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मध्य रेखा

डॉ. नीरज सुधांशु

मध्य रेखा

उस स्पर्श से उपजी पुलक आज भी समायी है उसके मन-प्राण में। वो मीठा अहसास, उसका खयाल भर आज भी मन को सुकून दे जाता है। ताज़गी से भर देता है तृष्णा को। पहले प्यार की तासीर का रोम-रोम गवाह है। इतने वर्षों बाद भी उनके प्यार की निकटता आज भी बरकरार है। उस प्यार की डोर आज भी जोड़े हुए है दोनों को। इस बार वह लंबे अंतराल के बाद अमरीका से स्वदेश आ रहा है। और अब वह यहीं रहकर बिज़नैस करेगा, यह सुना है तबसे तो तृष्णा का मन बल्लियों उछल रहा है। उसके परिवार को देखे हुए कितना अरसा बीत गया। उम्र का प्रभाव चेहरे पर भी दिखने लगा होगा, विभु कैसा दिखता होगा, दस साल का जो हो गया है, वह सोच रही है। प्रतीक्षा में बैठी तृष्णा की स्मृतियों में बीते सालों का पल-पल ज्यों का त्यों अंकित है।

उसने बीएड में एडमिशन लिया था अलीगढ़ में। सुमित के घर में छत पर बने दो बेडरूम वाले पोर्शन में वह अपने माता-पिता के साथ रहने आयी थी। पिता ट्रांस्पफर होकर उसी कॉलेज में लेक्चरर बनकर आये थे। कुछ महीनों में ही दोनों परिवार आपस में इतने घुल-मिल गये थे कि खाने-पीने की वस्तुएँ व सुख-दुख भी शेयर करने लगे। आपसी विश्वास उनके रिश्ते की बुनियाद था।

सुमित भी उसी कॉलेज का विद्यार्थी था। पढ़ाई के साथ-साथ वह पिता के बिज़नैस में भी हाथ बँटाता। उसकी शादी भी हो चुकी थी।

तृष्णा इतनी चुलबुली और शरारती थी कि घर भर को सिर पर उठाये रहती। माँ चिंतित रहती कि यह लड़की पता नहीं कब बड़ी होगी! किताबें तो उसे दुश्मन-सी प्रतीत होतीं।

दोनों रोज़ाना एक ही साइकिल पर सवार होकर कॉलेज जाते थे। पढ़ाई से अक्सर जी चुराने वाली तृष्णा सुमित के व्यक्तित्व के प्रभाव से ऐसी पढ़ाकू बन गयी कि हमेशा थर्ड डिविशन में पास होने वाली लड़की पफर्स्ट डिविशन से पास होने लगी। वह अपने पिता की तरह शिक्षक बनने का सपना देखने लगी थी। धीरे-धीरे दोनों को एक-दूसरे का साथ भाने लगा। कभी-कभी वे बातें करते हुए दरख़्तों की परछाईं नापते पैदल ही चल पड़ते।

एक दिन घर के सभी लोगों ने फिल्म देखने का प्रोग्राम बनाया। सर में दर्द के कारण तृष्णा ने जाने में असमर्थता व्यक्त की। वह घर पर अकेली ही थी। सुमित शहर से बाहर गया हुआ था। काम जल्दी हो जाने पर वह घर वापस आया तो घर में कोई नहीं था। वह आँगन में आराम कुर्सी पर पसर गया। थोड़ी ही देर में कानों में किसी के कूलने की सी ध्वनि का आभास हुआ। वह आवाज़ का पीछा करता छत पर पहुँच गया। उसने तृष्णा के दरवाज़े पर दस्तक दी तो वह खुला ही मिला। तृष्णा बेहोशी की सी स्थिति में काँप रही थी। सुमित ने उसके सर पर हाथ फेरा तो पाया, वह तेज़ बुखार में तप रही थी। थर्मामीटर का पारा 103 पर आकर रुका। उसे और कुछ नहीं सूझा, अकेली को इस हालत में छोड़कर डॉक्टर को बुलाने भी कैसे जाये! उसने फ्रिज से ठंडा पानी निकाला और माथे पर ठंडी पट्टियाँ रखीं। जब तक सब फिल्म देखकर लौटे उसका बुखार कम हो गया था। तबियत भी काफी सामान्य हो गयी थी। फिर तो कई दिन लगे उसे पूरी तरह ठीक होने में।

कई दिन तक सुमित को अकेले ही कॉलेज जाना पड़ा। साइकिल का पैडल न जाने क्यूँ उसे बहुत भारी प्रतीत होता। अकेले कॉलेज जाने का मन नहीं करता। खालीपन का अहसास हर पल कचोटता उसे। यह बात उसने तृष्णा को बतायी तो उसने भी ऐसा ही अहसास होने की बात कही। प्यार का अंकुर दोनों के मन में फूट चुका था।

पढ़ाई पूरी हुई और तृष्णा के घर में उसके विवाह की बात उठने लगी।

"तुम मुझे इतनी देर से क्यों मिलीं?" सुमित ने एक दिन छत पर उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा।

"लो जी, ये तो उल्टा चोर कोतवाल को ही डाँटने लगा!य" उसने झटके से हाथ छुड़ा लिया।

"और क्या कहूँ..., मेरी शादी हो चुकी है, चाहूँ भी तो तुम्हें अपना नहीं सकता। अपनी तो न! ...टाइमिंग ही खराब है!" सुमित ने उदास मन से कहा।

"हमारा प्यार तो उस समानांतर रेखा की तरह है जिसमें मिलन की कोई गुंजाइश ही नहीं है।"

"प्यार सोच-समझकर तो नहीं होता न! बस हो जाता है। हम चाहकर भी अपने रिश्ते को कोई नाम नहीं दे पायेंगे।"

"प्यार होना तो कुदरत की नैमत है, क्या हमारे रिश्ते को कोई नाम देना ज़रूरी है? जीवनसाथी न सही, हम यूँ ही ज़िन्दगी भर दोस्ती का रिश्ता तो निभा ही सकते हैं न?"

"हां, तुम ठीक कहती हो, हमारे परिवारों में इतनी आत्मीयता है कि हम आपस में जुड़े तो रह ही सकते हैं।"

"तुम हमेशा मेरे आदर्श रहोगे। तुमने मेरे जीवन के प्रति नज़रिये तक को बदल दिया है। मुझे तुम्हारी बहुत याद आयेगी, कैसे रहूँगी तुमसे दूर!" तृष्णा की आँखों में आँसू आ गये।

"मैं जब भी तुम्हारे शहर आऊँगा तो तुमसे ज़रूर मिलूँगा।" सुमित ने सांत्वना दी।

ये मन भी न... अपनी गति से चलता है। कब कहाँ किस पर आ जाये कोई नहीं जानता। आत्मिक प्रेम में दूरी कोई मायने नहीं रखती। वो तो दैहिक प्रेम है जिसे निकटता की आवश्यकता होती है। आत्मिक प्रेम में सुकून की अनुभूति होती है। एक तसल्ली रहती है कि दुनिया के किसी कोने में कोई तो है जो आपको दिल से चाहता है, सच्चा प्रेम करता है। उसकी याद ज़हन में सदैव बनी रहती है। बस ऐसा ही था इन दोनों का प्रेम भी।

कुछ दिनों बाद तृष्णा भरे मन से ससुराल के लिए विदा हो गयी। शादी तय होने से लेकर विदाई तक उसके आँसू अनवरत बहते रहे। इन आँसुओं का राज़ बस सुमित ही जानता था।

इधर सुमित के दिन वीराने से हो गये थे। वह अनमना-सा रहने लगा। पर सबके बीच सामान्य होने का दिखावा करता। पत्नी आभा उसे खुश रखने का भरसक प्रयास करती पर उसके मन से तृष्णा की याद जाती ही नहीं थी। विरहा की अगन दोनों को जला रही थी और जलना उनकी नियति थी।

वह रात को आसमान ताकते हुए सर्वशक्तिमान से पूछता, ‘जब मिलने की कोई सूरत नहीं थी तो मन में प्यार जगाया ही क्यों? उजाड़ना ही था तो मन- बगिया में प्यार के फूल खिलाये ही क्यों? ...क्यों...क्यों...क्यों?’ और आसमान का अक्स आँखों के धुँधलके में गुम हो जाता। नियति लिखने वाले ने कभी दिये हैं क्या किसी के प्रश्नों के उत्तर? वह तो बस अपनी उँगली पर नचाता है सबको।

उधर नया घर, नया परिवार, घर में नयी बहू के आगमन की चहल-पहल पर तृष्णा को हर पल सुमित का ही खयाल सताता। वह अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखने की भरसक कोशिश करती। उसकी शादी की तस्वीरों में बसा सुमित उसका सहारा था। जब मन करता, वह एल्बम खोलकर बैठ जाती। एक- एक लमहे को याद कर मन की पीर पर मलहम लगाती। पर समय से बड़ा मलहम भी कोई हुआ है भला! धीरे-धीरे वह अपनी नयी ज़िम्मेदारियों को निभाने में व्यस्त हो गयी।

कभी-कभी सुमित का आना होता शहर में तो वह तृष्णा के घर अवश्य जाता। प्रायः तृष्णा के लिए मायके से कुछ-न-कुछ सामान भी सुमित के हाथ भेजा जाता। उसकी ससुराल में भी उसके आत्मीय संबंध हो गये थे, इस कारण वह बिना झिझक वहाँ आता-जाता रहता। तृष्णा के पति अवि की टूरिंग जॉब थी। वह अक्सर शहर से बाहर ही रहते। इस बीच सुमित व तृष्णा को काफी पल एकांत के मिल जाते। एक-दूसरे के हमदर्द बन वे हर दुख-तकलीफ साझा करते। ज़िन्दगी अपनी गति से सुकून से चल रही थी। तृष्णा को बीएड करने के बाद नौकरी करने की बहुत चाह थी। शादी हो जाने से उसे अपने सपने टूटते हुए महसूस होने लगे। सुमित ये बात जानता था। उसने अपने रसूख से एक प्रतिष्ठित पब्लिक स्कूल में उसकी नौकरी लगवा दी। अब वह काफी व्यस्त रहने लगी।

कहते हैं, सच्चा प्यार वही होता है जो दूरियों के बाद भी बरकरार रहे। ऐसा ही प्यार था सुमित-तृष्णा का। वह अक्सर कहती, "सुमित, जानते हो, मेरे पास दो मन हैं, एक दुनियादारी में तो दूसरा हर पल तुममें रमा रहता है।" और सुमित उसे प्यार से निहारने लगता।

डोरबैल की आवाज़ से तृष्णा वर्तमान में लौटी और धड़कते हृदय से दरवाज़ेकी ओर भागी।

आखिर वो पल भी आ गया जब सुमित ने तृष्णा के घर में सपरिवार कदम रखा। आँखें मिलीं, इंतज़ार ख़त्म हुआ, एक तृप्ति के अहसास से भर गये दोनों। तृष्णा तो भाव-विभोर सी उनके स्वागत में लग गयी।

उसने सबसे पहले अपने लाड़ले विभु के सिर पर हाथ फेरा और प्यार से ढेर सारी चुम्मियाँ ले डालीं। विभु सुमित का इकलौता बेटा था।

"कितना बड़ा हो गया है न और स्मार्ट भी!" जब तृष्णा ने कहा तो सुमित के चेहरे पर रहस्यमयी मुस्कान की रेखाएँ तैरने लगीं।

सबने मिलकर बहुत सी बातें कीं व पुरानी यादें ताज़ा कीं। सुमित व आभा ने अमरीका के रहन-सहन व संस्कृति की भी अनेक बातें साझा कीं।

"ये तुम्हारे लिए।" आभा ने अमरीका से लाया हुआ तोहफा उसे पकड़ाते हुए कहा।

"क्या है इसमें?" तृष्णा ने पैकेट उलट-पलट करते हुए पूछा।

"हमारे प्यार की गरमाई।"

"यानी...?"

"कोट है। सुना है, यहाँ भी बहुत ठंड पड़ने लगी है।"

उसने प्यार से पैकेट को छाती से चिपटा लिया। सुमित का तो हर तोहफा उसके लिए स्पैशल था।

बातों-बातों में समय कब पंख लगाकर उड़ गया पता ही नहीं चला। वे वापस जाने लगे तो तृष्णा ने कुछ दिन के लिए विभु को उसके पास छोड़ जाने की विनती की।

"अभी इसका स्कूल में एडमिशन भी कराना है, छुट्टियों में मैं खुद छोड़ जाऊँगा, वादा रहा।" कहकर सुमित व आभा अलीगढ़ के लिए रवाना हो गये।

वे तो चले गये पर तृष्णा यादों की दुनिया के साथ वहीं खड़ी रह गयी।

उसे याद आयी वो रात जब ग्यारह साल पहले सुमित उसके घर रुका था। उसकी गोदी में सिर रखकर सुबक-सुबककर रोया था।

"अरे! क्या हुआ सुमित?"

"..." वह रोता ही रहा।

"अरे, कुछ बताओ तो! मैंने तुम्हें इतना कमज़ोर कभी नहीं देखा, क्या हुआ है?"

"कैसे बताऊँ तृषु!"

"मेरा मन घबरा रहा है, जल्दी बताओ न क्या बात है?"

"मैं आज ज़िन्दगी के उस मोड़ पर खड़ा हूँ जहाँ से कोई राह नहीं दिखती, बस अँधेरा ही अँधेरा है हर ओर।"

"देखो, पहेलियाँ न बुझाओ।"

"पहेली ही तो बन गयी है मेरी ज़िन्दगी! अगले पल क्या रंग दिखा दे, अनुमान लगाना मुश्किल है।"

"मेरे सब्र की परीक्षा न लो सुमित, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा।"

"आ...भा..., आभा कभी माँ नहीं बन सकती।"

"य...ये...ये क्या कह रहे हो तुम?" तृष्णा को सुनकर शॉक लगा।

"मैं...मैं सच कह रहा हूँ। डॉक्टर ने भी जवाब दे दिया है।"

"ऐसा कैसे हो सकता है! आज विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कोई तो रास्ता होगा ही न!"

"नहीं है कोई रास्ता। आभा की ओवरी में ओवम ही नहीं बनते, गर्भाशय में भी रसौली है। ऑपरेशन कर बच्चेदानी ही निकालनी पड़ेगी।"

"फिर...?"

"हमारे पास बच्चा गोद लेने के अलावा कोई उपाय नहीं बचा है।"

"ओह, ये तो सचमुच..." तृष्णा भी रोने लगी। सुमित के दुख ने उसे भी हिलाकर रख दिया।

"बच्चा गोद लेना भी कोई आसान नहीं है!"

तृष्णा के लिए सुमित का हर दुख उसका अपना दुख था।

"जानती हो, घरवाले दूसरी शादी के लिए दबाव बना रहे हैं। देखा फिर से..., हमारी टाइमिंग तो हमेशा ही खराब रही है, है न!!"

तृष्णा कोई उत्तर नहीं दे पायी। कहती भी क्या! आज उसके पास सांत्वना के लिए शब्दों का भी अकाल पड़ गया था। दिमाग कुंद हो रहा था, कुछ सूझ नहीं रहा था। दोनों के बीच काफी देर तक चुप्पी छायी रही।

अचानक तृष्णा ने पूछा, "ये बताओ, मैं क्या मदद कर सकती हूँ तुम्हारी?" सुमित की चुप्पी उसे परेशान कर रही थी।

"तुम हमारे लिए सरोगेट मदर बनोगी?"

अचानक आये सवाल से अचंभित थी वह, "मैं तो जान भी दे सकती हूँ तुम्हारे लिए पर अवि को कैसे मनाऊँगी, वो नहीं मानेंगे।"

"..." सुमित आशाभरी नज़रों से उसे देखता रहा।

"दो बच्चे तो पहले ही हैं मेरे, तुम्हें इनमें से किसी को गोद लेने को भी नहीं कह सकती क्योंकि उन पर अवि का भी उतना ही अधिकार है।"

"पर मैं अपना बच्चा चाहता हूँ, अपना खून..." काफी देर तक सुमित उसकी गोद में सिर रखकर असमंजस की स्थिति में बैठा रहा।

प्यार में दोनों एक-दूसरे के लिए कुछ भी कर गुज़रने को तैयार थे। पर करें तो क्या!!

फिर उस रात जो हुआ उसने उनके पवित्र प्रेम को देह के तल पर ला पटका। तृष्णा ने भी कोई विरोध नहीं किया। न ही उसे कोई पछतावा था। ये राज़ कभी उजागर नहीं होगा ये दोनों ने अपने आप से वादा किया।

समय बीतने के साथ तृष्णा को गर्भवती होने का आभास हुआ। उसने ये बात अवि को बतायी।

"पर हम तो सावधानी बरतते हैं, ऐसा कैसे हो सकता है?"

"हो सकता है कि अनजाने में कोई भूल हुई हो।" तृष्णा ने समझाने की कोशिश की।

"अब जो भी हुआ, तुम अबॉर्शन करा लो। मैं कल ही डॉक्टर से अपॉइंटमेंट ले लेता हूँ।"

"नहीं..." तृष्णा ने साफ मना कर दिया।

"तुम भूल रही हो कि हम दो ही बच्चे पैदा करेंगे ऐसा तय किया था हमने।" अवि ने याद दिलाया।

"जानती हूँ पर अब हो गया है तो इसकी हत्या का पाप नहीं करूँगी।"

"ये निर्णय हमने अपने बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए ही लिया था। सीमित आय में कैसे दे पायेंगे अच्छी परवरिश तीन बच्चों को।"

"मैं ट्यूशन्स कर लूँगी।"

दोनों में कई दिन तक बहस होती रही। दोनों अपनी-अपनी ज़िद पर अड़े हुए थे। आखिर हारकर अवि ने सुमित को बुलाया।

सारी बात सुनकर सुमित ने भी तृष्णा का ही पक्ष लिया। उसने बड़ी सावधानी से अपने कभी बच्चा न हो पाने की बात अवि को बतायी। अपनी समझबूझ से उसने अवि को इस बात के लिए राज़ी कर लिया कि जिस दिन यह बालक पैदा होगा वे उसे आभा के आँचल में डाल देंगे। तृष्णा तो मन से पहले ही तैयार थी।

दोनों की आँखें मिलीं और जी को तसल्ली।

"तुम दोनों जो हमारे लिए कर रहे हो... इस अहसान को कैसे चुकाऊँगा मैं।" सुमित ने हाथ जोड़ दिये।

"नहीं भाई, इसमें कोई अहसान नहीं है, यह तो हमारी भी समस्या का समाधान है। सबकी इच्छा का सम्मान हो इससे अच्छी बात और क्या होगी भला!"

"अवि, मैं तुम्हारे सुपुर्द कर रहा हूँ अपने बच्चे को, इसका ठीक से खयाल रखना। मैं बीच-बीच में चक्कर लगाता रहूँगा। और हाँ, हमारे बीच जो बात हुई है वह हम तीनों के बीच ही रहनी चाहिए।"

"क्यों? आभा को भी नहीं बताओगे?"

"नहीं, मैं उसे सर्प्राइज़ देना चाहता हूँ।" सुमित ने दोनों से वादा लिया। और वापस आ गया।

सुमित के चक्कर तृष्णा के घर जल्दी-जल्दी लगने लगे। तीनों मिलकर बच्चे के सुखद आगमन की तैयारी कर रहे थे।

कायनात सुमित को उस खुशी से नवाज़ने की तैयारी कर रही थी जिसके बाद शायद कुदरत से उसकी शिकायतों पर कुछ हद तक विराम लग जाता।

अपने प्यार के अंश को पाकर तृष्णा निहाल हो गयी थी। उन्हें और मजबूती से जोड़े रखने वाली डोर जो पल रही थी उसकी कोख में!

वो घड़ी भी आ गयी जब वो दर्द से कराहती हॉस्पिटल में एडमिट हुई। सुमित और आभा ने जैसे ही वहाँ कदम रखा, नन्हे के आगमन के स्वर गूँज उठे।

तृष्णा को रूम में शिफ्ट कर नर्स नवजात को लेकर आयी तो सबने उसे बधाई दी पर तृष्णा ने पलट कर कहा, "मेरे साथ-साथ असली बधाई तो आप दोनों को है क्योंकि आज से यह आप दोनों की संतान है।"

आभा की तो खुशी का पारावार नहीं था। "देखा, ये होती है सही टाइमिंग!" सुमित ने कहा तो सभी ठहाका लगाकर हँसने लगे।

उस पल को याद करते हुए तृष्णा भी हँस पड़ी। खयालों की दुनिया में खोयी तृष्णा को पता ही नहीं चला कि वो कबसे उन बटियों को निहारती वहीं गेट पर ही खड़ी थी। दो समांतर रेखाओं को मध्य से जोड़ने वाली खड़ी रेखा था विभु, उनके प्रेम का मूर्त रूप।

डॉ. नीरज सुधांशु

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