रैग पिकर Sudhir Kamal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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रैग पिकर

रैग पिकर

अनेकों कामों के साथ-साथ एक और काम था जो जीवन में मुझसे कभी न हो सका और वह था गुरू बनाना। अक्सर सुनने में आता था कि फलां के गुरू महाराज पधारने वाले हैं या उनके गुरू महाराज के प्रवचन इस समय विलायत में चल रहे हैं या ढिकां के गुरू महाराज ने समाधि ले ली है। गुरू महाराज पधार रहे हों तो पिताजी को, जो जिस ग्रेड के पिता हुये, पंडाल में फट्टी बिछाने या बिस्तर लगाने या फलाहार की व्यवस्था करने का जिम्मा दे दिया जाता था, गोया कि ऐसे गुरू पर तो हजार बाप कुर्बान! यजमान में गुरू प्रवास की अवधि में अनेक परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगते हैं, जैसे एक तो वह शुद्ध हिंदी बोलने लगता है, -- ‘ईश्वर की कृपा, चरणरज, महिमा, मैं तुच्छ प्राणी’ जैसे शब्द हर दस-पंद्रह मिनट में एक न एक बार अवश्य मुंह से निकालता है। दूसरा कि वह उन दिनों अत्यंत विनम्र हो जाता है और उसकी कोशिश यह होती है कि अधिक से अधिक लोगों के पैर छू लिये जायें, तीसरा यह कि उसकी वेशभूषा बदल जाती है, वह धोती-कुर्ता या बंडी पहनने लगता है और माथे पर बड़ा सा टीका लगा लेता है। कुछ और प्रपंची हुआ तो सामान्य अभिवादन की जगह अस्थायी तौर पर ”राधे, राधे” या ”जय सांई राम” जैसे शब्द उचारने लगता है और दस-पांच लोगों के बीच में बैठा हो तो आंखें मूंद के भक्ति सागर में जब-तब आकंठ डूब जाता है और भक्ति सागर से नश्वर संसार में वापस आते ही बिलख उठता है, -- “अहा! कैसा सुंदर है! अद्भुत आनंद है! कैसे दिव्य दर्शन हुये ………..! अरे भल्ला जी, कब आगमन हुआ। मैं तो जरा ध्यान में रम गया था!” समाधि के संबंध में बचपन की अज्ञानता के कारण मेरे मन में कुछ अजीब सी धारणायें बन गयी थीं जैसे कि गुरूजी ने अभी तो ’वालंटरी’ समाधि ले ली है पर जरूरत न पड़ जाये, फिर उठ बैठेंगे, कब्र फाड़कर निकल पड़ेंगे। यह कहना बड़ा अपमानजनक लगता है कि हमारे गुरूजी मर गये! मरता तो आम आदमी है, गुरू केवल समाधि लेते हैं। मरा हुआ आम आदमी परमानेन्ट मर चुका होता है, गुरूजी टेम्प्रेरी रेस्ट लेने के लिये समाधि में चले जाते हैं! गुरूओं की एक निर्धारित यूनीफार्म भी होती है। उत्तरोत्तर उत्तल होती तोंद, डिजायनर दाढ़ी, बहुत सी मालायें जो गले और बाहों में टंगी हों, बड़ी-बड़ी आंखें, खड़ाऊं, बड़ा सा तिलक, जनेऊ और चश्मा। पूरे खेल में मात्र चश्मा ही वह वस्तु है जो गुरू के अध्ययनशील या ज्ञानी होने का मात्र संकेत देता है,वह प्रमाण कदापि नहीं होता। इससे कम डेकोरेशन होने पर गुरू का ग्रेड भी ’लो’ होता जाता है। गुरू अक्सर बनाये जाते हैं या मान लिये जाते हैं या जैसा कि आजकल चलन है, नियुक्त कर लिये जाते हैं। चेला गुरू का चयन करते समय देखता है कि इस गुरू के कितने चेले पहले से हैं, कितने प्रभावशाली चेले हैं, गुरूजी विदेश भ्रमण कितनी बार कर आये हैं, गुरू जी का शरीर तथा व्यक्तित्व कैसा है, गुरूजी की टी.आर.पी. कितनी चल रही है। वहीं गुरू चेले का चयन करते समय उसका पद, पैसा, प्रतिष्ठा, पत्नी, पुत्रियों आदि की पूरी जानकारी प्राप्त करता है। न तो चेले को गुरू के ज्ञान से कोई लेना देना होता है, न गुरू को चेले की भक्ति भावना से। गुरूओं की स्टॉक मार्केट वैल्यू इनके चेलों की सूची तय करती है। पहले हर बड़े आदमी जैसे उद्योगपति, राजनेता या बड़े अफसर का एक अदद गुरू आवश्यक रूप से होता था। कालांतर में मध्यम वर्ग के लोग भी गुरू महिमा समझ गये, छांट-छांटकर गुरू बनाये जाने लगे। इसलिये अनेक छंटे हुये लोग मध्यम वर्ग की बड़ी मांग को ध्यान में रखते हुये इस लाइन में उतर लिये और गुरू बन लिये। गुरूजी की समारोहपूर्वक पदस्थापना होती, जिसका खूब प्रचार होता। मां-बाप की टांग खींचने वाले अनेक लोगों को मैंने सपरिवार गुरूओं की टांगों से लिपटते और चरणों में लोटते देखा है। लोग गुरू चेले का खेल गर्वपूर्ण तरीके से खेलने लगे। एक गुरू के दो चेले कहीं मिल जाते तो पुलकित हो कर गले मिलते, गुरूभाई जो हैं, सगे भाई को भले ही कटार भोंक देने की इच्छा रखते हों। एक और बात, ऐसे गुरू लोग खाते कभी नहीं हैं, सिर्फ लेते हैं। अन्न खाने से चूंकि सांसारिकता में फंसने का खतरा रहता है लिहाजा भक्तों के कल्याणार्थ वे मात्र मलाईदार दूध, शहद, फल, काजू, बादाम, पिश्ता आदि से काम चलाते हैं। भक्तगण सगर्व कथन किया करते, --“हमारे गुरूजी ने कई साल पहले विश्व कल्याण के लिये अन्न का त्याग कर दिया था।“ मैं सोचता कि यदि बिना मेहनत के जीवन भर ये सब पदार्थ मुझे मिलते रहने की गारंटी हो तो मेरे घर के कुत्ते भी अन्न से मुंह फेर लें। सास-ससुर से तो क्या, उनकी फोटो तक टांगने से परहेज करने वाली स्त्रियां बड़ी श्रद्धा से अधलेटे गुरूजी की दिन भर की थकान दूर करने के लिये पैर दबाने में संकोच की जगह सौभाग्य मानतीं। घर की ललनायें जो चाचा-मामा के साथ मंदिर जाने को भी इज्जत की कसौटी पर कस कर देखने में विश्वास रखती थीं, वे अक्सर गुरूजी की गोद में बैठकर आशीर्वाद लूटा करती थीं। पर कई बार गोद में ललनाओं के बैठने के खेल में गड़बड़ी होने के समाचार भी मिले हैं। कुछ चरम टाईप के गुरू मलाई, पिश्ता, बादाम के दुष्प्रभाव के वशीभूत होकर गोद में बैठने वालियों को आशीर्वाद के अतिरिक्त भी कुछ दे दिया करते थे जिससे गोद बैठाई की प्रक्रिया गोद भराई की रस्म में समाप्त होती थी। इतना सब समझ जाने के बाद भी मैं कभी यह न समझ पाया कि ये गुरूगण वास्तव में अपने चेलों को कौन सा ज्ञान देते हैं। एक अवसर पर मैंने किसी गुरू के शरीर से दुबले-पतले चेले से जिज्ञासा दिखाते हुये पूरी विनम्रता से पूछने का रिस्क उठाया कि उसे उसके गुरूजी से कौन सा ज्ञान प्राप्त हुआ है। उस चेले ने मुझे घोर अधम मानते हुये बड़ी घृणा से मेरी ओर देखा और फिर आंखें फेर लीं। उस समय मैं सहम तो गया था पर तब मैं यह न जान पाया कि दरअसल उसे खुद ही नहीं पता था कि गुरूजी ने उसे कौन से ज्ञान से सराबोर किया था। बाद में मुझे जैसे-तैसे समझ आ गया कि ये गुरू लोग संस्कृत के दो तीन श्लोक हर चेले के कान में उंड़ेल देते थे, न तो चेला कभी उनका अर्थ समझ पाता था, न ही उसे अर्थ से कुछ लेना-देना होता था। वह तो गुरूजी के मुंह व उसके कान के संगम होने मात्र से मदमस्त हो जाता था!

मनुष्य का जीवन बड़ा कठिन होता है। जब कोई व्यक्ति मुसीबत में फंसता है तब उसे मार्गदर्शक की जरूरत होती है। जो मार्ग दिखा दे, वही गुरू! कुछ भाग्यशालियों को छोड़ दें तो लगभग हर मनुष्य अपने जीवन में अनेक बार ऐसी स्थितियों से दो-चार होता है जब उसकी बुद्धि लाचार हो जाती है। रोजगार, बीमारी, जरूरतें आम आदमी को मशीन बना देती हैं। संसार में हर व्यक्ति खुशी ढूंढता है, आनंद की तलाश करता है पर जब विपत्तियों का कहर टूटता है तो वह बिलबिलाकर रह जाता है, तब उसे कोई रास्ता नहीं सूझता। मनुष्य निराश व हताश होता जाता है और क्रमशः अपना आत्मविश्वास खोने लगता है। ऐसे में तब गुरू के सुनाये श्लोक सुध नहीं आते! ऐसे में गुरू के चश्मे की भी पोल खुलती है, वह चश्मा गुरु के ज्ञान का नहीं बल्कि मात्र उनकी आंखों की कमजोरी का प्रतीक सिद्ध होता है! यह रहस्य समझ आ जाने के बाद मैं एक अदद गुरू न बना पाने के लिये कभी नहीं पछताया। मैंने पाया कि जीवन का सार/ रहस्य समझाने के लिये सैकड़ों गुरू आपके चारो ओर बिखरे पड़े हैं, जरूरत है उनसे चुपके से ज्ञान प्राप्त कर लेने की। नीली छतरी के ऊपर बैठा परम गुरू, जो तमाम गुरूओं का भी गुरू है, आपको परोक्ष अपरोक्ष रूप से इशारे करता है। यदि आप किसी गुरू के झांसे में फंसकर अपनी आंखें, कान और आत्मा बंद नहीं कर चुके हैं तो आपको उसके इशारे साफ-साफ नजर आयेंगे। मुझे ऐसे ही मिला एक गुरू, एक नन्हा बच्चा, एक मासूम सा रैग पिकर!

सन् 2005 के जून का पहला सप्ताह जबलपुर को भट्ठी की तरह तपा रहा था। हांफते घुरघुराते एयरकंडीशनर गर्मी के सामने हथियार डाल चुके थे। रशेल चौक के होटल शिखर पैलेस के एक ए.सी. कमरे में मेरे पूरे तीन दिन बेहद परेशान हाल बीते। बीते तीन दिनों में मैंने जो भी बात की, जो भी काम किया, जो भी योजना बनायी, बिगड़ गयी। बड़े भाई साहब के रोड एक्सीडेंट ने हमें लगभग 27-28 लाख से तौल लिया। डेढ़ वर्ष से तनख्वाह बंद थी, मैंने विभाग के खिलाफ एक कोर्ट केस कर रखा था। परिवार के चार बच्चे भोपाल, भुवनेश्वर, मुंबई के कालेजों में पढ़ रहे थे जिनके खाने, खर्चे, फीस की जिम्मेदारी मेरे ऊपर थी। वकील फीस एडवांस में ऐंठ चुका था, अब उसका कहना था कि देखिये केस कितना वक्त लेता है, साल, दो साल या और अधिक। यह वही वकील था जिसने केस स्टडी करने के बाद और फीस लेने के पहले कहा था कि धुर्रे उड़ा दूंगा अधिकारियों के, डेढ़ महीने से अधिक केस टिक ही नहीं सकता। मित्रता का दम भरने वाले लोगों ने किनारा कर लिया। शत्रुदल पूरी ताकत से जुट गया। रिश्ते के एक साले ने मेरा फोन उठाना बंद कर दिया। किसी दूसरे मोबाइल नंबर से फोन लगाने पर एक बार फंस तो गया पर यह कह कर फौरन फोन काट दिया कि जीजाजी, अभी गाड़ी चला रहा हूं, घर पहुंचकर फोन करता हूं। फोन पर उसके पालतू तोते की आव़ाज आ रही थी, मैं चाहकर भी कह न पाया कि भैया, क्या तोते को पिंजरे में लेकर बाजार जाते हो। कहा इसलिये भी नहीं क्योंकि मुझे मालुम था कि इसे दगाबाजी चाहे जितनी आती हो, गाड़ी चलानी तो बिल्कुल नहीं आती। जहां तक मांग सकता था, सभी से उधार ले चुका था, अब कहीं से मिलने का आसरा न था, न ही केस सुलझता दिखता था। अब मैं पूरी तरह से जीवन से निराश हो चुका था, आंखों और मन के सामने अंधेरा छा चुका था। मैं बुरी तरह से टूट चुका था, यहां तक कि जिंदगी से भी बेजार हो चुका था। अब शिखर पैलेस जैसे मंहगे होटल में रूकने और कार की सवारी करने की भी स्थिति न बची थी पर मनुष्य इतना ईमानदार नहीं होता कि समाज को अपनी वास्तविक स्थिति जता दे। जर्जर पुराने घरों की दीवारों में प्लास्टर चुपड़ कर नया रंग पोत कर आलीशान बनाने की कोशिश करने की मनुष्य में स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। उस दोपहर अनिर्णय की स्थिति में पूरी हताशा के साथ मैंने वापस रीवा चले जाने का निर्णय लिया। पैर कहीं पड़ते थे, हाथ कहीं जाते थे, मन कहीं। मन के एक कोने में एक सच्चे मार्गदर्शक की चाहत पनप रही थी, एक प्यास भी जो ठंडी छांव का एक छोटा कतरा तलाश रही थी। अकेलेपन का एहसास कितने घातक रूप से मनुष्य के आत्मविश्वास को चाट जाता है, मैंने तभी महसूस किया।

बेमन से होटल का हिसाब करवाकर मैंने सामान कार में पटका। पूरे पैसे न थे सो होटल में पुराने कस्टमर होने का फायदा उठाया, उधार कर दिया। पूरा पेमेंट कर देता तो पेट्रोल कहां से भरवाता, मैं किसी पेट्रोल पंप का पुराना कस्टमर नहीं था। होटल के सिक्यूरिटी गार्ड की सलामी से खीझ उपजी तो टिप की लालच में सामान कार तक ढोने को लालायित बैरे को लाल आंखों से घूरा। कार स्टार्ट कर ए.सी. फुल में कर लिया, बाहर आग जो बरस रही थी! गियर लगाया ही था कि एक सात-आठ साल के बच्चे को कार का सीसा ठकठकाते पाया। नंगे पैर, पिचके पेट और धूल से सने उलझे बालों वाले लड़के की धंसी आंखें दया की बजाय घृणा ज्यादा पैदा कर रही थीं। पीठ में लदी प्लास्टिक की बोरी ही उसे व्यावसायिक भिखारी से अलग कर रही थीं, -- वह एक रैग पिकर था। उसकी खामोश घूरती आंखों ने मेरे क्रोध को चरम पर पहुंचा दिया, मेरी नसें तन गयीं, मुट्टियां भिंच गयीं। आज इसका पिटना, पिटना ही नहीं, बुरी तरह से लात खाना तय है। क्रोध का चरम भी कई बार मनुष्य को क्या करूँ, क्या न करूँ, कहां से शुरू करूँ -- की स्थिति में पहुंचा देता है। इसी अवस्था में मैंने सिर के इशारे से उससे पूछा, --‘क्या है?’ कांच के पार से ही उसने हाथ की ऊंगलियाँ मुंह के पास लाकर बिना ओंठ हिलाये खामोशी से कहा, --‘भूख लगी है!’ मैंने अंगूठे व ऊंगली को मिलाकर इशारे से फिर पूछा, --‘पैसा चाहिये?’ लड़के ने बिना ओंठ हिलाये केवल सिर हिलाकर जवाब दिया, --‘नहीं!’ उसने फिर से हाथ की ऊंगलियां मुंह के पास लाकर संकेत दिया, --‘भूख लगी है!’ कुछ विस्मय, कुछ क्रोध के अतिरेक और कुछ अनजाने से भावों के वशीभूत मैंने कार बंद कर दी, कांच नीचे करके लड़के से पूछा, --“क्या है बे?” उसने इस बार मुंह के साथ पेट को भी शामिल करते हुये भूखे होने का इशारा किया, --‘खाना चाहिये!’ तब तक मन कुछ विचित्र किस्म के भावों में तैरने लगा था। अनेक बार अनिर्णय की स्थिति मनुष्य को नये प्रयोग करने हेतु भी प्रेरित करती है। मैं उस लड़के की ढिठाई से अचंभित था पर कहीं अंदर से यह आवाज भी आ रही थी कि चलो आज इसे संतुष्ट कर ही दिया जाये। मैं कार से उतर पड़ा, मुझसे मात्र चार फिट की दूरी पर खड़ा था वह लड़का। अब मैंने उसे ठीक तरह से देखा, नंगे काले आबनूसी बदन पर सिर्फ एक बदरंग चड्ढी, नंगे पैर, धंसी हुई छोटी आंखें, छाती की हड्डियां बाहर झांकती हुई, पीठ पर प्लास्टिक की बोरी। नहाना और तेल तो जैसे उसके जीवन की डिक्शनरी में ही न रहे हों। मेरा शरीर एक मिनट में ही लू से जलने लगा, वह आंखें झुकाये ऐसे खड़ा था जैसे बसंत ऋतु की किसी शाम को किसी पार्क में खड़ा हो, पूरा निःश्चल, पूरा अप्रभावित! उसने मुझसे आंख नहीं मिलाई, थोड़ा सा पलकें उठायी थीं कि मैंने फिर इशारे से पैसे के लिये पूछा, उसने फिर इंकार कर दिया। कोई पचास फिट की दूरी पर इमली के एक पेढ़ के नीचे खड़े एक ठेले तक मैं अपने भावों को ढोता हुआ अनमना सा जा पहुंचा। मांगने पर ठेले वाले ने झिझकते हुये कहा, --“साहब, गर्मी बहुत है। सुबह के समोसे हैं, आप मत लीजिये।“ यही खिलाऊंगा इसे -- ऐसा विचार कर मैंने कहा, --“मेरे लिये नहीं है, तुम दे दो।“ ठेले पर कुल बचे दो समोसे कागज के एक लिफाफे में अब मेरे हाथ में थे। इस बार मैं तेजी से कार तक लौटा। लड़का यंत्रवत खड़ा था, चेहरा बेभाव! हाथ बढ़ाने पर मैंने लिफाफा उसके हाथ में पटक सा दिया। लड़का बड़े इत्मीनान से बोरी को जमीन पर रखकर कार के ठीक आगे जमीन पर बैठ गया। वह तवे जैसी जमीन पर बैठा था और उसकी नंगी पीठ घंटो से धूप में तपी कार के बंपर से टिकी थी। एक बार भी मेरी तरफ देखे बिना उसने खाना चालू कर दिया, कोई हड़बड़ी नहीं। आराम से टिककर खा रहा था वह लड़का। आदमी का बच्चा! आस-पास की दुकानों के अंदर से लोग मुझे घूर रहे थे, इस सबसे बेखबर वह धीरे धीरे समोसे खाता रहा, मैं उसे एकटक देखता रहा। कार से टिककर ऐसे बैठा था जैसे कार उसके बाप की हो। क्या सचमुच उसके मन में यही भाव थे कि तुझे जाने नहीं दूँगा, तू यहीं रुक, यहीं बैठ कर खाऊंगा, जब तक बैठा हूं तू मुझे खाते हुये देख! बासी समोसे के एक एक कण का भरपूर मजा लूट रहा था वह, न धूप से बेहाल, न गर्मी से, न अपने अभावों से उद्विग्न, न फटेहाली से तंग। सिर्फ इतना ख्याल था कि जो अभी मिला है, जो कुछ भी अपने पास है, वह किसी से तो अधिक ही है, अभी उसका आनंद लो! अभी समोसे के आकार या बासीपन को बीच में कतई न आने दो, अभी तो सिर्फ मजा लो! उसकी तरफ भी मत देखो जिसने ये दिया है, देने वाला तो कोई और है!

समोसा खत्म कर न जाने क्या सोचकर उसने खाली लिफाफा अपनी बोरी में डाल लिया और उठ खड़ा हुआ। दायें हाथ से बोरी पीठ पर लादी, बांयें से मुंह रगड़ कर साफ किया। अब उसने फिर मुझसे आंख मिलाई। मैंने पूछा, --“और समोसा चाहिये?” उसने इंकार में सिर हिलाया। मैं विस्मित था, अत्यंत अचंभित भी, मुझे पूरी उम्मीद थी की वह और समोसे मांगेगा! मैंने अंतिम अस्त्र चलाया, --“पैसे चाहिये?” उसने फिर इंकार में सर हिलाया और मेरी तरफ देखकर एक किंचित स्मित मुस्कान उसके ओठों पर तैर गयी। वह मुस्कान जिसे हजारों हजार लियोनार्डो द विंसी कभी भी कैनवास पर उकेर न पायेंगे। एक क्षण के लिये लगा उसकी यह मुस्कान उसके ओठों से निकल कर आसमान में सैकड़ों बिजलियों की तरह कौंध कर मेरे सीने में उतर गयी। मैं विस्मित सा खड़ा था, मैं ऐसे गंभीर सबक के लिये बिल्कुल तैयार न था। लड़का पीठ पर बोरी लाद कर सीधा चला गया, बिना एक बार भी पीछे मुड़कर मुझे देखे हुये। ऐसा था वह नन्हा रैग पिकर!

मुझे गुरूओं की क्या कमी है भला!

Copyright : Sudhir Kamal/XIX1213/MP