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रावण_का_पुतला

#रावण_का_पुतला

कस्बों गाँवो में दशहरे का अलग ही माहौल होता है। मेले, मिठाई और मजा मस्ती । रावण के अहंकार और राम की मर्यादा से लोगो को कोई खास लेना देना नही होता , गरमा गरम समोसा और जलेबी ही इस त्योहार की पहचान होते हैं।

ऐसे ही एक दशहरे पर रावण दहन से एक दिन पहले शाम को मैं खरीदारी करके घर लौट रहा था कि चौथमल जी की दुकान के पीछे अँधेरे में मुझे कुछ हलचल दिखी। चौथमल जी कस्बे भर के फैमिली हलवाई थे, मुंडन से लेकर श्राद्ध तक कि भोजन व्यवस्था वे ही करते थे। दुनिया चांद पर पहुँच गयी मगर उनके इलाइची वाले पेढ़े आज भी जस के तस हैं। दिन के किसी भी पहर चले जाइये तीन या चार मजदूर वहाँ नाश्ता करते मिल ही जायेंगे। चौथमल जी स्वयं जब दुकान पर विराजमान होते थे तब उनके हाथ से बनती हुई लस्सी का दृश्य दिव्य होता था , लस्सी के लोटे को ऊपर ले जाते हुए जब लस्सी गिलास में उड़ेली जाती तो चौथमल जी की तिरछी नज़र ऐसी लगती मानो वे आश्वस्त हों कि उनका कारनामा और कोई नही कर सकता और साथ साथ लस्सी की कुछ बूंदे उड़ कर उनकी घड़े समान तोंद पर भी गिर जाती, जिसको उनकी मैली बनियान ढकने का असफल प्रयास करती प्रतीत होती थी और पूरा जोर लगाने पर भी आधा ही ढक पाती थी।

चौथमल जी की दुकान के पीछे छोटा सा मैदान था , खाली, जहां कबाड़ी बांस , बल्ली और टूटे फूटे फर्नीचर रख जाते थे। मैं थोड़ा करीब गया तो एक पुतला बड़े गुस्से में बैठा था। जिंदा पुतले को देख मैं तो घबरा ही गया और मारे डर के मन मे हनुमान चालीसा पढ़ने लगा। भूत पिशाच निकट नही आवे... की पंक्ति पर जैसे ही मैं पहुंचा की वो पुतला झटके से उठ खड़ा हुआ और बोला - "तुम्हे क्या लगता है हनुमान जी बचा लेंगे तुम्हे, उनके प्रभु रामचंद्र जी को चने चबवा दिए थे हमने , हमारी मर्जी के बगैर हमारी मूँछ का बाल नही उखाड़ सकता था कोई.. !"

मेरा माथा ठनका - "अरे, लंकेश आप? और इस हालत में ? कैसे ? क्यों? " मैं बोला

"ज्यादा होशियारी मत दिखाओ , हम देखना चाह रहे थे किस कबाड़ से उठा कर तुम लोग हमारा पुतला बनाते हो। अधर्मी कहीं के, हम लंकेश है लंकेश जिससे तुम्हारा इंद्र भी थर थर काँपता था और तुम दो बल्ली जोड़ के समझते हो तुमने रावण को बंदी बना लिया ?"

मेरे मुंह से निकल पड़ा - "नही लंकेश मैं इस लोगो मे से नही हूँ, मैं तो हमेशा से आपका प्रशंसक रहा हूँ, आप विद्वान वीर साहसी परम शिव भक्त.. "

मेरी बात को बीच मे ही काट के लंकेश मतलब लंकेश का पुतला बोला - "मालूम है मालूम है, तभी हमारे मारने की खुशी में समोसा जलेबी सूत के आ रहे हो" इस बार आवाज में थोड़ा और क्रोध था।

"है लंकेश, हमे तो दुःख ही है आपके चले जाने का , आप से ही तो राम है , आपके जाने के बाद तो राम जी का ही कोई ठिकाना नही, बेचारे तंबू में पड़े है कबसे"

"अरे वो तो होना ही था, उम्र भर मर्यादा मर्यादा करते रहे और उनके मर्यादित भक्तो ने ही ये हाल किया है उनका" रावण अब थोड़ा दुखी प्रतीत हुए मगर क्रोध चेहरे पर पहले जैसा ही था। आगे बोले - "तुम पिद्दी से अधर्मी मनुष्य मेरा पुतला जलाते हो, शर्म नही आती ? अपनी एक फूंक से तुम्हे ब्रह्मांड से विलुप्त कर सकता हूँ मैं। और तुम्हारे नेता, पजामा तोंद पे टिकता नही और आ जाते हैं मेरा वध करने, बाण प्रत्यंचा पर चढ़ाने की औकात नही है और अग्नि बाण चला देते हैं मुझपे, मैं प्रत्यक्ष सामने आ जाऊं तो वस्त्रों में ही विष्ठा निवारण हो जाये , स्वच्छ भारत के अभियान के तहत शौचालय तक जाने का भी बल नही बचेगा उनके घुटनो में "

मैं अवाक लंकेश को बस देख रहा था, मानो पुतला धीरे धीरे अपने विकराल रूप में आ रहा हो।

"पापी कहीं के। लंकेश को क्या तुमने ईद का बकरा समझ के रखा है कि जब चाहा काट डाला , अरे निर्लज मैं जमीन पर पैर पटक दूँ तो समस्त विश्व मे सुनामी आ जाये" लंकेश का पुतला, पुतला नही अब स्वयं दशानन ही लग रहा था।

"और क्या कहते हो? अच्छाई की बुराई पर विजय? तुम्हारी कौन सी भैंस चुराई मैंने? जिस राम की विजय का उत्सव मना रहे हो वो रोज मेरे पास आके तुम्हारे कुकर्मो के लिए आंसू बहाते हैं । जिसके होने न होने का फैसला तुम्हारी दो कौड़ी की अदालते करेंगी? और क्या बकते हो अहंकारी हूँ मैं? तुम्हारे नेताओं को देखा है ? तुम पाखंडी मनुष्य दो तीन गाड़ी खरीद के दो चार मकान बना के इतराते फिरते हो , तुम्हारे सबसे धनी सेठ की पूरी जायदाद मिलके मेरे रथ का पहिया नही खरीद सकते।"

मेरे काटो तो खून नही था ।

"छोटी छोटी बच्चियों के बलात्कार करते हो और मुझे व्यभिचारी कहते हो, जी करता है अपनी गदा के एक वार से पूरी मनुष्य जात को समाप्त कर दूं ताकि कम से कम ये जीव, पक्षी , वृक्ष तो चैन से रह सके जिनका जीना हराम किया हुआ है तुमने , खबरदार जो आज मेरा पुतला जलाया नही तो महादेव की सौगंध तुम्हारे सारे नेताओ के साथ तुम सबको टुकड़े टुकड़े कर ब्रह्मांड में बिखेर दूंगा फिर घूमते रहना अनंत काल तक आकाशगंगाओ में ,बेशर्म कहीं के।"

मैंने चुप रहना ही ठीक समझा कि अचानक मेरे कानों में जोर से मोबाइल की घंटी बजी

सुबह के पांच बजे थे और मोबाइल स्क्रीन पर किसी चुनावी दल का संदेश आया हुआ था - "हैप्पी दसरा"

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