सत्यजीत सेन एक सत्यान्वेशक
भाग - 1 -सत्यन्वेशक का पहला सत्यान्वेषण
( सुर्दशन बाबू की हत्या )
यह मेरा पहला उपन्यास हैं। आशा है आपको पसंद आए।
यह एक जासूसी उपन्यास हैं।
यह उपन्यास आप के मनोरंजन के लिए बनाया गया है और साथ ही यह कहानी इस समय से इस माहौल से हटकर पहले के समय पर आधारित है। जिसके द्वारा यह साफ़ दिखता है कि आज कल के समय में पहले के समय से कितना अंतर था।
पहले के समय में मित्रता मनुष्यता आज के समय से कितनी क्षेष्ठ थी यह सत्यजीत और अरूप की मित्रता से स्पष्ट होता है।
आज कल के युग में भले ही विज्ञान कई ज्यादा प्रगति कर चुका हो जो पहले के समय में ना रहा हो।
पर उनके पास ऐसे अनमोल गुण थे। विश्वास, मनुष्यता, सच्ची निष्पाप मित्रता , प्रेम , आदर भावना जो गुण शायाद आज कल के समय में विलुप्त से होते जा रहे हैं।
कहानी के मुख्य किरदार सत्यजीत सेन जो कि एक जासूस सत्यान्वेषक है ।जिनका यह पहला केस हैं। उनकी मित्रता अरूप बाबू से हो जाती है
और सत्यजित बाबू जिस प्रकार अरूप के किराया भी खुद ही अदा करते है । उनकी मित्रता का नाता अटूट है
दूसरे अरूप घोष सत्यजीत के मित्र हैं जो उनके कार्य में उनकी मदद करते हैं और किसी भी परिस्थिति में सत्यजीत का साथ नहीं छोड़ते।
कहानी में मुख्या रुप से बंगाल के कोलकाता शहर का वर्णन है ।
काहानी में जासूसी के साथ उस समय के रहन-सहन
का विवरण किया गया है ।
बात उन दिनों की है जब अरुप घोष यानि की लेखक अरुप बाबू ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से शिक्षा पूरी कर ली थी । और वह रविन्द्र नगर में एक बहुमंजिला मकान के तीसरी मंजिल पर रहते थे।
मकान बहुत बड़ा था। खिड़कियों और रोशनदानों से सजे हुए कमरे बहुत हवादार थे। दो बड़े कमरों का सेट था । लॉज के सामने वेसी ही दूसरी लॉज थी। दोनों एक जैसी ही दिखती थी। दोनों के बीच एक चौड़ी गली थी। गली के दोनों छोर मकानों से घिरे थे। घर के एक कमरे के बाहर एक बालकनी थी। उस बालकनी का मुंह गली की ओर था। वहीं से वें मोहल्ले का दर्शन कर लिया करते थे।
अरूप काम की खोज में था। पर कोई काम नजर में नहीं था। इसीलिए कुछ लेखन कार्य ही कर लिया करता था। इस काम में उनकी रुचि थी और धन भी अर्जित हो जाता था। वह अकेला ही रहता था। माता-पिता का भी कई वर्ष पहले देहांत हो चुका था। पहले रिश्तेदारों के साथ रहता था। पर शिक्षा पूरी करने के बाद किराए पर कमरा लेकर अकेले ही रहने लगा।
एक दिन सुबह 10:00 बजे वह नाश्ता करके अपनी बालकनी में बैठे अखबार पढ़ रहे थे। -क्या खबरें थीं ? केवल चोरी डकैती खून इत्यादि ।
ओह ! लगता है किसी ने गुनाहों की किताब लिख डाली हो।
तभी ऊपर की मंजिल वाले हालदार बाबू बोले अरे अरूप क्या छपा है आज के समाचार पत्र में ,
हालदार बाबू यहां के मकान मालिक हैं बहुत सज्जन, समझदार ,मिलनसार व्यक्ति नाटे कद के गोरे रंग के लगभग 60 के तो होंगे पर अभी भी चुस्त-दुरुस्त है।
उनकी बालकनी के किनारे पर सीढ़ियां हैं। जो अरुप की बालकनी की बगल में खत्म होती है जहां से वह रोज बालकनी मे आया करते हैं। पूछने पर पता चला कि पहले उनके बेटा बहू यहां रहा करते थे। इसीलिए आसानी के लिए मार्ग बनाया गया था ।अब वह यहां नहीं रहते थे।
हालदार बाबू अरुप की तरफ आने लगे । तब अरुप ने उनके प्रश्न का उत्तर दिया -कोई खास खबर नहीं है केवल इश्तेहार और गुनाह
बाबू सीढ़ियों से नीचे उतर कर अरुप की सामने वाली कुर्सी पर आराम से बैठ गए। और एक क्रोध भाव लिए हुए बोले "मनुष्य भी कितना स्वर्थी हो गया कि आपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए क्या क्या कर रहा है। और अपना हाथ माथे से लगा लिया
हां हालदार बाबू क्या करें कलयुग है।
वैसे कुछ पता भी चला क्या कौन आरोपी है ?हालदार बाबू ने अरूप से कहा
अरुप -कुछ ज्यादा तो नहीं पर 7 महीनों पहले जो एक हत्या हुई थी उसका आरोपी पकड़ा गया है । .देवदत्त
"देवदत्त नाम देवताओं का और काम शैतानों का "
हालदार बाबू ने व्यंग्य करते हुए कहा ।
फिर वह कुछ देर शांत रहकर फिर बोले इन्हें तो फांसी पर लटका देना चाहिए ।
अरुप को तो उनकी बातों में बहुत आनंद आ रहा था ।
उसने व्यंग्यात्मक ढंग से कहा -हां चढ़ा देना चाहिए
फिर अखबार मेज पर रखा और हालदार बाबू से पूछा चाय पियेंगे ? उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा -चाय वाय कुछ नहीं अभी पीकर आ रहा हूं ।
लगभग 10:30 हो चुके थे सूरज का प्रकाश भी चारों ओर फैल गया था गली से अनेकों प्रकार के व्यक्ति आते जाते अरुप उन्हे ही देख रहा था । बात करने के लिए अब कोई खास विषय नहीं था इसीलिए वह गली की ओर ही देख रहा था । हालदार बाबू उसी अवस्था में बैठे रहे उन्होंने कुछ समय बाद अपनी कलाई में बंधी घड़ी से समय देखा और बोले चलो अरूप बाबू मुझे आज बहुत काम है शाम को आऊंगा और चाय जरूर पियूंगा।
अरुप ने मुस्कुरा कर जवाब दिया जरूर आइएगा आपका ही घर है। हालदार बाबू सीढ़ियों से अपने घर की ओर चल दिए। और अरुप भी अपने बैठक कमरे में चला गया वह अपनी आधी लिखी हुई पुस्तक लेकर उसे लिखने लगा। फिर करीब करीब 2 घंटे बाद वो रसोई में आया और दिन का भोजन बनाने की तैयारी में जुट गया था ही की उसने देखा रसोई में कुछ वस्तुएं समाप्त हो गई हैं और कुछ होने वाली है।
इसलिए उसने सोचा कि अभी बाजार से सामान खरीद लेता हूं बाद में समय नहीं मिलेगा । वो दीवार पर टांगे कपड़े के बड़े थैले को अपने कंधे पर लटका कर अपने कमरे में गया । और मेज की दराज से कुछ पैसे निकालकर अपनी जेब में डाल दिए फिर मकान के दरवाजे पर ताला लगा दिया और सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए गली में आ गया।
दुकानें गली से अधिक दूर नहीं थी इसीलिए वो पैदल ही आया जाया करता था। इस बीच गली से लोग आ जा रहे थे कभी कोई जान पहचान का भी मिल जाता ।
तभी अचानक एक सज्जन अरुप की तरफ आ रहे थे शर्ट पैंट पहने हुए पैरों में काले रंग के चमड़े के जूते थे। और मुख मंडल पर एक प्रकाशीय आभा थी उन्होंने चश्मा लगाया था और हाथों में और कंधे पर दो बड़े बड़े बैग थे लगभग 27 -28 की आयु के मालूम हो रहे थे यानी लगभग उनकी ही उम्र के थे। वह अरुप के सामने आकर बोले - नमस्कार क्या आप पुरुषोत्तम हालदार जी के घर का पता बता सकते हैं ?
पुरुषोत्तम हालदार यानी की अरूप बाबू के मकान मालिक । अरुप - जी जरूर
वह घर से अधिक दूर नहीं था इसीलिए उन्होंने उनसे कहा आइए मैं आपको वहां तक ले चलता हूं अरुप उन्हें अपने मकान के सामने तक ले आया और बोला बाबू आप चौथी वाली मंजिल मैं चले जाइए वही उनका घर है । वे खुश हो गए और धन्यवाद करने लगे
फिर अरूप दुकान की ओर चलने लगा अरुप ने सोचा हालदार बाबू से तो अधिक कोई मिलने जुलने आता भी नहीं तो फिर यह कौन था। कहीं उनका बेटा तो नहीं नहीं उनका बेटा होता तो पता क्यों पूछता।
फिर उन्होने अपने मन में बिछे प्रश्न जाल को समेटे हुए दुकान से सामान लिया और घर वापसी की।
अरुप ने घर पर आकर दिन का खाना तैयार किया और खाना खाकर कुछ समय के लिए लेट गये कब आंख लग गई पता ना चला जैसे ही नींद खुली वह हाथ मुंह धो कर चाय पानी पीकर बालकनी में चले गये । गली मैं बहुत शांति थी ठंडी हवा चल रही थी।
अरुप -ओह आज की शाम कितनी सुहावनी है ।
अरूप बालकनी में आकर धीमी आवाज में गाना गुनगुनाने लगे " ये शाम मस्तानी मदहोष किए जाए मुझे डोर कोई खींचे तेरी ओर लिये जाए "
कुछ लेखन कार्य कर लेता हूँ । अरुप के मन में विचार आया और वह अंदर ही जाने लगी कि
अचानक उन्हे याद आया हालदार बाबू ने आने को बोला था आए नहीं आज मैं ही हो आऊ वो बालकनी के दरवाजे पर कुंडी लगाकर हालदार बाबू की बालकनी में गये और दरवाजा खटखटाने लगे दरवाजा उनकी पत्नी दमयंती जी ने खोला वह बहुत मधुर स्वभाव की महिला थी और अरुप को बेटे के समान ही मानती थी।
बाकी की कहानी अगले भाग में -