मात्र एक चीज की ही दरकार होती है उसे लिया फिर निकल पड़े अगले शिकार पर । खून खौलता है मेरा, ऑल मैन्स आर डॉग!” ऐसा कहकर निशा ने मेरी तरफ घूरकर देखा । मैंने अपनी पढ़ाई वहीं पर रोक दी और चुपचाप खड़ा हो गया ।
होली की खुमारी अभी उतरी ही नहींं और इसका ये रूप ? परसों इसने भांग पी थी पर आज क्या पी लिया––– ? मैंने खुद से कहा ।
“शांत! गदाधारी भीम शांत! हुआ क्या ?” मैंने मिट्टी के घड़े से एक ग्लास पानी भरकर निशा की ओर बढ़ाते हुए कहा ।
“कुछ नहीं, पहले ही समझाया था रश्मी को अब सच्ची मुहब्बत•(लैला–मजनू, हीर–राँझे) नहीं होते, होती है तो सिर्फ विक्षिप्त मानसिक भूख जो फूल को स्नेह करने के स्थान पर स्पर्श से शुरू होकर कुचल देने तक ही रहती है । फिर क्या ? फिर किसी दूसरे फूल की तलाश और वही कभी न टूटने वाला क्रम । लेकिन नहीं मानी, कहती थी कि हमारी मुहब्बत का इतिहास लिखा जायेगा । लो लिख गया इतिहास । अब रोती घूम रही हैं ।” मुझे समझ नहीं आ रहा था कि निशा किससे बात कर रही है, मुझसे या अपनेआप से ?
निशा जो एक सिविल इंजीनियरिंग से पढ़ी हुई छात्रा थी और मैं पॉलिटिकल साइंस का विद्यार्र्थी । हम अगल–बगल के कमरों में रहते थे । कहा जाता है कि सिविल ब्रांच में लड़कियां बहुत कम होती हैं और जो होती हैं वो भी ऐसी मानों ऊपर वाले ने गलती से उन्हें लड़की बना दिया हो । लेकिन निशा इसके विपरीत थी । उसका तराशा हुआ बदन, ऐसा लगता था किसी रचनाकार की सर्वश्रेष्ठ रचना हो और मैं एक साधारण सा दिखने वाला छात्र ।
अंग्रेजी में महारथ हासिल करने वाली निशा आज हिंदी में धाराप्रवाह बोले जा रही थी और मैं मूकदर्शक बना देखे जा रहा था ।
“लेकिन हुआ क्या, बताओगी ?” मैंनेे पूछा ।
“देख सौरभिया! मेरा दिमाग बहुत खराब है, ऊपर से भूख भी लगी है । तुम पोडिकल (मेरी पॉलिटिकल साइंस को पोडिकल कहती थी) साइंस वाले कुछ रखते हो अपने खाने के लिये ?”
“रात को बर्गर बनाया था कुछ सामान बचा है, कहो तो बना दूँ ।” मैंने धीरे से कहा ।
“बना दो और क्या, या फिर एप्लिकेशन लिखकर देनी होगी ?” निशा का यही अपनापन तो था जो किसी का भी दिल जीत लेता था । मेरे पास बत्ती वाला स्टोव था जिस पर मैं खाना बनाता था, जो एक सामान्य आय वाले व्यक्ति के बेटे के लिए पर्याप्त था ।
“अगर गुस्सा कुछ कम हुआ हो तो पूरी बात बताओ ।” मैंने स्टोव जलाते हुए पूछा ।
“तुम कभी किताबों से बाहर भी निकला करो तो पता चले कि कोई और भी दुनिया होती है । पर नहीं, किताबों की दुनिया में ही घुसे रहते हो । बाहर देखो कितने लोग हैं जिनको तुम्हारी जरूरत है पर आप तो दुनिया की सारी पढ़ाई को खत्म करके ही दम लेंगे । साला किसी को इंसाफ चाहिए तो वो मर जाये पर जनाब को कोई फर्क ही नहीं पड़ता ।” निशा ने कहा । यूँ लग रहा था अब सारा गुस्सा मेरे ऊपर ही निकलने वाला है ।
“लो बन गया बर्गर, सौरभ स्पेशल! खाकर देखो और बताओ कैसा बना है ?” मैंनेे बात को बदलते हुए कहा ।
“कैसा क्या बना है ? सौरभ बाबू! खाने के लिए भूख चाहिए भूख, जो इंसाफ के लिए लड़कर ही मिलती है ।” कहते हुए उसने बर्गर खाना शुरू किया । कभी–कभी तो लगता था उसको पॉलिटिकल सांइस लेना था और मुझे सिविल ।
मुझे आज भी याद है, मैं और निशा पहली बार बनारस के चैरासी घाट पर मिले थे । मुझे बीएचयू में पॉलिटिकल सांइस में दाखिला लेना था और उसे पीएचडी का । इत्तेफाकन हम एक ही गाड़ी शिवगंगा एक्सप्रेस से बनारस पहुँचे । वो दिल्ली से आयी थी और मैं कानपुर से चढ़ा था पर हम एक दूसरे से बिल्कुल अन्जान थे । इंजन में खराबी के कारण ट्रेन 11 घंटे देर से पहुँची । मंडुवाडीह स्टेशन से कॉलेज पहुँचते–पहुँचते लगभग दिन ढल चुका था । भीतर गये तो पता चला कि प्रक्रिया जानने के लिए अगले दिन तक रुकना पड़ेगा ।
“धत्त तेरे की! आज ही सारी मुसीबत होनी थी, चल कोई नहीं कल देखते हैं ।” निशा ने मुँह बनाकर खुद से कहा । इ/ार मैं ये सोचकर परेशान था कि मेरा पर्स और मोबाइल ट्रेन में कहाँ खो गया । वैसे तो ट्रेन जब कानपुर के नज़दीक पहुँचती है तो जीआरपीएफ वाले चिल्ला–चिल्ला कर कहते हैं कि अपने–अपने सामान का ध्यान रखना, कानपुर आने वाला है पर यहाँ तो कानपुर वाले का ही आधा सामान खो गया था । मेरे बासी तरोई से मुरझाये चेहरे को देखकर निशा ने कहा–
“क्या हुआ मिस्टर––– हो जायेगा एडमिशन । आज देर ही तो हुई है कल सेम टाइम सेम चैनल पर हाज़िर हो जाना है ।” मैंने बिना कुछ बोले ‘हाँ’ में सर हिला दिया । “अभी जाकर होटल में मस्त कमरा लेते हैं फिर देखतें हैं बनारस के नज़ारे ।” निशा खुद से ही बात किये जा रही थी ।
“अच्छा गुरू! ये बताओ कौन सी ब्रांच में एडमिशन के लिए आये हो ?”
“पॉलिटिकल सांइस” – मैंने कहा ।
“तो कोई है बनारस में या बस सर उठाया और चले आये । बाबू! ये ठगों की नगरी बनारस है, कुछ पढ़े और सुने हो ?”
मुझे ये समझ में नहीं आ रहा था ये लड़की है या विविध भारती । बोले ही चली जा रही है बकर–बकर । इसका मुँह भी दर्द नहीं होता ? मैंने बुदबुदाते हुए खुद से कहा ।
“देखिए! मुझे नहीं पता आप मेरे बारे में क्या सोचती हो पर मेरा मूड बहुत खराब है । एक तो मेरा सामान खो गया ऊपर से आप बोले ही चली जा रही हैं ।” मैंने खिसियाते हुए कहा ।
“ओह! तो ये बात हैै । गुरू जी पहले ही ठगी का शिकार हो गये ?” निशा ने अटपटे अंदाज में कहा ।
“रुकने की कोई जुगाड़ है या वो भी राम भरोसे ?”
“पता नहीं, अस्सी घाट के बारे में सुना है, वहीं रात बिता लेंगे फिर आगे की देखते हैं ।”
“घाट–84 के बारे में जानते हो ?” निशा ने उसी अन्दाज में पूछा ।
“नहीं ।” मैंने उत्सुकता के साथ उत्तर दिया ।
“तो फिर चलो तुम्हें घाट–84 के दर्शन कराते हैं और रात वहीं रुकने का पूरा जुगाड़ भी ।” उसने बड़े बिंदास ढंग से कहा ।
“जुगाड़” भारत में सबसे अधिक बोले जाने वाले शब्दोंं मैं से एक है । हमारे यहाँ तो शादी, बारात, पढ़ाई, नौकरी से लेकर सरकार बनाने तक जुगाड़ का बोलबाला है । सच में अगर जुगाड़ न हो तो देश की आधी आबादी तो भूखी मर जाये । मैं अपने–आप को समझा ही रहा था कि अचानक उसने मेरे कंधे पर हाथ रखकर पूछा-
“जिंदा हो या शहीद हो गये भाई ?”
ये क्या ? भाई ? ? हालांकि मेरा और निशा का कोई रिश्ता नहीं था, पर भाई ? यार इतने खराब दिन आ गये क्या ? एक सुन्दर सी लड़की भाई बोल रही है । सच कहता हूँ आधे से ज्यादा कुँवारे लड़कों के डिप्रेशन में रहने का सबसे बड़ा कारण यही है । मन तो किया 180 साल की जेल सुना दूँ पर–––– अभी मैंने अपनी अकड़ जेब में रख ली क्योंंकि अकड़ दिखाने के लिए जेब गर्म और भारी होनी चाहिए और मेरा तो सब कुछ फट चुका था अकड़ भी और जेब भी ।
हम बीएचयू चैराहे से पैदल ही अस्सी घाट के लिए निकल पड़े । वो आगे–आगे और मैं पीछे–पीछे । लड़की तो वो थी पर डर मैं रहा था । यार रात बहुत लम्बी होती है, कैसे कटेगी वो भी खुले आसमान के नीचे ? लग गये बेटा आज तो । मैं खुद को समझा रहा था । समझा क्या खुद को धोखा देने की भरपूर कोशिश कर रहा था ।
थोड़ी ही देर में हम सुबह–ए–बनारस के मंच पर पहुँचे । मैंने देखा लगभग सभी लोग वहाँ से वापस जा रहे थे और हम घाट की ओर । वहाँ 4–6 संगमरमर की चैकियाँ पड़ी थीं जिन्हें देखकर मैं खुश हुआ कि हो सकता है यही होगा घाट–84 जिस पर सोने की पूरी व्यवस्था है । इधर–उधर देखा तो इक्का–दुक्का लोग ही नज़र आ रहे थे वो भी लेमन टी और भेलपूरी वाले ही थे जो अपना सामान समेटने में लगे थे ।
“यही घाट–84 है क्या ?” मैंने खुश होते हुए पूछा ।
“नहीं ।” उत्तर मिला । हम आगे बढ़े और सीढ़ियों पर बैठ गये ।
“खाने के लिए कुछ है तुम्हारेे पास ?” थोड़ी देर बाद उसने पूछा । मैंने ‘ना’ में सर हिलाया ।
“अबे! चांेचू हो क्या ?” वो मुझे देखकर बोली ।
आज के दिन ऐसे नये–नये शब्द सुन रहा था जो ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में भी न मिले । कैसी बला है ये ? कुछ भी बोलती है । लगता है रात में अकेली फँस गयी है इसीलिए ऐसा बोल रही है । हो सकता है चाहती हो उसकी सुरक्षा के लिए कोई साथ रहे । सोचते हुए मैं अपनी आस्तीनें ऊपर चढ़ाने लगा । निशा ने अपना बैग खोला और एक मिठाई का डिब्बा निकाला जो अक्सर स्टेशन पर लंच या डिनर का पार्सल देने के लिए होता है । उसने डिब्बा मेरी ओर बढाते हुए कहा –
“इतना ही है थोड़ा–थोड़ा खा लेते हैं ।” कहकर उसने डिब्बे से एक पूड़ी निकाली और खाते हुए पूछा–
“तो नाम क्या है, बताओगे ?”
“सौरभ!” मैंने भी पूड़ी का एक टुकड़ा काटते हुए कहा ।
“तो यहाँ कैसे ?” उसका अगला प्रश्न । मुझे लगा अंजान जगह है और एक अजनबी साथ में, तो लड़की कम से कम अपनी सुरक्षा के लिए इस तरह के सवाल तो पूछेगी ही ।
“बस बीएचयू में पोलिटिकल साइंस में एडमिशन के लिए आया था ।”
“सिर्फ जानना चाहते हो या करना भी ?”
“करना है इसीलिए तो पता करने आया था ।” अब तक मैं अपनी परेशानी को लगभग भूल चुका था ।
“और आप यहाँ ?” मैंने पूछा ।
“बस ऐसे ही ।” उसने अपने बैग पर हाथ फेरते हुए कहा । बड़–बड़ करने वाली और पुरूषों की तरह एटिट्यूड रखने वाली लड़की का पहला उत्तर था जिसे सुनकर ऐसा लगा इस बार उसने बहुत कुछ सोचकर बोला है । हालांकि जवाब में ऐसा कुछ भी नहीं था जो मुझे अचंभित करता । मुझे लगा इतनी बातें जो उसने अब तक की हैं वो अपनी परेशानी को छिपाने के लिए कही होंगी जो ज्यादातर लड़कियाँ करती हैं ।
हमारा डिनर हो चुका था जो सिर्फ मानसिक रूप से ये व्यक्त करने के लिए काफी था कि हमने कुछ खाया है । उसके बाद हमने गर्म हो चुके पानी की बोतल से पानी पिया ।
“लो सौरभ! हो गया डिनर । अब कुछ टहल लिया जाये । सुना है खाना खाने के बाद टहलना चाहिए ।”
“हाँ–हाँ क्योंं नहीं ।”
मैं बहुत थक चुका था पर जिसने मेरी इतनी मदद की थी मैं उसे किसी भी प्रकार उसे नाराज नहीं करना चाहता था । हम आगे बढ़े, गंगा किनारे की चमकीली रेत पर चाँदनी ऐसी लग रही थी जैसेे आसमान के आधे सितारे हमारे पैरों के नीचे हैं और आधे ऊपर । हम लोग आगे बढ़ते रहे ।
“तो सौरभ! यही नाम बताया ना तुमने ?”
“जी ।” मैंने कहा ।
“मेरा नाम निशा है, कौन–कौन है तुम्हारेे घर में ?”
“मम्मी, पापा और दो छोटे भाई ।”
चाँदनी रात, ठंडी–ठंडी हवा, गंगा के शांत पानी पर हल्की–हल्की लहरें जैसे अपना नाम लिख रहीं हों, हम ऐसे ही कुछ देर टहलते रहे । निशा के हाथ में एक खुबसूरत सी डायरी थी जो वो बार–बार हाथों में घुमा रही थी । ऐसा तब होता है जब कोई बहुत गहरी सोच में डूबा हो, पर मुझे हिम्मत न हुई कि उससे कुछ पूछ सकूँ । कभी–कभी ऐसा लग रहा था जैसे वो डायरी को गंगा में फेंकना चाहती थी पर ऐसा क्योंं करेगी, मैं समझ नहीं पा रहा था ।
“अब कहीं रात काटने की जगह भी तलाश लें ?”
“अरे हाँ!” – उसने कहा । हमने अपना बैग उठाया और सुबह–ए–बनारस के मंच के पास ही अस्सी घाट पर आ गये जहाँ शाम की आरती होती है । उसने कहा– “लो आ गये घाट चैरासी ।”
मैंने कहा ये तो “घाट अस्सी है ।”
वो जोर से हँसी जिसे सुनने वाला मेरे सिवा कोई नहींं था । कुछ लोग थे वो भी सोने की तैयारी में थे तभी उसने कहा– “चलो घाट–84 ले चलूँ ।”........क्रमशः