हिम्मत-ए-मर्दा सतविन्द्र कुमार राणा बाल द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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हिम्मत-ए-मर्दा


"शादी को सात दिन हो गए हैं। लेकिन कायदे से हमारी सुहागरात अभी तक नहीं हुई।"
आज शायद उसका पति कुछ ठान कर ही आया था।
पर उसकी तरफ से कोई जवाब नहीं।
उसने पहली रातों की तरह ही सोने का बहाना शुरू कर दिया।
अब तक उनके बीच संक्षिप्त बातचीत ही हो पायी थी। पति से न रहा गया तो उसकी गर्दन को हाथ का सहारा देकर उसे बैठा कर दिया।
"आज तुम मुझसे बात किये बगैर नहीं सो सकती।"
नींद तो उसे भी नहीं आती थी। अब उसकी समझ में आ गया कि बात कर लेने का वक्त आ गया है।
"क्या तुम किसी और को चाहती हो? तुम्हें मैं पसन्द नहीं हूँ? शादी तो तुम्हारी मर्जी से हुई है न?"
पति ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
"मैं शादी ही नहीं करना चाहती थी।"
उसने हिम्मत करके एक बार में ही बात खत्म करनी चाही। मगर उसका पति इससे संतुष्ट न हुआ। उसकी आँखों में विस्मय और होठों पर प्रश्न था,
"क्यों...?"
"पहले बच्चे के रूप में मेरे जन्म पर मेरा परिवार बहुत खुश हुआ था। बड़ी धूमधाम से मेरा स्वागत हुआ था, लेकिन...."
शब्द उसके हालक में अटक गए।
"फिर क्या हुआ?"
"माता-पिता की यह खुशी और उनके अरमान सब धूल में मिल गए।"
नजरें चुराते हुए वह धीमी आवाज़ में बोलती जा रही थी,
"मेरी किशोरावस्था, और लड़कियों जैसी नहीं थी। किशोरावस्था से जवानी का जो सफ़र लड़कियाँ अक्सर तय करती हैं, वह मैं तय न कर सकी। उनके शरीर में जो कुदरती बदलाव आते हैं, उनमें से जो प्रमुख है, वह मुझे कभी महसूस ही नहीं हुआ।"
पति गौर से उसकी बातें सुन रहा था। उसके गाम्भीर्य से वह कुछ असहज तो हुई, लेकिन आज सारी बातें साफ़ करने की उसने भी ठान ली थी।
उसने कहना जारी रखा, "मैनें अपने शरीर का ध्यान रखा, अपनी शिक्षा और करियर पर ध्यान केंद्रित किया, लेकिन कभी किसी भी लड़के के अधिक नज़दीक न गयी। क्योंकि मुझे शादी करनी ही नहीं थी।"

वह उसे टोकते हुए बोला,
"तुम सम्पन्न परिवार से हो। सुन्दर हो, स्वस्थ हो और मेरी ही तरह एक आला अफसर हो। फिर डर का कारण?"
"हा, शादी करने के लिए बस इतना ही काफ़ी नहीं होता किसी के लिए।", उसने तंज कसा।

"अच्छा, और क्या चाहिये?", उसके पति ने प्रश्न किया।

"हा... मुझ जैसों की शादियाँ होती ही नहीं! प्रकृति इसकी इजाज़त ही नहीं देती।"

"तुमने ऐसा हमारी शादी तय होने से पहले क्यों नहीं बताया। यदि कोई ऐसी बात थी तो, पहले मना कर देना चाहिए था।"
अब उसके पति की आवाज़ में तल्ख़ी उभर आई।
वह और कड़ाई से बोला, "तुम पढ़ी-लिखी हो, समझदार दिखती हो, फिर यह चूक कैसे हुई तुमसे?"


अपने पति के व्यवहार में आये इस आकस्मिक परिवर्तन से उसे हैरानी तो नहीं हुई, लेकिन वह और असहज अवश्य हो गयी।
कुछ क्षण के लिए उसे उत्तर देते न बना। फिर हिम्मत बटोरते हुए बोली, "यह एक बायोलॉजिकल डिसऑर्डर है, जिसका इलाज़ अभी तक संभव नहीं हुआ है। मेरे माता-पिता ने मुझे बड़े चाव से पाला-पोसा। मैं उनकी लाडली बेटी हूँ। वे मेरा घर बसते देखना चाहते हैं। उन्होंने ही मुझे कसम देकर चुप रहने की बात कही थी। उन्होंने मुझे विश्वास दिलाया था कि इस मामले में मुझे कोई परेशानी नहीं होगी।"
"और.. तुमने उनकी बात मान ली!"
वह दाँत पीसते हुए बोला।

वह मानसिक रूप से ऐसी परिस्थिति के लिए लगभग तैयार ही थी, फिर भी वह किंकर्तव्यविमूढ़-सी अबोली हो पति की ओर देखने लगी।

उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उसने अपने पति के होठों पर शरारती मुस्कान बिखरती दिखी।
उसकी आँखों में एक प्रश्नवाचक चिह्न था।
उसके पति ने लम्बी साँस छोड़ते हुए बोला, "सीमा..।"

वह फिर चौंक गयी, उसे यह नाम जाना-पहचाना लगा। अब उससे न रहा गया तो उसने पूछ ही लिया, " कौन सीमा?"

उसके पति ने उसे छेड़ते हुए कहा, "तुम सीमा को नहीं जानती!"
"आप किस सीमा की बात कर रहें हैं?, उसने फिर प्रतिप्रश्न किया।
उसके पति ने फिर छेड़ा, "याद करो तुम्हारे बिल्कुल करीब कौन सीमा है या रही है?"

"नीलेश, प्लीज बताओ न किस किस सीमा की बात कर रहे हो?"
उसके मुख से अब पति का नाम भी निकल पड़ा।

नीलेश को भी ऐसा करने पर वह खुद के अधिक करीब आती महसूस हुई। लग रहा था कि यह सीमा उनके बीच की सीमा को पाट रही थी।
"ठीक है एक संकेत करता हूँ, तुम्हारे कॉलेज के दिनों में...।"
नीलेश बोल ही रहा था कि वह तुरन्त बोल पड़ी, "अच्छा, आप सीमा खंडेलवाल की बात कर रहे हो, वह तो आज भी मेरी सहेली है।"

"हाँ, वह मेरी भी मुँह बोली बहन है।", नीलेश ने प्रत्युत्तर दिया।
"मुँह बोली बहन!"

"और तुम्हारी ही वजह से मैनें उसे अपनी बहन बनाया था सुष्मिता।"

"मेरी वजह से?"

"हाँ, तुम्हारी वजह से। मैं कॉलेज के समय से ही तुम्हें चाहने लगा था। तुमसे मिलने के लिए मैनें सीमा से बात की। उसे बहन कहा और जब वह सहज हुई तब तुम्हारे बारे में बात की।"

"मुझे तो इस बारे में सीमा ने कभी नहीं बताया। आप और मैं मिले भी कब?"

"हाँ, उसने तुम्हें कुछ नहीं बताया क्योंकि, उसे बाद में मैनें ही ऐसा करने के लिए कहा था।"

"बाद में, मतलब पहले कुछ और कहा था?"
"हाँ, पहले तो तुमसे दोस्ती करवाने के लिए ही निवेदन किया था, लेकिन...."

"लेकिन...?"

"लेकिन उसने तुम्हारी प्राकृतिक स्थिति और शादी व करियर के बारे में तुम्हारी सोच से मुझे अवगत करा दिया था।"

"शादी व करियर तक तो ठीक, लेकिन मेरी प्राकृतिक समस्या के बारे में तो मेरे माता-पिता, दूर की एक स्त्री रोग विशेषज्ञ और मेरे अलावा किसी को कुछ पता ही न था, बस आज आपको बताया मैनें।"

"सीमा को पता था।", नीलेश ने मुस्कुराते हुए कहा।

"क्या तुम्हें सीमा या अन्य लड़कियों के इस कुदरती बदलाव का कभी आभास न हुआ, तुम्हें या किसी और लड़की को यह पता ही न चला हो, क्या संभव है?"

"नहीं, और लड़कियों के बारे में तो लगभग पता चल जाता था। लड़कियां ऐसी बातें इशारों में भी कर लेती हैं।"

"बस, तुमने कभी ऐसा इशारा किसी लड़की को किया ही नहीं, सीमा तो तुम्हारे सबसे करीब रही, उसे भी नहीं। फिर तुम शादी की बातों से भी तो बचती रही।"

"ओह, वैसे सीमा काफ़ी होशियार है। उसने मुझे भी इस बात का शुभा न होने दिया।", सुष्मिता ने बात का समर्थन करते हुए कहा।

फिर तुरन्त उसने पूछा, "तो.. आपने उसे मुझे बताने से क्यों मना किया?"

"क्योंकि मैं चाहता था कि तुम अपना मुक़ाम हासिल करो। मैं भी तुम्हारी तरह अपना करियर बनाऊँ। मुझे पता था कि तुम जल्दी से शादी के लिए मानोगी नहीं, इसलिए मैं सीमा के और सीमा तुम्हारे माता-पिता के संपर्क में रही। हमें मिलाने का श्रेय सीमा को ही जाता है। इसीलिए तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें विश्वास दिलाया था।

"अच्छा, अब समझ में आया, वह अक्सर मुझे सपनों के राजकुमार के ख़्वाब दिखाती हुई क्यों छेड़ा करती थी। आप सब मिले हुए थे।", सुष्मिता ने मुस्कुराते हुए कहा।

जल्दी ही यह मुस्कुराहट उदासी में बदल गयी, वह रुआँसी होती हुई बोली, "लेकिन नीलेश, मैं आपकी वंश बेल को नहीं चला पाऊँगी।"

इस पर भी नीलेश की आँखें चमक रहीं थीं। उसने सुष्मिता के गालों को हथेलियों के बीच में लेते हुए, उसकी आँखों में झांकते हुए कहा, "कौन कहता है?"

सुष्मिता की नजरों में फिर प्रश्न तैर गए।

"हमारे घर-आँगन में भी वक्त आने पर नन्हीं किलकारियाँ गूँजेंगी, हमें भी बच्चे को पालने का मौका मिलेगा।"

सुष्मिता अब बेचैन हो उठी, "मगर यह कैसे संभव है नीलेश?"

नीलेश उसे प्यार से बोला, "अरे, कितने ही बच्चे होते हैं, जो माता-पिता के प्यार को तरसते हैं।"
वह अब भी नीलेश की ओर उसी मुद्रा में देख रही थी।
नीलेश ने पटाक्षेप किया, "पगली, हम बच्चे गोद ले लेंगे।"

सुष्मिता की आँखें झर रही थीं और होंठ मुस्कुरा रहे थे। वह एकटक नीलेश की ओर देखे जा रही थी। नीलेश ने अपनी दोनों बाहें फैला दीं और वह झट-से उसके सीने से लिपट गयी। नीलेश ने भी उसे बाहों में समेट लिया।

©सतविन्द्र कुमार राणा