पान वाले चाचा Roushan kumar द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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पान वाले चाचा

पान वाले चाचा


आज दीपक फिर से अपनी बचपन की सबसे सुखद पल जहाँ बिता था उसी शहर के लिए निकल पड़ा था, कुछ पुरानी बातों में डूबने,उसे फिर से महशुस करने और सबसे जरूरी काम अपने बचपन के उन अनमोल दोस्तो से मिलने, अरे हाँ एक और उसके दिल के सबसे करीब जो थे वो छूट ही गए वो पान वाले चाचा और उनकी पत्नी चाची से मिलना जो था उसे । और मीले भी क्यों नही उसका बचपन का सबसे ज्यादा समय अपने माँ-बाप से ज्यादा उन्ही पान वाले चाचा और चाची के ममता के छाव में बिता था। रेलगाड़ी बड़े शहर से खुलकर कई छोटे-छोटे कस्बो और जंगलों को पार करती हुई एक छोटे से शहर में खड़ी होने को तैयार थी। दीपक भी अपना सामान लिए रेलगाड़ी के दरवाजे पर खड़ा हो कर इस शहर की बेमिसाल खुशियों वाली मौसम को आँखे बंद कर महसूस कर रहा था। सूरज अभी अपनी उजियाले को फैलाने को तैयार था। हवाओ में खुशियां घुली हुई थी जो दीपक के चेहरे को छूते हुए उसके ह्दय में भी खुशियां पहुँच रही थी।

रेलगाड़ी समय के कुछ पलों के साथ प्लेटफॉर्म पर आकर खड़ी हो गई। स्टेशन भीड़-भाड़ से भरी पड़ी थी, दीपक ने जैसे ही स्टेशन पर कदम रखा सामने से एक हैंडसम सा आदमी उसकी ओर खुशी से आगे बढ़कर गले लग जाता है। "अरे श्याम तू आ गया स्टेशन पर मुझे तो लगा तू अपनी काम मे ही व्यस्त रहेगा"। श्याम ही तो था दीपक का सबसे करीबी बचपन का दोस्त । जो कुछ समय के लिये तो बिछड़ा था लेकिन जब मोबाइल और फेसबुक का दौर चला तो एक बार फिर से दोनों सोसल मीडिया के द्वारा करीब आये और इस बार रोज एक दूसरे से फिर से बातें होने लगी थी। दोनों वर्षो बादः मिल रहे थे। "क्यों नही आता मूर्ख तू तो मेरा जान है।" श्याम ने बड़े उत्साहित मन से बोला। दोनों एक दूसरे से मिलकर बड़ा खुश थे। तभी श्याम बोल पड़ा "चल घर पर तेरी भाभी कब से इंतेजार कर रही है तेरा।"
कुछ ही पलों में अब दोनों घर जाने के लिये स्टेशन से बाहर निकल चुके थे , ऑटो में बैठकर वो घर की ओर निकल पड़े । आपने मुहल्ले के चौक पर उतरकर सबसे पहले दीपक ने चारों ओर नजर घुमाई बिल्कुल बदल चुका था अब ये शहर, बड़े शहरों की आधुनिकता यहाँ भी छाने लगी थी । जो पहले छोटे दुकानें थी अब बड़ी दुकानों में बदल चुकी थी। अचानक ही उसकी नजर उसी जगह पर पड़ी जहाँ चाचा और श्याम की पिता जी की पान की दुकान थी वहाँ अब बड़ा सा कपड़े का एक शो रूम खुल चुका था। एक पल के लिये तो दीपक के चेहरे पर मयूषी छा गई थी लेकिन जब श्याम ने बतलाया ये दुकान उसी की है , तब मानो दीपक की खुशी का ठिकाना न रहा , अब वो दोनों वही पास में ही एक दो घर छोड़ कर घर मे घुस रहे थे , ये घर भी एक साधारण पुरानी सी दिखने वाली घर से एक आलीशान सुबिधाए वाली मकान में बदल चुका था।
घर तो आलीशान था, पर घर अंदर से बिल्कुल सुनसान था, शांति तो पहले की तरह ही थी घर मे लेकिन ये कुछ अलग ही शांति थी ऐसी की ये मानो काटने को दौड़ रहा हो। दीपक अपनी नजर चारों ओर दौड़ा रहा था, उसकी नजर कुछ ढूंढ रही थी,"अरे देवर जी पधारिये - पधारिये आपका स्वागत है इस घर मे" इस बेजान शांति को चीरता हुआ एक मीठी सी आवाज उसके कानों में पड़ी । दीपक आवाज की तरफ देख तो , सामने से एक सुंदर सी महिला सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए आ रही थी जिसने अपने सर पर पल्लू डाले हुई थी, बिल्कुल एक संस्कारी बहु की तरह, "दीपक ये मेरी पत्नी अनु है" श्याम ने दीपक से बोला। "नमस्ते भाभी जी" दीपक ने भी बड़े आदर से उनको अभिवादन किया। कुछ बात आगे बढे लेकिन इससे पहले ही दीपक ने फिर से अपनी निगाहे चारों ओर घुमाने लगा। जिसे श्याम ने भाप लिया था। श्याम ने पीछे से उसके कंधे पर हाथ रखा और बोल पड़ा कि "माँ और बाबू जी इस दुनियां में नही रहे"। इतना सुनते मानो दीपक के पैर से जमीन ही निकल गई, वो अपने आप को किसी गहरी अनन्त खाई में गिरते हुए महशुस करने लगा। महज ये क्षण भर में खत्म होने वाले कुछ शब्दों ने उसके रोम-रोम को रुला दिया था। अब जहाँ उसे खुशियां दिख रही थी वही उसके आगे सिर्फ अंधेरा ही छा गया था ।
अपनी आँखों मे आँशु भरे हुए वो श्याम से बोला "इतना सब कुछ हो गया और तूने मुझे बतलाया भी नही? रोज-रोज तो बातें होती थी फिर भी नही! इतना तो गैर नही था मैं यार" ।
अब श्याम की भी आँखे नम थी, "उसने बोल पड़ा यार इसी कारण नही बतलाया कि तू दुखी हो जाओगे।" "पर श्याम इसका मतलब ये क्या, तुम नही बतलाओगे,ये कैसी बात हुई? क्या उनका इस दुनिया से जाने पर तुम दुखी नही हुए थे क्या?" दीपक ने श्याम से बोला।।
" नही यार ऐसी बात नही है मैं एकदम परेशान हो गया था,और मैं नही चाह रहा था कि तू भी हमारी वजह से परेशान हो। अच्छा छोड़ न पुरानी बातों को, मुँह-हाथ धो ले और चल खाना खाते है, तेरी भाभी बड़ा अच्छा खाना बनाती है, तू उसकी स्वाद कभी नही भूल पायेगा।"
" हाँ देवर जी चलिये खाना खाने को, कब से इंतेजार कर रही हूँ आपका खाना ठंडा हो जाएगा। " श्याम और अनु एक साथ बोल पड़े।
लेकिन अब कहाँ मन लगने वाला था, दीपक का उसे तो अब और इस घर मे बेचैनियां तड़पाने लगी थी । "उसने बोला पड़ा अभी मुझे आराम करनी है मैं पूरी तरह यात्रा से थक चुका हूँ। " श्याम ने बिना कोई जिद किये उसकी बातो पर सहमति दिखलाई और उसे गेस्ट रूम में छोड़ दिया। अंदर घुसते ही वो बेड पर एक बेजान शरीर की तरह पड गया। उसकी आँखों के आँशु से बेड की चादर गीली होने लगी। वो उस अतीत के पलो में खो गया।

उसे आज भी याद है जब पहली बार दीपक और दीपक के परिवार जब इस शहर में आया था, तब वो इस शहर में बिल्कुल अनजान थे। उस समय उनका पूरा साथ दिया था,उस पान वाले चाचा ने जिनकी कालोनी के मोड़ पर एक छोटी सी पान की दुकान हुआ करती थी। जिसके कारण ही हम उन्हें उनके नाम से कम उनके काम से यानी पान वाले चाचा पुकारा करते थे। वो गरीब भले ही थे लेकिन उनकी चेहरे पर हमेशा मुस्कान हुआ करती थी।
वो एक भले आदमी थे ,ये दीपक और उसकी फैमली उसे भली-भांति जानती थी , क्योंकि एक वही तो थे जो बिना किसी रिश्ता के उन्हें इस शहर से पहचान करायी थी। उन्होंने ही तो उसके पापा की जब कालोनी में घर जल्दी नही मिल रहे थे तो पान वाले चाचा ही तो अपने घर मे उन्हें आश्रय दिए थे । क्या गजब के मनुष्य थे वो किसी भी जरूरत मंद लोगो को बे हिचक मदद करने को सदैव तैयार रहते थे।
दीपक आज वही पुरानी यादों में डूबा था , उसे आज भी ये याद था, जब वो छोटा था, एक बार शक्तिमान देंखने के बाद दीपक भी शक्तिमान की भांति उड़ने को ठानी थी, उड़ने की पूरी कोशिश तो थी उसकी लेकिन आगे सीढियां उसे अपने आगोश में लेने को तैयार थे , और हुआ भी वही बेचारे शक्तिमान की शक्ति ही क्षिणपड गई थी, बेचारे दीपक के सिर में गहरी चोट आई थी। खून इतना बह रहा था कि पूछो मत जिसके कारण दीपक बेहोश हो चुका था। उस दिन दीपक के पापा ड्यूटी पर गए थे,क्या करते बेचारे पुलिस में थे बेचारे उनके लिए क्या छुट्टी और क्या आराम, ये उन्हें पता ही नहीं होता दिन भर केवल उन्हें शहर और लोगो की सुरक्षा की फिक्र रहती है। भले हि उनका खुद का परिवार सुरक्षित रहे या न रहे। उस दिन शहर में बंदी थी जिसके कारण कोई भी ऑटो नही चल रही थी चारो तरफ सन्नाटा पसरा था हर दुकाने बंद थी। जिसके कारण अब दीपक को अस्पताल ले जाने की भी कोई साधन नही बचा था। उस दिन वही पान वाले चाचा ही तो थे , जिन्होंने अपने गोद मे उठाये दीपक को दौडा-दौड़ा अस्पताल की ओर भागे जा रहे थे। उस समय पूरे तीन किलोमीटर की यात्रा की थी उन्होंने अस्पताल पहुँचने के लिए। उस दिन दीपक की हालत नाजुक सी हो गई थी। पूरे छः दिन चाचा ने अपनी दुकान नहीं खोली थी । जब दीपक को अस्पताल से छुट्टी मिली तभी उनको भी चैन आया था।
उन्हें अपनो तो क्या दुसरो के भी गम देखे नही देखे जाते थे। इन्ही सब यादों में डूबा दीपक पड़ा रहा तभी कानो में आवाज पड़ी "दीपक उठ भाई अब सुबह हो गई।" यह आवाज श्याम की थी, "क्या सुबह हो गई दीपक ने आश्चर्य से पूछा" "क्यों तुझे क्या अब भी शाम ही दिख रहा है क्या श्याम हस्ते हुए दीपक से बोला।" पूरी रात दीपक यादों में यू खोया था की उसे पता भी नही चला कि कब सुबह हो गई । उसने बिस्तर से उठकर तैयार हुआ । और "बोला श्याम मैं महावीर मंदिर में दर्शन कर के आता हूँ।" ये वही मंदिर था जहाँ दीपक, श्याम और चाचा हर मंगलवार और शनिवार को जाया करते थे। मंदिर शहर से कुछ दूरी पर थी जिसके लिए वो रेलगाड़ी पर चढ़ जाते थे और महज 10 मिनट में वो मंदिर पहुँच जाते थे। आज दीपक फिर से वही किया, रेलगाड़ी पर सवार होकर मंदिर के लिये निकल पड़ा । वो जनरल डब्बा में बैठा था भीड़ बहुत ज्यादा नही थी। खिड़की से वो बाहर की ओर निहार रहा था तभी एक साधुओं की झुंड के देख वो उनकी ओर देखने लगा । उसमें एक चेहरा जानी-पहचानी उसे लगा लेकिन ये अपना बहम समझकर वो चुप रहा । परंतु पुनः उसकी आँखें उसी साधुओं की भीड़ में पहुँच जाते थे। उसे रहा नही गया वो रेलगाड़ी से उतर कर उनकी ओर बढ़ने लगा। जैसे ही वो करीब पहुँचा, एक साधु जो कुछ बाकी साधुओं से पीछे चल रहा था, जिसके कपड़े बाकियों से बिल्कुल अलग थे बिल्कुल फटे-पुराने जैसे । हाथों में लाठी लिए उनका शरीर कुछ झुक चुका था वृद्ध अवस्था के कारण हाथों में एक टिफिन नुमा पात्र था । वो दीपक को देख रूक जाता है। दीपक भी उन्हें पहचानने की कोशिश करने लगता है। वो चेहरे में छुपे रहस्यों को जानने की कोशिश करता है । अचानक ही दीपक के मुख से निकल पड़ता है, "चाचा" । दीपक के मुख से ये शब्द सुनकर उस बूढ़े आँखों मे खुशी के आँशु भर आते है। उनकी बूढ़ी आंखे जिसका राह देख रही थी आज उनके वह सामने था। उनका खुद के बेटा पर भी ये विश्वास नही था जितना दीपक पर था। एक बार फिर से बिना लाठी के सहारे के खड़े हो जाते है । उन्हें देख कर दीपक फुट-फुटकर रोते हुए उनके चरणों मे गिर जाता है। तब उस बूढ़े व्यक्ति ने उसे सहारा देकर उसे उठाता है और अपने ह्रदय से लगा लेता है। दोनों के आंखों में आँशु की धारा बहने लगती है। दीपक पागलों की तरह उनसे एक ही शब्द बोलता है "चाचा चलो अब मेरे साथ मेरे घर , मेरा शहर और मेरी दुनिया में । उस आशियाने में जिसे मैंने अपनी मेहनत से बसाया है।" दीपक की बाते उस बूढ़े व्यक्ति टकटकी लगाए सुनता जा रहा था। फिर अचानक से दीपक बोल पड़ा चाचा , चाची कहाँ है। इतना सुनते ही उस बूढ़े व्यक्ति की आंखों में पानी भर आया , उसका शरीर दुःख से एकदम कांपने लगा था । "वो बेचारी तड़प-तड़प कर इस दुनिया से चल बसी। बेटा मैं अब जिंदा ही नही समझो हम दोनों ने जब घर छोड़ा तभी हम मर चुके थे , वो तो तुम्हारी चाची की शरीर से आत्मा निकल गया मेरे जब तक है तब तक इन बेचारे साधुओं के साथ हूँ।" बूढ़े चाचा आंखों में आँशु लिए बोलते जाते है।
उनकी बातें सुनने के बाद दीपक उनके हाथों को पकड़कर उन्हें दूसरी ओर प्लेटफॉर्म पर ले जाता है जहाँ दिल्ली की ओर जाने वाली रेलगाड़ी खड़ी थी। उसी पर दोनों सवार हो जाते है, घर के लिए। कुछ ही मिनट में रेलगाड़ी खुल चुकी थी। जब दीपक कुछ शांत हुआ तब चाचा ने बोला बेटा कहाँ ले जा रहे हो मुझे और तुम कहाँ जा रहे थे, अपनी मंजिल नही बदलते बेटा।" " मैं तो मंदिर जा रहा था वही जहाँ हमलोग पहले जाया करते थे, लेकिन मुझे रास्ते मे ही असली भगवान मिल गए तो अब मंदिर जाकर क्या करूंगा।" इतना कहते ही दीपक अपनी जेब से मोबाइल निकालता है और श्याम को हमेशा के लिय अनफ्रेंड कर देता है.....

और उसके मुख से एक ही आवाज निकलती है ।
हे भगवान ........ये कैसी माया है तेरी।।