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लिस्ट

लिस्ट

स्नेहा हमेशा की तरह घर की सफाई में मगन गुनगुनाती जा रही ....... "न चिठिया कोई संदेसा।" ...
तभी अचानक सौरभ माँ-माँ चिल्लाता घर में आया और माँ को पकड़कर झूमने लगा | "अरे-अरे ! क्या हुआ ?" स्नेहा बोली|
"माँ आज मन बड़ा खुश है , स्कूल जो बंद हो गए हैं|अब तो खूब घूमूँगा, सोऊँगा| अच्छा , लाओ मैं तुम्हारी मदद करा दूं|"
सौरभ स्नेहा का हाथ बटाने में जुट गया| तभी ड्रेसिंग टेबल से जैसे ही स्नेहा ने पुराने पेपर हटाए तमाम परतों में से कुछ छोटी-छोटी यादों के पन्ने उड़कर गिरने लगे और सौरभ दौड़कर उड़ते हुए उन पन्नों को बटोरने लगा|
"सौरभ ,मां क्या-क्या कूड़ा रखे रहती हो |"तभी स्नेहा एक पेपर उसके हाथ से छीन लेती है| "क्या है माँ ? कुछ नहीं जरूरी लिस्ट है| "सौरभ - देखूं ,नहीं !तुम ना देखो, यह कहते हुए वह अतीत के पन्नों से उस लिस्ट तक न जाने कब पहुंच गयी और सौरभ यह कहता हुआ बाहर चला गया कि हो गई सफाई, मैं तो चला।"
स्नेह से पाली गई तभी तो पापा ने उसका नाम रखा था -स्नेहा। लोग हँसते और यह कहते
"अरे ! त्रिपाठी जी, बुढ़ापे की संतान है।" त्रिपाठी जी अपनी गुड़िया को ईश्वर का सबसे सुंदर उपहार कहते हैं। वह जैसे-जैसे बड़ी होती गई उस पर सभी का स्नेह बढ़ता गया। कोई कहता-" सूरत और सीरत का अनोखा मेल है त्रिपाठी जी की बिटिया, अरे भाई बुढ़ापे में लक्ष्मी बनकर आई है,जहां जाएगी मान ही बढ़ाएगी |" न जाने क्या-क्या?......
गली, मोहल्ला, स्कूल, दफ्तर हर जगह त्रिपाठी जी की बेटी के रूप और गुण का बखान होता।

स्नेहा अभी खोयी थी कि अचानक बाहर किसी ने आवाज दी- "अरे बहू कपड़े दे दो प्रेस के।" जी अम्मा जी देती हूं- कह कर लिस्ट थामे वह बाहर बरामदे तक गई और कपड़े की एक गठरी रखते हुए हुए बोली- "काका गिन लो 20 है और ध्यान से रेशमी भी है, संभाल कर करना।" "अच्छा बहू ध्यान रखूँगा। थैंक यू जो तुमने हस्ताक्षर करना सिखा दिया तो अब मैं बैंक का सारा काम खुद कर लेता हूं।"
स्नेहा- " अरे वाह ! काका अंग्रेजी भी, वेरी गुड और पुनः मुस्कुराकर अंदर चली गयी। " स्नेहा का मन अब सफाई में कहां लग रहा था, वह तो अतीत के ताने-बाने में उलझी जा रही थी। मंद-मंद मुस्कुराती हुई उस लिस्ट को थामे वह फिर धीरे से पलंग पर बैठ गई। खो गई फिर एक बार अतीत के पन्नों में।
माँ के आंचल में सुबह सवेरे मुँह पोछते हुए माँ से लिपट गयी। अलसाई हुई स्नेहा माँ की गोद में अपना सिर रख कर शांत बैठी रही और माँ भी उंगलियों के पोरों से लंबी-लंबी केश राशियों को सहलाने लगी। स्नेहा-"माँ आज घर के सामान की लिस्ट बना लें, दीपावली सिर पर है। बताओ तो क्या-क्या लिखूं ? देखो ! बैठ कर लिखवाना, मैं पीछे-पीछे नहीं दौड़ूंगी।यू नो आई एम वेरी बिज़ी परसन..... कहकर ठहाका लगाने लगी। "
स्नेहा की हँसी मनो घर को सुवासित कर देती है, और घर नंदनकानन सा लगने लगता।

"माँ आज पिताजी कहां गए हैं ? अरे! दवा भी नहीं खा गए, ईश्वर इन
लोगों का क्या होगा अगर मैं कहीं बाहर चली गयी तो, आप लोग कैसे रहोगे ?"
"अच्छा ! रहने दे मां ने कहा। "
आज शाम बिहारी अंकल आ रहे हैं बहुत सारी तैयारी करनी हैं। बिहारी अंकल पापा के बाल सखा हैं। बिहारी जी लखनऊ के हैं तो नजाकत उनकी बातों का एक प्रमुख अंग है। शाम को घर पर कई व्यंजन बनाने में स्नेहा बहुत थक गई। तभी त्रिपाठी जी किसी के साथ भीतर आये..... "अरे ! मेरी मुनिया इतनी बड़ी हो गई। "
स्नेहा ने भी प्रणाम किया। " कैसे हैं अंकल आप ? बहुत दिनों बाद आये। हाँ समय ही नहीं मिला यह कहकर बिहारी जी सभी से बात-चीत में व्यस्त हो गए और स्नेहा अपनी किताबें लेकर अपने कमरे में चली गई। बिहारी जी आज बड़ी मुश्किल से समय निकालकर आ पाए। वह अपने साले के लड़के के लिए स्नेहा का हाथ मांगने आये थे।
"त्रिपाठी जी, लड़का बहुत सुशील है, इलाइची तक नहीं खाता। स्नेहा रूप गुण की खान है ही, अकेली बहू बनकर राज करेगी और फिर दोनों एक ही फील्ड में हैं भी। तब तक स्नेहा की इंजीनियरिंग भी पूरी हो जाएगी और सुशील तो इंजीनियर है ही। जोड़ी बहुत जमेगी, ऐसा करो अबकी रविवार को मिल लो और दोनो एक दूसरे को देख भी लेंगे। "
जिस पिता की जवान लड़की हो उसकी सबसे बड़ी चिंता उसका उत्तम विवाह होता है और उनकी यह समस्या तो चुटकियों में दूर हो गई। मेल-जएेल होते हुए बात आगे बढ़ी, साब्ने देखा-दिखाया। लड़की के पिता बैंक के रिटायर्ड अधिकारी थे,लड़का इंजीनियर और स्नेहा इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में थी। विवाह के समय तक बहुत सारी लिस्ट बनाई गईं। कभी कपड़ों की, कभी जरूरी सामान की, कभी रिश्तेदारों की लिस्ट। आज लिस्ट ससुराल भेजनी है, क्या क्या देंगे। एक लंबी लिस्ट बनाई गई सारी जरूरी चीजों के नाम के साथ। स्नेहा के ससुर ने लिस्ट देखते ही कहा, अरे ! यह सब क्या करेंगे। घर पर सब सामान है, रखने की जगह नहीं है और सब स्नेहा का ही तो है और कौन है ही। स्नेहा खुश हुई कि आज के समय में ऐसे लोग बहुत कम मिलते हैं। आज बिहारी जी फिर घर पर आए हैं, आज दिन तारीख तय हो जाए तो अच्छा है। बिहारी अंकल ने स्नेहा से मुस्कुरा कर पूछा एनी प्रॉब्लम डियर ? नो अंकल, स्नेहा ने अपनों स्नेहिल मुस्कान के साथ उत्तर दिया और धीरे से कहा- कुछ खाता पीता ना हो वरना और हंस कर अंदर चली गई। उसकी यह बात सुनकर सभी हँसने लगे।

स्नेहा मायके की तरह ससुराल में भी सबके स्नेह से सराबोर थी। कोई भी उसे बुरा न कहता, आस-पास उसकी सहनशीलता की चर्चा रहती। अचानक एक दिन उसे तेज बुखार हुआ। डॉक्टर ने चौबीस घंटे ऑब्जरवेशन में रखने को कहा। अगले दिन स्नेहा घर में दाखिल हुई तो सभी ने बड़े प्यार से उसका स्वागत किया। ससुर जी ने पूछा- 'क्या हाल है बेटा ? पता है तुम नहीं थी तो दो दिन से अच्छी चाय नहीं मिली।' स्नेहा मुस्कुराकर अंदर चली गयी और जब पंद्रह मिनट के बाद बाहर आयी तो उसके हाथ में चाय का कप था। स्नेहा ने कप रखा और ससुर जी को प्रणाम किया। 'अरे ! मैं तो मजाक कर रहा था, अपनी माता जी को भी पिला दो अच्छी चाय।' ससुर जी ने चुटकी ली। पिता जी माता जी चाय कहाँ पीती हैं, स्नेहा यह कहते हुए सास के पास बैठ गयी। उन्होंने ने भी बड़े प्यार से स्नेहा के सर पर हाथ फेरा और कुछ देर बाद उठ कर पूजा घर की ओर चली गयी। स्नेहा भी उठ कर अपने कमरे में आराम करने चली गयी। सभी के प्यार के आगे स्नेहा भूल गयी की एक दिन पहले उसे तेज बुखार भी था।

आज वह दिन भी आ गया जब स्नेहा का रिजल्ट आया। स्नेहा से अधिक घर के सभी लोग खुश थे, उसने टॉप किया। धीरे-धीरे समय बीतता रहा। अब स्नेहा भी इंजीनियर बन गयी और एक अच्छी सी फर्म में उसे नौकरी भी मिल गयी। आज स्नेहा ऑफिस से जल्दी आ गयी, कुछ तबियत भी ठीक नहीं लग रही। उसके घर में आते ही पीछे से डोर बेल बजी- 'बेटी जरा देखन कौन है?' जी, कह कर स्नेहा गेट तक गयी और हाथ में एक लिफाफा ले कर लौटी। माता जी ने पूछा कौन है? पिता जी का पत्र आया है। लिफाफा ले कर स्नेहा अपने कमरे में चली गयी और जैसे ही लिफाफा खोला उसमें पत्र के साथ एक लिफाफा और भी था। उसने पत्र खोला और पढ़ने लगी। मेरी गुड़िया, आज तुम्हारे बचपन की साध पूरी हुई। तुमने जो चाहा था वो आज पा लिया। मैं कुछ नहीं बताऊंगा, अगला लिफाफा खोलोगी तो ख़ुशी से उछल पड़ोगी। तुम्हारी तपस्या का परिणाम यह लिफाफा है। कैसा पत्र लिखा पापा नें? यह कहकर स्नेहा दूसरा लिफाफा खोलने लगी और जैसे ही उसके भीतर का पत्र देखा स्नेहा ख़ुशी से रो पड़ी। बचपन से टी.वी., रेडिओ, मंच, स्कूल, कॉलेज, हर जगह उसकी सुमधुर आवाज उसकी पहचान रही है। स्नेहा के गीत सुनकर मंचासीन निर्णायक मंडल मंत्रमुग्ध हो जाता। लोक गीतों में स्नेहा का कोई सानी न था। पत्र पढ़ कर वह रोती जाती, तभी अचानक सुधीर की नजर स्नेहा पर पड़ी- 'क्या हुआ डॉर्लिंग सब ठीक तो है न?' हाँ-हाँ कहकर वह पत्र सुधीर को थमा देती है और बताने लगी- 'मेरा सपना था की मैं रघुवीर जी के साथ काम करूँ। आज सत्रह वर्ष के बाद फाइनली मुझे अप्रूवल मिला। आई एम सो हैप्पी, मेरा जीवन सफल हो गया।' 'स्नेहा पर इसके लिए तो शहर से बाहर जाना पड़ेगा, सोच लेना मुझे तो मुश्किल लगता है।' इतना कहकर सुधीर चला गया। ना शुभकामना, ना कोई बधाई, सुधीर प्रैक्टिकल पर्सन था। उसे पता था की अब क्या होगा। स्नेहा जिसने अपनी पहली तनख्वाह का लिफाफा अपने ससुर जी को देते हुए कहा था कि- 'पापा जी वहाँ मेरी हर उपलब्धि पर पहला हक़ माँ और पापा का था, यहाँ आपका और माता जी का है।' इतनी बड़ी ख़ुशी की खबर थी कि वह दौड़ कर ससुर जी के पास पहुँची और ख़ुशी से एक साथ सब कुछ बोल गयी। आज मुझे रेडिओ व दूरदर्शन से अप्रूवल मिल गया है। यूँ अचानक यह खबर सुनकर ससुर जी ने उसे बधाई दी पर उस स्वर में आज कुछ बदलाव है। 'अच्छा क्या है ये? पैसे मिलेंगे या यूँ ही फ्री में? इनमें क्या है? नौकरी भी कर रही हो, कैसे होगा? स्नेहा यह सब शादी के पहले के शौक हैं, बेटा।' आज प्यार का स्वर बदला हुआ था। स्नेहा को अब रघुवीर जी से मिलने जाना है, कैसे कहे?... इस उधेड़ बुन में स्नेहा कमरे में वापस आयी और बिस्तर पर बैठ कर फूट-फूट कर रोयी। विदा के बाद ससुराल में यह उसका यह पहला रूदन था। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसके सपने यूँ बिखर जाएंगे क्योंकि विवाह के बाद ससुर जी ने बड़े प्यार से कहा था- 'जो चाहना वो करना, जब चाहो तब चली जाना माँ से मिलने।' स्नेहा इस चिंतन में थी और बिस्तर पर पापा का पत्र अपनी चुलबुली की प्रतीक्षा में खुला ही पड़ा रहा। अब वह दिन आया जिसकी अगली सुबह स्नेहा को रघुवीर जी से मिलने जाना है। वह अपने ससुर जी से इजाज़त लेने गयी तभी उसके कहने से पूर्व ससुर जी ने एक पेपर पकड़ाया और कहा- 'स्नेहा, बेटा जो करना सोच समझ कर करना।' आज उसे ससुर जी के भीतर का अधिकारी दिखाई दे रहा था जो उसे दिखा नही या उसने देखना नहीं चाहा। वह देखती थी तो उनका समय पर उठना, सोना, खाना, व्यायाम करना। जॉब वह सभी के लिए हर क्षण खड़ी रहती तो सभी उसे हाथों-हाथ लेते। उन सभी की ख़ुशी में वह अपना जीवन धन्य मानती चली गयी। उसमें तनिक भी दर्प नहीं था कि सुधीर से अधिक वेतन पाती है। अगली सुबह जब वह निकलने से पूर्व सास-ससुर का आशीर्वाद लेने गई तो ससुर जी ने कहा स्नेहा शादी से पहले की बात कुछ और थी, तब शौक और समय दोनों साथ होते हैं पर अब जिम्मेदारी बढ़ गयीं हैं, आगे परिवार भी बढ़ेगा। जब अपने सर से मिलना तो वह लिस्ट अवश्य देना और पूछना कि वह इन बिंदुओं पर विचार करें। कुछ शर्तें तुम्हारी भी हैं जैसे- टी.ए., डी.ए. यानी जाने-आने का खर्च, खाने-पीने, रहने का खर्च, वगैरह-वगैरह। आज स्नेहा के पाँव जैसे जड़वत हो गये। यह क्या ! यह कैसे कहेगी ! कैसे देगी यह लिस्ट? अचानक सौरभ फिर दौड़ता आया माँ-माँ, ओ माँ ! तुम अभी भी लेटी हो, क्या हुआ? दिखाओ ना यह कैसी लिस्ट है माँ। स्नेहा हाथ में लिस्ट लिए उठी और सोचने लगी कि- 'लिस्ट तो हर बात पर बनी, कभी खुशियों की, कभी सामान की, कभी मेहमानों की। पर टूटते सपनों की यह लिस्ट जीवन भर जब-जब उसके हाथ में आएगी, अतीत की वो सच्चाई उसे गहरे समंदर की गहराई में ले ही जायेगी जहाँ सीप नहीं-शैवाल ही शैवाल हैं।' तब भी उसने अपने सपनों की उस लिस्ट को मोड़ कर दबा दिया था और आज भी पुनः उसे मोड़ कर पेपर के नीचे रख दिया और फिर उठ कर सारा सामान ज्यों का त्यों रख दिया अधूरे सपने और उस लिस्ट के साथ जैसे हमेशा रखती है।

ना वह अपनों सपनों के लिए घर ताब खोना चाहती थी, और ना अब। उसने अब जीवन में लिस्ट बनाना छोड़ दिया है। उसकी मुस्कुराहट से उसके भीतर का यह द्वन्द छिप सा जाता है। माँ और पापा को भी तो ज्ञात नहीं की स्नेहा का वह सपना अधूरा क्यों रह गया, उसका निर्णय क्यों बदला और सपना सपना क्यों रह गया......


डॉ० गीता द्विवेदी
प्रवक्ता हिंदी साहित्य, लेखिका, कवियत्री, गायिका, पत्रिका लेखन, स्वंत्र लेखन

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