अब जाग जाओ - भाग 2 सिद्धार्थ शुक्ला द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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अब जाग जाओ - भाग 2

"भगत सिंह ... "! यह नाम उस युवक के मुख से सुन कर मैं चौका।

"ये कैसे हो सकता है , आप को तो अंग्रेजो ने ... " आगे के अल्फ़ाज़ मैं बोल नही पाया और इतने में ही उस दिव्य पुरुष ने अपना दाहिना हाथ मेरे कंधे पर रख दिया। हाथ बेहद मजबूत था मानो दो चार हाथियों का बल उसमे हो।

"चलो ये बताओ तुम्हारे नजरिये में इंकलाब क्या है"? मुझे यकीन नही हो रहा था कि मैं मेरे नायक भगत सिंह के समक्ष बैठा हूँ, उन्होंने मुस्कुराते हुए सवाल पूछा ।

मैंने कहा - "अन्याय के विरोध में आंदोलन?" जवाब देने के बावजूद मुझे इस बात का आभास था कि कहीं न कहीं मुझसे कोई चूक तो हुई है इस जवाब में, क्योंकि इसका उत्तर और भी अधिक व्यापक हो सकता है जिसे मेरी सीमित बुद्धि सोचने में सक्षम नही थी।

भगत सिंह आगे बोले - "ठीक, आंदोलन क्या है?"
अब मैं थोड़ा सोच में पड़ा

"आंदोलन व्यक्तिगत विषय होता है, और ये व्यक्ति में घटित होता है समाज मे नही " मुझे थोड़ा कंफ्यूशन में देख भगत सिंह बोले

"समाज का अपना कोई चेहरा नही होता, समाज व्यक्तियों से बनता है । जब एक व्यक्ति की अन्तरात्मा उसे जगाती है और वो होने वाले किसी भी अत्याचार, अन्याय, चाहे वो खुद पर हो या किसी और पर , के विरुद्ध आवाज उठाता है वो आंदोलन कहलाता है । आंदोलन स्वयं की चेतना का परिष्कार है। आंदोलन और उद्दंडता में फ़र्क़ होता है सिद्धार्थ, आज के भारत मे जिसे हम आंदोलन समझते हैं वो उद्दंडता होती है जिससे हल कुछ नही निकलता और असुविधा होती है वो अलग ।" कह कर भगत सिंह मेरी और देखने लगे।

"वो कहते हैं आप हिंसा में विश्वास रखते हैं" मैंने मन मे उठा सवाल पूछा

भगत सिंह बोले - "मैं हिंसा के पक्ष में हूँ, इसका मतलब ये नही की मैं अहिंसा में विश्वास नही रखता" अब मैं थोड़ा चौका।

"जब जान पे बन आये और शत्रु क्रूर हो तो हिंसा का रुख अपनाना ही पड़ता है नही तो अत्याचार सहते रहना बाहर से तो अहिंसा लग सकता हैं परंतु अपने भीतर वो खुद के प्रति की गई हिंसा होती है जो बाहरी हिंसा से भी अधिक घातक होती है। अपने बचाव में हथियार उठाना और क्रूर अधर्मी का नाश करना हिंसात्मक होते हुए भी अहिंसा की दिशा में उठाया गया कदम होता है । हाँ , इस बात का भी ध्यान रखा जाए कि जब आपके हाथ मे हथियार हो तो आप जागे हुए हों पूर्ण होश में, तो बताओ क्या मैं तुम्हे हिंसात्मक लगता हूँ? " भगत सिंह पुनः विराम लेते हुए उत्तर की आकांक्षा से मेरी और देखने लगे

"नही, मुझे तो आप प्राणरक्षक जैसे प्रतीत होते हैं हिंसात्मक तो कतई नही" मैंने कहा

"जब शासन आपको, शोषण लगने लगे तो आवाज़ उठाना जरूरी होता है और मुझे तो सच मानो ये शासन चलाने की व्यवस्था से ही आपत्ति है कोई मनुष्य किसी मनुष्य पे शासन करे ये मनुष्य की गरिमा के विरुद्ध है, अच्छा ये बताओ स्वराज क्या होता है?" मुस्कुराते हुए भगत सिंह ये मेरी और अपनी अलौकिक दृष्टि डाली।

मैं चुप था क्योंकि मुझे पता था मेरे उत्तर परिभाषा हो सकते हैं, वास्तविक उत्तर नही।

"स्व-राज , जैसा कि नाम से प्रतीत होता है स्व यानी स्वयं तो स्वयं पर स्वयं का अधिकार, स्वयं के विचार और विवेक से चलने वाला ही स्वराज को प्राप्त माना जाता है , ये भी सामाजिक नही व्यक्तिगत घटना है । भीड़ तंत्र में जिसे स्वराज कहा जाता है वो स्वराज नही मात्र सत्ताओं का हस्तांतरण होता है इसमें व्यक्ति स्वयं की बुद्धि से नही नेता की बुद्धि से चलता है और अधिकतर नेता कुबुद्धि होते हैं। तो जनतंत्र की स्थापना के लिए सर्वप्रथम आवश्यक होता है , हर व्यक्ति में स्वराज का सूर्य उदित होना"।

मैं भगत सिंह के मुख की तरफ एकटक देख रहा था । उनकी चेतना का प्रकाश आज चंद्रमा को भी फीका कर रहा था।
"जनतंत्र क्या है?" भगत सिंह जी ने प्रश्न किया मगर उत्तर की आकांक्षा उनके मुख पर नही दिखी
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क्रमशः