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बाऊजी बाआवाज़

मौलिक, अप्रकाशित
कहानी
बाऊजी बाआवाज़
उन्होंने भी कब सोचा था कि उनकी ये चुप्पी उन्हें ऐसे मोड़ पर ला खड़ा करेगी जहाँ उन्हें अपनों के खिलाफ ही कठोरतम निर्णय लेने को मजबूर होना पड़ेगा। अपने स्वभाव के विपरीत काम करना किस कदर मुश्किल होता है! सहनशक्ति की भी एक सीमा होती है, सीमारेखा पार होते ही विस्फोट निश्चित है, यही कुदरत का नियम है। अपनों के दिए ज़ख्मों का इलाज भी उन्हें स्वयं ही करना था।
बाऊजी की चुप्पी को लेकर शायद ही कोई होगा जिसने कभी-न-कभी टोका न हो! बाऊजी यानी रघुवीर प्रसाद सिंह। उनका स्वभाव ही ऐसा था। कम-से-कम शब्दों में बात करना। ज़रूरत न हो तो चुप रहना। अत्यधिक ज़रूरी होने पर भी नपातुला ही बोलना। सात भाई-बहनों में पाँचवा नंबर था उनका। परिवार में सभी चुलबुले स्वभाव के थे, बस एक वही इतने शांत, धीर, गंभीर थे। बचपन से ही न कभी कोई ज़िद, न उछलकूद, न शैतानी। किसी के तीन में न तेरह में। बस अपने काम से काम। शुरू से ही लोग कहा करते थे कि ये लड़का जीवन में सुखी रहेगा-कहते हैं न कम बोलना सुखी रहना।
बोलना भले ही न भाता हो, मानव स्वभावजनित संवेदनाएँ होना तो लाज़िमी हैं। प्यार, गुस्सा, दया, करुणा आदि से पार पाने का उनका हथियार भी मौन ही था!
आज उनके अंतर के गुबार से निर्मित चक्रवात उन्हें इस क़दर आंदोलित कर रहा था जो मौन पर भी भारी प्रतीत हो रहा था। सदा की तरह वे आज भी घाट पर आकर बैठ गए। वे जब भी दुखी होते तो आकर बैठ जाते माँ गंगा के घाट पर। मन के उबाल को माँ गंगा के पावन छींटे सीमाएँ तोड़ने से रोक लेते, पर उबाल आज किसी सीमा में बँधने से इन्कार कर रहा था। गंगा की हरर...हरर... करती लहरों के साथ बीते जीवन की यादें भी नाप रही थीं उद्गम से मंज़िल का रास्ता। अंजुरी में भरे जल की रिसती बूँदों की मानिंद मन से रिसती, टीसती यादें उन्हें बेचैन कर रही थीं।
आज उन्हें अपनी पत्नी कान्ता की कमी शिद्दत से महसूस हो रही थी। कान्ता तो जैसे ढाल थी उनकी। सच ही तो था, शादी के बाद भी कभी उन्हें अपनी चुप्पी तोड़ने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी थी। पत्नी से मन के तार कुछ इस तरह जुड़े थे कि वह कुछ कहने से पहले ही समझ लेती थी उनके मन की बात। अत्यंत मिलनसार स्वभाव की कांता रिश्ते व समाज में व्यवहार निभाना बखूबी जानती थी। और वे यूँ ही मस्त रहते रहे अपनी चुप्पी के साथ।
‘यकीन नहीं होता! इतना सीधा भी कोई कैसे हो सकता है! लालाजी, आप मेरी देवरानी कान्ता से भी बात करते हैं कि नहीं? इतनी चुप्पी कैसे बर्दाश्त होती है! मैं तो ज़रा देर भी चुप नहीं रह सकती। जीभ खुजलाने लगती है, दाँत दुखने लगते हैं, दिमाग कुंद होने लगता है और आप हैं कि सारा दिन में गिनती के शब्दों को हवा देते हैं। माना कि आपको बोलने की कम आदत है पर इतनी कम! ओह! मेरी देवरानी शायद आपके इशारों को भी समझ लेती है। आपकी सारी ज़रूरतें बिना बोले ही पूरी कर देती है, पर देखिए, हम तो थोड़े-से दिनों के लिए ही आते हैं छुट्टियों में, हम से तो बात किया कीजिए। हम से तो चिरौरी किए बिना रहा नहीं जाएगा। फिर आपसे तो हमारा रिश्ता भी इसकी इजाज़त देता है। अच्छा चलिए, हमें हर की पैड़ी घुमाकर लाइए, चाट खाने का बहुत मन कर रहा है।’ एक दिन बड़ी भाभी नीलिमा ने छेड़ते हुए कहा था।
‘तो चलिए...’ बस इन दो शब्दों से बाऊजी ने अपनी भाभी का मान रखते हुए हामी भर दी थी।
अचानक किसी की चींख से उनका ध्यान भंग हुआ...
अरे...कोई बचाओ रे, मेरा बच्चा...! सीढ़ियों पर फिसलकर पानी में गिरते बच्चे को किनारे खड़े एक व्यक्ति ने हाथ पकड़ कर खींच लिया व उसकी माँ को सौंप दिया। उसने उसे कलेजे से चिपका लिया, वो अपने छोटे से परिवार के साथ गंगास्नान को आई थी। पति-पत्नी व दो छोटे बेटे, तकरीबन पाँच व सात साल के आसपास की उम्र के रहे होंगे। माँ उसे बार-बार चूमती बावली हुई जा रही थी, ‘कुछ हो जाता तो? तुममें तो हमारी जान बसती है’ उसकी आँखों से अविरल अश्रुधरा बह रही थी।
बच्चों में तो माँ-बाप की जान बसती है, फिर माँ-बाप में बच्चों की जान क्यों नहीं बसती? इस सवाल के साथ उस मार्मिक दृश्य ने उन्हें भी उन दिनों की याद दिला दी, जब उनके दो साल के अंतराल पर दो बच्चे, एक बेटी व एक बेटा हुआ। अपने छोटे-से परिवार में दोनों बहुत खुश थे। छह साल के अंतराल के बाद फिर गर्भ ठहरने पर कांता ने उस बच्चे से निजात पाने के लिए उन्हें मनाने की बहुत कोशिश की पर तब भी वो चुप ही रहे। और बेमन से ही सही उस अनचाहे बच्चे को दुनिया में लाना ही पड़ा। परिणति जब बेटे के रूप में हुई तो दोनों बहुत खुश थे कि चलो बुढ़ापे के दो सहारे हो गए। उन दोनों की जान भी ऐसे ही बसती थी अपने बच्चों में। बच्चों को याद कर एक हिकारत का-सा भाव आ गया उनके चेहरे पर।
दुनिया का ये दस्तूर भी निराला है। बच्चे की पैदाईश से पहले अपने बुढ़ापे को संवारने की ललक पैदा हो जाती है। जबकि किसी को ये भान भी नहीं होता कि भविष्य के गर्त में क्या छिपा है। उम्मीदों, सपनों की छाँव तले कब बच्चे बड़े हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता। असली परीक्षा तो तब होती है जब उनके उम्मीदों पर खरा उतरने व सपनों को पूरा करने का वक्त आता है।
बाऊजी भी ऐसे ही सपनों को पाले अपनी ज़िंदगी में बहुत खुश थे। पत्नी की नौकरी से आर्थिक संबल भी मिल गया था। दोनों ने बड़े मनोयोग से बच्चों की परवरिश की। बच्चे बड़े हुए तो शुरू हुआ उनके घर बसाने का दौर। बेटी बड़ी थी सो इक्कीस की होते ही कर दिए उसके हाथ पीले व पा ली मुक्ति एक बड़ी ज़िम्मेदारी से। गंगा की लहरों की तरह बही जा रही थी ज़िंदगी।
अचानक वो उठे, अपने कमीज़ व पेंट उतार कर जल में उतर गए यह सोचकर कि गंगा माँ के आँचल की शीतलता उन्हें कुछ राहत देगी और ऐसा हुआ भी। उन्होंने डुबकी लगाई, मन जैसे धुल गया और रह गई सिर्फ कान्ता। हर बार वो जब भी डुबकी लगाते थे घर के सदस्यों का नाम ले-लेकर डुबकी लगाते, ताकि उन्हें भी कुछ पुण्य का अंश मिल जाए। पर आज उन्हें अपनों के नाम से ही घृणा हो रही थी और न ही शांत हो पा रही थी जी की जलन! लहरों में भी उन्हें कान्ता का ही प्रतिबिंब लहराता दिखाई पड़ रहा था। वे बतियाने लगे उस प्रतिबिंब से, ‘तुम्हें इतनी भी क्या जल्दी थी जाने की, देखो, तुम्हारे बिना मेरा क्या हाल हो गया है। मेरी आवाज़ तो तुम ही थीं, आज मैं बेआवाज़ हो गया हूँ। मेरी जीवन नैया की पतवार थीं तुम, बिन तुम्हारे भंवर में आ फंसी है नैया। तुम तो जा बैठीं माँ गंगा की गोद में और मैं रह गया नितांत अकेला इस इतनी बड़ी दुनिया में। आज मेरा कोई नहीं है। तुमने ही तो संभाल रखा था सब। तुम्हारे बगैर जीवन की तो मैंने कभी कल्पना ही नहीं की थी। तुम्हीं बताओ, क्या चुप रहना कोई गुनाह है? आज लगता है, क्यों मैंने अपने आप को अपने में ही समेट कर रखा? बड़ी भाभी जी ने भी बहुत कोशिश की थी कि मैं जवाब देना सीखूँ पर सब व्यर्थ रहा। तुमने भी तो कभी इस बात के लिए तकरार नहीं की। हो सकता था तुम लड़ती-झगड़तीं तो मेरी आदत बदल ही जाती। अब ज़रूरत है तो हिम्मत ही नहीं रही। मैं थक चुका हूँ इस ज़िंदगी से।’ और फफक पड़े बाऊजी, हथेलियों में मुँह छिपाकर।
कुछ देर बाद संयत होकर वो फिर बड़बड़ाने लगे, ‘कान्ता! हमसे कहाँ चूक हो गई? हमने अपने तीनों बच्चों को हर सुख-सुविधा मुहैया कराई, अच्छी-से-अच्छी शिक्षा दिलाई, अच्छे संस्कार डाले, पर देखो न, हम फिर भी फेल हो गए।
तुम्हारे जाने के बाद शुरू-शुरू में तो कुछ दिन सब ठीक रहा। शायद नया-नया दुख था तो घर के सदस्यों को संयम ने बाँध् रखा था। धीरे-धीरे बहू ने अपना असली रूप दिखाना शुरू कर दिया। एक सूत्र में पिरोया हमारा घर बिखरता-सा प्रतीत होने लगा। माना कि बहू तो पराये घर की बेटी होती है, पर बेटा तो अपना ही खून होता है, फिर भी बीवी के पल्लू से बँधते ही, उसी के इशारों पर नाचने लगता है। सुना था इंसान जैसे कर्म करता है, वैसा ही फल पाता है, पर हमने तो कभी अपने बड़ों का अनादर नहीं किया, उनकी खूब सेवा की, फिर क्यों हो रहा है ऐसा मेरे साथ। कभी-कभी मैं सोचता हूँ, अच्छा ही हुआ जो तुम न रहीं ये सब देखने के लिए। फिर अगले ही पल लगता है शायद तुम होतीं तो ये सब होता ही नहीं।
जिन्हें बुढ़ापे का सहारा मान बैठे थे, हमारे वो दोनों बेटे कितने स्वार्थी हो गए हैं। सुख का बेटों की संख्या से क्या संबंध्! हम बहुत खुश हुए थे न कि चलो दो बेटे हो गए अब बुढ़ापा अच्छे से कटेगा। पर उन्हें तो अपने बीवी बच्चों के अलावा कोई नहीं दीखता। मैं तो जैसे उनके परिवार का सदस्य ही नहीं हूँ। शायद मेरी चुप्पी ने ही उनके हौसलों को परवाज़ दी है। टोका-टाकी से शुरू हुई ज़िल्लत आज सरे आम अपमान तक पहुँच गई है। रिटायरमेंट के बाद तो निठल्ले होने का तमगा भी लटका दिया गया है मेरे गले में। कोई इतना निष्ठुर कैसे हो सकता है, ये आज तक मैं सोचता था पर अब महसूस भी कर लिया है। मैं सोचता था कि अपने प्यार से तुम्हारी कमी को पूरा करने की भरसक कोशिश करूँगा, पर हमारे बच्चों को तो हमारी ज़रूरत ही नहीं है। घर की दो रोटी को भी तरस गया मैं। अपना घर होते हुए भी क्षुधा शांत करने को मुझे बाज़ार का मुँह ताकना पड़ता है। कितना बदनसीब हूँ मैं!
बड़े से मिली दुत्कार के बाद मैं छोटे के पास गया, पर वह तो उससे भी गया-गुज़रा निकला। उन्हें मेरे बुढ़ापे पर भी तरस नहीं आता। वहाँ बहू के माँ-बाप का ज़रूरत से ज़्यादा दखल है। वे नहीं चाहते कि मैं उनके साथ रहूँ। अपनी बेटी को मेरा अपमान करने के लिए उकसाते रहते हैं ताकि मैं स्वयं वहाँ से चला जाऊँ। हमारे दोनों बेटे जोरू के गुलाम निकले। जानती हो, हमारे दो पोते व एक पोती है, पर मैं तरसता ही रहा उन्हें अपने कलेजे से लगाने के लिए। ममता का अहसास ही नहीं कर पाया क्योंकि उन्होंने बच्चों को हमेशा मुझसे दूर ही रखा। मैं बार-बार बच्चों के मोह में पड़ कर कभी एक के तो कभी दूसरे के पास जाता पर हर बार दुत्कारा ही जाता। मुझे लगता कि शायद कभी तो उन्हें अहसास होगा कि वो जो कर रहे हैं ग़लत कर रहे हैं, पर मैं ही ग़लत था। हमारे बच्चों को पैसे-धेले का लालच भी अपनी गिरफ्त में नहीं ले पाया क्योंकि रहने के लिए घर व हर सुख-सुविधा का हमने इंतज़ाम पहले ही कर दिया था न दोनों के लिए! बहुएँ एक-दूसरे की हिरस करती हैं। जब बड़ी नहीं रखती अपने घर तो मैं क्यों रखूँ-ऐसा छोटी सोचती है।
इन सबमें मुझे ये समझ आया कि वो बेटी जिसे हम पराया धन समझते हैं, वास्तव में हमारी अपनी होती है। जानती हो, दोनों बेटों के दुत्कारने के बाद उसने ही सहारा दिया मुझे। पर मेरे कारण उसे अपने परिजनों व समाज के ताने सुनने पड़ते थे, ये मैं कैसे बर्दाश्त करता! चला आया चुपचाप वहाँ से भी। हमारा समाज चाहे कितना भी दावा करता हो कि समय बदल गया है, लेकिन हकीकत में बदला कुछ भी नहीं है। बेटियाँ आज भी ससुराल में अपने मन की शायद ही कर पाती हैं। जो घर वालों के सहयोग से कर पाती हैं उन्हें समाज चैन नहीं देता।
मुझे परेशान देख कर एक दिन दामाद ने कहा था, ‘पापा, चुप रहने से काम कैसे चलेगा, आप एक बार जाकर अपने बेटों से बात तो कीजिए। वो घर आपका ही है, आप ही के घर से कैसे बेदखल कर सकते हैं वो आपको? हिम्मत तो आपको जुटानी ही होगी। वो मानते हैं तो ठीक है वरना आप अपना सब कुछ जिसे देना चाहें दे दीजिए व मेरे पास ही रहिए। मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए। बस इसके बाद आपको उन्हें छोड़ना होगा क्योंकि मैं नहीं चाहता कि आप बार-बार अपमानित व दुखी हों। फिर आपको मुझे वो सब अधिकार देने होंगे जो एक बेटे के होते हैं। आपके बाद भी एक बेटे का कर्तव्य मैं ही निभाऊँगा।’
कान्ता, इतने अपमान के बाद भी माँ-बाप बेटों का मोह क्यों नहीं छोड़ पाते! बेटी जो इतने प्यार से अपने पास बुलाती है, हम क्यों उसका आग्रह स्वीकार नहीं कर पाते। समाज के ताने क्या बेटी के प्यार से भी अधिक महत्वपूर्ण होते हैं! क्या बेटे की कामना इंसान महज़ इसलिए करता है कि मरने के बाद वो उसकी चिता को अग्नि देगा! क्या इसीलिए वो उनकी दुत्कार भी सहता है!
दामाद की बात को मानकर ही मैं एक बार फिर आया था यहाँ। अन्य परिजनों ने भी उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की। एक आखिरी प्रयत्न के तौर पर बाकायदा पारिवारिक पंचायत बैठी थी। बच्चों के ताऊ, चाचा, बुआ, मामा, मौसी सभी तो थे। उस दृश्य को याद कर मेरा खून खौल उठता है।
बुआ ने उस बचपन के लाड-प्यार को याद दिलाते हुए कहा था कि ये वो बाप है जिसने कभी अपने बारे में नहीं सोचा, हर वक्त केवल तुम्हारी खुशियों के बारे में ही सोचता रहता था। फूफा ने भी अपना सुर मिलाते हुए कहा था कि ज़रूरतें ही कितनी हैं इनकी, सिर पर छत और दो वक्त की रोटी ही न! इस दृश्य को देख कर चाचा ने भी हिकारत भरे लहज़े में कहा था कि औलाद अगर तुम जैसी हो, तो बेऔलाद होना ही अच्छा है । पर हमारे बेटे फिर भी कुछ नहीं बोले। मुँह नीचा किए बैठे रहे।
चाची का गुस्सा तो सातवें आसमान पर था, वो दहाड़ते हुए बोली थी कि क्या इसी दिन के लिए तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा किया था कि जब इन्हें सहारे की ज़रूरत हो तो दुत्कार दो। निकाल बाहर करो घर से?
बड़े भैया को तो इतना आश्चर्य हुआ था कि जो व्यक्ति मुँह में ज़बान तक नहीं रखता वो तुम्हें क्या परेशान कर सकता हैं? यदि तुम इनके साथ नहीं निभा सकते तो दुनिया में किसके साथ निभा पाओगे?
कोई नतीजा न निकलता देख रिश्तेदारों ने अपने साथ ले चलने का भी प्रस्ताव रखा पर जब अपने ही सिक्के खोटे निकले तो दूसरों पर बोझ क्यों बनना।
प्यार से, डाँट से, बच्चों का वास्ता देकर हर प्रकार से समझाने की कोशिश की पर नतीजा वही ढाक के तीन पात। और मुझ पर घड़ों पानी तो तब पड़ा जब बहू जो अब तक अंदर कमरे में बैठी सब सुन रही थी ने आकर फरमान सुनाया, ‘यदि ये इस घर में रहेंगे तो मैं गंगा में डूबकर जान दे दूँगी।’
मुझे लगा, मेरे कानों में नुकीले सरिये घौंप दिये गये हैं। इसके बाद कुछ नहीं बचा था कहने-सुनने के लिए। वहाँ एक पल भी रुकना असहनीय था मेरे लिए। सभी भौंचक थे। ऐसे जवाब की अपेक्षा तो शायद किसी को भी न थी। अपना अपमान तो मैं सहन कर ही रहा था, पर अपनों का अपमान...! वो तो सबका भला ही सोच कर आए थे न! अब मुझसे रहा नहीं गया व मैं चुपचाप उठ कर चला आया यहाँ।
कान्ता! माँ-बाप कितने ही नाराज़ हों, किसी गलती के लिए सज़ा भी दे लें पर अपने बच्चों की जान के दुश्मन तो कतई नहीं हो सकते। पर इनकी करतूत को नादानी समझ कर माफ भी नहीं किया जा सकता। मेरे हाथ-पाँव काँप रहे हैं, दिल भारी हो रहा है, शरीर बेकाबू हो रहा है। दूर क्षितिज पर सूरज तो चल दिया है अपनी अगन शांत करने लेकिन मेरे अंदर का ज्वालामुखी विस्फोट करने को आतुर है। इसका गर्म लावा ऐसी नालायक औलाद व समाज की खोखली परंपराओं को झुलसा कर रख देगा। आज इस बेजुबान की आवाज़ क्या धमाका करेगी यह तो विस्फोट के बाद ही पता चलेगा पर शायद इस विस्फोट का परिणाम देखने के लिए मैं मौजूद न रहूँ।
मेरे मौजूद रहने या न रहने से कितना अंतर पडे़गा, नहीं जानता। पड़ेगा भी या नहीं, यह भी नहीं जानता। मैं मौजूद रहूँगा भी या नहीं, यह तो बिलकुल ही नहीं जानता। जीवन जितना जीना था, जी लिया। कुछ तुम्हारे संग रहकर और कुछ बच्चों के संग रहकर। बचा हुआ समय किसी के संग रहूँगा या यूँ ही तुम्हारी यादों के संग ओढ़ता-बिछाता रहूंगा, यह भी प्रश्न है। इन प्रश्नों के संग जीना शायद उतना कठिन न हो, जितना उन उत्तरों के संग जीना, जो जीवन ने मेरे प्रश्नों के जवाब में मुझे दिये हैं। इन प्रश्नों और उत्तरों के बीच में जो अन्तिम प्रश्न कुदरत ने मुझसे पूछा है, उसका उत्तर देने का वक्त आ गया है। इस उत्तर देने के बाद कोई नहीं कहेगा कि मैं उत्तर देना नहीं जानता। शायद मेरे ऊपर से ये आरोप भी हट जाये। अपने पूरे होशो हवास में मैं यह घोषणा करता हूँ कि ये जो उत्तर मैं देने जा रहा हूँ वो पूरी तरह से मेरा है और इसमें किसी का कोई दवाब नहीं है। ये उत्तर बेशक वो न हो, जिसके लिये मैं जाना जाता था। यह वैसा भी नहीं होगा जैसा उत्तर देने की मेरी आदत थी। यह वैसा भी नहीं होगा, जिसकी उम्मीद मेरे प्रश्न मुझसे कर रहे होंगे। ये उत्तर मेरे जाने के बाद जब तक प्रतिध्वनित होते रहेंगे, मैं उन्हें महसूस करता रहूँगा। जिस दिन ऐसा न हो, समझना कि एक बूढ़े के उत्तर उसके बच्चों की समझ में आ गये हैं।

डॉ. नीरज सुधांशु

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