मेरे घर आना ज़िंदगी
आत्मकथा
संतोष श्रीवास्तव
(7)
मेरे लिए मेरे जीवन में आया एक एक व्यक्ति भविष्य के लिए मेरी आँखें खोलता गया फिर चाहे आँखें उससे मिले धोखे से खुली हो या मेरे प्रति ईमानदारी से । रवींद्र श्रीवास्तव मेरे ईमानदार दोस्तों में से हैं । कहीं एक जगह नौकरी में स्थायित्व नहीं मिला उन्हें। हालांकि वे बड़े बड़े राष्ट्रीय स्तर के अखबारों से जुड़े रहे। वे नवभारत में समाचार संपादक, हिंदुस्तान टाइम्स में सह संपादक, टाइम्स ग्रुप में सीनियर संपादक, नवभारत टाइम्स में संपादक और संझा लोकस्वामी में संपादक के पद पर थे । नौकरियों की वजह से उन्हें दिल्ली मुम्बई बार-बार स्थान परिवर्तन करना पड़ा और यही वजह थी कि पत्रकारिता की अनिश्चितता और अंधकारमय भविष्य को मैंने बारीकी से समझा।
रवींद्र श्रीवास्तव जी जब मुम्बई दैनिक संझा लोकस्वामी में संपादक के पद पर आए, उन्हीं दिनों प्रमिला वर्मा नौकरी के लिए मुम्बई आई। मैंने रविंद्र जी से जिक्र किया बोले "मिलवाओ" हम दोनों मालाड स्थित संझा लोकस्वामी के ऑफिस गए । कुछ कहना ही नहीं पड़ा। प्रमिला का बायोडाटा सरसरी निगाह से देख कर उन्होंने तुरंत उसे अपॉइंट कर लिया। वहीं मेरी रजनीकांत वर्मा से मुलाकात हुई जो संझा लोकस्वामी में सह संपादक थे। 5 महीने के अंतराल के बाद मुझे संझा लोकस्वामी के रविवारीय संस्करण में साहित्य पेज का संपादन कार्य सौंपा गया। पूरे 2 पेज के इस साहित्य पेज में कहानी, कविता, मेरा संपादकीय परिचर्चा आदि को लेकर मुझे पेज बनाना होता था । पूरे 3 साल मैंने यह कार्यभार संभाला लेकिन संझा लोकस्वामी के मालिक जितेंद्र सोनी के व्यवहार और वैचारिक मतभेद, कभी भी पारिश्रमिक न मिलने की वजह से मैंने संपादन कार्य छोड़ दिया। रविंद्र श्रीवास्तव भी संझा लोकस्वामी के पद को छोड़ चुके थे । बीच में कुछ साल वे संपर्क में नहीं रहे। उषा जी की मृत्यु के बाद इन दिनों वे चांदीवली मुंबई में एकाकी जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
संझा लोकस्वामी में रजनीकांत वर्मा रविंद्र श्रीवास्तव के पद छोड़ने के बाद संपादक हो गए ।
संझा लोकस्वामी में मेरा लेखन की वजह से आना जाना था ही। वहाँ सैलानी सिंह भी पत्रकार था जो बिहार से आया था। कम उम्र के इस लड़के का काम उसके भविष्य के प्रति संभावनाएं जगाता था। गरीबी इतनी कि एक वक्त का खाना ही नसीब होता । रात को वहीं ऑफिस में टेबल पर सो जाता । एक दिन जितेंद्र सोनी ऑफिस में जब थे मैं भी उनसे मिलने ही गई थी । सैलानी ने 3 महीने से रुकी हुई तनख्वाह की मांग की । सैलानी की आँखें बड़ी बड़ी थीं और वह स्वाभाविक रूप से भी आँखें फाड़कर देखता था । जितेंद्र सोनी ने आग्नेय नेत्रों से उसे देखा ।
"आँखें किस बात की दिखा रहा है। क्या कर लेगा बता ?"
और अपना जूता उतार ताबड़तोड़ उसे पीटने लगे । मुझे तुरंत हट जाना चाहिए था या विरोध करना चाहिए था इस बात का । पर हालत सकते में थी। जितेंद्र सोनी एक बड़ा आतंक बनकर आया था । बाद में पता चला वह कई रेप, गबन और हत्याओं के केस में जेल की हवा काट रहा है।
रजनीकांत वर्मा जुझारू पत्रकार थे। जयप्रकाश नारायण के घराने से थे। लेकिन स्वभाव के बेहद फक्कड़। वे हल्द्वानी के थे । पत्रकारिता का जुनून उन्हें कहाँ कहाँ खींच ले गया । इंदौर, भोपाल, मुम्बई और फिर दिल्ली । मैं मुम्बई संझा लोकस्वामी में पत्रकारिता के दौरान उनसे जो जुड़ी तो उनकी जिंदगी में बड़ी बहन की हैसियत से अंत तक जुड़ी रही। अपने संपादन काल में खूब लिखवाया उन्होंने मुझसे। फिर वह भोपाल चले गए और सुधीर सक्सेना की पत्रिका दुनिया इन दिनों संभालने लगे। उनके भोपाल प्रवास के दौरान मैं जब भोपाल गई तो वे खुद मुझे हबीबगंज स्टेशन पर लेने आए। और अपने घर के अलावा उन 4 दिनों की भोपाल यात्रा में किसी और के घर ठहरने नहीं दिया । उनके घर पर मुझसे मिलने हरि भटनागर आए, गोविंद मिश्र आए, मेहरून्निसा परवेज आईं।
रजनीकांत ने माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में मीडिया विमर्श में मुझे अध्यक्षता का भार सौंपा। करीब 20 पत्रकारों के बीच हमने मीडिया में भाषा के दुरुपयोग पर चर्चा की। वे दुनिया इन दिनों में सहयोगी संपादक थे और सुधीर सक्सेना हमेशा मेरे विरोध में ही पत्रिका में छापते रहे। रजनीकांत कहते
"दीदी, यही विरोध तो आपको ऊंचाइयाँ दे रहा है । एक दिन इस पत्रिका में आप की कहानी मांगकर छापी जाएगी और हुआ वही सुधीर जी ने मुझसे रचना मंगवाई और मेरी कहानी चित्रों की जुबान छापी।
दिल्ली में रजनीकांत 26 साल तक लोकस्वामी समूह के साथ जुड़े रहे। उन्होंने अपनी धारदार लेखनी के साथ लोकस्वामी में अवाम की आवाज को अंत तक जगाए रखा ।
हमेशा मेरे लिए कुछ न कुछ करते रहते थे वे । कहते भी थे कि "दीदी आपकी बहुत फिक्र है मुझे । मैं लोकस्वामी ऑफिस के बगल में ही हेमंत फाउंडेशन का ऑफिस खोल रहा हूँ। जिसमें आपके लिए कुर्सी टेबल और एक कंप्यूटर रहेगा । फिर आपको जल्दी जल्दी मुंबई से दिल्ली आना पड़ेगा। "
कौन सोचता है इतना? इस एक दूसरे को पहचानने की प्रतिस्पर्धा वाले युग में रजनीकांत जैसी शख्सियत मुश्किल से ही मिलती है। मैं जब भी दिल्ली जाती वह मेरे दिल्ली में आने जाने के लिए सुबह से रात तक गाड़ी खड़ी रखते । यह तो मुझे बहुत बाद में पता चला कि वह किराए की गाड़ी मेरे लिए बुक कराते थे, क्योंकि उनके पास गाड़ी नहीं थी ।
वे अचानक ही चौंका देते मुझे।
"दीदी टिकट भेज रहा हूँ दिल्ली आने जाने की। स्टेशन पर गाड़ी आएगी आपको लेने। घर (उनके संत नगर वाला घर) आकर आराम करना । सुबह चलना है । राजस्थान के सरदार शहर। "
"क्या है वहाँ ?"
"आप पूछा मत करिए ज्यादा। "
उनके घर पहुंची तो रजनीकांत ऑफिस में थे । रूपम ने खाना खिलाया । बिल्कुल जैसे अपने ही घर में आई हूँ। बेहद मिलनसार घरेलू सी लगती उनकी पत्नी रूपम लेकिन उतनी ही बड़ी चित्रकार। रजनीकांत के ऑफिस से लौटने तक वह अपने बनाए चित्र दिखाती रही। शाम को रजनीकांत ने ऑफिस से लौट कर खुद मेरे लिए चाय बनाई ।
"सरदारशहर चलना है । सुबह 6:00 बजे की ट्रेन है। वहाँ कनकमल डूंगर जी का आईएएसइ विश्वविद्यालय है जिसके प्रबंधन में उनका पूरा परिवार कार्यरत है। 26 जनवरी को होने वाले विशेष आयोजन में मुख्य अतिथि के रूप में उन्होंने आप को आमंत्रित किया है। परेड का गार्ड ऑफ ऑनर भी लेना है आपको। "
मुख्तसर सी न्यूज़ के बाद रात 1 बजे तक खूब गपशप। न वे सोए न मैं। रूपम ने दो-तीन बार चाय बना कर पिलाई । फिर रास्ते के लिए आलू मटर की सब्जी और पराठे बनाने में जुट गई। स्टेशन पर कपकपाती ठंड में हम ट्रेन का इंतजार करते रहे । उस दिन कोहरा भी बहुत था। ट्रेनें वैसे भी कोहरे की वजह से लेट हो जाती हैं। हमारी ट्रेन एक घंटे लेट थी लेकिन रजनीकांत के साथ की वजह से न ट्रेन के लेट होने का एहसास हुआ। न सरदार शहर तक की दूरी का। कुलपति डूंगर जी ने स्टेशन पर हमें लिवाने गाड़ी भेज दी थी। सभी सुविधाओं से युक्त कमरे में हमें रुकाया गया । तैयार होकर हम नाश्ते के लिए डाइनिंग हॉल पहुँचे । वहीं सभी प्रोफेसर और स्टाफ के लोगों से परिचय हुआ। नाश्ते के बाद हमें कार्यक्रम स्थल पर ले जाया गया । बहुत बड़ा ग्राउंड परेड के लिए। सभी विद्यार्थी यूनिफॉर्म में । सामने स्टेज जिसे फूलों से सजाया गया था । गेट में प्रवेश करते ही बैंड बजने लगा । गाड़ी से उतरकर मुझे सीधे खुली जीप में ही कुलपति और शिक्षा सचिव के साथ खड़ा होना था । जीप धीरे-धीरे परेड ग्राउंड में घूमने लगी और हम परेड की सलामी लेते रहे । सलामी के बाद मैंने तिरंगा फहराया। फूल बरसकर मानो राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय गान को सलामी दे रहे थे। लगभग 4 घंटे कार्यक्रम चला। बीच में लंच ब्रेक भी।
शाम को हम सुरेंद्र कुमार वर्मा के घर गए । वहाँ कुछ कवियों के संग छोटी सी कवि गोष्ठी हुई । सबके लिए डिनर का आयोजन था। सुनना कम सुनाना ज्यादा हुआ। उस दिन पहली बार मैंने रजनीकांत से उनकी बेहद खूबसूरत प्रेम कविता सुनी । यह कविता उन्होंने अस्पताल में रूपम की तीमारदारी देखकर तब लिखी थी जब उन्हें अपने दिल के बीमार होने का पता चला था। और कुछ ही दिनों में उन्हें पेसमेकर लगाया जाना था। मेरा मन जहाँ उनके रूपम के प्रति प्रेम से भीग उठा था वहीं उनकी बीमारी को लेकर चिंता ग्रस्त भी । दूसरे दिन डूंगर जी ने हमें पूरे विश्वविद्यालय की सैर कराई और पीएचडी के विद्यार्थियों के बीच मेरी पुस्तक "मुझे जन्म दो माँ"( स्त्री विमर्श के लेखों का संग्रह प्रकाशक सामयिक प्रकाशन दिल्ली) को शोध कार्य के लिए उन्होंने रिफरेंस बुक के रूप में अपने विश्वविद्यालय में मान्यता दी। और मानद पीएचडी के लिए भी “मुझे जन्म दो माँ “को सिलेक्ट किया । शाम घिर आई थी रात 8 बजे से गायन वादन का कार्यक्रम था । रजनीकांत ने बताया कनकमल जी बहुत अच्छे सिंगर हैं। वाह एक ही इंसान में इतने सारे गुण।
" आप संतोष जी को शहर की हवेलियां और बाजार दिखाइए । "कहते हुए डूंगर जी के पुत्र ने ड्राइवर को समझा दिया कि कहाँ-कहाँ घुमाना है। गाड़ी में घूमते हुए हमने शहर के चारों तरफ टीले ही टीले देखे। जिसकी वजह से इस शहर की खूबसूरती के क्या कहने। गाड़ी हमें एक विशाल छतरी तक ले आई । छतरी का स्थापत्य देखते ही बनता था। गांधी विद्या मंदिर और इच्छा पूर्ण बालाजी मंदिर देखते हुए हम घंटाघर से होते हुए डूंगर जी के पुरखों की हवेली आ गए। वहाँ पहले से कुछ लोग हमारे स्वागत के लिए तैयार थे। विशाल हवेली, परकोटे, हवेली के अंदर मंदिर, बाहर लंबे चौड़े आंगन में कमरे ही कमरे । जो हवेली के गुलजार रहने के समय नौकरों के रहे होंगे। अब वहाँ कन्या विद्यालय है।
कोने में लगा चांदनी के सफेद फूलों से लदा पेड़ मानो कह रहा था इस हवेली की आन बान शान के क्या कहने । मगर वह गुजरे जमाने की बातें हैं। हवेली की भव्यता के साथ साथ जीवन की क्षणभंगुर का एहसास भी तेजी से हुआ।
शहर का बाजार आम बाजारों जैसा ही था ।
"रूपम ने घेवर, सांगरी, पिटोर, पंचकूट मंगाया है । "रजनीकांत ने कहा।
साथ में सुरेंद्र थे । जिन्हें इन सामग्रियों के मिलने के स्थान पता थे। सभी खाने की चीजें थीं। सांगरी और पिटोर की तो सब्जी बनती है। मैंने भी एक एक पैकेट सभी चीजों का खरीद लिया।
लौटे तो रात मुस्कुराती हुई विशाल कमरे में हमारे आगमन को आतुर थी। जहाँ कत्थई और नीला गलीचा, गद्दे, गाव तकिए, तबला, हारमोनियम और तानपूरा था। संगीत की स्वर लहरियों में गीत मुखर हुए। लगभग 2 घंटे चली इस महफिल में कनकमल जी के अलावा उनके बेटे ने भी गाया। रजनीकांत जी ने भी अपनी प्रेम कविता गाकर सुनाई और मैंने अपनी लोकप्रिय ग़ज़लें " शबे हिज़्र में तू मिला ही नहीं" सुनाई ।
सरदार शहर में बीते दिनों की उपलब्धियों का श्रेय रजनीकांत को ही जाता है।
सन 2012 के विश्व पुस्तक मेले में नमन प्रकाशन से मेरा कथा संग्रह "प्रेम संबंधों की कहानियाँ "का लोकार्पण वरिष्ठ लेखक आलोचक रामदरश मिश्र के हाथों हुआ। दिल्ली में मेरा ठिकाना रजनीकांत का घर । लोकार्पण में रजनीकांत वादा करके भी नहीं आ सके । लोकस्वामी के प्रति समर्पित रजनीकांत पहले अपने काम को ही वरीयता देते थे । लोकार्पण में वरिष्ठ कथाकार चंद्रकांता जी, प्रेम भारद्वाज पत्नी सहित और प्रकाश मनु जी शामिल हुए ।
रजनीकांत ने प्रगति मैदान गाड़ी भेज दी।
" दीदी सीधे ऑफिस आ जाइए आपको राहुल देव से मिलवा दूंगा। मेरा ऑफिस भी देख लेना । "
जब राहुल देव मुम्बई आए थे तो चर्च गेट स्थित इंडियन मर्चेंट चेंबर में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रॉडक्शन हाउस के कार्यक्रम में उनसे मुलाकात हुई थी । राहुल देव का खुद का प्रोडक्शन हाउस भी है। कई न्यूज़ चैनल्स के लिए बेहतरीन कार्यक्रम और महत्वपूर्ण वृत्त चित्र बनाने वाले राहुल देव ने अनेक पत्र-पत्रिकाओं और न्यूज़ चैनल में काम किया। वैसे वे आलोक मित्र के द्वारा इलाहाबाद से निकलने वाली माया पत्रिका से जुड़े थे। और यही वजह थी कि वह मुझ से परिचित हैं। समय इतिहास रच लेता है। राहुल देव के साथ शाम एक कप कॉफी पीते हुए पत्रकारिता पर चर्चा करना न जाने मेरे भीतर के कितने सवालों को सुलझा गया । बाद में मुझे पता चला कि राहुल देव जी ने इस्तीफा दे दिया है और जिस शाम मैं उनसे इंडिया न्यूज़ के ऑफिस में मिली थी। वह उनकी गहमागहमी भरी आखरी शाम थी। तमाम अखबारों और न्यूज चैनलों में प्रमुखता से राहुल देव के इस्तीफे की खबर थी और वे बेहद शांति और खुशमिजाजी से मेरे संग बात कर रहे थे। इतनी बड़ी खबर को नजरअंदाज करते ........होता है पत्रकारों की जिंदगी ऐसी ही होती है। पानी पर बिना मल्लाह पतवार के डोलती नैया।
दूसरे दिन मैं सुमिता के साथ हल्द्वानी आ गई। हल्द्वानी में रजनीकांत के छोटे भाई रविकांत रहते हैं और उनका खूब बड़ा फॉर्महाउस है। मेरे हल्द्वानी पहुंचते ही रविकांत का फोन -"दीदी कब आऊं लेने?"
"भैया अभी तो पहुंची हूँ। ठंड भी खूब है यहाँ। कल दोपहर को ही मिलते हैं। " सुमीता के पापा, माँ, भाई -भाभी ........हरी-भरी वादियों, खेतों के बीच में उनका घर । जब भी मैं सोचती हूँ कि जीवन में मैं कितनी तनहा हूँ और कैसे उम्र के रास्ते पार करूंगी कि तभी अपनत्व की एक किरण कहीं से फूट आती है मुझे उजाला सौंपने। सुमीता की माँ ने भी मुझे बेटी की तरह अपनाया। खूब लाड़ दुलार स्वागत सत्कार । हल्द्वानी निवास के तीन दिन तितली जैसे उड़ चले। दूसरे दिन सुमीता और मैं रजनीकांत के फॉर्म हाउस रुद्रपुर गए। रघुवीर चौहान और रविकांत नियत जगह पर हमें मिले । रघुवीर चौहान हल्द्वानी में दैनिक जागरण में वरिष्ठ उप संपादक थे। रघुवीर का प्रेम विवाह था । मुस्लिम लड़की नाज से। नाज बरेली में रहती है। और रघुवीर नौकरी की वजह से हल्द्वानी में। अब मैं उसको बहू बेगम कहती हूँ।
" संतोष जी, आपका दैनिक जागरण के लिए इंटरव्यू लेना है । सुमीता जी के घर आकर ले लेता हूँ इंटरव्यू। बताइए, कब आऊं ?"
रघुवीर चौहान मेरी रजामंदी बड़ी शिद्दत से चाह रहा था। मुझे हामी भरनी पड़ी । रजनीकांत और रविकांत का विशाल फॉर्म हाउस...... गन्ना, सरसों की फसल लहलहा रही थी। खूब सब्जियां लगी थीं। मंडप के ऊपर करेले, बरबटी, सेम, कुंदरू की बेलें छाईं थीं। एक बड़े पॉन्ड में मछलियां भी पाली थीं। रविकांत ने ढेर सारे गन्ने तोड़कर कार की डिग्गी में भर दिए। बगीचे में ही धूप तापते हुए चाय नाश्ता किया।
इतनी समृद्धि, फॉर्म हाउस, खेत, घर छोड़कर रजनीकांत दिल्ली में किराए के मकान में रहते हैं । पत्रकारिता का नशा क्या न करा ले। रजनीकांत के जीजाजी सुरेंद्र श्रीवास्तव फिल्मों से जुड़े हैं । उन्हें फिल्मों में प्रोडक्शन के लिए दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिल चुका है।
लौटते हुए रघुवीर ने हमें दैनिक जागरण के वरिष्ठ समाचार संपादक आलोक शुक्ल एवं प्रबंधक अशोक त्रिपाठी से मिलवाया।
" सामने ही अमर उजाला का दफ्तर है स्थानीय संपादक सुनील शाह से मिलते हुए जाइएगा। "
कहते हुए आलोक शुक्ला जी ने चाय मंगवाई । खूब गाढ़ी, खूब मीठी। साथ में बिस्किट। आधे घंटे बैठकर हम अमर उजाला चले गए। सुनील शाह जी बातों में बहुत आत्मीय लगे। सूरज डूबने को था। पहाड़ में वैसे ही सरेशाम सन्नाटा घिर आता है। घर पहुंचते ही मैं स्वेटर शॉल लेने कमरे में गई । लौट कर देखा तो सुरमई उजास में बगीचे में बैठे सुमिता के परिवार के सभी मेरे लाए गन्ने चूसने में मगन थे। मुझे तो चाय की तलब लगी थी।
दूसरे दिन लगभग 3 बजे दोपहर को रघुवीर मेरा इंटरव्यू लेने आ गए। लगा ही नहीं कि इंटरव्यू ले रहे हैं । उन्होंने रिकॉर्डर ऑन कर लिया था और हम खुलकर साहित्य और मौजूदा परिवेश पर चर्चा कर रहे थे ।
सुमिता की दीदी हमें नैनीताल घुमाना चाहती थी। उनके साथ गाड़ी से हम सब नैनीताल आए। जिस नैनीताल में मैं बरसों पहले आई थी अब कितना बदल गया था । पहाड़ों का हरा भरा बेहद खूबसूरत सौंदर्य, पर्यटकों की जेब खाली करने की नई-नई राइड्स, दुकानों आदि में बदल चुका था। नैना झील का नौका विहार वह मजा नहीं दे रहा था जब मैं हेमंत के साथ आई थी और हमने भुट्टा खाते हुए नौका विहार किया था।
सुमीता की दीदी का 3 सितारा होटल है । वे सपरिवार उसी में रहती हैं। हम भी उसी में रुके।
नैनीताल से लौटकर हल्द्वानी भी घूमे। छोटा सा बाजार गर्म कपड़े बिक रहे थे। मैंने जर्सी खरीदी। सुबह सुबह निकलना था। सुमीता के भाई काठगोदाम तक छोड़ने आए। खूब ठंड और कोहरा था। स्टेशन पर सन्नाटा पसरा था । तभी देखा रघुवीर दौड़ते चले आ रहे हैं । उनके हाथ में अखबार...
" दीदी, दैनिक जागरण में आपका इंटरव्यू छप गया। "
"अरे इतनी ठंड में सुबह-सुबह !!डाक से भेज देते । "
"आपसे मिलना भी तो था, सी ऑफ करना था न। "
जब तक ट्रेन ने रफ्तार नहीं पकड़ ली रघुवीर साथ-साथ चलते रहे। अब रघुवीर दिल्ली में अमर उजाला में उपसंपादक हैं। प्रतिवर्ष विश्व पुस्तक मेले में उनसे मुलाकात होती है। हल्द्वानी से दिल्ली लौटी तो रजनीकांत ने संदीप मित्र से मिलवाया। माया अब नए कलेवर में संपूर्ण माया नाम से दिल्ली से प्रकाशित हो रही थी और संदीप मित्र उसके संपादक थे । संदीप मित्र ने स्त्री विमर्श का कॉलम लिखने का प्रस्ताव रखा । मैं "आधी आबादी का पूरा सच" नाम से कॉलम लिखने लगी । शुरू में पारिश्रमिक भी अच्छा मिला। लेकिन बाद में पारिश्रमिक मिलना बंद हो गया। फिर भी मैं 8 महीने तक कॉलम लिखती रही। लेकिन जब पारिश्रमिक नहीं मिला तो रजनीकांत ने ही मुझे बिना पारिश्रमिक के नहीं लिखने की सलाह दी। रजनीकांत अब नहीं हैं। 2017 में उन्होने अंतिम साँस ली। 55 बसन्त उनकी जुझारू जिंदगी के गवाह हैं। उन्हें मेरी बहुत चिंता रहती थी और हमेशा मेरे लिए कुछ न कुछ करने को तत्पर रहते थे । अब वह नहीं है तो लगता है जैसे मैंने अपने विजय भाई को दोबारा खो दिया।
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पत्रकारिता के मेरे अनुभवों ने यह तो समझा दिया था कि पत्रकारिता का भविष्य अनिश्चित है। दुनिया बदल देने और कलम की धार से सत्ता की चूलें हिला देने का दम भरने वाले पत्रकार कब सड़क पर आ जाएं कहना मुश्किल है। मैंने धर्मयुग बंद होते देखा। जनसत्ता बंद होते देखा । पत्रकारों को हुक्मरानों का हुकुम बजाते देखा। जो विचार जो सपने लेकर वह पत्रकारिता की दुनिया में प्रवेश करता है वह तो कब के टूट चुके होते हैं और वह सिर्फ नौकरी कर रहा होता है । इस तरह तो नहीं चलेगा। ठोस जमीन होनी ही चाहिए पैरों के नीचे । मेरे सामने हेमंत का भविष्य भी था।
जिंदगी फिर दोराहे पर थी और मैं बहुत अधिक तनाव में । वैसे भी विजय भाई के निधन से मैं उबर नहीं पा रही थी। पत्रकारिता से निराशा तो थी ही साथ ही रमेश को लेकर मैं व्यथित थी। मेरी वैवाहिक जिंदगी डगमगाने लगी थी और रमेश को लेकर मेरे भ्रम टूटने शुरू हो गए थे। वे बेहद अच्छे गायक थे पर उतने ही अधिक कुंठित भी । उन्हें वह सब करने नहीं मिला जिसका सपना लेकर लखनऊ से मुंबई आए थे। पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री जी उनके मामा थे । खानदानी स्वाभिमान उन्हें विरासत में मिला था। अतः अपने सपनों को पूरा करने के लिए उन्होंने किसी की एप्रोच नहीं ली और बिना पहुंच के तो .........उनकी असफलता उनकी कुंठा बन गई जिसे वे मुझ पर और हेमंत पर बिला वजह नाराजगी प्रकट कर निकालते। वे नियमित शराब पीने लगे और दो दो बजे रात तक हमें सोने नहीं देते । उनकी चीख-पुकार गुस्से से पूरा मोहल्ला परिचित था । मैं हेमंत को उनके गुस्से की जद में नहीं आने देती। चिड़िया की तरह मानो अपने पँखों में छुपा कर रखती । रमेश की इन्हीं आदतों की वजह से कभी उनके मित्र, भाई-बहन, भतीजे उनके नहीं हुए । मैं इतनी शॉक्ड थी कि धीरे-धीरे अपना स्वास्थ्य खोने लगी । गहरे अवसाद का शिकार हो गई। मेरी दोनो ओवरीज में सिस्ट पड़ गई और लगातार रक्तस्राव से मैं कई कई बार बेहोश होने लगी। डॉक्टरों ने कैंसर की संभावना जताई। लंबे-लंबे थका देने वाले टेस्ट्स से गुजरने लगी । लंबा ऑपरेशन हुआ । यूट्रस और दोनो ओवरीज रिमूव कर दी गईं। मेरा शरीर निरंतर छीजने लगा। टांके रड़कते रहते । ढेरों दवाइयां, इंजेक्शन, दर्द ...... उफ। मेरा मन बुझ गया। लेखनी थम गई और मुझे लगा मैं जिंदगी से हार गई हूँ। रमेश की कुंठा की, अनचाहे माहौल की, वैवाहिक जीवन की भेंट चढ़ गई हूँ। सब कुछ इतना जानलेवा होगा सोचा न था। कतरा कतरा दर्द बाहर का भी, भीतर का भी कलेजे को भी बींध रहा था। मैं मर रही थी । मैं मरती रही । लगातार चार सालों तक मैंने अपने अंदर का वनवास सहा लेकिन यह भी तय था कि मुझे हेमंत के लिए खुद को इस वनवास से बाहर निकालना होगा। मेरे लिए नियमित आय का स्रोत अध्यापन ही था इसलिए मैंने बी एड का फॉर्म भरकर खार स्थित हंसराज कॉलेज में दाखिला ले लिया। इसी बीच ललित पहवा संपादक के पद का प्रस्ताव लेकर मेरे घर आए। वे मेरी सहेली नाम से महिलाओं की एक पत्रिका लांच कर रहे थे और चाहते थे कि मैं उसे पूरी तरह से संभालूं। पत्रिका का कलेवर महिला विषयक था । पति को कैसे रिझाएँ, पुरानी साड़ियों से पर्दे कैसे बनाएं, सर्दियों में चेहरे की कैसे देखभाल करें । वगैरह वगैरह । मैंने असमर्थता प्रकट की फिर उन्होंने खुद ही पत्रिका संपादित की हेमा मालिनी का नाम संपादक में देकर। हालांकि वे मेरी कहानियाँ और स्त्री विमर्श के लेख छापने का लोभ संवरण नहीं कर पाए। खूब छापा, अच्छा पारिश्रमिक भी दिया और आज भी ललित पहवा बहुत मान सम्मान देते हैं मुझे । मेरी हर उपलब्धि पर मुझे बधाई देना कभी नहीं भूलते।
सन 1985 में मैंने खार स्थित हंसराज जीवनदास कॉलेज ऑफ एजुकेश्न में बी एड में दाखिला लिया। ट्रेनिंग एक साल की थी। वह पूरा साल मानो कड़ी मेहनत और तपस्या का था । सुबह 8 बजे कॉलेज पहुंचना होता था । हेमंत तब तीसरी कक्षा में था। कहाँ छोड़ती उसे जो पढ़ाई का समय निकाल पाती। लिहाजा उसे आगरे में अम्मा के पास दयालबाग ले गई। दौड़ भाग करके उसका एडमिशन करवाया और मुंबई आकर पढ़ाई में जुट गई। मेरे कॉलेज की प्रिंसिपल उर्मी संपत मुझ से बहुत प्रभावित थीं। मेरी रेडियो में कहानी प्रसारित होती तो कांटेक्ट लेटर की प्रिंट निकाल कर नोटिस बोर्ड पर लगा देतीं। कहीं कहानी छपती तो वह भी नोटिस बोर्ड पर .......और बड़े बड़े अक्षरों में मेरा नाम कि "हमें फख्र है कि लेखिका संतोष श्रीवास्तव हमारे कॉलेज की विद्यार्थी हैं । "
वह पूरा साल मेरी बेशुमार गतिविधियों से भरा रहा। सुबह उठकर मैं रमेश के साथ रियाज भी करती। हारमोनियम बजाकर फिराक और फैज़ की गजलें गा लेती थी । फिल्मी गाना बचपन की मोहब्बत को दिल से न जुदा करना और रमेश के साथ नैन सो नैन नाही मिलाओ, जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा और छुपा लो यूं दिल में प्यार मेरा पर हाथ बैठ गया था हारमोनियम पर और गला भी बेसुरा न था । कॉलेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हारमोनियम पर गीत गाती और प्रस्तुति भी करती। उसी दौरान 14 सितंबर हिंदी दिवस पर हिंदी भाषण प्रतियोगिता का निर्णायक बनाकर वालकेश्वर स्थित बिरला पब्लिक स्कूल में प्रिंसिपल श्रीमती प्रकाश ने बुलाया। मैंने अपने वक्तव्य में कहा-" मैं बीएड कर के अध्यापन करना चाहती हूँ और लड़कियों के स्कूल में पढ़ाना चाहती हूँ ताकि हर घर शिक्षित हो। “ उस समय बिरला पब्लिक स्कूल केवल लड़कियों का कान्वेंट स्कूल था। यह बात श्रीमती प्रकाश को बहुत पसंद आई । उन्होंने कहा "आप बीएड करके इस स्कूल को ही ज्वाइन करना । "
सर्दियों के दिन थे । मैंने हेमंत के लिए स्वेटर, फुलपैंट, शर्ट आदि का पार्सल तैयार करके उसकी मनपसंद चॉकलेट भी उसमें रखी। कुछ दिनों बाद उसके हाथ का लिखा पोस्टकार्ड मिला । बस एक वाक्य " मम्मी आप बोहोत अच्छी हैं । "अम्मा से पता चला कि पार्सल में स्वेटर और चॉकलेट नहीं थी । पार्सल की चोरी का मेरे मन पर गहरा असर पड़ा। चीज भले छोटी थी। पर मेरे हेमंत के लिए महत्वपूर्ण थी। मैं अम्मा के ऊपर भी हेमंत को लेकर किसी तरह का बोझ तनाव नहीं डालना चाहती थी। आगरे की कड़ाके की सर्दी में मेरा बच्चा बिना स्वेटर के!
लेकिन अम्मा के रहते उसे कभी किसी तकलीफ का सामना नहीं करना पड़ा ।
B.Ed में मैं मैरिट में आई। हिंदी विषय में मैं टॉप पर थी। रिजल्ट के पहले ही मेरी जी डी सोमानी में 14 सौ रुपए महीने की नौकरी लग गई थी। मैं हिंदी और इतिहास पढ़ाती थी। गर्मियों में हेमंत को आगरा से मुंबई ले आई। वह पास तो हो गया था पर अच्छे नंबरों से नहीं। मैंने उसे अपनी देखभाल में जी डी सोमानी स्कूल में भर्ती करा दिया। जी डी सोमानी में मेरी नौकरी केवल एक साल की थी क्योंकि जिस अध्यापिका की जगह मुझे लिया गया था वह एक साल की छुट्टी पर थी। मैंने जी डी सोमानी छोड़ा तो हेमंत को भी वहाँ से वडाला के बंसीधर हाई स्कूल में भर्ती करा दिया। लेकिन मुझे अधिक दिन इंतजार नहीं करना पड़ा।
6 महीने बाद ही बिरला पब्लिक स्कूल से नौकरी के लिए बुलावा आ गया। मेरे लिए यह बहुत बड़ा जिंदगी से मिला उपहार था कि जिसके बल पर मैं अपनी हार को किसी तरह जीत में बदलने की कोशिश कर सकती थी। मैं जो शरीर और मन से इतनी बड़ी त्रासदी से गुजरी अब और होम होना नहीं चाहती थी। मुझे अपने अंदर उठे पेचीदा सवालों से खुद ही जूझना था। खुद ही उनके हल ढूंढने थे । गलत के आगे झुकना नहीं था ।
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