डॉगी Dipak Raval द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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डॉगी

डोगी

दीपक रावल

मनसुख की साँस अटक रही थी.... आँखें फटी हुई थी... डोगी सीने पर चढ़ बैठा था... उसके मुँह से बदबू आ रही थी... गले में उसके पैरों के नाखून काट रहे थे... वह चीखना चाहता था पर आवाज़ नहीं निकल रही थी.. हाथ-पैर पटक रहा था... लगता था मानो प्राण निकल जायेंगे... दूर किसी गुफा से आनेवाली आवाज़ की तरह इला की आवाज़ सुनाई दे रही थी... डोगी.. डोगी.. डोगी... वह चौंक गया. देखा तो आसपास कोई नहीं था. वह पसीने से तरबतर हो गया. पसीना पोंछा. दो ग्लास पानी पिया. थोड़ी देर ऐसे ही टहलता रहा. फिर खिड़की के सामने कुर्सी में बैठा. तिपाई पर पैर लंबे किये. बाहर सड़क की ओर देखऩे लगा. रोज़ की तरह सड़क के दोनों ओर कारों की लंबी कतार थी. धीरे-धीरे अजगर के समान सरक रही थी. इस व्यस्त सड़क को लाँघकर जाने पर सामने की ओर सुंदर बगीचा है. ऊँचे-ऊँचे मकानों के पीछे. पहले वह नियमित वहाँ चहलकदमी करने जाता. वृक्षों-फूलों को टकटकी लगाये देखता रहता. सबके साथ मौन संवाद होता. गहरी आत्मीयता का अनुभव होता. फेफड़े तरोताज़ा हवा से भर जाते. बहुत ही अच्छा लगता. बगीचे के सुंदर मजेदार फूल, ऊँचे-ऊँचे घने वृक्ष उसे याद कर रहे होंगे. आखरी बार वहाँ कब गया था वह?

मोबाइल की रींग बजी. देखा तो बेटे का फोन था.

'हाँ, देवांश...

'जी पापा, आज शाम को आप आ रहे हैं न? रघु आपको बहुत याद करता है'

'हाँ बेटा, ज़रुर आऊँगा. राघव से कहने मैं उसके लिए रोबोट लेते आऊँगा. पिछली बार आया तब उसने रोबोट माँगा था. ' इला को न सुनाई दे इतनी धीमी आवाज़ में मनसुख ने कहा.

'अरे कुछ लाने की आवश्यकता नहीं. उसके पास वैसे ही बहुत सारे खिलौने हैं. किंतु आप आईयेगा ज़रुर. पापा, रघु बहुत नाराज़ है. कहता था आइ हेट दादा... ही डीन्ट कीप हीज़ प्रोमिस... '

'आइ नो, आइ नो.... बेटा उसे समझाना, मैं ज़रुर आऊँगा. '

देवांश ने फोन रख दिया. मनसुख उदास हो गया. बेटे की बाद सही है. तीन बार डोगी के कारण बेटे के यहाँ जाना केन्सल हुआ है. राघव प्यारा बच्चा है. दादा से बहुत प्यार करता है. उसे देखकर इतना खुश होता है कि बात न पूछो... मनसुख को देखकर दुनिया में कोई इतना खुश नहीं होता. दादा को देखते ही दौड़कर चिपक जाता है. मनसुख उसे पास लेकर प्यार करता, चुम्मियों से नहला देता. फिर उसे गोद में लेकर बैठता. दादा और पोते की बातें चलती. सीमा चाय-नास्ता रखकर जाती पर उसकी ओर ध्यान ही न जाता. सीमा राघव को उसकी गोद से उठाने आती तो राघव दादा से चिपक जाता, रोने लगता. मनसुख भी सीमा से कहता 'रहने दे बेटा, खेलने दे मेरे साथ. ' राघव को गले लगाकर मनसुख का सीना ठंडा हो जाता. पूरे जन्म की थकान उतर जाती. कैसा अजीब है ना.... लोग बेटे की चाह रखते हैं.. यहाँ बेटे के होते हुए भी बिन बेटे जैसा रहना है. रूपयों से अधिक सूद प्यारा होता है फिर भी पोते को मिलने जा नहीं पाते.

कई बार उसे डोगी पर गुस्सा आता है. एक बार तो मन किया कि उसे दूर कहीं छोड़ आये कि वो वापिस ही न आये. एक दिन उसने ऐसा किया भी. इला कहीं इधर-उधर थी तब वह डोगी को स्कूटर पर लेकर निकल गया और दूर छोड़ आया. जब घर में डोगी न दिखा तो इला ने रो-रोकर पूरा घर सिर पर उठा लिया.

'अरेरे... मेरा डोगी कहां गया....

'अभी तो यहीं था... तेरे पास ही तो था..

'अरे थोड़ी देर मैं बाथरुम में क्या गई आप इतना भी ध्यान नहीं रख सकते... अरेरे बेचारा कहाँ होगा..

उसने भी झुटमुट की चिंता की कि बेचारा कहां चला गया होगा, किसी ट्रक या वाहन के नीचे न आ गया होतो अच्छा... आदि.. आदि... किंतु इतने में ही बाहर कुत्तों की आवाज़ सुनाई दी. खिड़की से देखा तो मोहल्ले के कुत्ते डोगी के पीछे पड़े थे. वह हरामखोर वापिस आ गया था. उसने माथा पिट लिया पर इला तो उससे चिपक ही गई. कितना ही प्यार किया, चुम्मी ली. उस दिन के बाद इला उसे अपने से बिलकुल अलग नहीं करती. बाथरुम में भी जाती है तो उसे साथ लेकर जाती है. डोगी का चेहरा उसे फुटी आंख नहीं सुहाता. गला दबाकर मार डालने की इच्छा कई बार वह कर चुका है किंतु ऐसा हो नहीं पाया.

यह डोगी इला की सहेलीने थोड़े सालों पहले उसके जन्मदिन पर भेंटस्वरूप दिया था. इला बहुत खुश हो गई थी.

'देखो तो, कितना स्वीट है न?

मनु ने देखा. बास्केट में सुंदर मखमली कपड़े पर बैठा हुआ. मनसुख को बहुत चिढ़ हुई थी. ऐसी भेंट कोई देता है? पिचके हुए चीकु जैसा मुँह, छोटी-सी आँखें, टेढ़े पैर, छोटी-सी पूँछ और चितकबरा. मनसुख को उल्टी करने का मन हुआ पर उसने रोक रखा था. बस उस दिन से लेकर आज तक घर में डोगी छा गया है. डोगी के आने के बाद इला बिलकुल ही बदल गई. उसका जीवन डोगी के इर्द-गिर्द ही बुनने लगा. उसे खिलाना, सुलाना, नहलाना, सुबह-शाम बाहर घुमने ले जाना आदि ही उसका जीवन बन गया. देवांश और मनसुख उसके लिए गौण हो गये. डोगी को अपने पास ही लेकर सोती. उसकी नींद में विक्षेप न हो इसका वह ध्यान रखती. मनसुख को नींद में जोर से खर्राटे लेने की आदत थी. डोगी की नींद टूट जाती. इस कारण से इला और मनसुख में तुतु-मैंमैं होती. एक दिन सवेरे-सवेरे उसे लगा कि इला उसे प्यार कर रही है, होठ चुम रही है... उसने आँखें खोलकर देखा तो डोगी उसका मुँह चाट रहा था. उस दिन मनु ने करीब दस बार अपना मुँह धोया. कितनी ही बार माउथवॉश से कुल्ले किये. फिर मनु ने बेडरूम में सोना ही बंद कर दिया. देवांश को कॉलिज जाना हो, तैयार होना हो, मनसुख को ऑफिस या प्रवास पर जाना हो आदि सब बाद में, इला के लिए तो डोगी पहले.

एक बार घर पर मेहमान आये तब मनसुख की हालत खस्ता हो गयी थी. डोगी बार-बार मेहमान के पास जाता. मेहमान को डोगी से बहुत डर लग रहा था. बेचारा वह तो सोफे पर पैर छिपाकर बैठ गया तो डोगी कूदकर सोफे पर चड़ गया. मेहमान चीख उठा. उसने दौड़कर डोगी को लेकर इला को सौंपा. तुरंत ही वह मेहमान को होटल में छोड़ आया. बस उस दिन से वह किसी को भी घर पर नहीं बुलाता, कोई आता भी है तो उसकी व्यवस्था होटल में ही कर दी जाती है. डाकिया और धोबी भी घर के अंदर नहीं आते हैं. खाना बनानेवाली तीन बाई बदल चुकी हैं. अभी जो आ रही है वह गरीब व जरूरतमंद है इस वजह से टिकी है. किंतु रसोई बनाते समय वह रसोई का दरवाजा अंदर से बंद कर लेती है.

इसी प्रकार जीवन चल रहा है. रोज-रोज के झगड़े कौन मोल ले? थोड़े दिनों पहले बचपन का साथी लक्ष्मण आया था. साथ ही पढ़े थे. कॉलेज में वह जी.एस. था. कॉलेज में साथ मिलकर बहुत मस्ती की थी. पिछले महिने उसकी पत्नी का स्वर्गवास हुआ. रुखीभाभी बहुत ही अच्छी थी. उनकी शादी में बहुत मजे किये थे. वह उनसे बहुत मजाक करता. उनका शरीर थोड़ा भारी होने के कारण वह कहता 'लक्ष्मण ने गणेश जी बिठाये हैं!!' 'क्या आप भी मनुभाई' कहकर भाभी हमेशा हँस देती. लक्ष्मण बेचारा अकेला पड़ चुका था. बहुत रो रहा था. कहता था 'मैं उसेक बिना कैसे जिऊँगा? मुझे उसकी आदत हो गई है। उसने कभी मुझे अपने हाथ से एक गिलास पानी तक नहीं लेने दिया है. मेरे कहने से पहले ही वह मेरा सारा काम कर देती. जीवन में उसने मुझसे कभी कुछ नहीं मांगा. उसे तो केवल मुझे क्या चाहिए उसी की चिंता रहती. उसे घुटनों में पीड़ा थी फिर भी आखरी वक्त तक उसने मेरी सेवा की. बच्चे अमरिका में स्थायी हो गये हैं. दोनों एक बार जाकर आये. किंतु गाँव के माहौल में रहने के कारण वहाँ कुछ जमा नहीं. एक महिने में लौट आये. बच्चों ने तो कहा भी था 'मम्मी, आप रुक जाओ. तुम्हारे घुटनों का ऑपरेशन करवा दें फिर जाना. ' तो उसने मना किया. कहा 'तुम्हारे पापा का ध्यान कौन रखेगा? '

वह आया तब भी इला तो अपने डोगी में ही मस्त थी. लक्ष्मण को 'आइए' तक न कहा. लक्ष्मण कुत्तों से बिलकुल नहीं डरता था. कॉलेज के मैदान में बैठकर जब सब नास्ता कर रहे होते और कोई कुत्ता आकर भोंकता तो वह उसका मुँह पकड़ लेता. कुत्ता बेचारा उं..उं... करता रहता. जब वह कुत्ते को छोड़ता तब कुत्ते को भागते हुए देखने में मजा आता.

मनु ने लक्ष्मण को संक्षेप में अपनी स्थिति बताई थी. दोनों एक-दूसरे से अपने दिल की बात कह देते थे. बातों-बातों में देवांश का विषय निकला. तो लक्ष्मण ने पूछा कि बेटे की शादी की या नहिं? मनु ने कहा कि दो बार लड़कीवाले देखने आये थे. किंतु इला का कुत्ता-पुराण सुनकर चले गये. तब लक्ष्मण ने कहा कि अपने साथ जो बिपीन पढ़ता था उसकी बेटी है. पढ़ी-लिखी, सुशील बच्ची है. मैंने देखा है. तुम देख आना. और वह बिपीन का फोन नंबर देकर चला गया था. बचपन की ढेरों यादे छोड़कर. लक्ष्मण को जाते हुए देखकर मनसुख को लगा था कि भाभी के बिना वह लंबा जी नहीं पायेगा.

फिर उसने बिपीन को फोन किया तो वह बहुत खुश हो गया. फोन पर सुख-दुख की बातें की. देवांश की भी बात की. वह बोला 'अरे मनसुख, हमारे बच्चे एकदूसरे को पसंद करे तो हम दोस्ती को रिश्तेदारी में बदल दें. आप लोग जरुर आयें. ' समय निश्चित कर बिपीन के यहाँ सगाई के लिए कन्या देखने गये. इला खुद तो सज-धजकर तैयार हुई ही, डोगी को भी सजाकर साथ लिया. 'चलो, भाई के लिए कन्या देखने जाना है... अच्छी तरह देखना हं... ' वहाँ पहुँचते ही बिपीन तो गले लगकर रो पड़ा... देवांश से बोला 'तेरा बाप हमारी कॉलेज का स्टार था. '

प्राथमिक औपचारिकताओं के बाद देवांश और कन्या सीमा को बातें करने के लिए अवकाश दिया गया. बिपीन और उसकी पत्नी साथ बातें करने बैठे तो इला कन्या या अपने बेटे की बात करने के बजाय या उनके घर-परिवार के बारे में कुछ पूछने के बजया हमेशा की तरह डोगी की ही बात करती रही, उसी के गुणगान गाती रही. बिपीन मन ही मन मुस्कुरा रहा था, समधन परेशान हो रही थी. मनसुख और बिपीन ने बात को संभाल लिया. देवांश और सीमा ने एक-दूसरे को पसंद किया. शादी तय हुई. तो डोगी के लिए भी सुंदर कपड़े सिलवाये. उसे पार्लर में ले जाकर तैयार किया. रास-गरबा में भी डोगी को साथ लेकर गरबा किया. चलो यहाँ तक तो ठीक था किंतु शादी की सारी विधियों में भी डोगी साथ ही था. यहाँ तक कि आनेवाली बहु का स्वागत करते समय भी डोगी साथ ही था और सीमा के गालों पर डोगी के पैरों को कुमकुम में डुबोकर देवर की तरह गालों पर छापा गया. डोगी को साथ लेकर सीमा का रास्ता रोकते हुए 'बहु, यह तुम्हारा देवर हे... ' सारे मेहमान इस पागलपन पर हँस रहे थे. परंतु इला को इसकी परवाह नहीं थी. उस समय बहु तो बेचारी पसीने से तर हो गई थी. देवांश ने हँसी में बात उड़ा दी. सीमा के कान में कहा, 'मम्मी को डोगी बहुत प्यारा है, मुझसे भी ज्यादा. '

पर बाद में गड़बड़ शुरु हुई. रोज डोगी डाइनींग टेबल पर साथ बैठकर खाये, सीमा को यह पसंद नहीं था. सब साथ बैठकर बातें कर रहे हो वहां भी डोगी-डोगी ही चलता. टी.वी. पर अच्छा कार्यक्रम आ रहा होता और डोगी भोंकना शुरु कर देता. एकबार डोगी को सीमा की गोद में रखकर बोली 'भाभी के साथ खेलो हं.. ' देवांश दौड़कर आया 'क्या कर रही हो मम्मी, उसे डोगी से डर लगता है. ' बच्चे इला के इर बर्ताव से ऊब जाते. एक दिन तो सीमा की लाल साड़ी को देखकर डोगी भड़क उठा और सीमा के पीछे दौड़ा. सीमाने चीख-पुकार मचा दी, देवांश दौड़कर आया और डोगी को पकड़ लिया. किंतु इससे पहले सीमा की सबसे पसंदीदा साड़ी को डोगी फाड़ चुका था. सीमा ने झल्लाकर डोगी के बारे में कुछ कहा. बस फिर क्या था. काफी झगड़ा हुआ. इला ने सीमा को ही गलत ठहराया और लाल साड़ी घर में न पहनने की सलाह दी. फिर तो किसी न किसी बात पर झगड़ना रोज का क्रम बन गया. एक दिन सीमा ने देवांश से कहा कि डोगी के साथ मैं इस घर में नहीं रह सकती. देवांश ने मनसुख से कहा. देवांश और मनसुख इला को समझाने बैठे. पर वह कहाँ मानने वाली थी!! देवांश भी रोज के कलह से ऊब चुका था. वह अपनी माँ से ही झगड़ा कर बैठा.

'मम्मी ये क्या लगा रखा है? कुछ तो सोचो. सीमा प्रेग्नन्ट है. इस स्थिति में कलह ठीक नहीं. उसे इस स्थिति में खुश रखना चाहिए. आपको डोगी अच्छा लगता है तो ठीक है, आप रखो. पर ऐसी अपेक्षा न रखो कि वह हमें भी अच्छा लगे, हम भी उसके इर्द-गिर्द घुमें और उसे लाड़ लड़ायें. '

'डोगी के बारे में कोई कुछ नहीं बोलेगा, मैं नहीं सुनुँगी. मुझे पता है तुम्हें और तुम्हारी पत्नी को डोगी अच्छा नहीं लगता. डोगी मेरा बेटा है यह बात उसे समझा देना. '

'अरे क्या डोगी डोगी... क्या वह तुम्हारे बेटे और बहु से भी अधिक है? '

'हाँ है अधिक. बोलो, कुछ कहना है तुम्हें? '

'फिर आप भी कान खोलकर सुन लो, हमें इस डोगी के साथ नहीं जमता. अब आप तय कर लें कि इस घर में या तो आपका वो डोगी बेटा रहेगा या हम रहेंगे. '

'इस घर में डोगी रहेगा. ' इला ने बिना हिचके कह दिया. घर में सन्नाटा छा गया. इसमें मनसुख को तो बोलने का अधिकार ही नहीं था. उस दिन मनसुख, सीमा, देवांश ने खाना भी नहीं खाया और न ही इला ने किसी से पूछा भी. खुद खा लिया और डोगी को प्यार से खिलाकर सुला दिया. थोड़े ही दिनों में देवांश और सीमा अलग घर लेकर रहने चले गये. मनसुख कहाँ जाता?

मनसुख को सब बातों का सुख था. बाप-दादा का व्यवसाय विरासत में मिला था. उसने अथक परिश्रम से उसे और विकसित किया था. गाँव से आयी इला और उसका दांपत्य-जीवन अच्छा चल रहा था. मनसुख ने उसे पढ़ाया, ओपन युनिवर्सीटी से घर बैठे ग्रेजुएट बनाया. इला के कदम भी अच्छे थे. मनसुख बहुत तरक्की कर रहा था. दुकान से स्टोर, फिर फैक्टरी बनायी. दिनोंदिन उसकी व्यस्तता बढ़ती गई. शुरू में कभी एक दिन, दो दिन फिर तो हप्ता, महिने-महिने देश-विदेश जाना होने लगा. मनसुख अपने व्यवसाय में व्यस्त था. इला अकेली होती गई. मनसुख से उसने कहा भी था कि अकेला घर काटने को दौड़ता है. मनसुख भी समझता था पर क्या कर सकता था, उसे व्यवसाय भी संभालना था. बेटा भी पढ़ाई और अपने दोस्तों में व्यस्त था. इला को लगता कि किसी को उसकी पड़ी नहीं है.

बेटे से उसे आस रहती, पर वह कभी बैठकर बात भी न करता. कभी इला कुछ कहती भी तो उलटा जवाब दे देता. इससे इला कई बार डिप्रेशन में चली जाती. इलाज करवाना पड़ता. डॉक्टर ने भी मनसुख को सलाह दी थी कि पत्नी का ध्यान रखे, उसके साथ समय बिताए, किसी अच्छी जगह उसे घुमने ले जाये. पर मनसुख के पास समय कहां था? मनसुख इला के लिए तरह-तरह की चीजें ले आता. महँगी साड़ियाँ, गहने... उसे खुश रखने का प्रयास करता. इला इन सब चीजों को देखकर रख देती. उसे वस्तुएँ नहीं, कोई अपना चाहिए था जो उससे बहुत प्रेम करे. वह मन ही मन कुढ़ती रहती. किंतु बाद में वह अपने आस-पास की महिलाओं के साथ किटी पार्टियों में जाने लगी. नई-नई सहेलियां बनीं और उनके रंग में रंगने लगी. उसके जीवन का केन्द्र और जीने का तरीका बदल गया. मनसुख और देवांश उसके लिए गौण होते गये.

देवांश के अलग होने के बाद मनसुख अंदर से टूट चुका था और बिलकुल अकेला पड़ गया था. देवांश के यहाँ बेटा होने पर उसे थोड़ा चैन मिला. उसे लगा कि पोते के आने पर इला का व्यवहार बदलेगा. पर इला तो पोते का मुँह देखने तक नहीं गई थी. मनसुख ने एक-दो बार कहा भी था कि अब पुरानी बातें भूलकर हमें जाना चाहिए, आखिर वह हमारी संतान ही तो है. किंतु इला ने मनसुख की बात को अनसुना कर दिया.

राजा के कुँवर जैसा है राघव. नाम मनसुख ने ही रखा था. दादा और पोते में खूब पटती थी. किंतु मनसुख उससे मिलने जाता तो भी इला नाराज हो जाती, बोलना बंद कर देती. इसिलए वह कभी-कभार चुपके से उसे मिल आता. हाल ही में तीन बार मिलना तय किया पर वो जा नहीं पाया है. यह बात उसे मन ही मन खाये जा रही है. कई बार उसे लगता है कि वह न घर का रहा है न घाट का.

वह शून्यमनस्क बैठा था इतने में इला आयी.

'यस डार्लिंग...

'डोगी को बिलकुल भी अच्छा नहीं लग रहा.. डॉक्टर से कन्सल्ट करना पड़ेगा... ' इतने में उसके पीछे पूँछ हिलाता हुआ डोगी आया. इला ने उसे अपने पास ले लिया और प्यार करने लगी. 'बेबी क्यों बाहर आया..हं... मम्मी यहीं है... '

मनु को समझ नहीं आया कि क्या कहे. थोड़ी देर डोगी को देखते रहा फिर उसने कहा.. 'दो दिन पहले ही तो बताया था.. '

'हाँ, पर अभी भी कोई फर्क नहीं पड़ा है. डॉक्टर को फोन कर दो... ' आज्ञा कर इला वापिस बेडरूम की ओर बढ़ने लगी. इला के कंधे पर सिर रखकर डोगी मनसुख की ओर देख रहा था. मनसुख भी उसे देखता रहा. फिर उसने मोबाइल लिया. डॉक्टर को फोन किया. डॉक्टर दवाखाने पर ही थे. इला को बताया. थोड़ी देर पुनः ऐसे ही बैठा रहा... आज भी राघव से मिलने नहीं जा पाऊँगा. उसका गला बैठ गया. आँखें नम हो उठीं.

थोड़ी ही देर में इला तैयार होकर बाहर आई. 'तैयार? चलो, मैं ड्राइवर से कार निकालने को कहती हूँ. ' कहते हुए इला अपने डोगी को सुंदर बास्केट में डालकर खट् खट् करते हुए बाहर निकली. मनसुख पहने हुए कपड़ों पर उसके पीछे-पीछे चलने लगा....