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अटूट बंधन

रवि और कुसुम की शादी हुए अभी कुछ ही साल बीते थे।सभी लोग खुशी-खुशी रह रहे थे;लेकिन एक दिन एक दर्द विदारक घटना घटी।
कुसुम अपनी सास से झगड़ा कर बैठी और अपने पति,रवि से झल्लाकर बोली,"या तो इस घर में मैं रहूंगी या तो तुम्हारी माँ", चयन तुम्हे करना है।
अब बीबी की बात कौन टाल सकता था क्योंकि उसके साथ पूरा जीवन जो बिताना है।
माँ तो केवल माँ ठहरी, वैसे भी कुछ ही दिन तो बचे हैं उनके जीवन के ।
काफी सोच विचार के रवि ने फैसला किया, कि माँ को ट्रेन में बिठा दूंगा जिससे कहीं न कहीं लोगों से मांग-मांग कर भी अपना पेट भर लेंगीं।
(रवि की माँ के प्रति संवेदना मार चुकी थी।)
यही सोचते हुए अपनी और माँ की पैकिंग करवाई ।
माँ ने पूँछा,"बेटा, मुझे कहाँ लिए जा रहे हो,बताओ न।"
रवि बोला,"माँ घर में आप बोर होती हैं;इसलिए आपको चारोधाम की यात्रा करवाने लिए जा रहा हूँ।"
ऐसी बात सुनते ही माँ की आंखे चमक उठीं।
अब तो झटपट माँ अपने बेटे के साथ चलने के लिए तैयार हो गयी। रास्ते में माँ की कल्पनाशक्ति उड़ान भरने लगी थी।
स्टेशन कब आ गया पता ही नहीं चला।
रवि माँ से;यह कहते हुए चला गया;कि माँ यहीं रुकना।
मैं कुछ नास्ता ले के आ रहा हूँ।
माँ ने बोला ठीक है।
1-2-3 घंटे कब बीते मालूम ही नहीं चला।
धीरे-धीरे रात हो गयी;
पर माँ का दिल विचलित था और बुरे खयालातों को सोचकर द्रवित हो रहा था।
आँखें उम्मीद लगाएं हुए अभी भी बेटे की राह देख रही थी।
बेटा!बेटा!
कहते हुए;
वह दुखियारी महिला बार-बार यहां से वहां भागकर जा रही थी।
जैसे ही वह किसी युवक को देखती उसकी आँखों में उम्मीद की किरण जग जाती थी।
न जाने किस कारण से वह आज एक रेलवे स्टेशन में अपने बेटे को तलाश रही थी।लेकिन उसका इकलौता बेटा उसको छोड़कर यह कहकर चला गया था कि मैं कुछ नास्ते के लिए ले लूं।
माँ का मन इतना ममतामयी होता है कि उसके(रवि के)झूठ को भी वह समझ न पाई।
जब ट्रेन चलने लगी तो दु:खियारी माँ जैसे तैसे ट्रेन से उतरी;
परन्तु उसका बेटा उसे छोड़कर बहुत दूर जा चुका था।
वो माँ अपने बेटे को हर रोज तलाशती, लेकिन उसका बेटा उससे न तो मिलने आ रहा था न ही उसकी कोई खबर ले रहा था।
मायूश चेहरा,व्यथित हृदय और उम्मीदों को समेटे आज भी वह अपने बेटे की राह देख रही थी; लेकिन उसके बेटे का कोई अता-पता नहीं था।
माँ-बेटे का अटूट बंधन अभी भी टूटने को तैयार नहीं था; क्योंकि यह संसार का सबसे शानदार बंधन जो था।
इधर रवि की माँ ने उम्मीद नहीं तोड़ी थी,बेटे की उम्मीद अभी भी आंखों में चमक बिखेर देती थी।उधर रवि भी माँ को अकेला छोड़ तो आया था,परंतु रवि के मन में भी अजीब और बुरे खयालात आ रहे थे।वह अपने आपको समझा नहीं पा रहा था करे तो क्या करे?उसको रास्ते भर ऐसा लग रहा था मानों तूफ़ानी और संकुचित बिचारों के बोझ से लदा जा रहा हो।फिर भी वह स्वयं को समझाता हुआ घर की ओर बढ़ रहा था।तभी रास्ते में पड़े एक बड़े पत्थर से टकरा गया,और गिरते-गिरते बचा लेकिन तभी चमत्कार हुआ उसकी अंतरात्मा ने उसको अंदर से झकझोरा कि 'तू इतना नकारा,निर्मम और निष्ठुर कैसे हो सकता है? जिस माँ ने तुझे पैदा किया उसे ही बेसहारा छोड़ दिया।" वो भी भीख मांगने के लिए,ऐसा करने से पहले तुझे चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए था।अरे निष्ठुर!तेरे दिल से आह तक नहीं निकली ,आखिर वह तेरी माँ है,माँ।
झटके से उठा,आंखों से अश्रुधारा की नदी बह निकली थी,मानों कोई कलकल करती नदी मौन भाषा में अपना दर्द बयां कर रही हो।
(खुद को सम्हालते हुए )रवि के कदम पीछे की ओर(माँ की ओर)ज्यादा खींच रहे थे फिर भी पत्नी की बात को याद करते हुए घर की तरफ़ शनै-शनै कदम बढ़ाते हुए घर पहुँचा रात काफ़ी हो चुकी थी पत्नी बाट जोह रही थी,खाना परोस कर लायी लेकिन रवि के हलक से नीचे निवाला नहीं उतरा।बिना खाये ही दोनों बिस्तर में गए।रवि रातभर नहीं सो पाया।नींद आती भी कैसे?छोड़ जो आया था माँ को वक्त और भगवान के भरोसे।
सुबह जगा तो जल्दी से तैयार होकर उसी स्टेशन गया जहाँ अपनी माँ को छोड़ आया था,परंतु बहुत दिन हो गए थे तो माँ का कहीं पता नहीं चला।बहुत मशक्कत की ढूंढने की,परंतु सारे प्रयास निष्फल सिद्ध हुए।कर भी क्या सकता था?मन मसोस कर रह गया रवि।और खुद को कोसता रहा कि मैं ही इतना बुरा हूँ कि बिना सोंचे समझे ही माँ को छोड़ आया ।।
अब रोज यही काम करने लगा रवि।जहाँ भी पता चलता वहाँ ढूंढने चला जाता।आज जितना भी रवि के दिल में माँ के प्रति सारा प्रेम उमड़ रहा था।
आखिर माँ से अटूट प्रेम करता था,वो तो बस पत्नी के कहने पर माँ को अपने ही हाथों छोड़ आया था।आज फिर से एक बार माँ-बेटे का अटूट बंधन टूटने के लिए तैयार नहीं था।
रवि का दिल पानी-पानी हो रहा था।खुद को लज्जित महसूस कर रहा था।पर करे भी तो क्या?समय को कुछ और ही मंजूर था।इतना सबकुछ होने के बाद भी रवि ने अपनी पत्नी कुसुम से कुछ नहीं कहा ।न ही उसे डाँटा, फटकारा, न उसे अहसास दिलाया कि गलती उससे भी हुई है।ख़ैर,वह हर बार मन मसोस कर रह जाता था।आज सुबह जगा तो अचानक से उसे ऐसा लगा जैसे उसकी माँ घर लौट आयी है,पर जैसे ही बिस्तर से उठकर देखता है तो केवल उसका वहम साबित होता है।रवि बिस्तर छोड़ देता है और झटपट तैयार होकर आज आंखों में उम्मीद समेटे निकल पड़ता है अपनी माँ को खोजने।आख़िर अटूट प्यार जो था अपनी माँ से। रास्ते में चलता हुए रवि के दिल में अनेक विचारों का तूफानी दरिया हिलोरें मार रहा था।कभी खुद को सुन्न पाता,तो कभी ख़ुद को समझाता यही सिलसिला चलता रहा।आखिर मंजिल आ चुकी थी।और ढूंढना,पूँछना चालू कर दिया।कई जगह पता किया परन्तु निराशा हाथ लगी।रवि आज घर से बिन बताए सोचकर आया था कि माँ को ढूंढकर ही मानूँगा।अभी भी रवि के दिल में उमीदों की किरणें अपनी रोशनी से रवि की हिम्मत बढ़ाए हुए थीं।तभी उसे लगा चलो आसपास और पता कर लूं शायद कहीं पता चल जाए।रवि आसपास पता करता है तो एक मंदिर के बाहर का दृश्य देखकर अवाक रह जाता है,उसकी माँ फटे, पुराने चीथड़ों में खुद को लपेटे हुए अपने खाने के लिए भीख मांग रही थी,रवि की आंखों से आँसुओं की धारा बह निकली।फिर भी जैसे तैसे खुद को समझाया और पास जाता है,और अपनी माँ के पास बैठकर सारी बातें पूछता है।रवि की माँ सारा वाकया बताती है।रवि अपनी माँ को वहां से ले जाकर एक वृद्धाश्रम में पहुँचता है।वहाँ के मालिक को सबकुछ बताता है और सारी व्यवस्थाओं का प्रबंध करने के लिए बोलता है।अभी भी रवि की हिम्मत नहीं हुई थी कि सारी कहानी अपनी माँ को सच-सच बता दे।करता भी क्या?अगर बताता है तो उसकी माँ टूटकर बिखर जाएगी।यही सोचकर नहीं बताता है।और उसी वृद्धाश्रम में छोड़ देता है।वृद्धाश्रम के मालिक से अपनी माँ के लिए अतिरिक्त व्यवस्था की वकालत करता है।ख़ैर अब माँ चैन और सुकूँ से रह रही थी।रवि का अब रोज का आना जाना हो गया था।कुछ देर तक अपनी माँ के पास बैठता,बाटे करता तो उसे ऐसा लगता जैसे सारे जहाँ की खुशी मिल गयी हो।यही सिलसिला चलता रहा आज रवि को ग्लानि नहीं थी। ख़ुद को समझाता।माँ की ममता में बह जाता,माँ ने एक दिन पूँछ लिया बेटा तू अपने घर कब ले चल रहा है मुझे।माँ के इतना कहते ही रवि की आँखे भर आयी थीं।फिर खुद को संभालते हुए बोलता है बहुत जल्द,बहुत जल्द बस कुछ दिनों की तो बात है,ले चलूँगा आपको घर।रवि ने अभी भी अहसास नहीं होने दिया था कि वह(रवि) ही उसका बेटा है।करता भी क्या?रवि के पास भी कोई उपाय नहीं था।ख़ैर आँख मिचौली चलती रही।काफी दिन बीत गए।एक दिन रवि ने अपनी पत्नी से सारी बात बतायी और पूँछा," क्या माँ को घर ले आऊँ?" कुसुम का मन भी ग्लानि से भर चुका था।और कुसुम ने हामी भर दी फिर क्या था?रवि अपनी माँ को घर ले आया।और पूरी बात बताई।रवि और कुसुम दोनों ने मिलकर माफ़ी मांगी।माँ ने दोनों को माफ कर दिया आखिर माँ का दिल ही पिघल जाता है,अपनी संतानों की आंखों में आँसू देखकर।ख़ैर अब रवि माँ के आँचल में सिर रखकर बहुत रोया।सारी ग्लानि आंखों से बह निकली थी,उसे गलती का पश्चाताप हो रहा था।आखिर झगड़ा ही तो किया था और निकाल फेका एक मक्खी के माफ़िक।रवि की माँ ने रवि को समझाया उसे चुप कराया।आखिरकार आज भी अटूट बंधन ही तो था।जिसमें बंधे हुए थे दोनों,माँ और बेटे।अंत में सारे लोग खुशी-खुशी रहने लगे कुसुम माँ की रोज सेवा-सुश्रुषा करने लगी।रवि और कुसुम माँ की सेवा करते और अपने को धन्य समझते बस यही सिलसिला चलता रहा।

शिक्षा-आवेश में आकर माँ-बाप को वक्त के सहारे न छोड़े,वृद्धाश्रम में न छोड़े ,जब तक जिंदगी है माँ-बाप की सेवा जरूर करें।अनाथ और बेसहारा बच्चों से पूँछो माँ-बाप के खोने का दर्द क्या होता है??

स्वरचित
®अनिल कुमार "निश्छल"
हमीरपुर(बुंदेलखंड)

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