अदालत की दहलीज़ और वो मासूम वकील Bharti द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

अदालत की दहलीज़ और वो मासूम वकील

अदालत की दहलीज़ और वो मासूम वकील


मेरे प्रिय पाठकों!हो सकता है कहानी के शीर्षक से आपको ये लगे कि कोई वकील मासूम कैसे हो सकता है।ये कैसे संभव है।लेकिन हाँ!वकील भी शुरुआत में हम आप जैसे मासूम और कोमल हृदय ही होते हैं किंतु किस प्रकार अदालती माहौल औऱ व्यवस्थाएं उन्हें मासूम से मजबूत बनाती हैं,ये आप मेरी इस कहानी से अवश्य जान पाएंगे,ऐसी मेरी उम्मीद है।

आज वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद अदालत का उसका पहला दिन था।वकालती बैकग्राउंड ना होने के कारण किसी वकील के चैम्बर से जुड़ने में बड़ी मुश्किलें आ रही थीं लेकिन आज पापा ने एक वकील को ढूंढ ही लिया था और उसे अपनी बेटी को अपने अंडर में वकालत सिखाने के लिए राजी भी कर लिया था।पापा आज उसे चैम्बर तक छोड़ने आये थे।यह पहली बार था जब जिंदगी में वो घर से स्कूल और घर से कॉलेज के अलावा किसी तीसरी जगह पर आई थी।थोड़ी झिझक थी किन्तु मन आत्मविश्वास से भरा था।वो सीधी थी मासूम थी किन्तु बुद्धिमानी,बहादुरी और आत्मविश्वास से लबरेज़ थी लेकिन दुनिया की चालाकियों से वाकिफ़ नहीं थी।पापा अब उसे वकील साहब के चैम्बर में छोड़ के जा चुके थे।कुछ देर तो उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि वो वहाँ करे क्या।जिधर भी नज़र उठा के देखती काले कोट पहने वकील जिनके साथ कहीं कुछ शातिर से दिखने वाले चेहरे थे तो कहीं कुछ मासूम चेहरे भी थे,तो कहीं गिड़गिड़ाते फरियादी तो कहीं पुलिस की जंजीरों में जकड़े खूंखार अपराधी।ये सब उसके इर्द गिर्द मानो भाग सा रहा था और वो बीच मे खड़ी थी संज्ञा शून्य।एक तरफ तो तपती गर्मी के बीच पहली बार काले कोट की गर्मी ऊपर से अपने आस पास के नज़ारों से उबलता दिमाग।खैर!ओखली में सिर दे ही दिया था तो मूसल से क्या डरना था।पापा तो जैसे तैसे वकील साहब के चैम्बर में छोड़ गए लेकिन कोई भी उस मासूम चेहरे को अपने साथ अदालत में ले जाने को तैयार ना था।वो चैम्बर के एक कोने में बैठ वकील साहब और उनके अन्य जूनियर्स को आते जाते ताकती रहती कि शायद अब कोई उसे अपने साथ अदालत में साथ चलने को कहेगा और अदालत की दहलीज पार करा के चलना सिखाएगा लेकिन इंतज़ार में ताकने का ये सिलसिला सात दिन तक लगातार चलता रहा।वो रोज अदालत जाती कोने में इंतज़ार में बैठती और दिन भर भूखे प्यासे एक जगह से इस आस में चिपकी रहती की क्या पता कब वकील साहब या कोई साथी वकील उसे आवाज दे और अपने साथ अदालत की दहलीज पार करा दे। लेकिन वह रोज़ शाम को उल्टे पाँव घर लौट आती, वो भूल रही थी कि ये विद्यार्थी जीवन की वो रुई के फाहे सी गुदगुदी दुनिया नहीं थी जिससे वो अभी हाल ही में निकल के आयी थी, ये वो यथार्थ की दुनिया थी बल्कि उस यथार्थ की दुनिया के भी कड़वे सच,झुठ,फरेबी रिश्तों, काली करतूतों या एक वाक्य में कहें तो दुनिया की सारी बुराईयों के जमा होने की छंटी हुई दुनिया थी,जहाँ मासूम चेहरे और मासूमियत के लिए रत्ती भर जगह नहीं थी। लगभग सात दिन तक उसके इसी प्रकार अदालत आने जाने का यह सिलसिला चलता रहा।परिवार वाले अदालत की रोज की दिनचर्या अनुभव पूंछते तो वो बस मुस्कुरा भर रह जाती।वह मासूम वकील रोज एक आस व विश्वास के साथ अदालत के परिसर में घुसती कि आज कोई हाथ अदालत की इस दुनिया में उसे अपनी उंगली पकड़ा के चलना सिखाएगा।

खैर!सात दिन के इस सफर पर एक ब्रेक 104 डिग्री बुखार ने लगा ही दिया।काले कोट की गर्मी अपना असर दिखा चुकी थी और शायद दिमाग में छाई हुई कल्पनाओं की धुन्ध को भी साफ कर चुकी थी जब हफ्ते भर की दिन भर की उसकी उपस्थिति के बावजूद भी अगले दिन अदालत ना आने पर किसी ने उससे हाल चाल पूछना भी जरूरी न समझा।शायद इतने दिन उसकी जगह कोई जानवर वहाँ होता तो शायद उसके आने ना आने का प्रभाव अन्य वकील साथियों पर अवश्य पड़ता। खैर!कोई पूछता भी कैसे इस हफ्ते भर में कोई उससे बात करता या परिचय करता तो ही तो पूछता,उसने कई दफ़ा अन्य साथी वकीलों से परिचय करने औऱ बातचीत करने का प्रयास भी किया किन्तु साथी वकीलों द्वारा इसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई गई।वह तो पैसे वाले क्लाइंट की फ़ाइल ले के भागने में व्यस्त थे।उससे परिचय या उसके मार्गदर्शन का समय था ही किसके पास,शायद उस चैम्बर में उसका महत्व पान, सिगरेट बीड़ी से भी कम था जिन्हें फूंकने के लिए उन साथी वकीलों के पास पर्याप्त समय औऱ उससे भी बढ़कर उनकी रुचि थी।

बहरहाल 7-8 दिन बाद बुखार ने विदाई ली और कमजोरी को छोड़ गया।कमजोर शरीर हुआ था लेकिन इरादे अभी भी मजबूत थे।उन्हीं इरादों औऱ जोश के साथ वो फिर एक बार मैदान में थी लेकिन आज वो पूरे आत्मविश्वास के साथ अदालत परिसर में होते हुए चैम्बर में खड़ी थी।उसने उस कोने में घुसी हुई उस कुर्सी की तरफ देखा जो कुछ दिन पहले उसकी एकमात्र साथी थी।लेकिन आज वो उस पर बैठी नहीं।आज वो वकील साहब के सामने नज़र आती कुर्सी पर बैठी औऱ वकील साहब और अन्य साथी वकीलों से उसे अब अपने साथ ले जा के अदालत से रूबरू कराने का पुनः निवेदन किया,लेकिन आज ये उसका आखिरी प्रयास और निवेदन था।होना तो वही था जो 7-8 दिन पहले हुआ था क्योंकि बदली हुई तो आज वो थी,वो लोग तो वहीं थे जहाँ वो 7-8 दिन पहले थे।लेकिन आज वो बिल्कुल भी मायूस ना थी।उसने कुछ देर इंतज़ार किया,जब वकील साहब और अन्य साथी वकील अमीर क्लाइंट्स की बड़ी बड़ी महंगी फाइलें ले के विदा हो गए तब वह कुर्सी से खड़ी हुई और एक नज़र चैम्बर में चारों तरफ दौड़ाई।अचानक उसकी नज़र चैम्बर के गेट पर ज़मीन पर बैठे एक बूढ़े बाबा पर पड़ी।मुँह पर झुर्रियों का डेरा था औऱ धोती बंडी पर मैल का और पास में उसके सहारे के लिए एक लाठी पड़ी थी,जिसके सहारे से उसे चलने में मदद मिलती होगी।उसका झुर्रियों से भरा सांवला चेहरा औऱ मैले कुचले कपड़े उसकी ग़रीबी की दास्तां साफ बयां कर रहे थे।शायद इसीलिए उसका हाथ औऱ फ़ाइल थामने में भी चैम्बर के किसी वकील की कोई रुचि नहीं थी।

लेकिन उस मासूम लड़की को उस बूढ़े बाबा में अपना पथप्रदर्शक दिख रहा था जो आज उसे अदालत की दहलीज़ को जरूर पार कराएगा।उसने वकालत की पढ़ाई पूर्ण मनोयोग से की थी और आत्मविश्वास की भी कोई कमी नहीं थी औऱ इन सबसे ज्यादा उसे अपने ईश्वर पर पूरा भरोसा था। तो इन सब के साथ तुरंत वो उस बूढ़े बाबा के पास गई और उसका क्या मामला है कि तसल्ली से कुर्सी पर बिठा कर पूरी जानकारी ली।वकील साहब की टेबल पर बूढ़े बाबा की फ़ाइल अपनी बारी की राह तक रही थी।बूढ़े बाबा से बातचीत में यह भी पता चल गया कि वह कई महीनों से आ रहा है और उसकी हैसियत के अनुसार वकील साहब द्वारा मांगी गई फ़ीस वकील साहब को पहले ही दे चुका है, लेकिन अब उसकी फ़ाइल कोई वकील नहीं उठाता, उसका केस खराब हो रहा है और बस तारीख पर तारीख ही मिल रही है।अदालत का रीडर उसे अपना वकील साथ लाने को कहता है और जब वो वकील साहब या अन्य वकीलों से साथ चलने को कहता है तो वो उसे झिड़क के दो गाली दे के दूसरों की फ़ाइल ले के आगे बढ़ जाते हैं।यह कहते कहते बाबा का गला भर आया और उस मासूम वकील की आंखों में आंसू,यह सोच के कि वाकई न्याय के परिसर में भी गरीब अमीर में इतना भेद ।और उसकी भी हालत तो बूढ़े बाबा सी ही थी,हफ़्तों से वह भी तो उसी के समान चक्कर काट रही थी।

यह सब विचार आते ही उसके दिमाग में एक बिजली सी कौंधी और उसने तुरंत बूढ़े बाबा की फ़ाइल हाथ में उठायी और उस बाबा को अपने साथ चलने के लिए कहा।फ़ाइल को हाथ में देख और चलने की बात सुनकर उस बाबा के झुर्रियों से भरे उस चेहरे पर अचानक एक चमक आ गई,वह तुरंत पूरी ताकत लाठी के सहारे खड़ा हो गया। अब उस मासूम वकील ने बाबा को केस किस अदालत में लगा है वहाँ चलने के लिए कहा,बूढ़े बाबा की चाल में अब एक गति थी,वो तेज कदमों से अदालत की ओर बढ़ा चला जा रहा था और उस बूढ़े बाबा के सहारे वो मासूम वकील अपने लक्ष्य के करीब पहुँचने के लिए अग्रसर थी।जल्दी ही दोनों अदालत के बाहर खड़े थे,बूढ़े बाबा ने कहा यही वो अदालत है जहाँ मेरा मामला है।मासूम वकील हाथ में फ़ाइल लिए दो मिनट के लिए अदालत को बाहर से स्तब्ध हो देखती रही,अब वो समय आ गया था जब वो बहु प्रतीक्षित अदालत की उस दहलीज़ को पार करने वाली थी। एक क्षण अतिरिक्त व्यर्थ किये बिना उसने तुरंत उस बूढ़े बाबा का हाथ पकड़ पूरे आत्मविश्वास और प्रसन्नता से अदालत में प्रवेश किया।बाबा को रीडर ने जब अपना वकील साथ लाने के लिए तेज आवाज में कहा तो उसने भी पूरे उत्साह व विश्वास से उस मासूम वकील की तरफ इशारा कर कहा कि यही मेरी वकील है।तब उस मासूम वकील ने पूरी दिलचस्पी से केस की कार्यवाही की जानकारी रीडर से ले कर उस तारीख की कार्यवाही पूर्ण की,बाबा की फ़ाइल को अपडेट किया औऱ बाबा से की सुविधानुसार तारीख दिलवा के खुशी खुशी विदा कर दिया।अब बूढ़ा बाबा बहुत खुश लग रहा था,इतने दिन से रुका हुआ उसका केस एक बार फिर रफ़्तार पकड़ने की राह पर आ गया था। उसने अपने मैले कुचले कपड़ो में से 20 की नोट निकली और उस मासूम वकील को देने लगा।लेकिन जब उस मासूम वकील को बातों बातों में यह पता लगा कि ये उस बाबा के बस के किराए के पैसे है और जिनके बिना वह पैदल 10 किलोमीटर पैदल जाएगा तो उस मासूम वकील ने वह पैसे बूढ़े बाबा की मुट्ठी में वापस बंद कर दिए और घर के लिए रवाना कर दिया।जाते जाते उस गरीब बूढ़े बाबा ने खूब दुआएं और आशीर्वाद उस मासूम वकील को दिया जो उस की पहली और असली कमाई थी।

बूढ़ा बाबा अब थोड़ा दूर जा चुका था और वो वही खड़ी उसे पीछे से देख कर सोचती रही कि यही था वो मेरा सही मार्गदर्शक पथप्रदर्शक जिसका मुझे इंतज़ार था और जिसने आज इस मासूम वकील को मजबूत वकील बना कर अदालत की दहलीज पार करा दी और यहाँ चलना सिखा दिया।हे ईश्वर!तेरा लाख लाख धन्यवाद।