अदृश्य गाँव का रहस्य - 4 Mukesh nagar द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • आई कैन सी यू - 41

    अब तक हम ने पढ़ा की शादी शुदा जोड़े लूसी के मायके आए थे जहां...

  • मंजिले - भाग 4

                       मंजिले ----   ( देश की सेवा ) मंजिले कहान...

  • पाठशाला

    पाठशाला    अंग्रेजों का जमाना था। अशिक्षा, गरीबी और मूढ़ता का...

  • ज्वार या भाटा - भाग 1

    "ज्वार या भाटा" भूमिकाकहानी ज्वार या भाटा हमारे उन वयोवृद्ध...

  • एक अनकही दास्तान

    कॉलेज का पहला दिन था। मैं हमेशा की तरह सबसे आगे की बेंच पर ज...

श्रेणी
शेयर करे

अदृश्य गाँव का रहस्य - 4

उन्होंने मन ही मन में कहा और सबके पास आकर बैठ गए।
वामन देव के बैठने पर उनकी लंबी दाढ़ी जमीन को छू रही थी।
बद्री ने उन्हें भी सत्तू खाने को दिया।
नट्टू कुछ देर उन्हें देखता रहा। फिर बोल पड़ा।
" गुरूजी! आप आज्ञा दें तो मैं कुछ कहूँ।"
"हाँ हाँ बोलो न..." गुरूजी हँसे।
" महाराज ! आखिर ई सब का हो रहा है। हम आखिर कहाँ जा रहे हैं, हमे करना क्या है? खाना और पानी भी अब ज्यादा बचा नहीं है।"
कहकर वह चुप हो गया।
"...और किसी के भी मन में यह विचार आ रहा है?"
गुरूजी मुस्कुराए और सबकी तरफ देखा।
" बोलो मुन्ना..."
उसके चेहरे पर प्रश्न सा दिखा था गुरूजी को।
"आचार्य जी! आपने ही बताया है कि किसी कार्य को करने का उद्देश्य स्पष्ट होना चाहिए। हम लोगों को कुछ भी पता नहीं है इसलिए ऐसा लग रहा है।"
" तुम लोगों के दिमाग में प्रश्न आए हैं, यही स्वभाविक है, यदि कोई प्रश्न नहीं आते तो असामान्य बात होती।
चलो ! तुम्हारे सभी प्रश्नों के मैं उत्तर देने का प्रयत्न करता हूँ। मैं सबकुछ समझाता हूँ। इस बीच जो भी प्रश्न तुम्हारे पास आते जाएं, उन्हें अपने पास....अपने दिमाग में नोट करते जाना और मेरी बात पूरी होने पर पूछ लेना।
हमें आगे इतना बड़ा स्थान मिले या न मिले, पता नहीं है अतः इसी स्थान पर थोड़ा विश्राम कर लेना उचित होगा। अब मैं जो कुछ कहूँगा...उसे फालतू का ज्ञान या प्रवचन समझ कर उकता तो नहीं जाओगे तुम सब..."
गुरूजी मुस्कुराए और अपनी लंबी दाढ़ी पर हाथ फेरकर कहने लगे--
" सबसे पहले तो बद्री को धन्यवाद जो इतना अच्छा सत्तू हम सबको खाने को मिला। सच में बड़ा आनंद आया है। मुझे गर्व है कि इस यात्रा के लिए बद्री को चुना गया। इसके गाए गीत और बनाए सत्तू में से क्या अधिक अच्छा है यह आप सब को बताना है। "
यह कहकर उन्होंने सत्तू का आखिरी निवाला मुँह में डाल लिया। थोड़ा सा पानी पिया और गहरी साँस ली।
सभी उनकी ओर ही देख रहे थे कि वह अब क्या बोलने जा रहे हैं। गुरूजी की आंखें शून्य में जैसे टँग गई थी। फिर वह धीरे धीरे बंद हो गई। उनके मुख से आवाज निकली।
" सुनो ! पहले मैं इस रास्ते के बारे में बताता हूँ जिसकी तुम सबमें जिज्ञासा है। उसके बाद मैं अपने...हम सात साधुओं के बारे में बताऊंगा जो अलोपपुर के उस अदृश्य गाँव में आज से पचास वर्ष पहले आए थे।"
गुरूजी की आवाज सुनकर सभी बड़े जोरों से चौंक पड़े। वह उनके सामने ही तो बैठे थे पर ऐसा लग रहा था कि वह आवाज किसी बहुत दूर के स्थान से आ रही हो।
वह सब बड़े ध्यान से सुनने लगे।
" हमारा गाँव इस बड़े भूभाग भारत का एक बहुत छोटा सा भाग है, इतना बड़ा भारत देश भी पूरी पृथ्वी की तुलना में एक छोटा सा क्षेत्र ही कहा जा सकता है। पृथ्वी इस अनंत आकाश... अंतरिक्ष की तुलना में एक छोटे से कण से अधिक नहीं है।
जैसा कि राजू और मुन्ना ने गुरुकुल की अपनी पिछली कक्षाओं में पढ़ा होगा कि हमारी इस प्यारी धरती से ऊपर लाखों मील ऊपर क्रमशः सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, बुध, शुक्र, मंगल,शनि, सप्तऋषि और ध्रुव मंडल है। उस ध्रुव मंडल से और ऊपर महर्लोक, जनलोक, तपलोक और फिर सत्यलोक है।
इसी प्रकार पृथ्वी से नीचे भी हजारों मील नीचे सात पाताल है। इन सात में पहला है अतल, दूसरा वितल, तीसरा सुतल, चौथा तलातल, पाँचवाँ महातल, छठा रसातल और सातवाँ पाताल।
इसमें जाने के लिए पृथ्वी से कई गुप्त रास्ते जाते हैं। इन पातालों में प्रकृति के अनेक रहस्य हैं। प्राचीन काल से ही सिद्ध महात्माओं और ऋषियों द्वारा इसे अनुचित प्रयोग न हो पाए इसलिए बंद किया गया होगा। इन पाताल लोक में नागों, दैत्यों और मायावियों का निवास है।
एक गुप्त रास्ता इसी कुएँ में था जो हमने खोज निकाला... हम जिस स्थान को जा रहे हैं, यह अतल पाताल को जाता है। यही हमारा उद्देश्य भी है।
यहाँ पर हजारों वर्षों से दानवों के राजा मय के पुत्र बल का राज्य है। वह बहुत मायावी है, ऐश्वर्य और वैभव में अतल नाम का यह पाताल स्वर्ग से भी बढ़कर है। वहाँ अतुलित धन, मणियाँ और स्वर्ण बिखरा पड़ा है परंतु कुछ भी लाया नहीं जा सकता। ऐसा कोई प्रयत्न करना भी नहीं है।
यहाँ के निवासियों की उम्र हजारों साल होती है और वह सब कभी बूढ़े नहीं होते।
हम सब के वहाँ जाने का कारण भी मैं तुम सब लोगो को बताता हूँ।
इस पृथ्वी पर सदा से ही सात्विक और राक्षसी शक्तियों का युद्ध होता आया है। एक तरफ जहाँ सात्विक और दैवीय शक्तियों के कारण जीवन इतना सुन्दर होता है, प्रेम और दया जैसे सद्गुण मनुष्य में उत्पन्न होते हैं। फूल और फल खिलते हैं। सुगंध पैदा होती है और स्वादिष्ट अन्न का उत्पादन होता है। वहीं दूसरी तरफ राक्षसी और तामसिक शक्तियाँ भी हैं जो अशांति, अपराध और बुराई में ही लिप्त रहती हैं।
इन शक्तियों का जब सन्तुलन बिगड़ता है तो पृथ्वी को चलाने वाली वह परम सत्ता प्रकृति के माध्यम से सुधरने का एक मौका देती है। इस अवसर पर मनुष्य को सुधर जाना चाहिए अन्यथा क्रुद्ध प्रकृति सर्वनाश कर देती है।
आज ऐसा ही एक अवसर आया है। इस पृथ्वी पर सात्विक शक्तियों के सेनापति सात मरुत हैं, इन सभी के सात-सात उप सेनापतियों में से एक-एक हम सात साधु रूप में तुम सब के साथ अलोपपुर में निवास करते हैं।
हमारी कुछ अलौकिक शक्तियों के कारण ही तुम्हारा वह गाँव अदृश्य रहता है।
वामन गुरु की बातों को चारों बच्चे, बद्री तथा नट्टू बड़ी अधीरता और उत्सुकता से सुन रहे थे।
आज वे अपने ही गाँव का एक ऐसा रहस्य सुन रहे थे जो उनको और उनके माता पिता या किसी भी ग्रामनिवासियों को अब तक पता ही नहीं था।
साधुओं के रूप में उन सभी को कई पीढ़ियों से देवताओं के गण शिक्षक के रूप में प्राप्त हुए थे।
उन सबका मन वामन देव के प्रति और भी अधिक श्रद्धा से भर गया।
वामन गुरु की आँखे अभी तक बंद थी,बस होंठ हिलते दिखाई दे रहे थे। वह कह रहे थे-
सात्विक सेना के सातो प्रमुख मरुत देव सेनापतियों में से एक हैं प्रवरह। वह महान बलवान और बुद्धिमान होने के साथ सरल और विनम्र भी हैं। उनको पृथ्वी के दक्षिणी भूभाग के क्षेत्र की रक्षा की जिम्मेदारी दी गई थी। मैं ही उनके सात गणों और उप सेनापतियों में सबसे वरिष्ठ था।
आज से पचास वर्ष पहले अचानक एक दिन मुझे यह सन्देश प्राप्त हुआ कि अतल पाताल प्रदेश के असुरराज बल का एक अधर्मी और राक्षसी शक्तियों का स्वामी सेनापति तमघोष हमारे मरुत श्रेष्ठ प्रवरह की विनम्रता का लाभ उठाते हुए छल से मदिरा में विषपान कराने के पश्चात प्रवरह को अतल में ले गया है। वहाँ पर उसने मरुत सेनापति को कठोर यातनागृह में बंदी बना कर डाल दिया है।
हम सभी देव सैनिक पृथ्वी के अतिरिक्त सभी सूर्य मंडलों से लेकर सत्यलोक और समस्त त्रैलोक्य में विचरण कर सकते हैं परंतु अकेले ही पाताल में नहीं जा सकते थे। वहां जाते ही हमारी शक्ति आधी हो जाती है।
तब समस्त सात्विक शक्तियों के विचार विमर्श से सभी शेष छः मरुतों ने अपने-अपने एक-एक उप सेनापतियों को यह सन्देश भेजा और साधुओं के रूप में हम सातो को पृथ्वी पर तुम्हारे गाँव में आना पड़ा।
मुझे अतल नाम के पाताल से अपने मित्र और स्वामी प्रवरह को सकुशल न केवल पृथ्वी लोक में लाने की जिम्मेदारी दी गई है, बल्कि तमघोष के तामसिक बल का नाश भी करना है।
हम सातों साधुओं को इस कार्य के लिए अपनी तैयारी करके मनुष्यों को सात्विक बल प्रदान करना था जिससे पृथ्वी पर थोड़े समय वे मनुष्य अपनी रक्षा स्वयं कर सकें। उसके बाद हम सात उप सेनापतियों को पाताल तक आना था।
हमने इस पूरी योजना को कार्यान्वित करने के लिए पूरे गाँव को ही अदृश्य कर दिया था जिससे कि हमारी योजना का पता किसी भी राक्षसी शक्ति को न लगे, परंतु ग्रामवासियों के गाँव से बाहर निकलने के कारण सम्भवतया यह बात छुपी न रह सकी।
उस असुर तमघोष को पृथ्वी पर उपलब्ध उसकी अपार राक्षसी शक्तियों से न जाने कैसे इस बात का पता भी चल गया।
उसे पता था कि यदि हम सातो मरुतगण यदि पाताल तक पहुँच जाते हैं तो वह हमें परास्त नहीं कर सकेगा। हम अपने सेनापति प्रवरह को वहाँ से मुक्त करा सकते थे। उस असुर सेनापति तमघोष ने हमें रोकने के लिए एक भयानक चाल चली।
उसने अपनी ही सेना के एक मायावी असुर कालवित्र को धरती पर भेज दिया। वह कालवित्र रोग और भयानक बीमारियों का जनक है और किसी भी प्रकार से तमघोष से कम आततायी और क्रूर नहीं है। उसके पास एक ऐसी बुरी तांत्रिक शक्ति है जिससे वह अपनी फुफकार से एक ही बार में सैकड़ों नए बहुत ही छोटे-छोटे अदृश्य राक्षस पैदा कर देता है।
वे राक्षस असल में भयानक और अति सूक्ष्म रोगाणु हैं जो साँसों के साथ मनुष्य के शरीर में प्रवेश करते हैं और उनके प्राण ले लेते हैं।
कालवित्र ने वही किया भी।
धरती पर जाकर उसने अपनी तंत्र शक्ति से धरती के अनेक भाग में ऐसे ही हजारों सूक्ष्म राक्षस उत्पन्न करना आरम्भ कर दिया।
सात्विक मनुष्यों की शक्ति कम हो गई। इससे हम सातों साधुओं के रूप में निवास कर रहे मरुत गणों को अपने सेनापति को मुक्त कराने के लिए अपनी पाताल में आने की योजना रद्द करनी पड़ी।
तब हम सातों ने अपनी शक्तियों को जल में अभिमंत्रित करके इस कमण्डल में रख लिया और तुम छह पवित्र आत्माओं को इस कार्य के लिए चुना।
इसके पहले कि कालवित्र नामक प्रचंड रोग धरती पर भयानक विनाश कर दे उसे रोकना अत्यन्त आवश्यक है, यही जानकर मेरे शेष छह साधु गण वहीं रुक गए हैं। वे सूक्ष्म राक्षसों से लड़ने की शक्ति उत्पन्न करने के लिए बहुत सारे औषधीय पौधे लगाने और जड़ी बूटियों की तैयारी के लिए वहाँ रुके हैं। इसके साथ ही वह सब कुछ गुप्त साधनाओं के द्वारा इन बुरी तांत्रिक शक्तियों को नष्ट करने के लिए कुछ अन्य गुप्त उपाय भी कर रहे हैं।
जब तक सात्विक शक्तियों की संख्या और बल बढ़कर तामसिक शक्तियों से अधिक नहीं होता...तब तक कालवित्र धरती से भाग कर जाएगा नहीं।
मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे वह छः मित्र मरुत गण अवश्य ही कालवित्र को समाप्त कर देंगे या भागने पर विवश कर देंगे, परंतु युद्ध बड़ा भयंकर होगा यह तो तय है।
धरती पर सदा ही सही और गलत का युद्ध होता आया है, होता रहेगा।
अब हम सातो को अतल तक जाकर उस असुर राज बल के मायावी राज्य में घुसना है और सेनापति तमघोष से युद्ध करके और उसके तिलस्मी कारागार को नष्ट करके अपने मित्र प्रवरह को मुक्त कराना है। इस धरती पर तभी पुनः शांति स्थापित हो सकेगी और तामसिक शक्तियाँ काफी समय के लिए दुबक जाएगी।
यह कह कर वामन गुरु कुछ क्षणों के लिए पूरी तरह से शान्त हो गए और एक झटके से अपनी आँखे ख़ोल दी।
"आपने जो बातें बताई हैं गुरूजी, उसके बाद सबकुछ साफ हो गया लगता है। कम से कम मेरे मन में तो अब कोई संदेह नहीं रह गया है। आज मैं गर्व का अनुभव कर रहा हूँ कि एक नेक काम के लिए मुझे चुना गया।"
बद्री ने प्रशंसात्मक नजरों से गुरूजी को देखा और नमस्कार किया।
" बच्चों ! तुम्हारे मन में कोई दुविधा तो नहीं है।" वामन गुरु अपने आरंभिक रूप और स्थिति में आकर अब उनके पास ही बैठ गए।
" मेरे मन में एक प्रश्न है आचार्य जी!" संजू ने धीरे से कहा।
" कहो...।"
"आपने मेरे पिताजी को एक दीपक दिया था और उनके कान में कुछ ऐसा कहा था कि वह परेशान हो गए थे। मैं भी तब से ही परेशान था, मुझे इस बारे में कुछ बताइए।"
" संजू! तुम बहुत बहादुर हो और तुम्हें बड़े होने पर भी इस देश और धरती के लिए बहुत बड़े कार्य करने हैं। मैंने तुम्हारे पिता चौधरी साहब को जब यह कहा कि हम सब लोग केवल एक कुएँ की खुदाई के लिए ही नहीं जा रहे हैं बल्कि हमें पाताल में जाकर एक भयानक असुर से युद्ध भी करना है और इसमें समय लग सकता है अतः वह चिंता न करें, तो वह तुम्हारी और सब बच्चों की चिंता को लेकर घबड़ा गए थे। मैंने उन्हें जो दीपक दिया था वह कोई सामान्य दीपक नहीं है , अलौकिक स्वर्ण 'हाटक' का बना हुआ है। जहाँ हम जा रहे हैं उसके भी हजार मील नीचे सुतल नाम के पाताल में बहने वाली हाटक नाम की स्वर्ण की नदी है। यह स्वर्ण वहीँ से निकलता है। इसे धरती पर विशेष कार्यों हेतु लाया जाता है और कार्य समाप्ति के बाद यह अदृश्य हो जाता है। इसमें सात बत्तियां हैं जो हम सातो का रूप है।"
" मैंने उनसे कहा था कि वह इसे पूजा के स्थान पर रख दें, वह स्वयं ही जल जायगा और हमारे लौटने तक हम सब को इतनी शक्ति देता रहेगा कि हम पर किसी भी अस्त्र-शस्त्र, आग, पानी और तामसिक शक्तियों का असर नहीं पड़ेगा। वह अदृश्य हो जाय तो समझना हम कार्य में सफल हो गए।
यदि किसी भी परिस्थिति में वह बुझ जाय तो समझ लेना हम जीवित नहीं हैं। वह इसी बात पर काँपने लगे थे। बाद में वह संयत हुए जब मैंने उन्हें बताया था कि इसकी संभावना केवल उतनी ही है जितनी यह कि अधर्म के द्वारा धर्म को पराजित करके उसपर विजय प्राप्त कर ली जाय। तुम सब को पता ही है कि यह कभी हो नहीं सकता है। अंततः धर्म कभी भी अधर्म से पराजित नहीं हो सकता।"
संजू अब बहुत संतुष्टि का अनुभव कर रहा था। उसने आगे बढ़कर वामन गुरु के पैर पकड़ लिए।
गुरु जी ने उसके माथे पर हाथ रखा तो वह आनंद से सराबोर हो गया।
"...और कोई प्रश्न भी हैं तुम लोगों के...?"
वामन गुरु ने बारी-बारी से सबको देखा।
राजू ने पूछा-
"आचार्य जी, आपको विश्वास है कि हम बच्चे यह कठिन कार्य कर सकेंगे?"
सबसे छोटे जीतू ने कहा-- "यही मेरे मन में भी चल रहा है।"
वामन गुरु हँस दिए।
"जिस पर ईश्वर और गुरु की कृपा हो, जो परोपकार के कार्य को करने के लिए उत्सुक हो...वह सफल होता ही है। चिंता न करो, हम अवश्य ही अपने उद्देश्य में सफल होंगे।"
नट्टू ने अपना हाथ खड़ा किया।
"हाँ नट्टू, तुम भी कुछ कह रहे थे।"
" गुरूजी ! हमारे खाने पीने का क्या होगा, मुझे तो बहुत भूख लगती है और अपने पास अब एक बार का ही भोजन और पानी बचा हुआ है।"
नट्टू ने रुआँसे होकर पूछा तो सभी हँसने लगे।
" उसकी चिंता मत करो..मेरे पास पक्का वाला समाधान है।" गुरूजी मुस्कुराए।
" मुन्ना ! बेटा, तुम्हें कुछ नहीं पूछना...?"
" मेरे सभी प्रश्नों के उत्तर तो मिल ही गए हैं आचार्य जी पर अब हमें किधर चलना और क्या करना है...यह बताइए।"
" हम इस दाहिनी तरफ जा रहे रास्ते पर चलेंगे। यही कहीं नीचे की तरफ जाने के लिए या तो ढलान होगी या सीढ़ियाँ। उससे हमे नीचे करीब एक हजार मील जाना है। तब हम अतल तक पहुंचेंगे। वहाँ की माया से तब हमें मिलकर निपटना होगा और असुर सेनापति को हराकर और उसके कैदखाने को नष्ट करना होगा और अपने सेनापति प्रवरह को छुड़ाकर वापस कुएँ तक पहुंचना होगा। वापसी का रास्ता भी सहज न होगा। एक तरफ असुरों की सेना हमारा पीछा कर सकती है, और वापस आने में यही रास्ता चढ़ाई का होगा।
यह आसान नहीं पर इतना कठिन भी नहीं है क्योंकि सात्विक शक्तियाँ सदा हम लोगों की सहायता करती रहेगीं।"
नट्टू ने अपना हाथ उठा रक्खा था।
" तुम कुछ और जानना चाहते हो प्रिय..।"
गुरूजी के चेहरे पर हल्की मुस्कान थी।
" जी गुरूजी...हजार मील जाने में तो हम बूढ़े हो जाएंगे।"
" ऐसा नहीं है मेरे प्यारे..उसका भी हल है हमारे पास, चिंता न करो। अब जैसा मैं कहता हूँ वैसा ही करो। तुम सभी एक पंक्ति में बैठ जाओ और अपनी आँखें बंद कर लो और मन में 'क्लीं ' का उच्चारण करो। मैं तुम सब को अपने बराबर शक्ति प्रदान करने जा रहा हूँ। इसके बाद तुम सब एक एक मरुत सेनापति के बराबर होंगे। तुम्हे कोई भूख और प्यास नहीं लगेगी। तुम सबमें इतनी शक्तियाँ उत्पन्न हो जाएगी, जिसकी अभी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते।"
सभी एक लाइन में बैठ गए।
सभी ने अपनी आंखें बंद कर ली।
वामन गुरु खड़े हो गए। उन्होंने अपने कमण्डल को बाएँ हाथ में लिया और उससे दाहिने हाथ की हथेली में जल ले लिया। यह अभिमंत्रित गंगा जल था। वह एक-एक के पास जाते...कुछ मन्त्र बुदबुदाते और उनके सिर पर कुछ बूँदें टपका देते। इस क्रिया को कर लेने के बाद उन्होंने अपने झोले से लाल रंग का चन्दन जैसा कोई पाउडर निकाला और सभी के माथे पर अपने अंगूठे से गोल तिलक लगा दिया।
अब वे सबके पीछे की तरफ गए और शिखा के स्थान पर भी वही रक्त चंदन छुआ दिया।
अपना कार्य समाप्त करके वह उन सबके सामने आ गए।
"बच्चा लोग! अब तुम सब अपनी अपनी आँखें खोल सकते हो।"
सबने आदेश का पालन किया।
उन सबके आँखे खोलते ही जैसे चमत्कार हुआ।
वे सभी जादुई गति से परिवर्तित होकर मजबूत डील-डौल वाले देव पुरुष के समान तेजस्वी योद्धा बन गए थे। बड़ी बड़ी लाल आँखे, तगड़ी मसल्स, लंबा ऊँचा कद,
उन सबके शरीर पर सुनहला अभेद्य कवच आ गया था।
सीने से लेकर पेट तक कम्प्यूटर के की-बोर्ड की तरह बहुत सारे गोल, चौकोर और त्रिभुजाकार रंग-बिरंगे बटन लगे हुए थे।
वे सभी अपने आपको और एक दूसरे को भी चकित निगाहों से निहार रहे थे।
अचानक ही वे सब अपने अंदर अपरिमित ताकत का अनुभव कर रहे थे।
" मुझे तो ऐसा लग रहा है गुरूजी कि मैं अभी एक मुक्का मार कर इन छतों और चट्टानों में छेद कर सकता हूँ।"
नट्टू ने चारो तरफ देखते हुए अपना बलिष्ठ हाथ दिखाया। वामन गुरु ने उसे रोका और बोले-
"अब ध्यान पूर्वक सुनो और याद भी कर लो। तुम सब अपनी इच्छानुसार अपने वेष बदल सकते हो। अपनी इच्छा के वेष का ध्यान करना होगा और साथ तीन बार 'ऐं' का उच्चारण करना होगा। फिर से तीन बार यही कहकर वापस अपना असली वेष भी प्राप्त कर सकते हो। 'चम्' का उच्चारण करके तुम अदृश्य भी हो सकते हो। अपनी दाहिने हाथ की हथेली को फैलाकर चारो उँगलियों को मिलाने और किसी भी अस्त्र या शस्त्र की इच्छा करते ही वह तुम्हारे हाथों में आ जायेगा। अब यह अपने-अपने थैले पकड़ लो। इसमें तुम्हें बहुत सी काम की अद्भुत वस्तुएँ मिलेगी। इसे अपने कंधों पर टांग लो।"
उन्होंने देखा...यह बिलकुल वैसा ही थैला था जैसा वामन गुरु के पास पहले से था।
उन छहों ने अपने-अपने थैले को अपने बाएं कंधे से ले जाकर दाहिने कमर पर लटका लिया।
" बाकी सब निर्देश थैले में रखे ताम्रपत्र में लिखे हैं, इन्हें सब लोग अच्छी तरह से रट लो। इसमें तुम्हारे सीने पर लगे बटनों के कार्य भी लिखे हुए हैं जो आगे चलकर तुम्हारे बड़े काम आने वाले हैं।
अब तुम सब देवलोक के सेनापति हो और पलक झपकते ही बड़े से बड़े देश की पूरी सशस्त्र सेना को भी समाप्त कर सकते हो। ध्यान रहे इसका कोई दुरूपयोग नहीं होने पाए।
अगले दस मिनट में हमें अपने अतल जाने वाले रास्तेे पर चल देना है।"
वह छहों मरुत सैनिक अपने थैलों से ताम्रपत्र निकाल कर पढ़ने में तल्लीन हो गए।
इधर वामन गुरु ने अपने थैले से वही दिशासूचक घड़ी जैसा यंत्र पुनः निकाल लिया था।
उस यंत्र के गहरे नीले डायल पर बाईं तरफ एक छोटी सी घड़ी और दिखाई दे रही थी।
जिस प्रकार मुख्य डायल पर एक से बारह तक अंक लिखे हुए थे, उस छोटे डायल पर एक, सौ ,दो सौ से लेकर एक हजार तक के नंबर लिखे हुए थे।
वामन गुरु ने उसे एक से खिसका कर एक हजार पर कर दिया।
उनके सभी मरुत सैनिक भी तैयार दिखाई दे रहे थे। ऐसा लगता था कि वे अपने अपने ताम्रपत्र के सभी निर्देश पढ़ चुके थे।
सबसे छोटा जीतू सबसे अधिक प्रसन्न दिखाई देता था।
वामन गुरु भी उसी की तरफ देखते हुए बोले--
" क्यों महारथी, कैसा लग रहा है?"
" बहुत अच्छा आचार्य जी, मेरे तो सारे सपने जैसे सच हो गए हैं। मुझे टीवी और कॉमिक के सारे सुपर हीरो बड़ा प्रभावित करते थे। मेरा तो सपना जैसे सच हुआ है, देखिये न...आज मुझे खुद ही बुराई से लड़ने का मौका मिल गया है।"
" हम्म! बहुत अच्छे...किसी को कोई भी संदेह हो तो अभी पूछ ले, अब हमें चलने की तैयारी करनी है।"
" परंतु गुरुदेव! एक हजार मील का रास्ता हम कितनी देर में पार करेंगे।" बद्री ने पूछा।
" क्या यह दिव्य वस्त्र और सैनिक का रूप इसमें सहायता कर सकता है? ताम्रपत्र में लिखा था, हम कमर पर लगे काली पट्टी के बटन को दबा कर उड़ भी सकते हैं और इसे घुमा कर अपनी उड़ने के गति दस हजार मील प्रति घंटा तक कर सकते हैं।"
" मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि तुमने ताम्रपत्र के निर्देश बड़े ध्यान से पढ़े हैं। थैले में रखी अन्य वस्तुओं को उपयोग में करने का तरीका भी उस ताम्रपत्र पर लिखा है। हम सब उसका उपयोग समय आने पर अवश्य ही करेंगे।
यह सही है कि हम अवश्य ही उड़ सकते हैं परंतु हम लोगो को खुले आकाश में या सीधे रास्ते पर नहीं जाना है।
मैंने दिग्दर्शक महायंत्र में अपने चलने की गति को बढाकर हजार गुना कर दिया है। अब हम अपनी सामान्य गति पर चलते हुए हजार गुना दूरी को तय कर सकते हैं।"
"इसका अर्थ है...हजार मील का यह रास्ता हम उतने ही समय में पार कर लेंगे जितनी देर में हम एक मील चल पाते हैं।" मुन्ना ने विस्मय से पूछा।
" सटीक पकड़ा तुमने मुन्ना। बिलकुल ऐसा ही है। अब तुम लोगों को किसी भी अनोखी बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि अब तुम सब अपने आप में एक-एक आश्चर्य हो।
अपनी बुद्धि, विवेक और चतुराई का उपयोग करते हुए हमें इस युद्ध को जीतना ही है। जहाँ तक हो सके, हमें साथ ही रहना है। अलग होने पर पाताल में हमारी शक्ति आधी होने लगेगी।
आओ! अब देर करने का कोई औचित्य नहीं है, चलो।"
अपना बैग और लाया हुआ सारा सामान उन लोगों ने वहीँ छोड़ दिया।
वामन गुरु सबसे आगे हो गए।
दाहिने ओर के मार्ग पर वह सब चल दिए थे।
अब उनकी गति हजार गुना थी।
सामने उन्हें नीचे जाने के लिए सीढियाँ दिखाई देने लगी थीं। उनके वस्त्रों से प्रकट तीव्र प्रकाश में मार्ग अब साफ़ दिखाई दे रहा था।
वे योद्धा एक बड़े युद्ध के लिए आगे बढे जा रहे थे।

क्रमशः