कुरुक्षेत्र
तूलिका की वजह से आज एक और प्रैस्टीजियस एसाइनमेंट मेरे हाथ लगा था और इस समय ओरिएन्टल एक्सपोर्ट हाउस से निकलकर अपने वायदे के अनुसार मुझे आज का बाकी समय उसी के साथ गुजारना था, उसकी मर्जी के मुताबिक।
” अब कहाँ चलेंगे?”
“अरे पहले बैठो तो!” कहते हुए तूलिका ने पार्किंग में खड़ी अपनी फिएट में मुझे लगभग ढकेलते हुए अंदर किया और दरवाजा बंद करने के बाद घूमकर अपनी ड्राइविंग सीट संभाल ली।
सड़क के दोनों ओर लगे पेड़ों की झुरमुट से गुजरते हुए कार तेजी से आगे दौड़ने लगी और स्मृतियों के गलियारे से होता हुआ मैं वर्तमान को पीछे छोड़ता न जाने कब वहां जा पहुंचा जहाँ तूलिका से मैं पहली बार टकराया था।
अपनी धुन में मस्त मैं सीढ़ियों से धड़ाधड़ नीचे उतरता आ रहा था कि पीछे से आनेवाला एक नारी स्वर एकाएक कानों में प्रवेश कर गया।
“एक्सक्यूज़ मी!”
कौतुहलवश मुझे पीछे मुड़कर देखना पड़ा हालांकि इस नये व अपरिचित शहर में इसतरह मुझे कोई सम्बोधित करेगा इसकी आशा बिल्कुल भी नहीं थी और वह भी किसी नारी कंठ से निकले मधुर स्वर की, यह तो सोचा भी नहीं जा सकता था।
मैंने उत्सुकतावश पीछे मुड़कर देखा तो बहुत सावधानीपूर्वक कदम रखते हुए सीढ़ियां उतरती एक युवती को देख मैं कुछ सकपका गया। इस समय उसके साथ सीढ़ियों पर मेरे अलावा और कोई भी मौजूद नज़र नहीं आ रहा था अतः जाहिर था कि उसने मुझे ही सम्बोधित किया था। चेहरे पर प्रश्नवाचक भाव लिए मैं सीढ़ियों की लैण्डिंग पर रुक गया।
“माफ कीजिएगा, मैं आपसे कुछ कहना चाह रही थी इसीलिए आपको तकलीफ दी, आपने इसे अन्यथा तो नहीं लिया?” विशुद्ध अंग्रेज़ी में बेहतरीन लहज़े के साथ अपनी बात की शुरुआत करते हुए वह सीढ़ियां उतरकर अब तक मेरे पास पहुंच चुकी थी।
“मेरा नाम तूलिका है। अभी आप जब मिस्टर थदानी के सामने अपनी पेन्टिंग्स डिस्प्ले कर रहे थे तो मैं वहीं मौजूद थी। शायद आपने नोटिस नहीं किया।” उसने अपना संक्षिप्त-सा परिचय देकर बातों का सिलसिला आगे बढ़ा दिया। उस समय मुझे भला यह एहसास भी कहां था कि उसके साथ बातों का यही सिलसिला आगे बढ़ते-बढ़ते एक दिन एक ऐसे निर्णायक मोड़ तक जा पहुंचेगा जिसका अनुभव मेरी जिन्दगी में एक अविस्मरणीय अध्याय के रूप में जुड़ जाएगा।
“जी........?” मेरे मुंह से मुश्किल से बस इतना ही निकल पाया। एकान्त में एक अजनबी युवती को इतने करीब पाकर शायद मैं बहुत नर्वसनैस महसूस कर रहा था।
“आपकी बातिक पेंटिग्स से मैं बहुत प्रभावित हूँ। मैंने इतनी खूबसूरत बातिक पहले कभी नहीं देखीं। वास्तव में आप बहुत अच्छे कलाकार हैं। कहां से सीखा आपने यह सब ?” वह एक सांस में ही इतना सब बोल गई। फिर बिना जवाब की प्रतीक्षा किये जब उसने सीढ़ियों पर नीचे की ओर इशारा करते हुए कहा ‘चलें! ’ तो मुझे लगा कि शायद वह मेरी नर्वसनेस पूरीतरह भांप गई थी। सीढ़ियां उतरते समय हम दोनों चुप थे और इस बीच मिले समय में मैंने अपने को बहुत कुछ संयत भी कर लिया था।
सीढ़ियां खत्म हुई तो दीवार के साथ खड़े होकर मैंने उसके प्रश्न का उत्तर देने की औपचारिकता पूरी की।
“मेरा नाम प्रशान्त वाचस्पति है। इस कला को मैंने कहीं सीखा नहीं है बल्कि कला और साहित्य दोनों के प्रति रुचि मुझे मां से विरासत में मिली है, जिसे मैं धीरे-धीरे परिष्कृत करने की कोशिश कर रहा हूँ।” और इससे पूर्व कि मैं क्षमा मांगते हुए उससे विदा लेता शायद उसने मेरी मंशा पहले ही ताड़ ली।
“अब आप किधर जाएंगे? ”
“जी मुझे अभी यहीं कनॉट प्लेस में किसी का इंतजार करना है। वोल्गा में मिलने का समय तय है।” मैंने एक तरह से उससे पीछा छुड़ाने की गरज से उसे अपना यह मनगढंत कार्यक्रम बताया था पर इतनी जल्दी पीछा कैसे छुटता, किस्मत हमें एक लम्बी पारी खिलाने की तैयारी में जो थी।
“फिर तो मुझे आपके साथ कुछ और समय बिताने का मौका मिलेगा। वैसे भी आपको आज मि0 थदानी ने काफी बड़ा एक्स्पोर्ट ऑर्डर दिया है और उसके लिए सबसे पहले मैं आपको कॉग्रैचुलेट कर रही हूँ इसलिए कम से कम एक कप कॅाफी का अधिकार तो बनता ही है मेरा। क्यों ठीक है न?”
“जी जरूर, आइए न!” मुझे औपचारिकतावश कहना पड़ा और फिर कुछ ही देर बाद हम वोल्गा के अंदर एक टेबल पर आमने-सामने बैठे थे। कॉफी का आर्डर देने के बाद समय काटने की गरज से इधर-उधर देखते-देखते जब पहली बार मैंने तूलिेका पर ठीक से नज़र डाली तो पाया कि वह बीस-बाईस बरस की वास्तव में एक आकर्षक नवयुवती थी। जहां एक ओर उसके चेहरे से चंचलता और चपलता स्पष्ट झलक रही थी, वहीं उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में भरी आत्मविश्वास की चमक और गंभीरता की झलक को कोई भी दूर से ही आसानी से पढ़ सकता था। सुराहीदार गर्दन पर टिके लम्बे अण्डाकार चेहरे से झूलते रेशम जैसे स्ट्रेट इटालियन कट बाल, कानों में पड़े पतले लम्बे झुमकों से मानों होड़-सी लेते प्रतीत हो रहे थे। छोटे-छोटे हीरों से जड़े एक कलात्मक पैण्डेंट वाली पतली-सी सोने की चेन गर्दन कहां खत्म हो रही है, इसकी सीमा निर्धारित करती नज़र आ रही थी।
“ मैं एक मिनट में आयी ” कहकर तूलिका टेबल से उठकर शायद वाशरूम की ओर बढ़ी तब मैंने जाना कि उसका सिर्फ चेहरा ही खूबसूरत नहीं बल्कि पूरा फिगर भी बड़ा प्रपोर्शनेट और बैलेंस्ड था। चाल और पहनावे दोनों से ही उस पर एक अभिजात वर्ग की छाप थी जिसे कोई आम आदमी भी आसानी से पहचान सकता था। इतना सब होते हुए उसका मुझमें इस तरह रुचि लेने का मुझे कोई भी कारण समझ नहीं आ रहा था।
कॅाफी आयी तो वह टेबल पर पहले ही पहुंच चुकी थी और बातों के लम्बे सिलसिले के साथ हमारी कॉफी खत्म भी हो गई पर मेरा जो परिचित मुझे से मिलने आने वाला था, वह नहीं आया इसका उसे बेहद आश्चर्य था। इस बीच वह मेरे बारे में बहुत सारी जानकारी हासिल कर चुकी थी और फिर चलते-चलते जब उसने मेरा विजिटिंग कार्ड मांगा तो जवाब में मैंने उसे जान बूझकर एक ऐसा टेलीफोन नम्बर थमा दिया जहां डायल करने पर मैं जानता था कि सिर्फ घंटी ही बजती रहेगी। परन्तु इंसान के चाहने भर से क्या होता है भला ? गलत नम्बर देकर उसके साथ अपने संबंधों की लाइन मैंने अपनी तरफ से तो पूरी तरह काट दी थी पर जिसके साथ संबंधों की जितनी लम्बी लाइन निर्माता ने जोड़ दी हो उसे काट पाना क्या अदना से किसी इंसान के बस में है?
मैं इस मुलाकात को लगभग भूल चुका था पर तभी एक दिन कनॉट प्लेस के सी. ब्लॉक में जिस ज्वैलर्स के लिए मैं उन दिनों एक रेग्युलर एसाइनमेंट पर कार्य कर रहा था उसके यहां तूलिका से मैं एक बार फिर टकराते-टकराते बचा। वैसे तो मेरा केबिन पीछे बिल्कुल अलग को एकान्त जगह पर बना हुआ था पर कभी-कभी किन्हीं विशेष ग्राहकों से उनका रिक्वायरमेंट समझने के लिए मुझे शोरूम में भी आना पड़ता था। ऐसी एक पार्टी से डिस्कशन करते समय मेरी निगाह जब एकाएक उठी तो बायें शो-केस के दूसरी ओर अपने सेल्स मैंनेजर मि0 कपाड़िया से उलझी युवती को पहचानने में मुझे जरा भी देर नहीं लगी। अरे, यह तो तूलिका है और बस उसकी नजर से अपने को बचाने का प्रयास करते हुए मैंने जल्दी-जल्दी पार्टी को किसी तरह सन्तुष्ट किया और अपने केबिन में लौटकर चैन की सांस ली। चारों ओर दीवारों पर कांच और बीच में जगह-जगह लगे शीशों के खम्बों से सजे उस भव्य शोरूम में से तूलिका की नजर से अपने को बचाकर मैं जिस तरह निकल आया था उस पर मुझे आश्चर्य भी हो रहा था और गर्व भी। पर मैं शायद अपने को जितना स्मार्ट समझ बैठा था, तूलिका उससे कहीं अधिक स्मार्ट थी।
शाम को करौलबाग के अपने ठिकाने पर पहुंचकर मैं हाथ मुंह धोने के बाद थकान मिटाने के इरादे से टी.वी. खोलकर ईज़ीचेयर पर पूरी तरह ठीक से बैठ भी नहीं पाया था कि नीचे की मंजिल से मकान मालकिन का स्वर सुनाई दिया “प्रशान्त बेटे, आपसे मिलने कोई आया है” और मैंने बिना कोई विशेष ध्यान दिये अनमने भाव से कह दिया “ आंटी, उन्हें ऊपर ही भेज दीजिए।” फिर कुछ ही क्षणों बाद सीढ़ी से ऊपर आते किसी अपरिचित-से नारी-पदचापों की खट-खट सुनकर मैं थोड़ा सचेत हुआ ही था कि तभी मेरे कमरे के दरवाजे पर तूलिका आ खड़ी हुई थी, झूमती मुस्कारती और इतनी खुश मानों अभी-अभी उसे किसी जंग में फतह हासिल हुई हो।
“अरे तुम यहाँ ?” मैं अचानक उसे अपने घर पर देखकर चौंक पड़ा था पर वह बिल्कुल सहज थी। और होती भी क्यों न, उसे मेरे इसतरह चौंकाने का पूर्वाभास जो था।
“शुक्र है आपने मुझे तुम कहकर औपचारिकता का एक लबादा तो अपने ऊपर से उतार फेका ।” कहते हुए उसने सामने पड़ी कुर्सियों में से एक पर अपना शोल्डर बैग टिकाया और दूसरी पर खुद आराम से पसर गई। उस समय तक मुझे इस बात का जरा सा भी अन्दाजा नहीं था कि उसका इरादा मेरी जिन्दगी पर भी इसीतरह पसर जाने का था।
“गलत टेलीफोन नम्बर देने के बावजूद मुझे यहां देखकर आपको कितनी हैरानी हो रही होगी ”
सच भी था, हैरत की वजह से मैं एक बार फिर पूरी तरह असंयत हो गया था और उसी को छिपाने के लिए मैंने फौरन उठ कर कमरे के कोने में रखे अपने छोटे-से फ्रिज से कोल्ड ड्रिंक की एक बोतल निकालकर तूलिका के सामने मेज पर रख दी।
“ वैसे तो मैं बढ़िया-सी एक कप कॅाफी पीने का इरादा लेकर यहां आयी थी पर आपने कोल्ड आफर करके मेरे गर्मागरम इरादों को पूरी तरह ठण्डा कर दिया। खैर, कॉफी फिर किसी दिन सही।“ कहते हुए उसने बड़ी बेफिक्री के साथ स्ट्रॉ से सिप लेने शुरू कर दिए। साथ ही वह बेहद खूबसूरत अंदाज में सिलसिलेवार तरीके से उन सारी घटनाओं का सविस्तार वर्णन सुनाती गई जो वोल्गा में मेरे द्वारा गलत टेलीफोन नंबर दिए जाने के बाद से अब तक उसके साथ घटी थीं। ये घटनाएं चाहे जितनी भी मामूली रही हों पर उनके बयान किये जाने का तरीका वाकई लाजवाब था। इतना लाजवाब कि इन किस्सों को सुनते-सुनते ही ढाई घण्टे बीत गए और हमें समय का बिल्कुल पता ही नहीं चला।
“मैंने आपकी आज की शाम बेकार कर दी वर्ना इस समय तो आप किसी दीर्घा में कलाकृतियों का आनन्द ले रहे होते।” उसने उठते-उठते जब ये शब्द कहे तब मुझे एकाएक याद आया कि एक नई पत्रिका के आग्रह पर आज तो मुझे बसन्त साल्वी की प्रदर्शिनी कवर करनी थी।
“ चलिए, इस नुकसान की भरपाई का जिम्मा मेरा रहा। परसों आप निजामुद्दीन ईस्ट में मेरी मित्र दीक्षा पारिख की टैरेस एग्जीविशन कवर करेंगे और जिस पत्रिका के लिए यह कवरेज होगा उसके मालिक से आपका परिचय खुद अगले दिन कराऊंगी। और वाकई इस प्रोग्राम के मुताबिक ‘सुगन्ध’ जैसी राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका की मालकिन फीरोज़ा ज़रीवाला से मिलने और उन्हें दीक्षा का कवरेज देने के बाद मैं जब तूलिका के साथ ‘सुगन्ध’ के दफ्तर से बाहर आया तो मेरी निगाह में उसका कद कई गुना और बढ़-चुका था। परन्तु सच तो यह था कि इस घटना ने मुझे प्रभावित कम, चिंतित अधिक कर दिया था। इसतरह तो हमारे बीच का फासला घटते-घटते हमें एक दूसरे के बहुत करीब ला सकता था जो मैं बिल्कुल नहीं चाहता था। जीवन में मेरे लक्ष्य आम आदमी की चाहत से बिल्कुल अलग थे और संघर्ष के इस शुरुआती दौर से गुजरते हुए मुझे अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए अभी लम्बी दूरी तय करनी थी। इसलिए ही मैं इसतरह के आकर्षणों को अपनी मंजिल के बीच एक व्यवधान के तौर पर मानता था।
“जब से गाड़ी में बैठे हो, कुछ बोले ही नहीं। क्या सोच रहे हो ? यही न कि मैं तुम्हें आज कहाँ ले जा रही हूँ?” तूलिका द्वारा किये गए इस सवाल से मेरी तन्द्रा एकाएक टूट गई और तब मुझे अपनी वास्तविक स्थिति का भान हुआ। तूलिका की कार में बैठा विचारों की न जाने किस दुनिया में मैं अब तक भटक रहा था और जैसे ही वर्तमान में वापस लौटा, मुझे ध्यान आया कि अरे हाँ, आज तो बाइस अक्टूबर है यानी ठीक वही तारीख जब पिछले साल एक ऑफिस की सीढ़ियों से उतरते समय मैं तूलिका से पहली बार मिला था। और बदले हुए कलैण्डर पर दोबारा घूमकर आयी आज इस तारीख को तूलिका कुछ अपने ही तरीके से सैलिब्रेट करना चाहती थी जिसका जिक्र पिछले दिनों में वह कई बार कर चुकी थी। पर इसके लिए सरप्राइज के तौर पर जो कुछ मेरे साथ होने जा रहा था उसका तो मुझे तनिक-सा भी आभास नहीं था।
इंडिया गेट और लोदी होटल को पीछे छोड़ते हुए उसकी गाड़ी मुझे लेकर तेजी से जिस लक्ष्य की ओर बढ़ रही थी उससे मैं पूरी तरह अनजान था। मैं कुछ अन्दाज़ा लगाने का प्रयास करता इससे पहले ही तूलिका का स्वर एक बार फिर उभरा ” अरे कहाँ खो गये भई ? अब वापस भी आ जाओ और जरा गैस्स तो करो कि हम लोग इस वक्त कहां जा रहे हैं? ”
एक रचनाकार के जीवन का यही सबसे दुखद पहलू है कि अपने कल्पना के संसार की सृष्टि के लिए तो उसके विचारों की उड़ान रहस्य के कितने ही पर्दों और पर्तों को भेदकर उसके लिए कोई अलौकिक विषय सजीवता के साथ तलाश लाती है परन्तु व्यावहारिक स्तर पर वही सशक्त रचनाकार सांसारिक उलझनों की साधारण-सी गुत्थियां भी सुलझाने की सामर्थ्य नहीं रखता। यही नियति का सबसे बड़ा मजाक है उसके साथ और शायद इसीलिए जीवन में अपेक्षित तथाकथित सफलता उससे प्रायः बहुत दूर ही रह जाती है।
“चलो, सस्पेंस को खत्मकर मैं ही बताये देती हूं तुम्हें।” रिंग रोड पर तेजी से दौड़ते ट्रैफिक के बीच से सावधानी के साथ विक्रम होटल के साथ-साथ बायीं ओर गाड़ी मोड़ते हुए तूलिका ने जिस राज का इतनी देर बाद पर्दाफाश किया उसे सुनते ही मै तो पूरी तरह स्तब्ध ही रह गया। मेरी दोस्ती का क्या अर्थ निकाल लिया था तूलिका ने और अब हमारे संबंधो को जो जामा पहनाने का वह सपना देख रही थी उस पर मुझे हैरत थी।
“इस वक्त मैं तुम्हें अपनी माँ से मिलाने ले चल रही हूं। आज तुम्हें उनके सामने एक बहुत अहम फैसला सुनाना है। बिल्कुल स्पष्ट शब्दों में अपनी चाहत का खुलासा कर देना, हिचकिचाना बिल्कुल नहीं। मुझे डर ही लगा रहता है तुम कलाकार लोगों से, इसीलिए समझाना पड़ रहा है।”
मैं उसके निर्देशों को सुनकर और उसकी मंशा जानकर अपने को कुछ संयत कर पाता उससे पहले ही तूलिका की गाड़ी उसकी कोठी में प्रवेश कर चुकी थी और मैं जब तक उससे कुछ कहता वह तेजी के साथ गाड़ी से उतरकर मुझे अपने पीछे आने का इशारा करते हुए खटाखट सामने की सीढ़ियां चढ़ती डोर बैल का स्विच दबा चुकी थी।
मैं अनमने भाव से सीढ़ियां चढ़कर जब ऊपर पहुंचा तब तक मेन डोर खुल गया थां और सामने खड़ी पचास के लगभग उम्र की एक बेहद संभ्रान्त दिखाई देने वाली महिला के साथ खड़ी तूलिका पूरीतरह उस महिला का युवा प्रतिरूप लग रही थी।
“ये मेरी माँ है और मम्मा ये हैं प्रशान्त जिनका जिक्र मैंनें आपसे कई बार किया है।“ तूलिका ने घर में प्रवेश के साथ ही हमारे परिचय की रस्म अदा की और फिर “कॉफी बनाकर लाती हूँ।” कहते हुए वह घर के अंदर कहीं लोप हो गई।
“ आओ बेटे, आराम से अंदर बैठते हैं।” मेरी पीठ पर हाथ रखकर तूलिका की मम्मा ने जब ये शब्द कहे तो मैं एक ऐसी अनबूझ अनुभूति से सराबोर हो गया जिसकी पिपासा मुझे गत कई वर्षों से परेशान किये हुए थी। फिर उन्होंने मुझे जिस कक्ष में ले जाकर बैठाया वहां की साज-सज्जा पूरीतरह सादगी लिए होने के बाद भी बेहद विलक्षण लगी जिसे कोई भी कलाप्रेमी आसानी से अनदेखा नहीं कर सकता था। इसके बाद मेरे साथ न जाने क्या हुआ कि लक्ष्य प्राप्ति से पहले इसके बीच आने वाले किसी भी व्यवधान से विचलित न होने का अपना दृड़ निश्चय मुझे एकाएक धराशायी होता हुआ लगने लगा।
अपनी मॉ को मैं बहुत पहले ही खो चुका था पर उसकी कमी मुझे समय-समय पर हमेशा ही सालती रही थी। यहाँ तूलिका की माँ के ममतामयी स्पर्श और ममत्व से लवालब भरे सम्बोधन ने मेरी उस चाहत को एक बार फिर से जगा दिया था जिसकी मूल रूप में प्राप्ति, मैं जानता था कि अब किसी भी तरह संभव नहीं थी। शायद यही चाहत थी जिसकी प्यास को बुझाने के लिए हाथ आये इस विकल्प को थाम लेने के लालच ने लक्ष्य के प्रति मेरे अडिग संकल्प को काफी हद तक डावांडोल कर दिया था। मुझे बेहद आश्चर्य था कि विगत एक वर्ष में तूलिका की सुन्दरता, सम्प्रेशण क्षमता और सहयोग भावना ने जहाँ मुझे इस दिशा में सोचने के लिए कभी जरा-सा भी प्रेरित नहीं किया, वहीं उसकी माँ का सिर्फ एक स्नेहिल स्पर्श और भावपूर्ण दो बोल न जाने मेरे ऊपर क्या जादू कर गये कि तूलिका के पूरी तरह उपेक्षित पड़े प्रस्ताव के प्रति मेरे अंतर मन में एक द्वन्द्व प्रारम्भ हो गया। एक ऐसा द्वन्द्व जिसका पक्ष भी अब विपक्ष की तरह ही काफी हद तक सुदृड़ हो गया था।
“बेटे तुम मुझसे मिलने आये हो, मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। जो कुछ तुम आगे कहोगे उसका मैं अभी सिर्फ अन्दाजा ही लगा सकती हूँ पर उससे पहले मेरे मन में जो कुछ है उसे मैं तुम्हारे सामने रखना चाहती हूं। तुम सुनना चाहोगे न?” तूलिका की माँ ने सोफे पर आराम से बैठते हुए अपनी बात की शुरुआत कर डाली पर मेरे अंदर का द्वन्द्व अभी पूरी तरह शान्त नहीं हुआ था इसीलिए मैं मुश्किल से जवाब में उन्हें सिर्फ इतना ही कह पाया “जरूर, कहिए न!” “
ं उन्होंने कुछ पल रुककर एक बार शायद फिर अच्छी तरह सोचा और फिर बेहद अपनाहत भरे शब्दों में अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोली “बेटे, मुझे गलत न समझना। मैं जो कुछ कहने जा रही हूं उस पर तुम जरूर ध्यान दोगै, यह मैं जानती हूं। वैसे तो तुम दोनों ही समझदार हो और जो भी निर्णय लोगे, सोच समझकर ही लोगे, इसका भी मुझे पूरा भरोसा है। पर फिर भी मैं यह नहीं चाहती कि आज से सत्ताईस-अट्ठाईस बरस पहले भावुकता में मैंने जो कदम उठा लिए थे उसे इस बार तुम लोग दोहराओ। मुझे तो उस वक्त कोई समझाने वाला नहीं था इसीलिए मैं और मेरे पति - दोनों ने ही पूरी जिन्दगी एक बेमानी यात्रा की तरह ही गुजारी। पर तुम्हारे साथ ऐसा न हो इसीलिए अपने अनुभव तुम्हे बताने की इच्छा है।”
“ बहुत छोटेपन से ही कला और संगीत की तरफ दीवानगी की हद तक मेरा रुझान था। माँ बचपन में ही कब साथ छोड़ गई मुझे तो याद भी नहीं पर इस कमी की भरपाई में पिता ने वह सब कुछ दिया जिसमें मेरी रुचि थी। किशोर अवस्था पार करते-करते पिता की भी एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई। युवावस्था अपनी वृद्धा बुआ के पास बिता रही थी कि तभी सेना के एक सजीले बांके कैप्टेन के सम्पर्क में आयी और प्यार की ललक के वशीभूत हो कुछ ही समय में सिर्फ भावुकता में बहकर उससे विवाह कर लिया।”
“ उस कच्ची उम्र में न स्वभाव देखने की समझ थी और न अभिरुचि परखने की। बस, फिर जैसे नदी के दो पाटों को जोड़ा नहीं जा सकता वैसा ही हाल हमेशा हम दोनों का रहा। कहने को हमेशा साथ-साथ पर वास्तविकता में कभी पास आये ही नहीं एक दूसरे के। एक ओर भावुकता से कोसों दूर रहने वाला कैप्टन जो बाद में मेजर, कर्नल होते हुए ब्रिगेडियर के स्तर तक पहुँच गया और दूसरी ओर भावुकता में डूबी रहने वाली रचनात्मक प्रवृत्ति की मैं जो अपनी रुचि और अन्तर आत्मा की आवाज के साथ कभी न्याय नहीं कर पायी।”
“ मेरी बेटी शक्ल-सूरत में चाहे मुझ पर गई हो पर स्वभाव तो उसे पूरी तरह विरासत में मिला है इसके पिता से ही। चाहतें, इच्छाएं, आकांक्षाएं और अपेक्षाएं सब कुछ बिल्कुल उनकी जैसी हैं। संवेदना नाम की चीज तो इसे छू भी नहीं गई है। तुम कलाकार हो, भावनाओं में जीने वाले मेरे जैसे इंसान और वह अपने पिता की तरह पूरी तौर पर भौतिक और व्यावहारिक जीवन जीने की आदी है। तुम दोनों का मेल हमारी जिन्दगी के इतिहास को कहीं दोहरा न दे, यही डर है। तूलिका बेटी होने के नाते अगर मुझे प्रिय है तो कलाकार होने के नाते तुमसे भी मेरा लगाव बेहद स्वाभाविक है।”
“वह कॉफी लेकर आ जाए, इससे पहले मैं सिर्फ इतना और कहना चाहूंगी कि कला के प्रति सच्ची लगन हमारे समाज में होती ही कितने-से लोगों के पास है और जिनमें है उन्हें लक्ष्य तक पहुंचने में सहायता करना पूरे समाज का ही फर्ज है। मेरी अपनी गलती से मेरे अंदर का कलाकार तो मर गया पर तुम्हारे साथ ऐसा न हो इसीलिए आगाह करना जरूरी समझा। तुम्हें बुरा तो नहीं लगा न? ”
बुरा क्यों लगता भला ? बल्कि इन सारी बातों को सुनकर मेरे अंदर कुछ समय पहले उठा द्वन्द्व अब बिल्कुल शान्त हो गया था जैसे एक पक्ष के सारे योद्धाओं ने मानों एकाएक आत्मसमर्पण की मुद्रा अपना ली हो।
द्विविधा और असमंजस के बादल पूरी तरह छट चुके थे और दृड़ निश्चय के रथ पर सवार हो, आत्मविश्वास रूपी सारथी के साथ जीवन के कुरुक्षेत्र में पदार्पण के लिए मैं एकबार फिर से पूरीतरह तैयार था, यह जानते हुए भी कि इस बार मुझे अपना लक्ष्य बिना किसी कृष्ण के अकेले ही हासिल करना था।
............ रवि लायटू