अदृश्य गाँव का रहस्य - 3 Mukesh nagar द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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अदृश्य गाँव का रहस्य - 3

वामन गुरु उत्तर की तरफ चले गए थे।
वह कुएँ की निचली दीवार पर कभी ध्यान से कुछ देखते तो कभी अपनी अँगुलियों से उसे ठोकते। ऐसा लगता था कुछ खोजने का प्रयास कर रहे थे।
नट्टू और बद्री की सहायता से राजू और मुन्ना ने दो तीन घंटे में तीन फीट से अधिक खुदाई कर दी थी। जीतू और संजू भी पीछे नहीं थे, खुदाई के साथ साथ ही वे दोनों मिट्टी को बाल्टियों में भर देते और रस्सी को हिलाते, संकेत पाकर उसे ऊपर खींच लिया जाता था।
मिटटी पोली और बिना पत्थर की होने से कार्य उम्मीद से अधिक तेजी से चल रहा था।
तभी वामनदेव उधर आए।
" क्या चल रहा है बच्चों ! "
" देखिये न हमने कितनी खुदाई की...।" राजू उत्साह में था।
" बहुत अच्छा...अरे ! यह क्या ? इधर की मिट्टी कुछ गीली दिखाई दे रही है। इसका अर्थ समझते हो?" वामन गुरु प्रसन्नता से बोले।
सबने चौंक कर पहले मिटटी की तरफ और फिर गुरूजी की ओर देखा। वे कुछ समझ नहीं पाए थे।
"...तो क्या हम अपने लक्ष्य के समीप हैं?"
बद्री ने पूछा।
" हाँ...।" वामन गुरु बोले। इनका अर्थ है कि पानी का स्रोत निकट ही है।
ऐसा करो...काफी काम हो गया है। सब थोड़ा विश्राम करके थोड़ा जलपान करो।
अब मैं बताता हूँ कि मुझे क्या मिला है। "
वामन गुरु की आँखे चमक रही थी।
"तुम सब आश्चर्य से उछल जाओगे।" वह बड़े प्रसन्न थे।
" क्या...?" सबके मुँह से लगभग एक साथ ही निकला।
" पहले कुछ खा पी लो, फिर मेरे साथ चलो...दिखाता हूँ ।"
गुरूजी से इस बात को सुनकर सबकी भूख और प्यास मिट गई थी, फिर भी उनके आदेश को मानते हुए संजू ने एक बाल्टी मिटटी से भर कर उसपर कागज का एक टुकड़ा पत्थर से दबा कर रख दिया। उस कागज पर लिखा था-- 'एक बाल्टी पानी भेजो।'
रस्सी को हिलाया गया। संकेत पाकर उस बाल्टी को ऊपर खींचा जाने लगा। घड़-घड़ कर बाल्टी ऊपर जाने लगी। जल्दी ही ऊपर से एक बाल्टी भरकर पानी नीचे भेज दिया गया।
सबने थोड़ा-थोड़ा पानी प्रयोग करते हुए अपने हाथ पैर धोए और दीवार पर टंगे बैग उतार लिए गए। पास ही बैठने के किये थोड़ी जमीन समतल कर ली गई।
राजू और मुन्ना के घर से रोटी और सब्जी बाँधी गई थी, संजू के मनपसंद आलू के परांठे, जीतू के लिए उसकी माँ ने उसकी पसंद के नमकीन चावल रखे थे। गुरूजी के लिए पर्याप्त फल भेजे गए थे। नट्टू और बद्री भी आज खाना अपने घर से लाए थे।
गुरूजी ने ऐसी उत्सुकता जगा दी थी कि खाना खाने में किसी की रूचि नहीं हो रही थी।
सबने मिलजुल कर जल्दी जल्दी खाना खत्म किया और हाथ धोकर वामन गुरु के कुछ बोलने की प्रतीक्षा करने लगे।
वामन गुरु फलाहार कर चुके थे। सबको तैयार देख कर वे आगे बढे और उत्तरी दीवार का निचला हिस्सा देखने को कहा।
राजू, संजू और मुन्ना, जीतू को कुछ भी नया या अजीब नहीं लगा। नट्टू भी घूम फिरकर वापस आ गया।
गुरूजी हमे तो कुछ भी नहीं मिला। नट्टू मायूसी से बोला।
बद्री तुम भी जाकर देखो और नट्टू तुम अपने खुदाई के औजार लेकर आओ।
बद्री ने पास जाकर दीवार पर अपनी हथेली के पिछले हिस्से से दीवार पर ठकठकाया तो झुशी से उछल पड़ा।
" लगता है मुझे पता चल गया गुरूजी ! यह दीवार पोली है, अवश्य ही इसके पीछे हम लोगों को पानी मिलेगा।
" हम्म!" वामन गुरूजी बोले।
" सत्य के काफी करीब हो तुम बद्री पर यह पूरा सच नहीं..."
बद्री की आँखों में प्रश्न तैर रहा था। बच्चे भी गुरूजी की तरफ ही देख रहे थे, तब तक नट्टू अपनी कुदाल और फावड़ा लेकर वहां आ गया था।
" इस दीवार के नीचे की तरफ की मिट्टी हटाओ..!"
आनन फानन में नट्टू ने करीब दो फ़ीट की मिट्टी हटा कर बड़ा सा गड्ढा बना दिया था।
" मुन्ना ! उस टॉर्च को यहाँ ले आओ ! मैं कुछ दिखाता हूँ।
ज़रा इसकी रौशनी को दीवार पर डालो। कुछ दिखाई देता है?"
बद्री ने मुन्ना के हाथ से टॉर्च ले ली और दीवार पर रौशनी डाल कर उसका निरीक्षण करने लगा।
एक ही पल में उसने जैसे धमाका किया--
" गुरूजी ! यह तो कोई दरवाजा है। दीवार पर पत्थर लगाकर बंद किया जान पड़ता है। क्या इसके पीछे ही पानी है या फिर कुछ और ही...। आश्चर्य से उसकी आँखें बाहर निकल रही थीं। यह बड़ा रहस्य है...बहुत बड़ा...।
वामन गुरु के नेत्र हीरे की तरह चमक रहे थे।
गुरूजी ! इस दरवाजे नुमा पत्थर को हम लोग हटाएँ क्या ?
बद्री ने वामन गुरु से प्रश्न किया।
" ठहरो ! इसे हटाने के पहले हम लोगों को इसके बाद की स्थिति पर भी तो सोचना चाहिए। अच्छा तुम सब सोच कर बताओ तो जरा...इस पत्थर को हटाने पर क्या-क्या हो सकता है? पहले तुम ही बताओ बद्री !"
मुझे तो लगता है महाराज....इसके पीछे पानी का बहुत बड़ा सोता होना चाहिए, आखिर कभी तो यह कुआँ पानी से भरा हुआ भी तो था ही। "
" हम्म... अवश्य ही ऐसा भी हो सकता है।
अच्छा तुम बताओ नट्टू ! और क्या हो सकता है?"
" पानी ही होगा, नहीं हुआ तो फिर मट्टी ही निकलेगी और क्या ? कुएँ की इस दीवार का यह कोई जोड़ होगा और क्या?"
"हाँ...ऐसा भी हो सकता है। वामन गुरु नट्टू को देखकर हँसे।
"...और बच्चों! तुम्हें क्या लगता है?"
" आचार्य जी ! इसके पीछे साँप, कीड़े भी तो हो सकते हैं।" राजू ने अपना विचार रखा।
"...और कुछ ?"
कोई कुछ न बोला तो एक क्षण बाद वामन गुरु ने कहा-
" सुनो! किसी भी कार्य को करने से पहले पूरी सावधानी रखना बहुत आवश्यक है। अब उन सभी एक-एक बात पर विचार करते हैं जो तुम सबके दिमाग में आई है।
पहली बात...यदि पत्थर को हटाने पर कुछ भी नहीं हुआ तो हम इसे वापस लगा देंगे और उस स्थान पर चलेंगे जहाँ हमे मिटटी गीली हुई जगह मिल गई थी। वहां कुछ ही नीचे कोई पानी का स्रोत हुआ तो अपना काम समाप्त हो जाएगा।
उस स्थान से पानी निकल कर इस कुएँ को धीरे-धीरे भर देगा, बाकी का कार्य इस वर्ष की बरखा रानी कर देगी।
वर्षा के द्वारा जल का संग्रहण तुम सबने गुरुकुल में पढ़ा ही है न ?
बच्चों ने एक स्वर में कहा--" हाँ आचार्य जी!"
" अब दूसरी बात...यदि पत्थर को हटाते ही तेजी से पानी की कोई धारा निकल पडी तो हम सब भाग भी नहीं पाएंगे और सब के सब यहीं जलमग्न हो सकते हैं। यहाँ से निकलने का भी समय नहीं मिला तब क्या कर लेंगे ? इसलिए इसका उपाय बहुत जरूरी है।
तीसरी स्थिति में कोई जहरीले कीड़े या सर्प निकले तब भी भागना मुश्किल हो जायगा।"
सभी ने प्रशंसात्मक नजरों से गुरूजी को देखा।
" हम अब क्या करें गुरूजी? क्या उस पत्थर को नहीं हटाएंगे..." नट्टू ने पूछा।
" हम यहाँ पर सात लोग हैं अतः ऊपर से चार पाँच रस्सियाँ और बाल्टी नीचे की ओर लटकवा लो। नट्टू और बद्री की कमर से रस्सी बँधी होगी जब ये दोनों इस पत्थर को हटाने के लिए वहाँ जाएंगे।
हम सब दो-दो लोग एक एक बाल्टियों में खड़े रहेंगे और किसी हुई विषम परिस्थिति में...जैसे तेजी से पानी निकलता है या कीड़े-मकोड़े या किसी भी तरह का कोई भी खतरा हो तो इन रस्सियों को हिला देंगे और हम सब को ऊपर खींच लिया जाएगा।
ऐसा ही किया गया।
ऊपर से चार बाल्टियां और कई रस्सियों को नीचे लटकवा लिया गया। बद्री और नट्टू ने अपने कमर में रस्सी बांध ली और उस पत्थर के दरवाजे को निकालने का प्रयास करने लगे।
पत्थर काफी भारी था और अंदर से उसे निकालना इतना भी आसान नहीं था।
बरसों का दबा और फंसा हुआ वह बड़ा और भारी पत्थर निकालने में बद्री और नट्टू पसीने से लथपथ हो गए। जब वह नहीं निकला तब गुरूजी का इशारा पाकर मुन्ना और राजू भी बाल्टियों से निकले..रस्सी को कमर से बांध लिया और उन दोनों का साथ देने के लिए पत्थर की दरार को चौड़ा करके कुदाल और सरिये की बाड़ी से निकालने लगे।
लगातार प्रयास से वह पत्थर थोड़ा सा हिला, हिलने का अर्थ ही था सफलता...उँगलियों और सरिया घुसाने की जगह बनते ही उस जिद्दी और भारी पत्थर ने हार मान ली और अपनी जगह से बाहर आने लगा।
वह करीब आठ से दस इंच मोटा था। उसे हटाकर एक तरफ कर दिया गया।
उसके अंदर कोई पानी न था। अंदर से छोटे मोटे केचुओं और झीगुरों के अलावा कोई खतरे जैसी बात नहीं थी। बद्री ने अंदर झाँका और टॉर्च की रौशनी डाली। वह बुरी तरह चौंक गया। वहां उसे दूर तलक एक रास्ता दिखाई दे रहा था।
वह जोर से चिल्लाया..."अरे ! यह क्या??"
गुरूजी ! यहाँ तो कोई तहखाना है। बड़ा सा रास्ता दिखाई दे रहा है।
वामनदेव कूद कर जल्दी से उस स्थान पर पहुँच गए। उनकी आँखें जगमग कर रही थी और चेहरे पर रहस्य भरी मुस्कान थी।
" मैं न जाने कितने वर्षो से इस रास्ते की खोज में था बच्चों।"
" ...आचार्य जी! क्या आपको पता था, यहाँ कोई रास्ता मिल सकता है?" आश्चर्य से राजू की आँखे फ़ैल गई।
" गुरूजी ! आपने तो कहा था, इस पत्थर को हटाने से तेजी से पानी की धार निकल सकती है और सावधानियों को ध्यान में रखकर हमारी कमर से रस्सियाँ बाँध दी थी।"
नट्टू ने सवाल किया।
" मुझे इतना तो लगता था कि यहीं आसपास ही ऐसा कोई मार्ग है, पर यही है यह तो पता नहीं था। यह संभावनाएं तो तुम सब ने ही व्यक्त की थीं।
जीवन का एक सबक सदा ध्यान रखना बच्चों। सदा सावधान रहने वाला हमेशा बड़े नुकसान से बचा रहता है।
खैर ! यह एक बड़ा उद्देश्य है। यहाँ से तुम सब में से कोई भी चाहे तो वापस जा सकता है। मुझे एक विशेष कार्य के लिए इस रास्ते पर बढ़ना ही है।"
" हम सब तो आप के साथ ही चलेंगे...।"
राजू ने कहा तो संजू, मुन्ना और जीतू भी बोल पड़े।
" हमें क्यों अकेले छोड़ते हैं गुरूजी! हम भी तो आप के साथ चल सकते हैं न...।" बद्री ने पूछा।
" अवश्य ! चाहो तो अवश्य ही चल सकते हो, सबके जीवन का एक उद्देश्य होता है। तुम्हे याद है...कुएँ की खुदाई करने का प्रस्ताव जब बड़े गुरु ब्रह्मदेव ने उस सन्ध्या को चौपाल में किया था तब चारो बच्चे तैयार हुए थे। तुम्हारा और नट्टू का नाम तभी उसमें जोड़ा गया था। उसका भी कारण तय ही था।
यह सात लोगों के द्वारा किया जाने वाला एक विशिष्ट कार्य है जो विश्व के कल्याण और सृष्टि के सञ्चालन के लिए किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। यही विधि का विधान है।"
" तब देर किस बात की है गुरूजी...हम सब चलेंगे, जब आप का आशीर्वाद हम सबके साथ है ही, तब किसी बात की चिंता क्या करना...।"
" इसका मतलब है...सब तैयार हैं? वामन गुरु ने सबके चेहरों को देखते हुए एक प्रश्न सा दाग दिया।
" हाँ गुरुवर !"
बद्री और नट्टू एक साथ बोले।
" हम चारो भी तैयार हैं।"
बच्चे भी आगे आ गए।
वामन देव ने एक कागज का पन्ना अपने झोले से निकाला और शीघ्रता से कुछ लिखने लगे।
उस लिखे कागज को उन्होंने एक बाल्टी में रख दिया और रस्सी को जोर से हिलाया। यह संकेत था उसे ऊपर खींचे जाने का।
जरा सी देर में वह बाल्टी ऊपर जाने लगी। वामन देव ने सम्भवतया ग्रामवासियों के लिए अपना सन्देश दे दिया था।
कुएँ की खुदाई का सभी सामान वहीँ पर रहने दिया गया। नट्टू ने सभी बाकी सभी बैग और खाने पीने का सामान अपने तगड़े शरीर पर लटका लिया और बोला-
" चलो! मैं तैयार हूँ।"
गुरूजी ने कहा --" मैं सबसे आगे चलता हूँ। यदि रास्ता अधिक संकरा हुआ तो सबको एक के पीछे एक चलना पड़ेगा। सबसे पीछे नट्टू चलेगा। नट्टू के पास टॉर्च रहेगी। यह जब तक जलती है, ठीक है, आगे के लिए मेरे पास दूसरे साधन भी हैं।"
यह कहते हुए उन्होंने अपने झोले से एक सफ़ेद गेंदनुमा गोल चीज निकाल ली। उससे श्वेत मद्धिम सा प्रकाश निकल रहा था।
यह कोई मामूली सी चीज नहीं...दिखने में साधारण सी लगने वाली यह गेंद जितना गहरे अँधेरे में प्रवेश करती है, इसका प्रकाश उतना ही अधिक होता जाता है। आओ अब चलें।" कहकर नाटे से कद वाले वामन गुरु उस द्वार में बड़ी सरलता से प्रवेश कर गए। उनके पीछे सबसे पहले राजू घुसा।
जीतू, संजू और फिर मुन्ना के अंदर जाने के बाद बद्री एक सरिया साथ लेकर उस तहखाने जैसे रास्ते में चला गया।
अंत में गुरूजी के आदेश के अनुसार सभी बैग और पानी की बोतलों को लिए नट्टू अंदर गया। उसके बलिष्ठ शरीर को सामान सहित अंदर जाने में अच्छी खासी मेहनत-मशक्कत करनी पड़ी। अंततः थोड़े से प्रयास के बाद वह अंदर घुस ही गया। उसने अपने हाथों में टॉर्च पकड़ी थी।
अंदर गहन अन्धकार था किन्तु रास्ता बहुत संकरा न था, वे सब आसानी से चल पा रहे थे। गुरूजी के दाहिने हाथ में कमण्डल, कंधे पर झोला और बाएं हाथ में गेंद थी। उसका प्रकाश अब काफी बढ़ गया था। उनकी चाल में गजब की फुरती और तेजी थी। बच्चों को उनकी गति का साथ देने के लिए तेजी से चलना पड़ रहा था।
तहखाने की चौड़ाई करीब तीन फीट और छत लगभग छह फुट ऊँची थी और उनमें से किसी की भी ऊंचाई इतनी अधिक नहीं थी इसलिए वह सब बड़ी आसानी से उस रास्ते पर बिना कुछ बोले तेजी से आगे बढे जा रहे थे।
काफी देर हो गई थी उन्हें उस अँधेरे रास्ते पर चलते हुए।
नट्टू ने पीछे से बद्री को टॉर्च से कोंचा...कुछ सुना दे रे बद्री, रस्तवा जल्दिए कट जायगा।
बद्री हँसा.. कंठ उसका सुरीला था ही, गाने लगा--
'हम परदेसी पंछी बाबा...
अणी देस रा नाहीं
लोग अचेता पल पल पार गहे पछताई
भाई सन्तो...
मुख बिन गाना पग बिन चलना...'
सभी के मुख पर मुस्कान आ गई। वामन गुरु भी उसके गाए सुन्दर निर्गुन गीत का आनंद ले रहे थे।
अचानक गुरूजी ने आगे से हाथ उठाकर आवाज लगाई...ठहरो !
वे सब रुक गए। आगे रास्ता काफी चौड़ा हो गया था। इस स्थान पर ऊपर की छत भी बहुत ऊपर थी। आगे का रास्ता दो भागों में विभाजित हो गया था।
अंग्रेजी के Y अक्षर जैसा।
वे सब उस बीच के स्थान पर आ गए। यहाँ इतनी जगह थी कि सभी साथ खड़े रह सकते थे।वामन देव ने सबको वहीं बैठ जाने का संकेत किया।
सभी आराम से पालथी मार कर बैठ गए। थके हुए तो थे ही।
नट्टू ने सभी बैग अपनी पीठ से उतार लिए और उनमे से चने, गुड़ और पानी निकाल कर सबको दिया। सब आराम करने लगे।
बद्री का हलवाई रूप सामने आ गया। उसने कुछ ही मिनटों में चने का नमक मिर्च डालकर सत्तू तैयार कर दिया था। सबको बड़ा स्वादिष्ट लगा। अब उन्हें गुरूजी से अगले आदेश की प्रतीक्षा थी।
गुरूजी अभी भी व्यस्त लग रहे थे। उन्होंने अपने थैले में हाथ डाल कर टटोलना शुरू कर दिया था।
नट्टू ने धीरे से बद्री को कहा--
" बाबा फिर कुच्छो जादू करे वाला हैं।"
शी..शीs s...बद्री ने मुँह पर उँगली रखकर उसे चुप होने का इशारा किया।
वामन गुरु ने अपने जादुई थैले से एक टेबल क्लॉक जैसी घड़ीनुमा चीज निकाल ली थी।
उसका डायल गहरे नीले रंग का था। साधारण घड़ी की तरह उसपर अंक खुदे थे, साथ ही कई दिशाओं के अक्षांश, डिग्री और रेखाएँ भी। बहुत सारी सुइयाँ भी दिखाई दे रही थीं।
अलग-अलग रंगों की ये सुइयाँ लम्बाई और मोटाई में भी अलग थी।
"अभी कितना समय हुआ है बच्चों?" वामन गुरु ने पूछा।
" आचार्य जी, दोपहर के बारह बज रहे हैं।" राजू ने उत्तर दिया।
वामन देव ने सफेद सुई को 12 पर सेट किया।
एक हल्की सी 'खट' की आवाज हुई और सभी सुइयाँ तेजी से उस डायल पर क्लॉक और एंटी क्लॉक दोनों दिशाओं में घूमने लगी थीं।
कुछ ही क्षणों में वह शान्त हो कर रुक भी गई।
गुरूजी ने डायल को गौर से देखा। उनकी आँखों में चमक आ गई ।
"हमे दाहिने वाले मार्ग पर चलना है।"