हार गया फौजी बेटा
- प्रदीप श्रीवास्तव
भाग 2
उस रात मैं बड़ी गहरी नींद सोया था। इसलिए नहीं कि मुझे सुकून का कोई कतरा मिल गया था। सोया तो इसलिए था क्योंकि नर्स ने मुझे गलती से नींद की दवा की डबल डोज दे दी थी। जिसकी खुमारी अगले दिन भी महसूस कर रहा था। हां अगले दिन शाम को तब मैंने बड़ा सुकून महसूस किया जब यह पता चला कि उस बहादुर फौजी का दो दिन बाद ऑपरेशन होगा। यह जानकर मैंने ईश्वर को हाथ जोड़कर धन्यवाद दिया कि चलो दो दिन बाद देश का होनहार बहादुर फौजी अपनी तकलीफों से काफी हद तक मुक्ति पा लेगा। फिर जल्दी ही स्वस्थ होकर पुनः वतन की रक्षा में लग जाएगा। फिर से अपने मां-बाप के बुढ़ापे का सहारा बनेगा। अपनी बहनों की, अपनी शादी कर सकेगा। एक खुशहाल जीवन जिएगा।
उस दिन उससे मैंने टुकड़ों- टुकड़ों में कई बार बातें कीं। उसकी बातें बड़ी दिलचस्प थीं। अपने सपनों के बारे में बताते-बताते उसने हंसते हुए यह भी बताया की वह छः बच्चे पैदा करेगा और सभी को फौज में भेजेगा। मैंने कहा ‘अगर लड़कियां हुईं तो।’ तब उसने कहा ‘उनको भी फौजी बनाऊंगा। अब तो लड़कियां भी फौज में आ रही हैं।’ मैंने कहा ‘देश की जनसंख्या के बारे में नहीं सोचोगे।‘ तब वह हंस कर बोला ‘अंकल बड़ी जनसंख्या-मतलब बड़ी ताकत। कम जनसंख्या का सिद्धांत फेल हो रहा है। चीन ने भी केवल एक बच्चे के नियमों में ढील देकर दो बच्चे पैदा करने की इज़ाजत दे दी है।’
उसकी शारीरिक स्थिति देखते हुए मैंने उससे और बहस करना उचित नहीं समझा। उसके सिर पर प्यार से हाथ रखकर कहा ‘बेटा भगवान से प्रार्थना है कि वह तुम्हारी हर मनोकामना पूरी करे। अब तुम आराम करो। मैं अपने बेड पर चलूं नहीं तो सिस्टर फिर चिल्लाएगी कि बुढ़ऊ को एक जगह चैन नहीं मिलता।’
मुंह से निकले इस वाक्य ने अचानक ही मन खराब कर दिया। नर्स की बात सही ही तो है। पिछले कई बरस से चैन मिला ही कहां। लोग कहते हैं सारी ज़िम्मेदारियों से मुक्ति पा गया हूं। अब चैन की बंसी बजाता हूं। पर मैं तो उन किस्मत के मारों में से हूं जो सारी ज़िम्मेदारियों को पूरा करने के बाद लड़के-बच्चों की खींचतान, उपेक्षा, दुर्व्यवहार से रहा-सहा चैन भी खोकर घुटते-घुटते जीते हैं। चैन की सांस उन्हें मयस्सर ही नहीं होती। यहां भी तो दामादों की आए दिन की डिमांड और बहुओं के तानों ने सारा सुख चैन कब का छीन रखा है। उस दिन भी तो रुक्मिणी ने सिर्फ़ इतना ही तो कहा था कि पर्दे, सोफे के कवर सब गंदे हो गए हैं इन्हें बदल दो। तो बहुओं ने जान-बूझ कर सुना कर कहा था कि बूढ़ा-बुढ़ऊ को चैन नहीं पड़ता। जब देखो एफ.एम. रेडियो की तरह बजते ही रहते हैं। चैन से बैठने नहीं देते, ये कर दो, वो कर दो दिमाग खराब किए रहते हैं। रुक्मिणी और मैं हक्का- बक्का रह गए थे। रुक्मिणी ने जब टोका था तो कैसा कोहराम मचाया था बहुओं ने। लड़कों ने भी उन्हीं का पक्ष लिया था। इसी के बाद रुक्मिणी जो बीमार पड़ी तो सुधर न सकी। दुनिया के सारे चकल्लसों को अलविदा कह कर देखते-देखते छः महीने में ही छोड़कर चल दी।
मैं राह में पड़े रोड़े की तरह जिस-तिस की ठोकरें खा रहा हूं। डेढ़ महीने से जिसकी- तिसकी बातें सुन रहा हूं। लड़के शासन में बैठे हैं जरा सा कोशिश करते तो मेरा भी कब का आपरेशन हो चुका होता। बढ़ते ब्रेन ट्यूमर की तकलीफ, यहां की जलालत से फुर्सत तो पा जाता। पर नहीं सही तो यह होगा कि अब इस जीवन से ही फुर्सत पा लूं। क्योंकि डॉक्टर कह रहे थे कि ऑपरेशन के बाद शरीर का कोई हिस्सा बेकार हो सकता है, अपाहिज भी हो सकता हूं। ऐसे में कौन देखेगा मुझे। बच्चे तो बेड पर ही सड़ा मारेंगे। कीड़े पड़ेंगे, बेड सोर होगा, नहीं-नहीं -नहीं कराऊंगा ऑपरेशन। बहुत होगा जो कल मरना है वह आज मर जाऊंगा। वैसे भी अब जीने का कोई कारण भी नहीं बचा है। अब किस लिए जीना किसके लिए जीना। कल ही रिलीव करवाकर चलता हूं। लेकिन, तब फौजी बेटे के बारे में कैसे पता चलेगा। चलो जैसे इतने दिन काटे वैसे कुछ दिन और सही। ऑपरेशन के बाद वार्ड में उसके आने तक तो रुकूंगा ही या फिर जिस दिन बोलने चालने लगेगा उसी दिन चल दूंगा यहां से। मन में उठी इस उथल-पुथल ने मुझे चैन से बैठने न दिया। वार्ड में भटकता रहा इधर-उधर तो एक नर्स फिर चिल्ला उठी। ‘आप एक जगह शांति से बैठ नहीं पाते क्या?’ उसकी चीख ने मुझे यंत्र सा बैठा दिया बेड पर। लेकिन मन की उथल-पुथल जस की तस रही।
ऑपरेशन वाले दिन सुबह आठ बजे ही ट्रान्सपोर्ट विभाग का एक कर्मचारी काफी ऊंची पहियों वाली स्ट्रेचर लेकर आ गया। उससे पहले ही फौजी बेटे के पिता, तीनों बहनें भी आ गई थीं। उस दिन पहली बार मैंने उसके बहनोई को भी देखा। सभी की आंखें उस समय भरी-भरी थीं। चेहरे पर उदासी की अनगिनत रेखाएं साफ नजर आ रही थीं। लेकिन सब के सब फौजी को सामान्य रखने की गरज से सामान्य व सहज नजर आने की कोशिश कर रहे थे। स्ट्रेचर को चलाने वाला बड़ी जल्दी में दिख रहा था। वार्ड में आते ही बोला ‘जल्दी करिए इतना टाइम मेरे पास नहीं है और भी जगह जाना है।’ उसकी बातें सुनकर सभी हड़बड़ाहट में आ गए। बहनोई और कर्मचारी ने मिलकर उसे स्ट्रेचर पर लिटाया। जल्दबाजी में कर्मचारी ने कुछ ज़्यादा ही झटके से उठाया जिससे फौजी बेटा गर्दन में तेज़ दर्द के कारण कराह उठा। उसकी आंखें व जबड़े कस कर भिंच गए थे। उसको लिटाने में बहनों ने भी सहयोग किया था। मैं अपने को रोक नहीं सका था इसलिए मैं भी वहीं खड़ा था। जाते वक्त उसने हल्के से हाथ उठाने की कोशिश की जो करीब-करीब निष्क्रिय हो चुका था। मैंने तुरंत उसे पल भर को अपने हाथ में लेकर कहा ‘जा बेटा जल्दी से ठीक होके आ। मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं?’ उसने हल्के से आंखें झपकाईं। मैंने उन आंखों को साफ देखा कि वह डबडबाई हुई थीं। मेरे कुछ बोलने से पहले ही स्ट्रेचर आगे बढ़ चुकी था। उसका कर्मचारी बहुत ही जल्दी में था। मैं यह नहीं जान सका कि उसकी आंखें लापरवाही से उठाए जाने के कारण हुए दर्द से भर आई थीं या फिर शरीर के अपंग हो जाने के कारण दुखी होने से। उन सब को ओझल हो जाने तक मैं देखता रहा। उसके पिता के पैरों में कपकपाहट को भी मैंने साफ देखा था। जिनके कंधे पर जाते वक्त मैंने हौले से हाथ रखा था कि धीरज रखें।
ऑपरेशन के लिए उसके जाने के बाद मैं न तो ठीक से नाश्ता कर सका और न ही दोपहर का भोजन। मन को कहीं भी लगाने की सारी कोशिश बेकार होती रही। वह फिर-फिर फौजी बेटे के पास पहुँच ही जाता। देखते-देखते चार बज गए लेकिन कोई सूचना नहीं मिली। आखिर कोई सूचना देता भी क्यों ? मैं उसका था कौन ? जो उसके अपने थे वह तो उसके साथ थे। मगर हालात जानने के लिए मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। स्वीपर से लेकर वार्ड ब्वॉय तक से चिरौरी की मगर कोई फायदा नहीं हुआ। सब यह कह कर आगे बढ़ जाते अरे आप क्यों इतना परेशान हो रहे हैं, जो होगा शाम तक तो पता चल ही जाएगा। लेकिन बेचैनी बढ़ती गई तो एक स्वीपर को पचास रुपये देकर कहा बेटा जा सही-सही बात पता करके मुझे बता दे। लेकिन वह गया तो लौटा ही नहीं। उसके घर वालों को इस स्थिति में फ़ोन करने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। अंततः छः बजते-बजते मैं स्टॉफ की नजर बचा कर वार्ड से बाहर निकल गया। हाथ में एक पर्चा थामें रहा कि रास्ते में जो स्टॉफ मिले वह गफलत में रहे कि मैं किसी चेकअप वगैरह के लिए निकला हूं। हॉस्पिटल की यूनीफॉर्म पहने होने के कारण मैं वहां किसी से छिप नहीं सकता था।
बचते-बचते ओ.टी. से पहले गैलरी में खड़े उसके बहनोई से मिलने में सफल हो गया। परिवार के बाकी लोग बाहर थे। उसके बहनोई से सिर्फ़ इतना पता-चला कि सुबह से ऑपरेशन चल ही रहा है। इसके अलावा कुछ नहीं बताया गया। इस बीच एक गॉर्ड ने आकर मुझसे पूछताछ शुरू कर दी। ‘यहां कैसे?’ मैंने उसकी बातों पर ध्यान देने से पहले ही फौजी बेटे के बहनोई से उसका सेल नंबर लिया और गॉर्ड से क्षमा मांगते हुए वापिस अपने बेड पर आ गया। बुरी तरह थक जाने के कारण कुछ बिस्कुट खाकर पानी पिया और लेट गया। सिर बहुत भारी होता जा रहा था। बदन में अजीब सी सनसनाहट भी महसूस कर रहा था। अंदर ही अंदर मैं डरा कि कहीं तबियत ज़्यादा न खराब हो जाए।
इसी कशमकश और उधेड़बुन के बीच मन में आया कि बीमार होने के बाद साल भर से हालत यह है कि मैं सौ-पचास मीटर भी चलने में पस्त हो जाता हूं। लगता है बस गिर ही जाऊंगा। मगर आज ऐसी कौन सी ताकत आ गयी कि मैं करीब पौने दो किलोमीटर चला वो भी इतनी जल्दी-जल्दी। इतना ही नहीं जीवन के आखिरी पड़ाव के एकदम आखिर में पहुंच कर वह काम किया जो पहले कभी नहीं किया। एक बिगड़ैल छात्र की तरह स्कूल कट कर भागने जैसी हरकत की। या फिर चोर की माफिक निकल भागा सारे नियम कानून को धता बताते हुए। यह भी न सोचा कि यदि कहीं गिर गया तो क्या होगा? इस पर यदि ड्यूटी पर तैनात हॉस्पिटल के किसी कर्मचारी के खिलाफ कोई कार्यवाही की जाती तो कौन ज़िम्मेदार होता। बड़ी सिस्टर ठीक ही तो चिल्ला रही थी। ‘तू तो मर के ऊपर चला जाएगा। यहां तो कई की नौकरी चले जाने का है।’ साउथ इंडियन उस नर्स ने अपनी टूटी-फूटी हिंदी में और न जाने क्या-क्या कह डाला था। पंद्रह मिनट तक पूरे वार्ड को सिर पर उठा लिया था। मेरे पास उससे दो-तीन बार क्षमा मांगने के अलावा और कोई चारा न था। नर्स के शांत होते ही मेरे दिमाग में यह प्रश्न कौंध गया कि इस फौजी बेटे में ऐसा क्या है कि मैं चंद दिनों की मुलाकात में ऐसा मोहग्रस्त हो गया हूं मानो यह अपना ही खून हो। खाना और दवा खाने के बाद सोने तक मैं इसी प्रश्न का उत्तर ढूढ़ने में लगा रहा।
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