रंगीली के संग संग चले गए उसके जीवन के बचे खुचे रंग। अब नहीं लिखता था, लिखे भी तो किसके लिए? कौन पढ़ेगा? शाम होते होते उसे रंगीली की यादें सताने लगती थी। अंधेरे से आवाज चीरते हुए आती थी " ए छुट्टन बड़े निराशावादी हो बे "
" हाँ है हम निराशावादी! पर पलायनवादी तो नहीं "
छुट्टन जोर से चीख पड़ा। विचारो के आसमान से यथार्थ के धरातल पर पटकी हुई आवाज बाकी सोये हुए लोगों के नींद को खराब कर गई।
छुट्टन दौड़ कर बाहर निकल आया था। दम घुट रहा था उसका वहाँ।
यह रात तो सुरसा जैसे बड़ी होते जा रही है। कौन मनहूस घड़ी में बस पकड़े थे। बड़बड़ाते हुए छुट्टन बाहर चाय की दुकान पर आ गया।
" एक कड़क चाय बनाओ बाबू जरा, नींद उड़ा दे ऐसी!"
" दो बनवा लीजिए! काहे की नींद तो आपने उड़ा ही दी है "
छुट्टन ने पीछे मुड़ कर देखा वही मोहतरमा थी किताब वाली।
" जी माफ कीजिए.. वो हम जरा विचारो में..."
" अरे अरे.. एक कप चाय ही तो बोले आपसे और आप माफी की बौछार लगा दिए " कहकर खिलखिलाने लगी थी वह।
छुट्टन ने देखा उसकी हँसी जैसे रंगीली की तरह साफ, सरल और एकदम असली।
चाय वाले को दो कप का बोलकर दोनों बेंच पर बैठ गए।
" आप.. ऐसे अकेले कहां सफर कर रही है? मतलब मैं उस मतलब से नहीं बोल रहा कि आप औरत है तो नहीं सफर कर सकती.. बस यूँ ही.."
" हमे अकेले ही सफर करना पसंद है..इसमे अलग खूबसूरती है.. आपको किसी के साथ कोई समझौता नहीं करना पड़ता है, कोई इजाजत नहीं, कोई रोकटोक नहीं .. बस निकल पड़े आजाद पंछी की तरह। दरअसल हम एक फोटोग्राफर हैं , यहां वहाँ घूम कर अच्छी तस्वीरे लेते रहते है। काम लायक पैसे आ जाते हैं और हमारा शौक भी पूरा हो रहा है।.. आप क्या करते है?.. लोगों की नींद उड़ाने के अलावा "
कहकर वह फिर खिलखिलाने लगी।
छुट्टन को अब बस पकड़ने का निर्णय उतना भी बुरा नहीं लग रहा था। आज कई सालो बाद उससे कोई बात करने बैठा है। किसी ने उसे सुनना चाहा है।
" जी हम लोगों की चैन की नींद का व्यवस्था करते है मतलब कि गद्दे का दुकान है। एक ब्रांडेड गद्दे की फ्रैंचाइजी लेनी थी उसी सिलसिले में पिताजी ने इस सफरिंग सफर पर भेजा था।"
" वाह बढ़िया! मतलब दर्द भी देते है और दवा भी " मोहतरमा बोली।
" आप भी तो, देते हो बुझी हुई आग को हवा भी " छुट्टन तपाक से बोले।
" अरे वाह! जुगलबंदी? शायर है आप?"
" हाँ.. था.. अब नहीं हैं।"
" कैसे नहीं है.. शायर तो मर कर भी नहीं मरा करते है और आप तो जिंदा है बाकायदा "
छुट्टन ऐसे देख रहा था जैसे कि किसी मुर्दे से आखिरी ख्वाहिश पूछी जा रही हो।
" नहीं मोहतरमा! जिसके लिए शायरी करते थे वो वजह ही नहीं बची। "
" और वो वजह अगर यही चाहती होती तो.. कहीं वो अब भी यही चाहती होगी तो.. वजह यूँ ही बेवजह ना तो आती है ना ही जाती है.. अब आपके निराशा के पीछे की वजह तो आप ही जाने " कहकर वो सराय के अंदर चली गई। छोड़ गई छुट्टन को फिर उसी जलती यादो के ज्वालामुखी के मुहाने पर।