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नष्टचित्त

नष्टचित्त

इधर कुछ समय से वह उतनी चौकस नहीं रही थीं।

चीज़ों के प्रति, लोगों के प्रति उनकी जिज्ञासाएँ ख़त्म हो रही थीं।

सवाल पूछे जाने पर जो भी वह उत्तर में कहतीं, वह ज़्यादातर अस्पष्ट और संक्षिप्त रहता। पहले की तरह बातों का झाड़ नहीं बाँधती।

पति देहली अथवा मुंबई जाकर आपरेशन करवाने के बारे में बात चलाते, नई उपचार विधियों एवं विधाओं का नाम लेते, नया मकान खरीदने का प्रस्ताव रखते तब भी वह किसी बात पर उत्साह नहीं दिखातीं। पति अपनी व्यावसायिक उलझनों का उल्लेख करते, घनिष्ठ मित्रों अथवा संबंधियों की समस्याएं बताते, राजनैतिक एवं सामाजिक गुत्थियों को सामने रखते पर अब वह कोई टिप्पणी नहीं करतीं।

बेटा चिंता में डूब-डूब जाता-माँ अब उसे कोई सलाह क्यों नहीं देती? दफ़्तर जाने से पहले उसके नाश्ते में देरी हो जाती तो माँ अब आवेश में नहीं आतीं। सोमवार आ कर चला भी गया पर माँ ने उसे कमरे में बुला कर प्रसाद नहीं खिलाया। अपने नये वेतनमान के बारे में वह खुद उन्हें बताने गया तो भी उनकी आँखों में चमक नहीं आयी। रेडियो पर समाचार और भजनों के प्रसारण का समय बार-बार आकर लौट जाता पर माँ अपने कमरे में छत्तीस साल से रखे अपने उस रेडियो को अब चलाती क्यों नहीं? समाचार-पत्रों को जिन तहों में छोड़ कर वह अपने दफ़्तर के लिए निकलता, उन्हीं तहों के साथ वे उसे वापिस आने पर मिलते। माँ ने समाचार-पत्र पढ़ना क्या छोड़ दिया अब?

बच्चे हैरान थे उनकी ममा अथवा मौसी उन्हें जोर से डाँटतीं, उन पर हाथ भी उठा देतीं पर दादी अब अपने कमरे में हाय-तौबा नहीं मचातीं। बच्चे अपने स्कूल की कापियों में मिले ‘गुड’ के साथ उन के पास बार-बार जाते पर उन्हें देख कर अब वह हुलसती नहीं! न ही उन्हें इनाम ने कुछ देतीं। बच्चों को भी लगने लगा था दादी घर की किसी भी गतिविधि में शामिल नहीं हो रही थीं। दादा भी कहानी सुनाते-सुनाते एकाएक चौंक उठते और बच्चों को कमरे से बाहर भेज दिया करते।

बहू की उत्सुकता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती। दूध वाले के नागे के बारे में जब वह उन्हें अब बताती तो वह पहले की तरह हाथ बढ़ाकर अपनी आलमारी से अपनी डायरी नहीं निकलतीं। केवल सिर हिलाकर उसे कमरे से बाहर जाने की छूट दे देतीं। खाने की मेज लगाते समय बरतनों में वह निनाद लाती अथवा फर्श पर अपनी चप्पल घसीटती हुई चलती तब भी वह कोई बखेड़ा नहीं खड़ा करतीं। अपनी छोटी बहन, छुटकी, के साथ वह उनके बगल वाले कमरे में देर तक खिलखिलाती और गुनगुनाती तब भी वह अपने बिस्तर पर चुपचाप पड़ी रहतीं।

छुटकी भी हैरान थी अपने कालेज के लिए निकलते समय वह उनके कमरे की खिड़की के बाहर वाले दालान में अपनी स्कूटी की घरघराहट देर तक जारी रखती तब भी वह अपने बिस्तर से अपनी व्हील-चेयर पर बैठने नहीं आतीं। न ही उसे आवाज़ ही लगातीं। अपनी वह बेलिहाज़ी भूल रही थीं क्या जो वह शुरू ही से उस के प्रति प्रकट करती रही थीं? तनिक लिहाज़ नहीं रहा था उन्हें कि उधर पिता के घर से उसकी जीजी उसे अपने पास इधर क्यों लिवा लायी थी? पिता के घर बैठी अपनी सौतेली माँ की हिकारत से उसे बचने हेतु ही तो!

हैरत तो यह थी इस बार उसके जन्मदिन पर जीजी ने पास-पड़ोस एवं उसके कालेज की सहेलियों को घर पर बुलाकर एक शानदार दावत भी दे डाली थी लेकिन तब भी उन्होंने जीजी को बुलाकर दो माह से लगातार चल रहा अपना पुराना उपदेश नहीं दोहराया था-‘तुम्हारा सौभाग्य छुटकी को अपने पिता के हवाले करने में है, अपने पति के नहीं।’

कैसे जान गयी थीं वह कि पिछले दो माह से जीजी उसे जीजा के पास भेजने लगी थीं? अपनी एवज? ताकि जीजा यहाँ से उसका डेरा उखाड़ने की बात दोबारा न छेड़ें?

फिर एक दिन वह पति से बोलीं, “बेटी को बुला ही लीजिये।”

दामाद केंद्रीय सरकार में थे और उन दिनों एक दूरस्थ प्रदेश में तैनात थे जहाँ से इधर पहुँचने में बेटी को लगभग डेढ़ दिन तो रेलगाड़ी ही में बिताना पड़ जाता।

पति के मन में एक अजीब तरह का डर जड़ पकड़ने लगा और उसी डर से उन्होंने बेटी को तत्काल पहुँचने को बोल दिया।

तीसरे दिन जब तक बेटी मायके आयी, वह संमुर्च्छा में जा चुकी थीं और उसी, नर्सिंग होम में दाखिल थीं, जहाँ वह दो माह पहले भी एक सप्ताह रही थीं। बढ़े हुए अपने रक्तचाप के परिणाम-स्वरूप, थ्रौमबोसइस, घनास्रता की अहेर बन कर।

रात में उनकी पहरेदारी का काम बेटी ने अपने जिम्मे ले लिया, आग्रहपूर्वक।

उसी रात के तीसरे पहर के किसी एक पल उनके बेड की दिशा से एक हिलोरा उठा और बगल की कुर्सी पर ऊंध रही बेटी को हिलोरने लगा।

“कुछ चाहिए क्या?” चौंक कर बेटी माँ के ऊपर झुक ली।

“मानसी?” उनका स्वर अतिक्षीण था।

“हाँ, माँ,” बेटी ने माँ का हाथ कसकर पकड़ लिया।

“बहनें... ये ठीक नहीं... सही नहीं,” अकेले में बेटी के साथ जब भी वह अपनी बहू और उसकी बहन का उल्लेख करतीं तो इसी तरह उन का नाम न लेकर उन्हें एक ही इकाई बना दिया करतीं।

“क्या किया उन्होंने?” बेटी के हाथ का कसाव बढ़ चला।

“धर्म बिसार कर पाप बिसा रही हैं...” वे फुसफुसायीं।

“मतलब?”

“तेरे भाई के साथ पाप कर्म करती हैं... बहनें... वे सही नहीं, ठीक नहीं...”

“और भाई? वह ठीक है? वह सही है जो पाप मोल ले रहा है?”

बेटी को कोई उत्तर न देकर वह अपनी संमुर्च्छा में लौट गयीं।

अंततः स्थायी रूप से मौन साधने।

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