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मैं भी हूं खास

प्रतिमा पांडेय


आज शाम से ही मिंकी उदास थी। उसे पता चला कि उसकी सबसे प्यारी सहेली श्वेता को स्कॉलरशिप मिली है। बस उसे उदासी ने आ घेरा। मन में सोच रही थी कि श्वेता कितनी इंटेलिजेंट है और उसके सामने वह तो कुछ भी नहीं। उसने उससे बात तक नहीं की थी इस चक्कर में। उदास मिंकी बाल्कनी में जा पहुंची। वहां उसे एक चिड़िया की मीठी आवाज सुनाई दी। शायद किसी का ध्यान नहीं जाता, लेकिन हमेशा अपने ही खयालों में खोई रहने वाली मिंकी को यह आवाज बहुत आकर्षित करती है। किताबों में तो उसने पढ़ा है कि रात को पक्षी सो जाते हैं, तो फिर ये कैसे इतनी मीठी बोली में रात में बोलती है। आखिर ये चिड़िया कहां रहती है?
बारहवीं मंजिल पर बने अपने घर में मिंकी बाल्कनी में खड़ी यही सोच रही थी कि सामने आसमान में दमदम चमकते चंद्रमा ने झुककर उससे पूछा, ‘उस चिड़िया को ढूंढने में मैं मदद करूं क्या?’ मिंकी हैरान रह गई। फिर बोली, ‘आप क्यों मदद करेंगे? क्या आपको भी उस चिड़िया को देखने का मन करता है?’
‘हां, मैं तो रात में चमगादड़ों को इधर-उधर डोलते देख तंग आ गया हूं। इतना सुंदर बोलने वाली चिड़िया को कौन नहीं देखना चाहेगा? तुम्हें क्या लगता है, कैसी होगी वो चिड़िया?’ चंद्रमा ने पूछा।
‘वो...? मुझे लगता है वो बहुत सुंदर नीली आंखों वाली, छोटी सी लाल चोंच वाली, पीले और नीले पंखों वाली चिड़िया होगी। और उसके सिर पर एक सुनहरी कलंगी लगी होगी। हां...उसकी पूंछ से कई नीले रंग के छल्ले निकले होंगे, जिसके कारण वो एकदम खास चिड़िया लगती होगी।’
‘चलो उसे ढूंढते हैं।’ चंद्रमा ने उससे कहा। चंद्रमा के ऊपर छाया रुई जैसा बादल का टुकड़ा, जिसकी शेप एकदम खरगोश जैसी थी, वो मिंकी की बालकनी के पास उतर आया और अपने कान हिलाकर मिंकी से पीठ पर सवार हो जाने को कहा। मिंकी थोड़ा हिचकी, फिर उस पर सवार हो गई। फिर क्या था, बादल उड़-उड़ कर हरेक बिल्डिंग में मिंकी को घुमाता रहा। मिंकी को कहीं भी वो चिड़िया ढूंढे नहीं मिल रही थी। फिर अचानक मिंकी को अपनी ही बालकनी में ऊपर की तरफ से वही आवाज आई। चंद्रमा ने तुरंत अपनी एक किरण उस ओर डाली और देखा, तो पाया कि वहां तार पर लेटे हुए टांग पर टांग चढ़ाकर आंख बंद करके मैडम चिड़िया रानी गाने में मस्त हैं।
‘अहा...मिल गई।’ चंद्रमा और मिंकी दोनों एक साथ खुशी में चिल्लाए। बादल के खरगोश ने मारे खुशी के मिंकी को लिए-लिए हवा में दो गोते लगाए। इतना हल्ला-गुल्ला सुनकर मैडम चिड़िया रानी भी गाना भूल गईं। मारे आश्चर्य के फुदक कर रोशनी में आ गईं।
काली-कजरारी गोल-गोल आंखें, फूले-फूले गाल, मोटू पेट, भूरे-सलेटी पंख और छोटी सी बेरंग चोंच।
‘ये क्या? ये तो खास चिड़िया कहीं से नहीं लगती।’ मिंकी मन ही मन सोच रही थी कि चंद्रमा ने उसका मन पढ़ लिया और बोला, ‘एक्चुअली मैं भी यही सोच रहा हूं।’
‘तुम सुनहरे पंखों वाली क्यों नहीं हो?’ मिंकी से रहा ना गया, तो पूछ बैठी चिड़िया से। चिड़िया सयानी थी। मिंकी के मन की बात वो भी समझ गई। आंखें तरेर कर बोली, ‘क्यों, क्या सुनहरे पंख होना जरूरी नियम है कोई? मैं खुश रहती हूं, जब चाहे गा सकती हूं। मुझे अपने इन सलेटी पंखों से बहुत प्यार है। ये मुझे दूर तक फुर्र-फुर्र उड़ा ले जाते हैं। और क्या चाहिए भला।’
‘पर ये खास नहीं दिखते?’ मिंकी ने भोलेपन से कहा। ‘अगर मैं सुनहरी चिड़िया जैसी खास नहीं, तो कोई मेरे जैसा गाना भी तो नहीं गा सकता। मेरे दोस्तों में किसी के पंख सुंदर हैं, तो किसी की चोंच। कोई उड़ता बहुत तेज है, तो कोई अपनी चोंच में एक साथ तिनकों का पूरा गुच्छा उठा सकता है, तो कोई चोंच की एक टक्कर से ही फल तोड़ देता है। हम सबकी अपनी खासियत है, जो दूसरे में नहीं। इसीलिए मैं भी उतनी ही खास हूं, जितना वे सब।’
मिंकी को श्वेता की याद हो आई। अपनी तुलना श्वेता से करके मिंकी सुबह से उदास थी। पर उस चिड़िया की बातें सुनकर उसे याद हो आया कि मैकेनिक्स में उसका क्लास में कोई मुकाबला नहीं कर पाता है और स्विमिंग भी उसे बहुत अच्छी आती है। वह गिटार भी बहुत अच्छा बजाती है। मिंकी जितना अपनी खासियतों के बारे में सोचती जाती, उसकी उदासी दूर भाग रही थी। उसने आगे बढ़कर चिड़िया को गले लगा लिया। चिड़िया कुछ समझ नहीं पाई।
अब मिंकी ने बादल के खरगोश से छलांग लगाई और बालकनी में कूदकर सीधा भागी फोन की तरफ। उसकी आवाज सुनाई दे रही थी, ‘हेलो, श्वेता। कॉन्ग्रेचुलेशन स्कॉलरशिप के लिए। सॉरी, मंै तुझे घर पर मिलने नहीं आ पाई। मम्मी को टाइम ही नहीं मिला। संडे को आऊंगी तेरे यहां। फिर मिलकर खेलेंगे भी...।’ चिड़िया और चंद्रमा दोनों समझ गए थे कि अब दोनों सहेलियों की बातें लंबी चलेंगी। वे दोनों मुस्कुराए और चल दिए अपने-अपने घर। बादल का खरगोश भी फुदकता पीछे-पीछे चला जा रहा था।

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