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मृगतृष्णा--भाग(४)

तभी राजलक्ष्मी को पता चला कि शाकंभरी इसी राज्य की राजकुमारी है,तब राजलक्ष्मी ने अपार शक्ति से निवेदन किया की कि वे उन्हें शाकंभरी से भेंट करने की अनुमति दे।।
अपारशक्ति बोले,हां! क्यो नही,वे आपकी सखी है,आपको उनसे मिलने के लिए मेरी अनुमति की आवश्यकता नहीं।।
राजा अमर्त्य सेन और राजलक्ष्मी, शाकंभरी से उसके कक्ष भेंट करने पहुंचे, एकाएक राजलक्ष्मी को अपने महल में देखकर शाकंभरी को अत्यधिक प्रसन्नता हुई,वो फूली ना समाई और राजलक्ष्मी को शीघ्रता से अपने बांहपाश में ले लिया।।
अमर्त्य सेन ने शाकंभरी से कहा__
पुत्री शाकंभरी, जिस प्रकार राजलक्ष्मी मेरी पुत्री है उसी प्रकार तुम भी मेरी पुत्री हो, कोई भी कष्ट या अभिलाषा हो तो तो मुझे नि:संकोच कहना, अत्यधिक कष्टकारी समय है तुम्हारे लिए, हमें आत्यधिक खेद है आपके पिता महाराज की असमय मृत्यु का, कदाचित नियति को यही स्वीकार था।।
राजा अमर्त्य सेन के स्नेहमय वाक्य सुनकर शाकंभरी का हदय द्रवित हो आया और उसके नयनों से दो बूंद अश्रु भी ढ़ुलक पड़े।।
उसने शीघ्र ही अमर्त्य सेन जी के चरण स्पर्श किए और अमर्त्य सेन ने अपना आशीर्वाद भरा हाथ शाकंभरी के सिर पर रख दिया।‌
तब राजलक्ष्मी बोली__
पिताश्री हम कुछ दिनों के लिए यहीं ठहर जाते हैं शाकंभरी के महल में, कुछ दिनों उपरांत मैं फिर से अरण्य वन लौट जाऊंगी और आप अपने राज्य लौट जाइएगा।।
अमर्त्य सेन ने राजलक्ष्मी के कथन पर अपनी सहमति जता दी और दोनों कुछ समय के लिए शाकंभरी के राज्य जयंती पुर में ही ठहर गए।।
इधर अपारशक्ति कुछ चिंतित सा प्रतीत हो रहा था, बहुत समय से वो अपने सिंघल राज्य की ब्यवस्था देखने नहीं जा पाया था।।
अपार शक्ति को चिंतित देखकर अमर्त्य सेन ने पूछा कि__
क्या बात है ?राजा अपार! आप कुछ चिंतित से प्रतीत हो रहे हैं।।
हां! महाराज राज्य के विषय में सोचकर कुछ चिंतित था,अपार बोला।।
आप अपने राज्य सिंघल की चिंता ना करें, वहां सब ब्यवस्थित है,अभी कल ही हमें सूचना मिली थी, महाराज अमर्त्य सेन बोले।।
अच्छा हुआ महाराज, आपने ये सूचना देकर अच्छा किया,अपार बोला।।
पर तभी वाटिका में टहल रहीं,शाकंभरी और राजलक्ष्मी पर अपार की दृष्टि पड़ी, शाकंभरी को ऐसे खुश देखकर अपार को कुछ संतुष्टि का अनुभव हुआ।।
अब प्रतिदिन ही सायंकाल अपारशक्ति वाटिका जाते और छुपछुपकर शाकंभरी को निहारा करते,उनका मस्तिष्क कहता कि ऐसा करना उचित नहीं हैं क्योंकि शाकंभरी तो मुझसे घृणा करती हैं वो मुझे अपने पिता का हत्यारा समझती है,वो भला क्यों मुझे स्वीकार करने लगी,परन्तु हृदय कहता यही तो हैं वह जिसकी मुझे ना जाने कब से प्रतीक्षा है,किन्तु मेरा व्याकुल हृदय एवं अशांत मस्तिष्क आपस मे एक दूसरे के विपरीत जा रहे हैं कितना कठिन हैं यह निर्णय करना कि कौन सत्य कह रहा है,हृदय या मस्तिष्क।।
महाराज अमर्त्यसेन कुछ समय जयन्ती पुर मे रहकर पुनः अपने राज्य का कार्य भार सम्भालने लौट गए किन्तु राजलक्ष्मी ना लौटी,वो बोली अभी कुछ समय और मै शाकंभरी के साथ बिताना चाहती हूँ।।
इधर शाकंभरी को भी आभास हो गया था कि अपारशक्ति उसे और राजलक्ष्मी को छुपछुपकर देखता है और मुझे कोई आपत्ति होनी भी नहीं चाहिए कदाचित् राजलक्ष्मी से उसका विवाह होने वाला हैं, राजलक्ष्मी को उसे देखने का पूरा अधिकार है परन्तु कभी कभी मुझे ऐसा प्रतीत होता हैं कि उनकी दृष्टि मेरी ओर ही होती हैं, राजलक्ष्मी तो केवल एक निमित्त मात्र हैं उनकी अधीर दृष्टि तो केवल मुझकों ही खोजा करती है।।
परन्तु मैं कैसे उन्हें स्वीकार कर सकतीं हूँ, उन्होनें मेरे पिता की हत्या की हो या ना की हो परन्तु उसका कारण तो अवश्य वो ही हैं, सेनापति तो उन्हीं का था एवं युद्ध करने का निर्णय भी उन्हीं का था एवं जीतने का उद्देश्य भी उन्हीं का था,कहीं ना कहीं इस कांड के भागीदार वो ही तो हैं ही,पाप तो हुआ ही हैं उनसे।।
शाकंभरी ये सोच ही रही थी कि राजलक्ष्मी दबे पांव उसके निकट आकर उसकी आंखो को बंद करते हुए, उसके साथ बालकों की भांति अठखेलियां करने लगी कि बताओ तो मैं कौन हूँ?
अरे,लक्ष्मी! आप भी ये क्या करतीं रहतीं हैं, लड़कपन अभी गया नही आपका,शाकंभरी ने राजलक्ष्मी से कहा।।
हां! सखी ये यौवन सम्भालने के लिए भी तो कोई होना चाहिए, तभी लड़कपन जाएगा, राजलक्ष्मी बोली।।
कहाँ? आपके राजा अपार,उनसे कहिए,वो आपसे प्रेमभरी बातें करेंगे, शाकंभरी बोली।।
नहीं सखी! प्रेम भरी बातें करने के लिए तो कोई रसिक चाहिए और वे ठहरें एक योद्धा, उन्हें कहाँ आती हैं, प्रेम की बातें, राजलक्ष्मी बोली।।
सखी! तनिक प्रयत्न करों,उनके निकट श्रृंगार करके जाओं, तनिक अपनी मद भरी दृष्टि के दो चार बाण चलाओं तो स्वतः ही रसिक बन जाएंगे आपके प्रेम मे, शाकंभरी बोली।।
नहीं, शाकंभरी ऐसा नहीं हैं, ना ही वो मुझसे प्रेम करते हैं और ना मैं ही उनसे प्रेम करती हूँ, ये सम्बंध तो दो राज्यों के मध्य तय हो चुका था,हमारे बाल्यकाल में और जो पिता महाराज की आज्ञा थी मैने स्वीकार कर ली,परन्तु तुम बताओ,तुम्हारे हृदय मे क्या हैं, राजलक्ष्मी ने बात बदलते हुए कहा।।
मुझे तो ये सोचने का कभी समय ही नहीं मिला, एक बार अवश्य कोई मन को भाया था परन्तु कुछ ही समय उपरांत ही उसकी घृणित इच्छा के विषय मे मुझे ज्ञात हो गया तो ये स्वप्न भी टूट गया, अब तो मेरे जीवन मे केवल आप हैं और आपके पिताश्री।।।
इसी तरह कुछ समय दोनों सखियों ने साथ मे ब्यतीत किया,तभी एक रोज महाराज अमर्त्यसेन पुन: जयंती पुर पधारे और उन्होंने वन प्रस्थान का विचार अपार के समक्ष रखा।
उन्होंने कहा कि सब का मन बदल जाएगा, आप और मै कुछ आखेट कर लेगें, बहुत समय से आप इसी महल मे रह रहे हैं आपको उकताहट होने लगी होगी।।
अपारशक्ति ने महाराज अमर्त्यसेन का सुझाव मान लिया और सबने वन की ओर प्रस्थान किया।।
एक साफ स्वच्छ स्थान जो कि झरने के निकट था,उसे ही इस कार्य हेतु चुना गया, दास दासियों सहित उस स्थान पर सभी साधन उपलब्ध थे।।
इसी तरह एक रोज शाकंभरी और राजलक्ष्मी वार्तालाप कर रहीं थीं, शाकंभरी ने राजलक्ष्मी से पूछा कि एक बात पूछू सखी,सत्य सत्य कहोगी।।
हां,सखी,नि:संकोच पूछो,राजलक्ष्मी बोली।।
आपकी उस दिन की बातें सुनकर मन मे तनिक शंका थी कि आप कदाचित् अपारशक्ति से विवाह नहीं करना चाहती और आपके हृदय मे कोई और बसा हो तो आप नि:संकोच मुझसे कह सकतीं हैं,मैं आपके पिता महाराज से बात करूँगी, शाकंभरी बोली।।
हां,सखी! ये सत्य हैं, मेरे मन मे तो विभूतिनाथ बसा हैं, उसके अपार सौन्दर्य और बलिष्ठ शरीर ने मेरा मन मोह लिया है किन्तु मेरा विवाह पहले से तय था इसलिए कुछ कह नहीं पाई,राजलक्ष्मी बोली।।
राजलक्ष्मी की बातें सुनकर शाकंभरी का मन अशांत हो उठा,उसने सोचा मेरी प्रिय सखी उस दंभी को अपना हृदय दे बैठी है।।
क्रमशः__
सरोज वर्मा__






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