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बर्फ का गोला



मेरे प्यारे पार्क मेरा पहला प्यार हो तुम. तुम्हारी उम्र की तो ना शुरुआत है न आखिर. हर उम्र के यार हो तुम. मेरे सोलहवे साल कि कुछ परछाईयाँ अब भी तुम्हारे पास रखी है. शादी के पहले की, देखा देखि की, तुम शर्मीली चादर हो. तुम ही जोड़े बनवाते हो, बाद मे उनके झगडे की, तुम ही पहली अदालत हो.

कुछ खेल हैँ इस जीवन के, जो तुम अकेले देखा करते हो...,और हर पार्क मे होता है एक,
"बर्फ का गोला" जो फिर उस से मिल पाता है..., एक कोई थी, वो फ्रॉक वाली तब, आज मगर वो नयी ब्याही, साड़ी का पल्लू लेकर आयी है.

गोला देख उस फ्रॉक वाली को, आश्चर्य चकित हो जाता है, कि ये थी चंचल, हरी गुलाबी. मेरी जैसी बेरंग सफ़ेद क्यों दिखती है. दुखी मन अपना करके वो गोले मे रंग ना चढ़वाता है. पर पार्क को पता है सब कहानी, ये गोला वहीं रह जाता है.
थोड़ी देर मे जब वो जोड़े पार्क के अंदर जाते हैँ. और किसी बोगन वेलिया के पास कहीं बैठ जाते हैँ. तब कहीं से, किसी बात पर, एक थप्पड़ मारा जाता है. मच्छर दूर से देख रहा था, शर्मा कर मूँह घूमाँ लेता है. कहता उसको छोड़ो बहनजी, ये भी मेरी प्रजाति का है, बस फर्क यही है, कि, ताली मे हम सब मर जाते हैँ, पर ये बड़े, बेशरम हैँ, ताली मे ही नाच दिखाते हैँ.

इतने मे,....कुछ देर सूना पन..., हवा से एक सूखे पत्ते की, ज़मीन मे घिसटने की खरखराती आवाज चली आती है, एक सुखा पत्ता सामने आकर टिक जाता है. और उसकी आँखों मे आंसू आ जाते हैँ , वो रोने सी हो जाती है. बोगन वेलिया के फूल भींग गए, कांटे रोने लगते हैँ. यह सब पार्क देख के अपने आंसू कहीं छुपा आता है.
पार्क रुंधी आवाज़ मे फिसलपट्टी से कहता है, "जा तेरी कोई पुरानी आयी है, जा मिल आ" "बाबा मै नहीं जाती, आयी होंगी, कोई अकेली तो नहीं आयी होंगी, जरूर किसी को संग लायी होंगी". "नहीं बिटिया, आज कोई और संग मे नहीं है"..., "दूर कहीं बैठी रोती है तेरा जीजा संग मे लायी है". "मिल आ" "बाबा क्या कहा, दूर कहीं बैठी रोती है जीजा संग मे लायी है...!पर बाबा रोती क्यों है? "अरी पगली इसीलिए तो कह रहा हूँ" "झूले को भेज कर बुलवा ले, नई -नई बात है कछु हुई गवा हुई"."भेज जल्दी! झुलवे को",...झुलवा अपनी मोटी चाल से, चाउं-चों करते जाता है, बैठा के दुइनौ को कंधे पर, फिसली पास लै आता है. झुलवा कहिता जीजा जी से, "ई सीता, उर्मिला मिलाप है, दुइनौ रोहियें भर भर आंसू, तुम क्यों होत उदास हौ". "आओ झूलो हमरे ऊपर, अपना भी मन अच्छा कई लो"."घर मे रहेओ खूब खुसी से, अपना भी एक बच्चा कैलो".
दूर कहीं कोने मे एक गाढ़ा सफ़ेद धुआँ उठने लगता है माली ने शायद गीली लकड़ियां और कुछ सूखे पत्तों का कचरा जलाया होगा.
सूरज के संग, तेज हवा में उसकी साड़ी का पल्लू भी उड़ जाता है, और हवा मे लहराने लगता है. दोनों, हाँथों मे हाँथ डाले, नयन मिलाय, चले आरहे थे.
बर्फ के गोले को ये माज़रा समझ ना आया और उसमे से ठंडा धुआं निकलने लगा. वो पुरानी फ्रॉक वाली लड़की गोले वाले से कहती है "भैया एक गोला बना दो, हरा रंग ज्यादा डालना", यह सुन गोला खुब खुश हो जाता है, क्यों की वो बहुत देर से हरा रंग चढ़वा रहा है.
फ्रॉक वाली लड़की, अब पार्क के बाहर, फिर साड़ी का पल्लू सर से लेती है और एक हाँथ से बर्फ के गोले की पहली चुस्की वो नई ब्याही, हर्ष ह्रदय से, अपने पी को देती है.
यह देख के गोला, ज्यों मूँह अपना लटकाता है, उस गोले के गिरने से पहले...,उन नव दम्पति का..., मुख मिलन..., होंठो का चुम्बन..., वहीं उसी छण हो जाता है, और वह गोला उस चुम्बन मे आजीवन फंस कर रह जाता है.
देख ये सब अपनी आंखों से, वह गोला टिक न पाता है, और उन्ही होंठों की अग्नि में जल जल कर भस्म हो जाता है,
मगर जलते छण वह "बर्फ का गोला" अपना जीवन अमृत ढूंढ रहा था, उन दोनों की प्रेम कड़ी में अपना बंधन देख रहा था.
जलकर भी वो "बर्फ का गोला" अमर रहेगा, उस जोड़े में बनकर उनका 'शीतल' प्रेम मित्र.



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