इम्तिहान भाग 3 - शुरुआत Pranav Pujari द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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इम्तिहान भाग 3 - शुरुआत

वो पहला दिन था गौरव का दिल्ली में। कंपनी की तरफ से रहने की पूरी व्यवस्था थी। उसने सोच लिया था कि सारा सामान कमरे में रखने के बाद, वो आज ही अंकिता से मिलने जाएगा। उधर अंकिता को कोई खबर नहीं थी गौरव के दिल्ली आने की। शाम के करीब चार बज गए थे उसे, सारा सामान व्यवस्थित करने में। पूरा थका हुआ गौरव अब सो जाना चाहता था। पर सो गया तो अंकिता से नहीं मिल पाएगा, इसलिए उसने यह विचार त्यागा और ऑटो में बैठकर अंकिता के हॉस्टल की ओर चल दिया।
आधे घंटे से ज्यादा समय लगा उसे हॉस्टल पहुँचने में। पाँच बजने में कुछ ही मिनट शेष थे। पर अब मिले कैसे, ये तो उसने सोचा ही नहीं था। कॉल पर वो बात करेगी नहीं, गर्ल्स हॉस्टल के अन्दर वो जा नहीं सकता, अंकिता अगर हॉस्टल से बाहर आए तो ही बात हो पाएगी। अब वो किसी को जानता तो था नहीं, तो उसने गार्ड से ही बात करने की सोची। "नमस्कार गार्ड साहब कैसे हैं" गौरव की इस बात पर गार्ड ने सिर्फ़ सिर हिलाकर जवाब दिया। "अंकिता जोशी से मिलना था, बुला देंगे आप ? मैं उनका दोस्त हूँ, गौरव तिवारी, पर मेरा नाम मत बताना उन्हें, सरप्राइज देना है" गौरव को अंदेशा था कि शायद उसका नाम सुनकर अंकिता बाहर ही न आए। इसपर गार्ड के उत्तर ने गौरव को निरुत्तर कर दिया, "देख भाई, दस साल हो गए मुझे इसी हॉस्टल में, तेरे जैसे लोग रोज आते हैं यहाँ, सब दोस्त ही बोलते हैं खुद को। अगर दोस्त है तो नंबर पर कॉल कर और बुला ले गेट पर, मुझे कोई आपत्ति नहीं, ठीक है।" "कॉल ही तो नहीं कर सकता, आप बुला दीजिये ना, मैं सच बोल रहा हूँ" गौरव ने एक आखिरी कोशिश की, पर गार्ड उसकी बात अनसुनी कर अपने फ़ोन पर लग गया। अब कोई और चारा तो था नहीं, गौरव ने अपनी किस्मत के सहारे ही इंतज़ार करने का सोचा। हॉस्टल के गेट से करीब बीस मीटर की दूरी पर एक चाय की दुकान थी, गौरव वहीं जाकर एक बेंच पर बैठ गया, और हॉस्टल के गेट पर निगाहें गड़ा दीं। वो क्या बोलेगा, कैसे बोलेगा, यही विचार करते हुए साड़े छह बज गए, पर अंकिता से मिल पाने के दूर-दूर तक कोई आसार नहीं नज़र आ रहे थे उसे। तभी गेट से बाहर निकलते हुए उसे साक्षी दिखी, अंकिता की तस्वीरों में दिखने वाला एक चेहरा उसका भी था। पास की एक दुकान से उसने कुछ सामान लिया, गौरव ये सब देख रहा था। उसे पता था यही इकलौता और आखिरी मौका है उसके पास, पर बात करे तो करे कैसे, वो तो गौरव को जानती भी नहीं होगी। साक्षी हॉस्टल वापस जा ही रही थी कि गौरव उठा और जल्दी से उसके पास जा पहुँचा, "हाइ साक्षी ! मैं गौरव तिवारी, अंकिता का दोस्त।" गौरव की बात खत्म होने से पहले ही साक्षी बोल पड़ी, " हाइ ! हाँ मैं पहचान गई, वो अक्सर जिक्र करती है अपका, आज यहाँ कैसे?" यह सुनकर गौरव ने राहत की सांस ली, "उससे मिलना था, आप बता देंगी उसे ?" कितनी मासूम शक्ल बनाकर बोला था गौरव ने ये। साक्षी को पता था अंकिता और गौरव के बीच जो कुछ भी हुआ था। "ठीक है, आप यहीं रुको, मैं बोलती हूँ उसे", इतना कहकर वो अन्दर चली गई। गौरव थोड़ा खुश, थोड़ा घबराया हुआ सा, फिर चाय की दुकान पर लगे बेंच पर बैठ गया। इतनी टेंशन में चार बार चाय पी चुका था वो। आठ बजने को आए थे, पर न अंकिता आई, और न ही उसका कोई जवाब। "भाईसाहब उठो, अब दुकान बंद करनी है", चाय वाला बोला। उसके पैसे देने के बाद, अब गौरव ने वापस अपने कमरे पर जाने का फैसला किया, अगले दिन उसे ऑफ़िस भी जाना था।
ऑटो से लौटते हुए, गौरव यही सोचता रहा कि साक्षी ने अंकिता को बताया भी होगा या नहीं कि वो मिलने आया था। अगर नहीं बताया होगा, तो अगली बार मिलने पर अच्छे से खबर लेगा उसकी। लेकिन अगर बताया होगा तो .. इस खयाल से ही उसका मन बैठ गया। जो भी वजह रही हो, गौरव के तीन घंटे इंतज़ार की अग्नि में स्वाहा हो गए थे।
कमरे पर पहुँचकर वो खाना खाने ही वाला था, कि एक मेसेज आया उसके पास, अंकिता का। "तुम मेरे हॉस्टल आए थे ?" गौरव ने "हाँ" में जवाब दिया, उसकी धड़कनें भाग रहीं थी, बहुत तेज। "क्यूँ आए थे, समझ नहीं आता क्या एक बार कहने पर ? बात नहीं करनी तो नहीं करनी, मेरा पीछा करना छोड़ दो, समझे। इज़्ज़त करती हूँ इसलिये ज्यादा कुछ बोल नहीं रही हूँ, वो भी करना ना भूल जाऊँ कहीं।" अंकिता की इस बात पर गौरव की आँखें पूरी नम थी। गम ये नहीं था कि अंकिता जान बूझकर उससे मिलने नहीं आई, ये भी नहीं कि वो इतने बुरे तरीके से, गुस्से में उससे बात कर रही थी। गौरव को ठेस लगी तो बस ये सुनकर कि अंकिता को उसका 'प्यार', अब 'पीछा करना' लगने लगा था। वह इतना आहत हुआ इस बात से कि अब आगे कुछ भी बोल पाने की स्थिति में नहीं था। "ठीक है, अब से नहीं करूँगा कुछ भी", इतना कहकर गौरव ने फोन बंद कर दिया। पूरा टूट चुका था वो आज। उसने खाना-वाना सब छोड़ा, लाइट्स बंद करी और बिस्तर पर पड़ गया। अपने गम से घिरा हुआ, अपनी बिखरी यादें गिनता हुआ, अपने टूटे सपने समेटता हुआ, उस पूरी रात रोया था वो, और शायद अंकिता भी। अगली सुबह, उसकी सूजी हुई आँखें रात का पूरा हाल बयान कर रही थी और ऑफ़िस के पहले दिन ही, वो सबसे नजरें बचाता फिर रहा था।
माना गलती की थी गौरव ने, पर उस गलती को सुधारने के लिए बहुत ज़िद्दो-ज़हद भी की। जितना कर सकता था, सब कुछ कर चुका था वो। लेकिन अंकिता तो अकेले ही काफी दूर निकल आई थी, जब गौरव उसके साथ नहीं था। उसे अभी बस अपनी कोशिशें ही नज़र आ रही थी, गौरव का प्यार, उसके बीते सालों के प्रयास, सब भूल गई थी शायद वो। गौरव ने कितने सालों से उनके रिश्ते को सहेज कर रखा था, इंतज़ार कर रहा था सही समय का जब वो अंकिता को अपने दिल की बात कह सके, उन दोनों के रिश्ते को एक नया मुकाम दे सके। पर दोस्ती खराब हो जाने के डर से वो हमेशा चुप रहा। इस दौरान अंकिता ने भी उसका पूरा साथ दिया था। पर कई बार ऐसा भी था, जब वो बिलकुल अकेला था, लेकिन उसने कभी हिम्मत नहीं हारी। उसके मन में अब यही बात खटक रही थी कि अंकिता चंद महीने भी उसके लिए नहीं रुक पाई। एक बार बोला तो होता कि क्या परेशानी है, या वो क्या चाहती है। इतना बड़ा फैसला अकेले ही ले लिया, उसपर क्या बीतेगी, कुछ भी नहीं सोचा। अंकिता को 'खुदगर्ज' घोषित कर दिया था अब उसने, यही उसके प्यार की हार थी।
एक हफ्ता बीत गया था इस बात को। गौरव की स्थिति ज्यादा सही नहीं थी। ऑफ़िस में बीतने वाला समय तो जैसे-तैसे कट जाता, पर अकेलेपन में वो अपने ही खयालों में गुमसुम रहता। उन दिनों हितेश भी गुड़गांव में ही नौकरी कर रहा था, जो आज गुरुग्राम है। जब से गौरव दिल्ली में था, वे दोनों मिल नहीं पाए थे। तो आने वाले रविवार को, गौरव की जगह पर ही दोनों ने मिलना तय किया। इतने समय बाद वो मिल रहे थे, दोनों बहुत खुश थे, पर गौरव का गम इस खुशी से ज्यादा था। बचपन से दोनों साथ थे, तो हितेश को यह जानते देर नहीं लगी कि कुछ तो गड़बड़ है। सभी दोस्तों को अंकिता और गौरव के बारे में पता था, और गौरव दिल्ली ही क्यूँ आया, ये भी सब जानते थे। पर पिछ्ले एक-दो महीने की घटना का जिक्र गौरव ने किसी से नहीं किया था। हितेश समझ गया था क्या कारण हो सकता है, उसने पूछ ही लिया, "मिला अंकिता से ?" इसपर गौरव की आँखें भर आई। उसने सारा किस्सा हितेश के सामने रख दिया। हितेश भी समझ नहीं पाया कि अब क्या बोले, ऐसी परिस्थितियाँ संभालने का हुनर लड़कों में कम ही होता है। कुछ देर की चुप्पी को तोड़ते हुए वो बोला, "जब उसे तेरी कद्र ही नहीं, तो क्यूँ बंधा हुआ है, आगे का सोच ना। कितनी लड़कियाँ हैं तेरे इंतज़ार में बाहर, देखा है कभी। शक्ल भी ठीक-ठाक ही है और अब जॉब भी मिल गई है, तो कोई ना कोई तो मिल ही जाएगी।" माहौल को हल्का करने की ये कोशिश नाकाफी थी उसकी। गौरव पर कोई असर नहीं था। "चल घूमकर आते हैं कहीं" उसने एक हाथ से ताला और दूसरे से गौरव के हाथ को पकड़ा और उसे खींचता हुआ बाहर ले आया। 'ज्ञान' की बातें, इधर-उधर की बातें, सब हुई दोनों में। देर शाम हितेश ने अलविदा लिया और अगले रविवार फिर आऊँगा कहकर चल दिया। गौरव अब पहले से थोड़ा ठीक था, खुलकर साँस तो ले पा रहा था वो कम से कम। कैसी भी स्थिति हो, दोस्तों की बातों का असर हो ही जाता है। किसी ने सही ही कहा है, 'एक अच्छी पुस्तक हज़ार दोस्तों के बराबर होती है, जबकी एक अच्छा दोस्त, पूरी लाइब्रेरी के बराबर होता है'।
क्रोध किसी भी व्यक्ति की बुद्धि और विवेक को खा जाता है। वो क्या कर रहा है, क्या बोल रहा है, किसे बोल रहा है, फिर कुछ ध्यान में नहीं रहता। न आगे की सोच, न पीछे की कोई खबर, रोष अगर दिमाग में घर कर जाए तो व्यक्ति बिलकुल अकेला पड़ जाता है, सिर्फ़ वही रोष ही उसके साथ रह जाता है। अंकिता के साथ भी यही हुआ था। उसका गुस्सा होना जायज़ था, पर इस हद तक भी नहीं कि रिश्ते का मान ही न रहे। खैर, जब गुस्से की आंधी शांत हो जाती है, सारी धूल वापस जमीन पर बैठ जाती है, तभी हो चुकी तबाही का आंकलन किया जा सकता है। और अगर प्यार के पेड़ की जड़ें, नींव मजबूत हों, तो कुछ शाखें, कुछ पत्ते ही झड़ते हैं बस, पेड़ सही सलामत, वैसा ही खड़ा रहता है। वो प्रेम ही क्या जो समय के थपेड़े न सह सके और वो प्रेम कहानी ही क्या, जिसमें कोई 'ट्विस्ट' न हो।
महीने बीत गए ऐसे ही, अब गौरव ने खुद को सम्भाल लिया था। दिवाली आने वाली थी, पर पूरा ज़ोर लगाने के बाद भी गौरव को सिर्फ़ दो दिन की छुट्टी ही मिल पाई थी। लेकिन दिवाली पर घर जाने का फैसला कर लिया था उसने। टिकट लेकर बस के अन्दर जा ही रहा था कि एक मेसेज आया उसके पास। "हेल्लो ! कैसे हो ? घर जा रहे हो क्या दिवाली पर" अंकिता का मेसेज था वो। गौरव बस की सीड़ियों पर ही खड़ा रह गया। उसने सोच लिया था कि कोई जवाब नहीं देगा, पर पूरे 'दो मिनट' तक संयम रखने के बाद उसने लिखा "हाँ"। तपाक से अंकिता ने लिखा, " उसी समय, उसी जगह मिलें, परसों को ?" कठोर बनने की कोशिश नकाम रही गौरव की, दिमाग कह रहा था- 'मना कर दे', पर उसने लिखा "ठीक है"। "आपकी यात्रा मंगलमय हो" एक मज़ेदार से इमोजी के साथ लिखा था अंकिता ने, पर गौरव ने इसका तो कोई जवाब नहीं दिया। पूरे सफ़र में, गौरव अंकिता के इस अचानक बदले व्यवहार के अनुमान ही लगाता रहा, पर निष्कर्ष कुछ न निकला।
उस दिन दोनों फिर मिले। अंकिता ने आते ही अपनी चिर-प्रचलित मुस्कान गौरव के सामने रख दी। पर गौरव इतनी असानी से पिघलने वाला नहीं था इस बार, कोई प्रतिक्रिया नहीं दी उसने। उसकी वो भोली-सी सूरत और बड़ी, चंचल आँखें भी गौरव पर कोई जादू नहीं कर पाए। अंकिता अपनी चुलबुली सी बातों से गौरव को हँसाने का पूरा प्रयास कर रही थी, लेकिन गौरव पर कुछ खास असर नहीं पड़ा। वो बस 'हाँ-अच्छा' में जवाब देता रहा। अंकिता के गौरव को मनाने के सारे अस्त्र जब विफल हो गए, तब उसने आखिरी दांव खेला। चॉकलेट निकालते हुए अंकिता बोली "ओ सड़ी हुई शक्ल वाले इंसान, ये मैं आपके लिए लाई हूँ" और चॉकलेट गौरव को थमा दी। इसपर गौरव मुस्कुरा दिया और "थैंक्स" बोला, पर फिर भी चुप बैठा रहा। "कैसे इंसान हो, अकेले ही खा जाओगे क्या पूरी" अंकिता ने छेड़ते हुए कहा। हाथ में पकड़ी चॉकलेट और गौरव, दोनों पिघलने लगे अब। उसने चॉकलेट खोली ही थी, कि अंकिता ने उसके हाथ से छीनकर एक बड़ा हिस्सा अपने मुँह से तोड़ लिया, और बाकी बचा गौरव को पकड़ा दिया। "लो खा लो बाकी", उसके चॉकलेट से भरे मुँह से कुछ ऐसा ही सुनाई दिया। इस पर गौरव हँसी नहीं रोक पाया और धीरे-धीरे बाकी बचा हिस्सा खाने लगा। अंकिता की आँखों में अब संतोष था, कितना खूबसूरत था ये सब। फिर बातों का एक लम्बा सिलसिला शुरु हुआ। बीते हुए महीनों की बातें वो गौरव को बताती रही, खैर गौरव तो सिर्फ़ सुन ही रहा था। अँधेरा होने लगा था, दोनों ने एक-दूसरे को अलविदा कहा और घर को चल दिये।
पैदल चलते हुए, रास्ते में गौरव फिर अपने अनुमानों से घिरा था, कि ये सब क्या, कैसे और क्यूँ हो रहा था। खुद को रोके, या अंकिता के साथ बहता रहे, इसी दुविधा में था वो। पर उसे शायद कुछ जानना ही नहीं था। बहुत खुश था वो आज। कई बार किसी व्यक्ति या रिश्ते की अहमियत का पता उससे दूर होकर ही चलता है, यही हुआ था अंकिता के साथ। रास्ते में उसे फिर से मंदिर के दर्शन हुए, पर इस बार उसने कुछ मांगा नहीं, शायद सब मिल गया था उसे।
बातों का सिलसिला फिर शुरु हुआ, पर गौरव इसबार फूंक-फूंककर कदम रख रहा था। हर रोज बात नहीं करता था अब वो, कभी जानकर दिखाता की व्यस्त है। पर अंकिता फिर पहले जैसी थी, खुद मेसेज करना और कभी-कभी कॉल भी करना शुरु कर दिया था उसने। उसके अंदर के सभी 'डर' शायद खत्म हो गए थे अब। अपनी पढ़ाई के आखिरी साल में थी वो, परीक्षाएं सिर पर थी, पर वो हर रोज गौरव से बात कर ही लेती। गौरव को अब एहसास हो रहा था अपनी उस गलती का, जिस से वो बच सकता था, पर बच नहीं पाया था। गौरव उसे पढ़ने के लिए बोलता रहता और ज़रूरत पड़ने पर डांट भी देता। पर अंकिता उसकी डांट को हँसी में उड़ाकर उसी का मजाक बना देती, "सड़ी हुई शक्ल वाले इंसान, जा रही हूँ, बाय"। दोनों के मन में काफी सुकून था अब। जब अंकिता की परीक्षाएं शुरु हुई, तो सिर्फ़ हर परीक्षा के बाद ही दोनों बात करते, वो खालीपन अब कहीं नहीं था दोनों में।
परीक्षा परिणाम आ गए थे और अंकिता अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुई थी। गौरव ने अंकिता को बधाईयाँ दी, अंकिता तब अपने घर पर थी। दिल्ली लौटते ही अंकिता गौरव से मिलने उसके कमरे पर जा पहुँची। साक्षी भी साथ थी, उसे दिल्ली के रास्ते पता थे, शायद इसलिये, या शायद अंकिता अकेले नहीं जाना चाहती थी। जो भी हो, गौरव को कोई खबर नहीं थी उसके यूँ आने की। "सरप्राइज", गौरव के दरवाजा खोलते ही दोनों एक साथ बोली। गौरव को विश्वास नहीं हुआ अपनी आँखों पर। "ये लो, आपके लिए कुछ बनाया है मैनें, खाकर बताओ कैसा है", गौरव को टिफिन देते हुए अंकिता बोली। खीर थी टिफिन में। "ये मैं किसी को नहीं देने वाला", कहकर गौरव खीर खत्म होने के बाद ही रुका। दोनों दोस्त उसकी इस हरकत पर खूब हँसे। "रोज मिल सकती है क्या ये " गौरव ने मासूम सी शक्ल बनाकर पूछा। "नहीं, पर कभी-कभी, और हाँ अब कोई पार्टी नहीं देने वाली मैं, इसी से काम चला लेना" अंकिता की इस बात पर गौरव ने हाँ में सिर हिलाया। अंकिता और साक्षी की इंटर्नशिप शुरु होने वाली थी अब। इसी विषय में उन्होंनें गौरव को खूब ज्ञान दिया, पर सब उसके सिर के ऊपर से गया। आखिर में अलविदा कहकर दोनों दोस्त वापस अपने हॉस्टल को लौट गयीं।
अब हर हफ्ते दोनों मिलने लगे, कभी-कभी अंकिता गौरव के लिए कुछ ले भी आती, अपने हाथों से बनाकर। सब कुछ बहुत अच्छा था। गौरव के पास अब बहुत मौके थे अपने प्यार का इजहार करने के, पर उसके पिछ्ले अनुभव उसे हर बार रोक ही लेते। अंकिता भी शायद उसके कुछ बोलने का ही इंतज़ार कर रही थी। ये तो सभी जानते हैं कि कुछ भी हो जाए, लड़कियाँ मन की बात जता देंगी, पर खुद कभी कुछ नहीं बोलतीं। और वैसे भी, कुछ रिश्ते बेनाम ही खूबसूरत लगते हैं।
अंकिता की इंटर्नशिप पूरी हो चुकी थी और कॉन्वोकेशन का दिन आने वाला था। उसने गौरव को भी समारोह में आमंत्रित किया, माँ-पापा तो आ ही रहे थे उसके। समारोह का दिन आ गया, पर गौरव के दिमाग में पता नहीं क्या चल रहा था। तो उसने समारोह में ना जाने का फैसला किया, कोई ज़रूरी मीटिंग का बहाना बनाकर। डर रहा था वो शायद अंकिता के माँ-पापा से मिलने से , या जाने क्या था, उसे भी नहीं पता था। पर उस शाम उसने अपने पूरे ऑफ़िस में एक छोटी सी पार्टी दी थी। इस अब के बाद थक गया था वो, तो कमरे में आते ही बिस्तर पर पड़ गया। पेट भी भरा ही था, तो नींद भी तुरंत आ गई।
सुबह उठा, तो देखा अंकिता के अनेकों मेसेज थे। समारोह की तस्वीरें, क्या-क्या हुआ, कैसे-कैसे हुआ, सब लिखा था उसने। और गौरव ने एक भी मेसेज का जवाब नहीं दिया था, देखा तक नहीं था। अंकिता के लिये वो दिन काफी अहमियत रखता था, पर गौरव ने आज फिर गलती की थी, और फिर से, जान कर नहीं। उसनें तुरंत बीमारी का बहाना बनाकर ऑफ़िस से छुट्टी ली, और जल्दी से तैयार होकर अंकिता के हॉस्टल जा पहुँचा। गेट पर फिर वही गार्ड मिला गौरव को, पर अब वो भी उसे पहचानने लगा था। "मैडम अभी-अभी अपने माँ-पापा को छोड़ने स्टेशन गई हैं", गौरव को देखते ही वो बोला। "ठीक है", गौरव फिर से चाय की दुकान की ओर चल दिया। उस तपती धूप में करीब दो घंटे उसने इंतज़ार किया, अपने बहुत सारे विचारों के साथ। अंकिता को फिर से खो देने का डर उसे घेरने लगा।
तभी उसे रिक्शा से उतरती हुए अंकिता दिखाई दी। वो भागकर उसके पास पहुँचा। अंकिता ने उसे पहले ही देख लिया था, वो फटाफट पैसे देकर हॉस्टल के अंदर जाने लगी। पीछे से गौरव ने ज़ोर से आवाज लगाई, "सॉरी अंकिता", अंकिता मुड़ी, तो गुस्से से, या शायद गर्मी से उसका चेहरा लाल था। उसकी उन बड़ी आँखों को देखकर गौरव एक पल के लिए डर गया। "कल इतना थक गया था कि कमरे पर आते ही नींद आ गई" उसने बोला। अंकिता आधी बात सुने, मुड़कर फिर अंदर जाने लगी, गौरव फिर बोला, "सॉरी ना, माफ़ कर दे, प्लीज़"। अब अंकिता गौरव के पास आई और बोली, " तुम्हें कुछ फर्क भी पड़ता है कि मेरी जिंदगी में क्या चल रहा है। कल इतना ज़रूरी दिन था मेरे लिए, इसलिये तुम्हें बुलाया था। माना काम होगा, पर बात तो कर सकते थे ना, पूछ तो सकते थे, बस एक बार", अंकिता की आँखें नम होने लगी। लोग भी इकट्ठा होने लगे अब, भीड़ का काम ही क्या है और। "मैं ही पागल हूँ ना जो तुम्हें बुलाया, मैं ही पागल हूँ जो सोचा था कि माँ-पापा से तुम्हें मिला दूँगी, मैं ही पागल हूँ जो तुमसे प्यार करने लगी हूँ "।
ऐसा कहते ही उसकी काज़ल की धार को चीरते हुए, आँसू की एक बूंद उसके गाल तक जा पहुँची। गौरव की आँखें भी अब नम हो आईं, उसने हल्की मुस्कान के साथ अंकिता के आँसू को पोछा और उसे गले लगाते हुए वो बोल ही दिया, जो वो जाने कब से कह ही नहीं पाया था, "आई लव यू टू अंकिता"। (और उधर भीड़ में से तालियों और शोरगुल की तेज आवाजें आने लगीं, पर गौरव और अंकिता तो बस एक दूसरे को ही देख-सुन रहे थे।)
एक नया दौर यहाँ से शुरु होता है। क्योंकि पूर्णता के आगे कुछ नहीं, और प्रेम 'शुरुआत' है, पूर्णविराम नहीं।