कैपेचीनो Anuj Tiwari द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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कैपेचीनो

कैपेचीनो

कुछ कहानियाँ सत्यता के इतने करीब होती हैं कि कहानियां लगती ही नहीं और कुछ हकीकतें वक़्त के साथ ऐसी हो जाती हैं जो पूरी ज़िंदगी सिर्फ कहानियों सी लगने लगती हैं। ऐसी ही एक कहानी जो हकीकत थी या फिर सिर्फ एक कहानी, अर्जुन शायद खुद नहीं समझ सका।

कल सोसाइटी के गणपति विसर्जन के बाद, अर्जुन आज सुबह खिड़की पर लगे पर्दों के बीच से आती हुई किरणों की तरफ टकटकी लगाकर देख रहा था। अभी तो दिन अच्छे से निकला भी नहीं था न जाने क्या व्याकुलता थी अर्जुन के मन में।

वैसे यह कुछ नया नहीं था, अर्जुन अक्सर बालकनी में आके बस यूँ ही घंटों बिता दिया करता है। इससे पहले की दिन और निकलता और सूरज की रौशनी बेड से धीरे धीरे फर्श पर आने लगी थी। अर्जुन ने बेड पर पड़ी चादर को समेटते हुए अपने दोस्तों को आवाज़ लगायी।

'दीपक, विवेक, इक़बाल, तुम सब अबतक सो रहे हो; उठो गणपति के दर्शन के लिए जाना है, हम वैसे ही बहुत लेट हो चुके हैं। और वक़्त लगाया तो लाइन लम्बी हो जाएगी।

अर्जुन हर साल मुंबई में गणपति बाप्पा के दर्शन के लिए इंतज़ार करता है। देश में हो या विदेश में, अर्जुन और बाप्पा का रिश्ता अलग ही है। शायद माँ के गुजरने के बाद और भी सुगढ़ हो गया है यह रिश्ता।

वो अर्जुन जो व्रत सिर्फ इसलिए रखता था ताकि उसे घर पर बने पकवान खाने को मिलें, आज पानी की बिना एक बूँद, मंगलवार का दिन यूँ ही निकल जाता है। अपनी माँ को महसूस करता है शायद, आज ही के दिन तो छोड़कर गयी थी उसकी माँ।

आसूं पूछते हुए, अर्जुन एक बार फिर से कमरे की तरफ बढ़ा।

'तुम लोग कितना वक़्त लगते हो! सच कहते हैं अंकल, तुम सब निशाचर ही हो।,' अर्जुन इक़बाल की चादर खींचते हुए बोला। उधर, दूसरे बेड पर चादर में लिपटा हुआ विवेक ऊंघता हुआ ऐसे पलटी लेता है मनो अजगर हे हो।

'मैं नहाने जा रहा हूँ, जब तक आऊं सब तैयार मिलना।'

इक़बाल अब तक उठ चुका था। अर्जुन को रोकते हुए, इक़बाल ने उससे कुछ पूछना चाहा, 'क्या हुआ अर्जुन?' शायद अर्जुन की नाम आखें देख ली थी इक़बाल ने।

'अरे इक़बाल...' दीपक ने इक़बाल की तरफ इशारा करते हुए उसे चुप रहने को कहा।

इक़बाल कुछ दिन पहले ही तो आया था। नया था ग्रुप में, उसे नहीं पता था कि अर्जुन की आखों में आसूं की वजह क्या थी। माँ से दूर जाने का गम, हर गम से बड़ा होता है, और अर्जुन तो एक बरस के बाद भी उस गम से उबर नहीं सका था।

बचपन से ही अर्जुन शांत स्वभाव का था, जो भी मांगना होता था या कुछ दिल की कहना चाहता था, वो अपनी माँ की तरफ हे भागता था। इसीलिए कॉलेज में उसके दोस्त उसे 'मम्माज़ बॉय' कहके उसकी खिंचाई किया करते थे।

अर्जुन, दीपक, इक़बाल और विवेक बाप्पा के दर्शन के लिए निकल पड़े, रात की थकन, सुबह की नींद मानो कहीं बहुत पीछे छूट चुकी थी। सूरज की लालिमा सुबह की ठंडी हवा में गुनगुनी सी लग रही थी।

जब चारों बाप्पा के दर्शन के लिए पंडाल के पास पहुंचे तो गेट तक लम्बी लाइन को देखते हुए अर्जुन ने दीपक से कहा, 'मैंने कहा था ज्यादा देर की तो इंतज़ार करना पड़ेगा।'

'गणपति बाप्पा मोरया,' कहकर दीपक, विवेक, और इक़बाल ने बात टाल दी।

बगल की लाइन में जहाँ लिखा था 'लेडीज़ ओन्ली,' ठीक उसके नीचे, अर्जुन ने एक टकटकी देखा। शायद उसने नुक्ती को देखा था।

कॉलेज के बाद से ही दोनों के बीच बात-चीत बंद थी। वास्तव में, नुक्ती नाराज़ थी अर्जुन से, जिस तरह उसके और अर्जुन के नाम को एक साथ जोड़ा गया था। नुक्ती कॉलेज की स्कॉलर थी, उसके लिए यह सब चीज़ें मात्र एक भ्रम थीं जिसमें वो कभी नहीं पड़ना चाहती थी।

अर्जुन को तो यह बात पता भी नहीं थी। वह तो बहुत इज़्ज़त करता था नुक्ती की। उसकी क्या, अर्जुन तो क्लास की सभी लड़कियों की रेस्पेक्ट करता था। शरीफ था बेचारा, इसीलिए हमेशा बलि का बकरा उसे ही बनाया जाता था।

कॉलेज आखिरी दिन, वो क्या कहते हैं इंग्लिश में 'नाईटमेयर' की तरह था उसके लिए।

अर्जुन कॉलेज के दिनों यादों से गोते लगाते हुए वापिस ही रहा था की नुक्ती ने हाथ हिलाकर अर्जुन की तरफ इशारा किया। कुछ पल के लिए तो अर्जुन ने अपनी नज़रें फेर लीं, लेकिन आश्चार्यचकित होकर अर्जुन ने फिर से देखने की कोशिश की तब तक दोनों की नज़रें दोनों के फासलों के बीच कहीं मिल चुकी थीं।

हेलो ना बोलता तो शायद अजीब लगता, और हेलो बोलता भी क्यों ना, आखिर कब से सफाई देना चाहता था कि ऐसा उसने कुछ भी नहीं जिसकी वजह से नुक्ती को कोई ठेस पहुँचती।

'हेलो,' बिना किसी आवाज़ के अर्जुन ने इशारों में उत्तर दिया। भ्रम तो अभी भी मन में कहीं था कि नुक्ती ने इशारों में अर्जुन से कहा कि , 'दर्शन के बाद यहीं मिलना।'

कुछ देर के लिए तो ऐसा लगा मानो मूक-बधिर वाले समाचार का प्रसारण अर्जुन के सामने चल रहा हो। इससे पहले की कोई उन दोनों को देखता, अर्जुन ने बिना कुछ समझे हामी भर दी।

दोस्त बिना सुने मन की बात पढ़ लेते हैं और यहाँ तो अर्जुन और नुक्ती के बीच एक वार्तालाप हो चुका था।

'क्या हुआ अर्जुन,' दीपक ने अर्जुन के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, 'कौन है वो?'

'कौन?' अर्जुन ने उत्तर में पूछा और कहा, 'अच्छा वो, कुछ नहीं कॉलेज की दोस्त है, दोस्त नहीं, हम दोनों एक क्लास में थे। तो बस एक दूसरे को जानते हैं।'

'तूने कभी बताया नहीं,' दीपक ने नुक्ती की तरफ देखते हुए अर्जुन से पूछा।

दीपक बचपन से अर्जुन को जानता था। बस कॉलेज की वजह से दोनों को अलग होना पड़ा था। दीपक आई. आई. टी. से इंजीनियरिंग करना चाहता था तो एक साल की तैयारी के लिए शहर से बाहर चला गया। वरना आज भी ज़िंदगी के बड़े फैसलों में अर्जुन दीपक से सलाह जरूर लेता है। अच्छे दोस्त मिलना ज़िंदगी में उतना ही कठिन है जितना सच्चा प्यार। दोनों ही मानों विलुप्त हो गए हों लेकिन कुछ लोग होते हैं जिनमें यह दोनों खूबियां एक हे इंसान में हों।

'कुछ बताने जैसा था ही नहीं,' अर्जुन ने दीपक को जवाब दिया।

'तू चाहे तो मिलने जा सकता है, मैं यहाँ तेरी जगह रोक कर रखता हूँ,' दीपक ने एक बार फिर अर्जुन से पूछने की कोशिश की। दीपक आखिर जानना चाहता था की कौन है वो जिससे इशारों में बात करके अर्जुन एक पल के लिए वो पुराना वाला अर्जुन सा दिखा।

'नहीं मैं बाद में मिलता हूँ,' अर्जुन ने उत्तर दिया।

गणपति बाप्पा के दर्शन में ज्यादा वक़्त नहीं लगा, आरती और प्रशाद लेकर अर्जुन और उसके दोस्त गेट की तरफ बढे।

विवेक, इक़बाल और दीपक दूसरी तरफ निकल गए, और अर्जुन की आखें अभी भी गेट की तरफ नुक्ती का इंतज़ार कर रहीं थीं। तीस मिनट से ज्यादा हो चुके थे और नुक्ती का कुछ पता नहीं था।

'उसकी लाइन तो मेरी लाइन से छोटी थी....' मन में बुदबुदाते हुए अर्जुन अपने जूते लेने के लिए काउंटर की तरफ बढ़ा। किस्मत भी बड़ी चीज़ है, शायद उसकी किस्मत में मिलना लिखा हे नहीं था। शायद नुक्ती भूल चुकी थी कि अर्जुन गेट पर उसका इंतज़ार कर रहा है।

बिना वजह थोड़ा सा मायूस अर्जुन, नज़रें ऊँची करके दोस्तों को ढूंढ़ने रोड की तरफ बढ़ा। मायूसी की वजह यह भी थी की दोस्तों के साथ ही घर चला जाता।

तभी अचानक पीछे से किसी ने आवाज़ दी, 'अर्जुन'

अर्जुन को पहचानने में अल भर भी नहीं लगा की वह आवाज़ नुक्ती की थी, बिलकुल वैसी, जैसी कॉलेज में थी।

उनके बीच कुछ था नहीं, लेकिन पसंद थी अर्जुन को उसकी आवाज़। ऐसा लगता था जैसे रेडियो पर कोई बोल रहा हो।

अर्जुन ने नुक्ती की तरफ देखकर कहा, 'हे, हाउ आर यू?'

'मैं कब से तुम्हारा वहां इंतज़ार कर रही थी।'

'मुझे लगा मैं यहाँ रूककर तुम्हारा इंतज़ार करूँ,'

'मैंने बोला भी था। आई मीन, इशारा किया था,' नुक्ती के चेहरे पर मुस्कराहट, अर्जुन के अंदर चल रही बातों से मेल नहीं खा रही थी।

इतने सालों बाद, अचानक से मिलना और वो भी उस इंसान से जिसे उसने कभी पसंद नहीं किया।

'सॉरी, मुझे लगा मैं गेट पर इंतज़ार करूँ,' अर्जुन आप बोलना चाहता था, फिर उसे लगा की शायद 'आप' थोड़ा ज्यादा फॉर्मल हो जायेगा तो उसने 'तुम' भी नहीं बोलने से इंकार कर दिया।

'तो क्या लिख रहे हो आजकल? यहीं मुंबई में रहते हो, आंटी कैसी हैं, याद है मुझे क्लास में लोग कैसे तुम्हारी खिचाई किया करते थे। लेकिन अब तो तुम सबसे आगे निकल गए हो। पढ़ी हैं मैंने तुम्हारी किताबें, दिल निकल कर रख देते हो कागज पर।'

अर्जुन मुस्कुराते हुए बोला, 'बस सब ठीक चल रहा है। हाँ, यहीं मुंबई रहता हूँ,' शायद बाकि के सारे उत्तर उसने चेहरे के भावों से दे दिए थे। उसे पसंद नहीं था की कोई उसे बेचारे की तरह ट्रीट करे।

'तुम अभी भी काम बोलते हो, यकीन नहीं होता।'

हस्ते हुए अर्जुन ने कहा,'नहीं-नहीं , ऐसा नहीं है, और बताओ, सब कैसा चल रहा है?'

'सब ठीक है। तुम्हें कॉफ़ी पसंद है?' नुक्ती ने उत्तर देते हुए अर्जुन से पूछा।

'हाँ, यहाँ पास में कॉफ़ी-शॉप है,' रोड के उस पार इशारा करते हुए अर्जुन ने नुक्ती से कहा। लेकिन थोड़ा नर्वस जरूर था क्यूंकि कॉफ़ी के लिए आर्डर देना, अर्जुन को, कॉफ़ी पीने से ज्यादा कठिन काम लगता था।

मन में कैपेचीनो-कैपेचीनो बोलते हुए, अर्जुन और नुक्ती सड़क के उस पार बढे।

'मुझे तुम्हें सॉरी बोलना था अर्जुन,' नुक्ती ने सड़क पार करते हुए अर्जुन से कहा।

'अरे, ऐसा क्या हुआ,' अर्जुन ने हसीं में बात टाल दी, पता तो अर्जुन को भी था की नुक्ती क्या कहना चाहती थी।

लेकिन गड़े मुर्दे उखाड़ने का क्या फायदा, अर्जुन आगे बढ़ा।

'शायद मैं बच्ची थी, हम सब हे तो बच्चे थे, मैंने यूँ हे तुम्हें फेयरवेल वाले दिन भला बुरा कह दिया, लेकिन तुम कुछ तो बोल सकते थे।'

'मैंने बोलने की कोशिश की थी...लेकिन तुम कॉलेज की मिस फ्रेशर थीं तो... छोड़ो,' अर्जुन शायद सब कुछ भूल चूका था।

'नो, आई मीन सॉरी।'

'इट्स ओके, कॉफ़ी का बिल तुम दे देना,' अर्जुन ने मुस्कुराते हुए नुक्ती की तरफ देख कर कहा।

दोनों अब थोड़ा हल्का महसूस कर रहे थे।

होते भी क्यों ना, वैसे बातों को दबाकर भी उनकी ज़िंदगीगियों पर कोई फरक तो नहीं पड़ता लेकिन एक-दूसरे के साथ शेयर करके उनके बीच का एक रिश्ता सा बनने लगा था।

'अच्छा तुम क्या लोगे,' नुक्ती ने अर्जुन से पूछा।

अगले ही पल अर्जुन ज़ोर से हस पड़ा।

'क्या हुआ?' नुक्ती ने आसपास देखकर अर्जुन से पूछा।

'कुछ नहीं, वन कैपेचीनो प्लीज।'

'टू कैपेचीनो प्लीज।'